Tuesday, March 15, 2011
ऐ खुदा तू बता मैं क्या करूं
सचिन रमेश तेंदुलकर...यह एक ऐसा नाम है, जो आज कोई नहीं भूल सकता है। इस खिलाड़ी और समर्पण के आगे कोई दूसरा नहीं दिखाई देता है। पिछले 21 सालों से भारत की सेवा कर रहा है, हर परिस्थिति में इसने बेखौफ खेला है, टीम को जिताने की जीतोड़ कोशिश की है, लेकिन साथी खिलाड़ी इसे हमेशा धोखा दे गए। 1996 के विश्वकप में सचिन की बल्लेबाजी देखते ही बनती थी। अपनी टीम को इस जांबाज नाबाद बल्लेबाज ने सेमीफाइनल तक का सफर तय करवाया था। उस दिन उसने सेमीफाइनल भी लगभग पार करवा दिया था, लेकिन इसके आउट होने के बाद सभी ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गए। वह पुरानी पीढ़ी थी, शायद उस समय सचिन ने सोचा होगा कि मेरी तपस्या में कोई कमी थी, इसलिए यह विश्वकप हम हार गए। बात आई 1999 की, उस समय इसे निचले क्रम पर उतार दिया गया, टीम के हित के लिए इसने अपना हित नहीं देखा और वहां भी टीम को जिताने का भरसक प्रयास किया। शायद उनके मध्यक्रम में आने के चलते ही टीम इंडिया का हाल बुरा हो गया था और सचिन भी अपनी प्रतिभा के अनुरूप बल्लेबाजी नहीं कर पाए थे। इसके बाद आया 2003 का विश्वकप। सभी ने सोचा कि इस बार कुछ करिश्मा जरूर होगा। हां हो रहा था करिश्मा, लेकिन पूरे समय सचिन ही मैदान में डटे थे। अपनी मनपसंद जगह पर खेल रहे सचिन ने सर्वाधिक रन बनाए। भारत को लीग मैचों से लेकर फाइनल तक का सफर तय करवा दिया। उस दिन गेंदबाजों ने ऐसा धोखा दिया कि बस...टीम पहले ही ओवर से हार गई। उस एक मैच में सचिन का बल्ला खामोश हो गया, या कहें कि अपने गेंदबाजों ने हार की जो इबारत लिखवा दी थी, उसे बदलने में सचिन ने अपना बलिदान दे दिया और चार रनों पर ही आउट हो गए। वक्त बदला हालात बदले और फिर आया 2007 का विश्वकप। जी हां...एक बार फिर टीम को धार और मजबूती देने के लिए उनसे कुर्बानी मांगी गई। उन्हें ओपनर की बजाय मध्यक्रम में खिलाने पर मजबूर किया गया, तब भी यह बल्लेबाज तैयार हो गया और अपनी टीम के लिए वह मध्यक्रम में खेला। हालात यह हो गए कि टीम इंडिया सुपर 8 में भी दाखिला नहीं ले पाई। वक्त की करवट ने सचिन के अंदर की कसक को जिंदा रखा। उम्र उनका साथ छोड़ रही है, लेकिन उनके हौसलों में आज भी वही दम है। और इसी दम की खातिर उन्होंने यह विश्वकप खेलने का फैसला लिया। फिर क्या था, सचिन तेंदुलकर अब 2011 के विश्वकप में खेल रहे हैं। अपनी पसंद की जगह पर। कहें तो यहां पर सबसे सुनहरा मौका है, 1996 और 2003 की तरह। सचिन पहले ही मैच से रंग में दिखे हैं। और उन्होंने फिर अपने हौसले और इरादे जता दिए हैं। टीम के युवाओं का वह कमिटमेंट नहीं है, जो सचिन रमेश तेंदुलकर का दिखाई दे रहा है। पूरी पारियों में एक भी खराब शॉर्ट नहीं खेल रहे हैं। इंग्लैंड के खिलाफ उन्होंने हमें बेहतर शुरुआत दी। आंकड़ा 300 के पार पहुंच गया, लेकिन हमारे गेले गेंदबाज वह आंकड़ा भी नहीं बचा पाए और हमें टाई के दर्द को सहना पड़ा, जबकि इतने बड़े स्कोर पर जीत तय मान ली जाती है। खैर हार नहीं मिली तो हमने उस दर्द का सह लिया। एक बार फिर बड़ा मैच...साउथ अफ्रीका के साथ। वीरू के साथ मिलकर 2011 विश्वकप की सबसे धमाकेदार शुरुआत। लग रहा था कि आज अफ्रीकी गेंदबाजों का सामना शेरों से हुआ है। एक समय 400 के पार का आंकड़ा दिखाई दे रहा था। सचिन आउट क्या हुए, पूरी टीम बह गई। सिकंदर को जिस तरह मालूम नहीं था कि खुशी आकर चली जाएगी, ठीक वही टीम के साथ हुआ, इस बार फिर कोई खिलाड़ी साथ न दे सका। कप्तान से लेकर दूसरे नए खिलाड़ियों तक में कोई भी ऐसा बल्लेबाज नहीं दिखा, जिसने सचिन के अरमान को अर्श देने की कोशिश की हो। यहां तो सब ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गए। अफ्रीकी गेंदबाजों ने चुनचुन कर गोली मारी। फिर भी 296 का स्कोर बोर्ड पर टंगा था और अच्छी नहीं तो मध्यम गेंदबाजी से भी यह मैच जीता जा सकता था, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हम मैच हार गए। एक बार फिर अधूरे ख्वाब के साथ। टीम का कोई खिलाड़ी सचिन जैसा नहीं खेल रहा है। इन्हें अगर खेलते नहीं आता है तो बाहर कर देना चाहिए। क्योंकि यह सचिन ही नहीं भारत की जनता के साथ भी छल के समान है। क्योंकि इन खिलाड़ियों को सम्मान के साथ प्यार और पैसा दोनों दिया जा रहा है, फिर इनके बल्ले और गेंदों में वह धार और जज्बा क्यों नहीं दिखाई दे रहा है। और अगर नहीं खेल सकते तो सभी को सन्यास दे देना चाहिए।
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