Monday, April 25, 2011

समाज की नीतियां बनाती हैं बिगाड़ती हैं

सारा खेल नीतियों का चल रहा है, अगर नीति रीति से नहीं होगी तो फिर हर चीज असफलता की कगार पर खड़ी होकर चिढ़ाएगी और हम मुंह बाए केवल देखते रहेंगे। समाज में कई विसंगतियां पैदा हो जाएंगी जो हमारे सामाजिक जीवन के साथ आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करेंगी। यह वह पतवार रहती है, जो अगर कमजोर रही तो समझ लो हमारी जीवनलीली वहीं समाप्त हो जाएगी, उस स्थिति में हमारे पास बचने के भी कोई उपाय नहीं होते हैं। जिस तरह से समाज में असुंतलन की गेंद डप्पे ले रही है, उससे यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह किस जगह जाकर रुकेगी, और यही असमंजस की स्थिति के चलते समाज से स्थायित्व गायब हो गया है। कालमॉर्क्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संरचना पर सामाजिक संरचना टिकी है, और सामाजिक संरचना तब तक बनी रहेगी, जब तक बेहतर नीतियों का निर्धारण हो सके। समाज आज दिशाहीन हो गया है और वह अंधड़ चल रहा है। कहां कुआं है और कहां फूल...इसके बारे में उसे जरा सा भी पता नहीं है। वह तो मदमस्त कहें या फिर आवारा की तरह इधर से उधर की तरह हो गया है। पूरा बवंडर हो गया है। घूम तो रहा है, लेकिन दिशा क्या होगी, इसका उसे पता तक नहीं है। ऐसे में नीतियां कमजोर बनती हैं तो प्रशासनिक तथ्य और कार्यप्रणाली को लकवा मार जाता है। वह पूरी तरह से अपंग रहती है और पानी के गद्दे या फिर हवा के गद्दे में पड़ी होकर गिड़गिड़ाती रहती है। सामाजिक नीतियों में लाचारी, बेबसी जीवन को उस खाई में पटक देती है, जहां से वापस आना आसान नहीं होता है। यह गलत समाज के सामने हो रहा है, ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि उसमें आगे आकर अपनी आवाज बुलंद करे, अगर आवाज बुलंद नहीं करेगी तो जीवन का अगला अध्याय आगे नहीं बढ़ सकता है। इस स्थिति में समाज का रोल बहुत बढ़ जाता है, उसे सामाजिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उसे पुनरुत्थान के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। उसके सामने कई बार सरकारी मशीनरी आड़े आ जाती है, लेकिन उससे निजात पाने के लिए अगर कुछ करना है तो फिर आवाज में दम होना बहुत जरूरी है,अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर नीतियां ऐसी ही बनती जा रही हैं। सामाजिक प्रेशर अगर पड़ता है तो फिर अच्छे-अच्छे फट पड़ते हैं। इन्हें समाज के संदर्भ में कुछ नए सृजन करने होते हैं, इन्हें विकास की नई पथरीली, लेकिन न्यायपूर्ण परिभाषा लिखना होती है। आज अगर ये लोग हस्तक्षेप करते हैं तो फिर बदलाव की बयार बवंडर में तब्दील हो जाती है और अपने हक में फैसला लेकर आ जाती है। इस फैसले से समाज में सकारात्म प्रभाव पड़ता है, और तब समाज में उन्नति की वह किरण रोशनी डालने लगती है। तब समाज का बगीचा खिलने लगता है, और किरण की रोशनी से मंद मंद मुस्कराता हुआ कहता है कि हां अब हमें जिंदगी मिल गई है। शायद इससे पहले हम जी नहीं पा रहे थे। समाज का यही है ढांचा, जो अपनी बुनियाद को तलाशने में जुटा हुआ है। हां, इसके पास पैर नहीं है, लेकिन यह बौद्धिक रूप से बड़ा बलवान है और तब सारी कायापलट अकेले ही कर देता है। आज समाज को क्रांति की जरूरत नहीं है, बल्कि जागरूकता के बीज बोने की आवश्यकता है। अगर इसकी खेती को हरा-भरा नहीं किया गया तो समझ लो कई चीजों में हम पिछड़ जाएंगे। तब विकास की अविरल धारा हमसे कोसों दूर हो जाएगी। सामाजिकता को भी शर्म महसूस होने लगेगी। लगेगा कि कहीं सूरज खो गया है, समाज में काला अंधेरा काबिज हो जाएगा और हवाएं भी रुख के विपरीत बहने का इरादा जाहिर करती नजर आएंगी। इस माहौल को हमें बदलना होगा। समाज की धारा जो मैली होकर गुस्सा हो गई है और उसे राह पर लाना होगा। अगर इसमें चूक हो गई तो फिर समाज को हम कैसे जोड़ पाएंगे। अब सबकुछ जल्द करना होगा, क्योंकि न तो इंसान के पास समय है और न ही समाज के पास। हर कोई घड़ी से तेज दौड़ रहा है, और यह दौड़ कहां खत्म होगी, कोई नहीं जानता है।

Saturday, April 23, 2011

अस्तित्व के लिए संघर्ष का सिद्धांत लागू है...


जब तक कश्ती तूफानों में रहती है, हर पल उसके डूबने का संकट बना रहता है, उस वक्त जो लोग उस पर सवार रहते हैं, उनके दिलों में क्या गुजरती है, शायद इसका अंदाजा सिर्फ वो ही समझ पाते हैं। हम तो दूर से देखकर चीजों की गहराई में उतरने की कोशिश भर कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता और कल्पना के बीच में कई मीलों गहरी खाई होती है, कई बार यह खाई महीन हो जाती है तब फर्क करना भी मुश्किल रहता है। बेशक जब वह कश्ती तूफानों से बाहर निकल आती है और उन पर सवार लोगों को लगता है कि हां अब हमारी जिंदगी पर कोई खतरा नहीं है, उस स्थिति शायद उनसे ज्यादा ख्ुाशी और किसे मिलेगी। मौत के मुंह से बाहर आने के बाद जो जिंदगी मिलती है, वह बेहद अनमोल रहती है और उसकी कीमत सबसे महंगी रहती है। वही आज का समय है, जब जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष हैं। कहावत भी कुछ ऐसी ही है कि जीवन एक संघर्ष है, लेकिन आजकल तो अस्तित्व के लिए संघर्ष के सिद्धांत पर कार्य कर रही है। पल-पल भारी होता जाता है। मुश्किलों की इस घड़ी में न तो कोई साथी बचा है और न ही कोई साथ देने वाला। जीवन में न ‘अआबेबीगं’ के ही खतरे नहीं है, बल्कि और भी खतरे हैं जो हर पल धोखा देने के लिए तैनात रहते हैं। अभाव, अज्ञानता, बेकारी, बीमारी और गंदगी ही दम नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि जीवन के पग-पग पर कांटों का जाल बना हुआ है और इस पर रीते पांव ही चलना पड़ रहा है, ऐसे में जिंदगी लहूलुहान होने से नहीं बच सकती है। तो क्या पहले से ही तेयार हो जाया जाए, मगर इसमें भी कई दोष हो सकते हैं, क्योंकि इन दोषों पर न तो हमारा अधिकार रहता है और न ही इसमें ईश्वर का हाथ होता है। समाज में हुए परिवर्तन ने उसे उस घुमावदार घर में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें हमें रहना भी है और उसका हमें रास्ता भी मालूम नहीं है। आखिर कैसे चलेगी जिंदगी। यहां हर कोई शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है, बाजीगरी ऐसी कि समझ ही नहीं आती है। चक्रव्यूह से निकलने में कई चालों को लगा लिया, लेकिन हर बार कुछ नहीं होता है। रुसवाई और बेबसी की जिंदगी में इतने आंसू आ चुके हैं, कि जीवन की चकरी ही घूम गई है। न तो कोई मसीहा नजर आता है और न ही कोई रास्तों का विकल्प। बस दिखाई देता है तो भरा समुंदर या फिर सूखा रेगिस्तान। अब इन दोनों के दिखते ही जिंदगी की हवाएं जालिम हो जाती हैं और रेगिस्तान में गुबार उठता है तो समुंदर में सुनामी की लहरों हिलोरे मारती हैं। हर कोई बवाल ग्रह में बलवान बनने की सोचता है, लेकिन इन लोगों को सबक सिखाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता है। तब मौत ही आखिरी रास्ता दिखाई देती है, लेकिन वह भी आसान तो नहीं होती है, क्योंकि उसमें न जाने कितने जोखिम होते हैं, और अगर इन जोखिमों में जख्म लगा भी बैंठे तो भी जीवन का घाव भरता नहीं है। हाथों में अंगार लेकर चलना कहीं जिंदगी का दूसरा नाम तो नहीं है। कहीं पहाड़ों पर चढ़ना ही जिंदगी नहीं बन गया है। क्यों हम दूसरों की सताई और बनाई हुई दुनिया में कठपुली बनकर नाच रहे हैं, कहीं हमारा भी कोई अस्तित्व नजर नहीं आता है क्या। जो भी हो, सामाजिक परिवर्तनों से ऐसा भूचाल आया है कि अब धरती के साथ आसमान भी कांप रहा है। सूरज की रोशनी में सेंध हो गई और बादलों को बयार ने उड़ा दिया है। ग्रहों को ग्रहण लग गया है और इंसान इडियटों की तरह हकला रहा है। न जीने की राह दिखाई दे रही है और न ही अरमानों का आसमां। न जाने क्यों? हम जीवन की धारा में गोते लगा रहे हैं, हमें किनारा नहीं मिल रहा है। इन किनारों से क्यों जीवन गुम हो रहा है, क्यों जिंदगी भंवर में फंसी हुई नजर आ रही है। क्यों इस जीवन में जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है, क्यों... शायद इन सवालों के जवाब हममें से किसी के पास नहीं है। हां, हमें जिंदगी जीने का एक्सपीरियंस बहुत हो गया है, लेकिन हमारी तरह सैकड़ों लोग हैं जो जीवन जी तो रहे हैं, पर अस्तित्व के संघर्ष वाले सिद्धांत।

Wednesday, April 20, 2011

कहीं भूख दम न निकाल दे


जीवन की नैया तभी चल सकती है, जब उसमें भरपूर ताकत हो। जब तक इंसान को खाना मिलता रहेगा, वह एनर्जी के साथ जीता रहेगा, अगर जीवन से खाने को गायब कर दिया जाए तो फिर समझ लो कि उसे मौत आ जाएगी। हां यह सच है कि देर सवेर कुछ देश में ऐसे महापुरुष भी हैं, जो बिना खाए पिए सालों तक रह सके हैं,। मगर हमारे समाज में उपवास को एक बड़ा केंद्र माना गया है। हम शुरू से ही खाना बचाने की ओर लगे रहे, लेकिन हमारे प्रयास आज तक सार्थक नहीं हो सके हैं। हम देख रहे हैं कि किस तरह से देश में खाने की बर्बादी हो रही है। हमारे गरीब समाज में दो जून की रोटी के लिए न जाने कितने प्रयास करने होते हैं, लेकिन वह नसीब नहीं होती है। कई बार तो हाल यह हो जाते हैं कि रोटी नहीं मिलने पर मौत को गले लगाना पड़ता है। रोटी, कपड़ा और मकान की यह कहानी सदियों से चली आ रही है और हम हमेशा उसके लिए तरसते जा रहे हैं। देखा जाए तो समाज में दो तरह के बैलेंस हो गए हैं। पहला तो यह कि हमारा एक वर्ग ऐसा है जो सामान्य खाना खाता है, और बहुत कम बर्बादी करता है, लेकिन दूसरा वर्ग ऐसा है, जिसके पास इतना खाना है कि वह जितना खाता नहीं है, उससे ज्यादा बर्बाद करता है। वहीं तीसरा वर्ग है गरीब। जो खाने के लिए पल-पल तड़पता है। यह खाई देश को बहुत भारी पड़ रही है। एक वर्ग जो बहुत अमीर है, उसके पास इतना खाना और पैसा है कि वह देश को खरीद ले, लेकिन वह पूरी तरह से बर्बादी में जुटा हुआ है। वहीं दूसरा वर्ग बेचारा बेचारगी में जीने के लिए मजबूर है। अगर उन लोगों से खाना बचाने की बात कही जाए तो वो हंसते हैं, और उनका जवाब रहता है कि हमने कमाया है, हम हर चीज के लिए पैसा दे रहे हैं। वो लोगों का गुरुर देखकर ऐसा लगता है कि जैसे ये लोग अहसान कर रहे हैं, और इनके आगे किसी को जीवन जीने का अधिकार ही नहीं है। मगर देश का दम तो निकल ही रहा है, उसमें उसका तो कोई दोष नहीं है। जिस तरह से हम लोग खाद्यान की बर्बादी कर रहे हैं, वह हमारे देश की तरक्की को गर्त में लग जा रहा है। देखने में यह भी आया है कि कुछ गद्दार खाद्यान को दबाकर बैठ जाते हैं, जिससे पूरा मामला ही गड़बड़ा जाता है। और कहीं तो सरकार की शेखी और लापरवाही के चलते करोड़ों टन अनाज सड़ जाता है। तो कहीं न कहीं इस पूरी व्यवस्था के लिए सरकार से लेकर आम आदमी तक दोषी है, लेकिन जब उसे कठघरे में खड़ा करो तो हर कोई अपना दामन साफ बताता है। हर कोई समस्या को एक दूसरे पर ढोलने का प्रयास ही नहीं करता, बल्कि यह बताता भी है कि दोष तुम्हारा है, हम तो साफ सुथरे हैं। वाह...समस्या है कि मानती नहीं और हम हैं कि दामन को अलग ही रख रहे हैं। देश की तस्वीर कब बदलेगी, कब हालात हमारे मनमाफिक होंगे। अगर खाद्यान नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारे पास पैसे तो होंगे, लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं होगा। देश में धरती जिस तरह से कम हो रही है, वह देश के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरी करती जा रही है, मगर जो सरकार के नुमाइंदे बनते हैं, उन्हें इससे क्या मतलब। वो तो अपनी तिजौरियां भरना चाहते हैं, क्योंकि वो भी जानते हैं कि अगली बार सरकार में मौका नहीं मिलेगा, जितना लूटना हो लूट लो। लूट मची है लूट लो...और देश का बंटाढार हो रहा है। अनाज पैदा कम हो रहा है, और जो हो रहा है वह आम नागरिकों को मिल नहीं रहा है। गरीब भूख से मौत को गले लगा रहा है और सरकारें अनाज को सड़ाने में लगी हैं। क्या हालात हैं देश के, शायद सोचनी ही कहें जाएंगे। मगर इतना तो तय है कि अगर जल्द कुछ क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया गया तो फिर हमारी बर्बादी के जिम्मेदार हम स्वयं ही होंगे। तब विदेशियों से खाद्यान लेना पड़ेगा, उस स्थिति में हमारा पैसा विदेश जाएगा और हम कर्ज के बोझ तले दब जाएंगे। वाह...कहीं ऐसा भी देखा है या सुना है कि बर्बाद होने के लिए कोई और नहीं, बल्कि हम ही जिम्मेदार होंगे। खैर यह तो आई गई बात हो सकती है, पर देश को भूखा मरने से बचा लो।

Tuesday, April 19, 2011

हौसलों की सच्ची उड़ान


जब जिंदगी हमें रोकती है, बरगलाती है, और हमसे इंतजा कर कहती है कि आप अब भी सक्षम हैं, लेकिन हम उस पर यकीन नहीं करते हैं। हमें तो लगता है कि हम चुक चुके हैं, और यह हमारे वश की बात नहीं है। अब हमसे नहीं होगा, क्योंकि जिस तरह से हम जीवन को जीते आए हैं, उससे तो यह कार्य असंभव ही जान पड़ता है, लेकिन जीवन में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं होता है। यह बात भले ही काल्पनिक और बनी गढ़ी लगे, लेकिन जब उन लोगों को देखता हूं, जिन्होंने अपने हौसले से दुनिया को अपनी राय बदलने पर मजबूर कर दिया है, उसे देखकर तो आप भी जो लकीर की फकीर लेकर बैठे हैं, उसे मिटाने के लिए बेबस हो जाएंगे। कई लोग होते ही हैं इसलिए, जो इतिहास को ऐसा लिख दें कि आने वाली पीढ़ी उनसे पे्ररणा लेती रहे। जिस तरह से हम विश्वास नहीं कर पाते हैं, जब वे वह करके दिखा दे तो फिर हमें भी लगता है कि हम भी कुछ कर सकते हैं। जीवन में मैं भी समझता हूं कि हर चीज की एक उम्र होती है, लेकिन प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती है और वह जहां भी होगी, अपनी धाक जमाने के लिए खड़ी ही रहती है। हां यह हो सकता है कि लोग उसे नजरंदाज कर दें, मगर ज्यादा दिनों तक उसे नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उसके सामने ठहरना ही मुश्किल हो जाता है और अंत में लोगों को हार माननी ही पड़ती है। यह कहानी आपको भी एकदम अविश्वसनीय लगेगी, लेकिन यह पूर्णत: सत्य है। आपको रग्बी खेलना है, और उसमें हाथ से अधिक पांवों का इस्तेमाल रहता है। शायद फुटबाल में रोनाल्डो और बैकहम इतने बड़े शिखर पर क्यों खड़े हैं , उसका राज ही यही है कि उनकी मजबूत टांगे। मगर फुटबॉल का यह खिलाड़ी...नाम है बॉबी मार्टिन। इसके पैर नहीं हैं, बचपन से ही, लेकिन यह रग्बी टीम का सदस्य है और पूरे मैदान में दौड़ भी लगाता है। टीम को जीत दिलाने में इसकी बड़ी भूमिका रहती है। कई बार इसके दम पर ही जीत मिलती है। यह अपंग है, फिर भी रग्बी टीम का सदस्य है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई ऐसा कर सकता है। वह कहता है कि मेरे पांवों की शक्ति मेरी बाजुओं में आ गई है, उसकी गर्लफ्रेंड भी है, वह भी 25। उसके एक बेटा और बीवी भी है। शानदार... मैं आपको बता रहा हूं तो आपको यह पूरा वाकिया किसी कल्पना लोक की तरह लग रहा है, क्योंकि यह वहीं संभव हो सकता है, मगर यह एक हकीकत है और यह बता रही है कि दुनिया में कुछ भी संभव नहीं है। हम सबकुछ हासिल कर सकते हैं, बस माद्दा चाहिए। अगर वह नहीं है तो फिर जीवन नर्क है, क्योंकि जो सपने देखता है, वही उसे पूरा करता है। हां, मैं भी जागती आंखों से सपने देखने का शौकीन हूं और उसे पूरा करने का दम भी भरता हूं। बस अब तैयारी शुरू करनी होगी, क्योंकि यह 24 घंटे सिर्फ मेरे हैं और इसमें मैं मेरे लिए ही जिऊंगा, किसी और के लिए नहीं। बस अब सारी तैयारियां शुरू करनी होंगी। सबकुछ अपने अनुसार लाना होगा। मैं भी हौसलों को इतना ऊंचा उठा दूंगा कि वहां से आकाश छू लूं। शायद इसमें कई रोड़े आएंगे, कभी-कभी लगेगा कि यह असंभव है, लेकिन कोई बात नहीं है, क्योंकि जब तक बाधाओं का बवंडर नहीं आएगा, हम तूफानों से खेलना कहां सीखेंगे। आगे मैं जीवन में क्या होने वाला है, यह शायद मैं भी नहीं जानता हूं, मगर इतना तो पता है कि अब मैं मेरी किसमत खुद ही लिखने जा रहा हूं। शायद कुछ गलत भी हो सकता है, लेकिन जीवन में उस मोड़ पर जाकर मुझे कभी पछतावा नहीं होगा, जब मैं कहूंगा कि यार मैं वह कर लेता तो बेहतर होता। इस शब्द को कभी आने नहीं दूंगा। मेहनत करने से हर चीज मिल जाती है, ऐसे मैंने सुना ही नहीं है,बल्कि इसे सच करके दिखाऊंगा, क्योंकि अब मैंने जीवन जीना सीख लिया है, अपने सपने को पर लगा दिए हैं, और तपती धूप हो या तूफानी ठंडी। नहीं रुकूंगा, हर पल जीत के लिए ही खेलूंगा, क्योंकि यह जिंदगी मिले न मिले, अगली बार कुछ हो न हो, इस बार ही सारे सपने पूरे करना चाहता हूं और पूरा करूंगा।

Saturday, April 16, 2011

नायक है बिनायक



नायकों की परीक्षा बड़ी कठिन होती है, क्योंकि वो इसमें पार हो जाते हैं। जिसमें जितनी क्षमता होती है, उसे उससे अधिक कष्ट वाला कार्य मिलता है। आसान जिंदगी भी कोई जिंदगी है भला। बाधाओं का बवंडर जब तक जिंदगी के जख्मों पर ज्यादती करके न जाए, तब तक जिंदगी में मजा भी तो नहीं आता है। इनके जीवन में हर बार चुनौतियों की चट्टान खड़ी रहती है, लेकिन ये भी हैं कि अहिंसा की आसंदी से सरल विचारों के गोते की कल्पना करते रहते हैं। हां कई बार इनका साहस और आत्मबल अंबर को भी झुकने पर मजबूर कर देता है। ऐसे ही तो होते हैं नायक, जो पथरीले रास्तों को चुनते हैं। आवारा बादलों की तरह होते हैं और उल्टी धाराओं को चीरकर आगे बढ़ते हैं। वहीं सिकंदर कहलाते हैं। ये जीवन में खाने-पीने या धन की लालसा में नहीं जीवन नहीं गुजारते, बल्कि यह तो समंदर पर कब्जा करने की सोचते हैं। तूफानों की दिशाएं बदलने का माद्दा रखते हैं। पहाड़ से नदियां निकालने का जोश इनके पास होता है। धैर्य का वह समुंदर इनके पास होता है, जिसमें कितने भी कष्ट के तूफान आ जाएं, उन्हें ये आसानी से झेल लेते हैं। अंदर ही अंदर दफन कर देते हैं। यही है, इनका नायकत्व, और दुनिया के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करते हैं, जो इन्हें नायक कहती है। ये लोग हीरो होते हैं और कुछ विशेषताएं इनमें जन्मजात भी होती हैं, जो ईश्वर से मिली सौगात के रूप में मिलती है। कहते हैं शेर का बच्चा शेर ही होता है और सियार के बच्चे को शेर बनाने में समय ही गंवा सकते हो, क्योंकि ऐसा संभव नहीं होता है। जब दुनिया को कब्जे में करना है तो दुनिया को सिकंदर चाहिए, न कि कोई बहुरूपिया, जो डींगे तो खूब मारता हो, लेकिन उसकी बातें बिलकुल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हों। नायकों का यह बिनायक...अब दुनिया को अपनी नई दास्तांन से बदलने की कोशिश कर रहा है। वह बता रहा है कि दुनिया में विलास ही सब चीज नहीं होती, बल्कि देश प्रेम भी कुछ होता है, लेकिन जो देश प्रेम दिखाता है, उसे ही दुनियावाले पहले पत्थर मारते हैं, और जब वह लहूलुहान होकर इस दुनिया को अलविदा कह देता है तो उसे पूजते हैं। यही है हमारे समाज का परिदृश्य। जिस तरह से बिनायक सेन ने देश के सामने उदाहरण दिया है, वह काबिले तारीफ तो है ही, साथ ही उन भ्रष्ट नेताओं के मुंह पर एक तमाचा भी है, जो यह बता रहा है कि सुधर जाओ, कम से कम देश की जनता से तो गद्दारी मत करो। जिस तरह से नेतागण देश के साथ भ्रष्टाचार का अन्याय करने में जुटे हैं, वह किसी गद्दारी से कम नहीं है। हद तो यह हो गई, जब उस इंसान ने जिसने अपनी जिंदगी धूप में तपा दी, जो चाहता तो अपनी डिग्री के दम पर ऐसी रूम में बैठता और करोड़ों रुपए काटता, लेकिन उसने तूफानी रास्ता चुना। उसने एक प्रयास किया, जिसमें उन लोगों के लिए कार्य किया, जिसमें सिवाय बेबसी लाचारी के अलावा कुछ और था तो सिर्फ यह कि गोलियां। वो लोग कोई और बात नहीं सुनते थे, सरकार ने उनके खिलाफ जो भी किया, वह किसी दुश्मन से कम नहीं है। आज उसे राजद्रोह का खिताब मिल गया। 2007 से उसे जेल में बंद कर दिया, लेकिन कहते हैं कि समुंदर और सुनामी को आप अधिक देर तक बंद करके नहीं रख सकते हो, क्योंकि ये अपना रास्ता खुद ही तय कर लेते हैं। इन्हें किसी की परवाह नहीं होती, क्योंकि लोग इनकी परवाह करने आते हैं। नायकों की तरह इन्होंने हाथ में झोला लिया और निकल पड़े उन लोगों के लिए, जो बहुत ही पिछड़े थे। अपने जीवन के कई साल इन्होंने उसी गर्दा में गुजार दिए। शायद यह त्याग गांधी से कम नहीं है। हां, इनका रास्ता जरूर अलग था, लेकिन इरादे बिलकुल नेक थे। मगर इरादों की चमक किसी ने नहीं देखी और सरकार ने इन्हें अपराधी करार दे दिया। पर कब तक... जब विद्रोह की ज्वाला मुखर हुई तो फिर सभी को झुकना ही था। और सभी ने घुटने टेके। अब नए युग की इबारत लिखी जा रही है, एक नई सोच की बाली आ चुकी है, बस पकना बाकी है, जैसे ही यह पकी, निश्चय ही स्वाद बेहतर आएगा।

Thursday, April 14, 2011

संविधान है या गरीब की जोरू

देश में आजकल हर कोई अपने आपको ज्ञानी-ध्यानी मान रहा है, इसमें कोई बुरी बात नहीं है। हमारे संविधान ने हर किसी को बराबर सोचने और समझने का अधिकार दिया है, लेकिन जब हम इसका माखौल उड़ाकर उस मौलिक कर्त्तव्य की धज्जियां उड़ाने से गुरेज नहीं करते हैं, जो हमें संविधान ने हथियार के रूप में दी है, तब लगता है कि हम कहीं उस बुद्धू की तरह कार्य कर रहे हैं, जो जिस डाल पर बैठा था, उसे ही काट रहा था । बचपन में इस कहानी ने भले ही हमें ज्यादा न बताया हो, लेकिन इतना तो बता ही दिया ही दिया था कि जो हमारा सहारा होता है, कम से कम उसे तो कोई नुकसान हमारे द्वारा नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। तब से हम इस बात को पूरी ईमानदारी के साथ फॉलों करते आए हैं। मगर आज देश के जो हालात हैं, वह देखकर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी जैसी बू आ रही है, महक को पूरी तरह से खून से लाल कर दिया है, और उसमें जलने जैसे कोई गंध है। बेशक यह भोपाल त्रासदी जैसी कोई घटना नहीं है, लेकिन इतना तो सही में जान पड़ता है कि अब हम उस मुहाने पर खड़े हैं, जहां पर इस तरह की बातें बारूद के पास तिली जलाने जैसा साबित हो सकता है। क्या हम उस संविधान के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं। कोई भी ऐरा-गेरा नत्थू खेरा आता है, कुछ बातें बोलकर यह कह जाता है कि अब समय आ गया है परिवर्तन का। परिवर्तन की हवा को हमें महसूस करना होगा। हमें अपने बदलते परिवेश के अनुसार अपने संविधान में कुछ बदलाव करने होंगे। ठीक बात है। इस पक्ष के लिए शायद दबे और प्रखर स्वर में यही बात कहेगा कि हां कुछ बदलाव तो जरूरी है, क्योंकि जब इसका निर्माण हुआ था, तब का दौर कुछ अलग था। आज का दौर कुछ अलग है। बदलते दौरों में हमें इसे बदलते परिवेश के पहिए में लाना होगा। अन्यथा कुछ तकलीफें तो जरूर पैदा होंगी। इस बात में कोई दो राय नहीं है, लेकिन अब यह कि आगे क्या? आप सभी ने एक बात सुनी होगी कि बिल्ली के गले में घंटी बांधने की सलाह एक चूहे ने दे दी थी। सारे चूहों ने मिलकर उसमें हामी भरी। सभी ने निश्चय कर लिया कि यदि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए तो फिर हमें डर नहीं रहेगा, जैसे ही वह आएगी हम लोग समझ जाएंगे और फिर या तो भाग लेंगे या फिर छुप जाएंगे। उन्होंने हल तो खोज लिया था, लेकिन उनके सामने भी वही समस्या अपना विकराल मुंह लेकर खड़ी हो गई। वह समस्या थी कि आखिर कौन उसके गले में घंटी बांधने का साहस भरा कार्य करेगा। सभी चूहे एक दूसरे की ओर देखने लगे। तब कोई यह जोखिमपूर्ण कार्य करने के लिए राजी नहीं हुआ। बस यही स्थिति है देश में, जहां बातें और ज्ञान झाड़ने वाले तो सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में मिल जाएंगे, लेकिन संविधान में बदलाव को अंजाम कौन देगा। और फिर 121 करोड़ की आबादी वाले देश में, जहां बात-बात पर विवाद हो जाते हैं, मामला गंभीर न हो, फिर भी तलवारें खिंच जाती हैं, आगजनी हो जाती है। शोर-शराबा और तोड़फोड़ हो जाती है...वहां कौन नए संविधान को मानेगा। भई इतने लोगों को कैसे संतुष्ट किया जा सकता है। निश्चय जो बनाएगा उसे भीमराव आंबेडकर का दर्जा नहीं मिल पाएगा। उल्टा होगा यह कि वह खलनायक की भूमिका में आ जाएगा। इसलिए देश में हीरो बनने की चाह रखने वाले खलनायक की भूमिका कौन करेगा। कौन अपने आपको जोखिम में डालेगा। आप सोचिए फिर जनलोकपाल जैसे सिर्फ एक बिल के खाका को तैयार होने में 42 साल लग गए, समझ लो एक जिंदगी के तरुणाई साल पूरे निकल गए, वहीं उतने बड़े संविधान में लगने में तो सदियां भी लग सकती हैं। और इसमें जो लोग गठित किए जाएंगे, वे सदियां तो जी नहीं पाएंगे। इसलिए युग भी लग सकते हैं। सचमुच बाबा साहब कितने जीनियस थे, जिन्होंने डेढ़ साल में ही इतने बड़े संविधान की रचना कर डाली। अब तो ऐसा असंभव है।

Saturday, April 9, 2011

सिर्फ खुशी का उल्लास हो

जब खुशी की उस बगिया में मुहब्बत का गुल खिलता है तो पूरा गुलशन उस खुशबू से महकता भी है और हंसी से चहकता भी है। हर तरफ गलियां गुलजार हो जाती हैं, तब लगता है कि कहीं तो खुशी का मौसम आया है, और उस मौसम में हम और आप दोनों ही मिल जाएंगे। फिर एक नया अगाज होगा, एक नया विश्वास होगा। जीवन की नई डगर को हम जी लेंगे, हम एक नए अवतार को अपने दिल में उतार लेंगे। हां, कुछ पैमाने जरूर होते हैं, इस जहां में, लेकिन इन्हें तो हम ही बनाते हैं और उन्हें तोड़ते भी हैं। गुजर जाते हैं कई पल, जब उनसे दूरियां हमारी होती हैं, हम उनके आसपास अंधेरों की खाक छानते रहते हैं, कई बार लगता है कि बस आगे कोई डगर नहीं है, लेकिन उस एक पल का ही इंतजार रहता है, बस उस पल को हमें जीना होता है। इस भ्रम के मायाजाल को जैसे ही हम तोड़ते हैं, सब कुछ हमारे अनुसार ही हो जाता है, तब लगता है कि परिवर्तन की जो बयार हमने जी है, उसमें हमें एक और सीधी रेखा दिखाई दी है। हम लोगोें से कई बार कुछ कहते हैं, पर वो अनसूना कर देते हैं, क्योंकि उन्हें भी तो हमारी ललकार नहीं पता होती है। वो चढ़ते सूरज को सलाम ठोंकते हैं और उतरते सूरज को ना-नुकूर करते हैं, उसे हमेशा तन्हाई ही मिलती है, क्योंकि वहां पर खुशी या उल्लास का कोई भी ऐसा तिनका नहीं होता है, जिस पर पर एक नया आदर्श प्रस्तुत कर सकें। इस स्केल का निर्धारण हमें ही करना है, क्योंकि कोई दूसरा यहां से आता-जाता नहीं है, तब दुनिया को बदलने की एक नई सड़क हम सभी के पास रहेगी। बस जीवन को अपरिहार्य मत होने दो, क्योंकि यहां तुम चूके तो फिर आगे कोई मौका नहीं मिलने वाली है। सड़कों की बनावट तो सीधी है, लेकिन वह समतल नहीं है, उस पर कई उतार भी हैं और चढ़ाव भी। बीच-बीच में कई बड़े गड्ढे भी हैं, और इन पर चलने का साहस जुटाना होगा, क्योंकि यहां अपने आप गाड़ी नहीं चलती। खैर जो हुआ, उसे किसमत के माथे पर छोड़ा नहीं जा सकता है, क्योंकि शिखर की ताजगी हमेशा महसूस होती है, लेकिन जब वहां से पतन का मार्ग दिखाई देता है, तो दिल टूट जाता है।

Tuesday, April 5, 2011

रेड सिग्नल है राडिया


बड़े-बड़े जब गेम करते हैं , तो वह खेल लंबा ही रहता है, यहां साधारण लोगों का कोई काम नहीं होता है, बल्कि यहां सब वीआईपी रहते हैं। जिनकी कॉलर सफेद दिखती है, लेकिन काली होती है। रेड राडिया और टाइट टाटा में कुछ ऐसा ही हुआ। सभी को लड़कियां देने वाली राडिया बड़ी मालकिन है,और उसके हाथ में बड़ा से बड़ा औद्योगिक घराना है। इन्होंने फोन पर ही सारी सेटिंग करवाकर देश के साथ धोखा किया है। इसने वो कृत्य कर डाले जो एक आम महिला के वश की बात नहीं है। हां, यह पत्रकारों की लॉबी से लेकर बड़े-बड़े नेताओं तक को अपने अंडर में रख रही थी। कहते हैं कि जब महिला अपनी वाली पर आ जाती है तो उससे बड़ा कोई नहीं रहता है। वैसे भी सब पर भारी एक नारी। यहां नारी की महिमा के माध्यम से राडिया का गुणगान करने की कोई मंशा नहीं है, लेकिन उसने जो चक्रव्यूह रच रखा था, वह काफी सशक्त था। हर कोई उसमें कहीं सिर से फंसा था तो कोई पांव से। हां कुछ लोग दूर थे, लेकिन उसके आभामंडल से वो हिल भी नहीं पा रहे थे। मजबूत इरादों वाली राडिया ने रेड कर दिया था, इससे टाटा जैसे टाइट हो गए थे। हालांकि चीजें अपने अनुसार नहीं बदलती है, उन्हें बदलना पड़ता है, और जब तक प्रयास नहीं करेंगे तब तक तो पत्ता भी नहीं हिलता है, हां बस यहां हवा का दम दिखाई देता है, जो कभी तो महसूस भी नहीं होती है, और कभी तो प्रचंड रूप लेकर पहाड़ों तक को उड़ा देती है। मसला यही है कि दाल में नमक के बराबर चीजें अच्छी दिखाई देती हैं, इसके आगे अगर कुछ होता है तो वह नमक दाल को बर्बाद कर देता है और फिर उस खाने को फेंकना पड़ता है, यह बात अलग है कि भूख से बड़ा स्वाद न हो तो हम फिर वह भी खा जाते हैं, क्योंकि जीने के लिए स्वाद काम नहीं आता, बल्कि पेट भरना जरूरी होता है। किसी फिल्म में था कि जब तक जीवन का मोह रखोगे लोग डराएंगे, और जिस दिन मोह तोड़ दोगे, दुनिया तुम्हारी उस्तादी के पैमाने मानेगी। ठीक यही हो रहा था मुंबई-दिल्ली की इन ख्वाबों वाली नगरियों में। यहां बड़े-बड़े दिग्गज दागदार हैं। दुर्दशा दुर्दांत हो गई है, लेकिन इनका दिमाग हर चीज को मात दे देता है, ये गोरे चिट्ठे दिखते हैं, खूबसूरत कपड़े पहनते हैं, खुशबू शानदार आती है, लेकिन दिमाग में सड़ा हुआ सामान रहता है, भ्रष्टाचार के ये परवाने हर किसी को जलाने के लिए तैयार रहते हैें। उन लोगों का भी सौदा करने से नहीं चूकते हैं, जो इनके यार थे। यहां तक की अपनों की कब्र खोदने में भी इन्हें किसी तरह का कोई परहेज नहीं होता है। अंदर से बाहर और बाहर से अंदर तक बहुत चीजें बदल जाती हैं, लेकिन इन बदलावों को हम कई और तरीकों से भी जी सकते हैं। उन्हें नया मुकाम दे सकते हैं, लेकिन यहां तो कोई और नहीं हमारे दिलों में ही साजिश का तूफान पल रहा है, कोई इसे हवा दे दे तो यह आग के शोलों की तरह भड़क जाएगा और देश को नया आम और खास दिला जाएगा। हम यहां बैठे किन-किन चीजों में अपना वक्त निकालते हैं, वहां लोगों के पास वक्त ही नहीं होता है। इस सोच में हम कई बार अपने घंटों बर्बाद कर देते हैं, लेकिन सवाल यह है कि आखिर राडिया ने क्या गुल खिलाए और खिलाए कि सभी मोहित हो गए। मोहन मंत्र में फंसे लोगों को अपने ओहदों की भी शर्म नहीं है, बस ये लोग उसके मायाजाल में अटक गए और आ गए वहीं, जहां से जुर्म का नाम शुरू होता है। खैर यह कोई नई बात नहीं है...क्योंकि जिंदगी अपने आप नहीं जी जाती है, इसके लिए कुछ और करना पड़ता है, सवालों को नए जवाब की तलाश कभी-कभी खुद भी करनी होती है। तब कई बार बाधाएं पहाड़ों से ऊंची हो जाती हैं, लेकिन उन पर पार पाना भी आना चाहिए। नहीं तो फिर ये मुश्किलों का जखीरा खड़ा हो जाता है, और उससे निपटना आसान नहीं होता है। इसलिए राडिया को रेड समझो आसान नहीं है वह...उधर रेड सिग्नल है, और उसमें से निकलना हमेशा जोखिम भरा ही रहता है।

Monday, April 4, 2011

सफलता सारे पाप धो देती है...


जब असफलता के काले बादल मंडराते हैं तो अपनों का भी साथ छूट जाता है। जो हमारे प्रिय रहते हैं, जो सबसे नजदीक रहते हैें, वे ही दूरियां रचाते दिखते हैं। न कोई भगवान साथ देता है और न ही किसमत हम पर मेहरबान होती है। हर तरफ कांटों का मैदान होता है और हमें उसे नंगे पांव ही पार करना होता है, फिर चाहे रास्ते में हमारे पांव कितने ही लहूलुहान क्यों न हो जाए। इससे किसी को कोई मतलब नहीं होता है। जिंदगी की यह बेरुखी इसी तरह चलती रहती है। मौसम की यह बेवफाई हालातों के साथ अदला-बदली करती रहती है। जब जीवन में तूफान आता है, तो सदा मधुर आवाज देने वाला पपीहा भी कहीं छुप जाता है, और सनसनाती आवाजें आती हैं, जो हमें डराती हैं। यह क्रम लगातार जारी रहता है। खैर...यह हमारा अपना बनाया हुआ रेखाचित्र होता है, जो हमारे कृत्यों से बुनियाद पाता है। लेकिन हम देखते हैं, कभी-कभी भाग्य का खेल भी बहुत बड़ा हो जाता है, और हम भले ही कितने बलवान क्यों न हो, लेकिन भाग्य से लड़ नहीं सकते हैं। हमेशा से कहा जाता है कि कर्म बड़ा होता है, बिलकुल वह होता है, लेकिन उसमें अगर भाग्य का धोखा शामिल हो जाए तो सफलता का प्रतिशत कुछ कम हो जाता है, हां मिलेगी जरूर यह तय रहता है। मगर आधुनिक परिदृश्य में हमने पाया है कि इस तरह से जो भी चलता है, उसके जीवन में बाधाओं के ब्रेकर जरूर आते हैं, और उन्हें कितनी भी सावधानी से पार करो, लचक तो जरूर आती है। इसलिए यह हमारे आत्मबल पर निर्भर करता है कि हम उसे कितना आसान बनाते हैं। खैर यह चीजें उतनी आधुनिक नहीं है, जो लिबाज पहने दिखाई देती है, हां मगर इतना तो तय है कि लोग चढ़ते सूरज को सलाम ठोंकना पसंद करते हैं और डूबते को लात मार देते हैं। यही सत्य है और यही सार्वभौमिक नियम है। हम आदित्य काल से यही देखते हैं कि सफलता हर पाप को धो देती है, कभी-कभी लोग आपके विपरीत कार्य करते हैं, आप जो सोचते हैं, वह हो नहीं पाता है, और असफलता का ग्रह आपको ग्रहण कर लेता है, फिर क्या...चीजें यूं ही सपाट होती जाती हैं। लेकिन आपका तुरुप का इक्का भी फेल हो जाता है, तो आवाजें उठने लगती हैं, आपको गलत साबित करने के लिए हर वो कार्य किया जाता है, जिसमें चाटुकारिता से लेकर विद्रोह का विध्वंसक रूप भी शामिल होता है। मगर सफलता की एक किरण लंबे अंधेरे को कहीं फुर्र कर देती है। वह उसे यूं भगा देती है, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। सफलता और असफलता के इस पैमाने को हम अपने ऊपर कभी लागू नहीं कर सकते हैं, और न ही चीजें हमारी मर्जी से प्रबलता की ओर जाती हैं, यह तो सिर्फ भाग्यचक्र में कर्मचक्र का खेल हो जाता है, उसमें तप कर कुंदन बनने की यह गाथा होती है, मगर तब हम मुश्किल हालातों से गुजरते हैं और फिर एक नए मुकाम को व्यवसाय के रूप में अपना लिया जाता है। हम यहां देखते हैं कि व्यक्तित्व कितना भी पराक्रमी हो, लेकिन व्यवस्थित जब तक नहीं होगा, तब तक हम अपने वर्चस्व को यूं ही हटा नहीं पाएंगे। इसलिए व्यवस्थाओं और हालातों का बहाना हम नहीं बना सकते हैं, क्योंकि तब इनके आगे भी कुछ समुंदर की लहरें हमारा पीछा करते चली आती हैं। जब तक हम इनमें गोते लगाकर तैरना नहीं सीखेंगे यह हमें डराती-धमकाती रहेंगी। अब तक जो हुआ सो हुआ, अब मौका है कुछ अलग करने का, कुछ नया करने का। यहां कई चीजें हमारे अनुुरूप नहीं हो पाती हैं और हम उनके तराजु पर खरे नहीं होते हैं, इसके बावजूद हम लहरों से लड़ने का जज्बा रखेंगे तो ही इस वैतरणी से पार हो पाएंगे, वरना यह शांत दिखाई देने वाली सरिता कब हमारी कब्रगाह बन जाएगी, इसका अंदाजा खुद हम भी नहीं लगा पाएंगे। इसलिए फौरन तैयार हो जाओ, अपने अनुसार सभी चीजों को ढाल लो, क्योंकि ऐसा करने में अगर तुम सफल हो गए, तो फिर कोई डर नहीं, कोई मुश्किल नहीं। अब आसमान और धरती तुम्हारी है, जो चाहे वो करो, जितनी मर्जी हो उछलो-कूदो और अपने अनुसार जियो जिंदगी।