Wednesday, December 29, 2010

जब हमसफर ‘हरामी’ हो जाए

कहते एक महिला के जीवन में कई बार परिवर्तन आते हैं, और वो परिवर्तन उसकी जिंदगी को संवार भी देते हैं और बिगाड़ भी। ये कैसे बदलाव हैं, इन पर गौर करें तो इन बदलावों में पुरुष अधिक प्रभावित नहीं होता है और न ही उसके जीवन में ऐसी कोई फांस आती है, वह जीवनभर जिस नदी में तैरता रहता है, उसे वहीं अपना जीवन निकालना होता है। मगर स्त्री के साथ ऐसा नहीं है, वह एक नदी, नहीं कई नदियों में जीवन बसर करती है, ऐेसे में कभी-कभी उस नदी के साथ उसके लिए वरदान बन जाते हैं तो कभी-कभी श्राप। कहते हैं जीवन स्वयं नहीं बिगड़ता है, बल्कि दूसरे लोग बिगाड़ देते हैं, जिन पर हम भरोसा करते हैं, वही जब भरोसे का कत्ल करते हैं, तो आसंू नहीं आते, बल्कि आदमी अंदर से ही टूट जाता है। फिर वह दोबारा खड़ा नहीं हो पाता है, उसकी जिंदगी की सारी उम्मीदें टूट जाती हैं और हौसलों की उड़ान हमेशा के लिए समाप्त हो जाती है। जब हम नदी में पत्थर मारते हैं तो वह थोड़ी उछलती है, लेकिन इसके बाद वह शांत हो जाती है, बस यही कहानी है समाज में स्त्री की। उसके जीवन में पहला मोड़ वह आता है जब वह अपने घर में रहती है, अगर माता-पिता सही हैं, तो वहां उसकी जिंदगी सुंदरम कहलाती है, इसके बाद सबसे बड़ा जो मोड़ है, शादी के बाद आता है। यहां अगर हमसफर शानदार रहे तो जीवन सुंदरम हो जाता है, लेकिन जब हमसफर हरामी हो जाए तो समझ लो पल-पल मौत से दो चार होना पड़ता है। आज के समाज में हालांकि स्त्री को उन्नति मिली है, लेकिन यह उन्नति का हिस्सा बहुत कम है, अब भी कई प्रतिशत महिलाएं अपनी पतियों के ठाठ को अपने मांग का सिंदुर सजा कर चल रही हैं। वह उनसे बात करने में कांपती हैं, वह उनसे कुछ कहने से डरती है। अपने पतियों की इच्छा वो अपनी तकलीफों को सहकर पूरी करती हैं। कभी-कभी दर्द से तड़पती रहती हैं, इसके बावजूद वो पति को कोई कष्ट नहीं होने देती हैं। इसके बावजूद वह निकम्मा पति शराब का शौकीन हुआ तो जीवन की गत और बुरी हो जाती है। क्योंकि शराब उस बुराई का नाम हैै जो आदमी को जिंदा लीलती है और इतने धीरे की खुद उसे पता नहीं पड़ता। हां वह जानता है कि उसे क्या करना है, लेकिन मजबूरी रहती है उसकी। क्योंकि उसके मोहपाश में वह उलझा रहता है, और इससे छुटकारा उसे नहीं मिलता है। यह मोड़ महिला को जीवन भर की टीस देता रहता है, यहीं से उसकी और उसके उम्मीदों का दामन टूटता है। आडंबर भी हौसलों से बढ़कर होता है, इन हौसलों को यह शराब लील जाती है। उस महिला का दमन होता है, उस दमन का दर्द उसके सीने को छलनी करता रहता है। इसलिए इन्हें बचाना बहुत जरूरी होता है। अब सवाल उठता है कि महिला सशक्त कैसे बने, क्योंकि हमसफर हरामी है, तो यहां पर मां-बाप की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, अगर वो बिलकुल ध्यान से और चुनकर अपनी बेटी की जिंदगी उसे सौंपे जो वास्तव में इंसान हो। जीवन से प्यार करता हो, धुएं में जिंदगी को उड़ाता न हो। वह उससे भी प्यार करे, जो उसे बहुमूल्य चीज दी जा रही है, अब निर्णय आप पर है, क्या आप अपनी बेटी की जिंदगी को जन्नत में देना चाहते हो, या फिर उसे जहन्नुम बनाना चाहते हो। आपकी एक गलती उसके जीवन को बर्बाद कर देती है।

Monday, December 27, 2010

मौत की ‘गुजारिश’


गुजारिश देखने से पहले तक मैं आत्महत्या या इच्छामृत्यु को बहुत ही बकवास या कहें कि कमजोर लोगों का हथियार समझता था। शायद आज भी समझता हूं, लेकिन अब थोड़ा सा फर्क आ गया है। इस महीन अंतर को कैसे दूर करें, यह तो साफ है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या मौत की गुजारिश सार्थक चीज है या फिर यह भी पाप की श्रेणी में ही आता है। जिस तरह फिल्म ‘क्योंकि’ में हमने देखा सलमान की तकलीफ जेकी से सहन नहीं होती है, इसलिए वह उसे मार देता है। इस सब्जेक्ट पर कई फिल्में बनी हैं। हाल में बनी ‘गुजारिश’ ने मौत की इस गुजारिश पर एक नई बहस छेड़ दी है। क्या तकलीफ में रह रहे लोगों को इच्छामृत्यु दे देनी चाहिए, या फिर यह कत्ल की श्रेणी में आता है। यह कानून तो अभी तक तय नहीं कर पाया है, और न ही कोई डॉक्टर अपने मरीज के साथ भी ऐसा करने की हिम्मत रखता है। मगर इसका सॉल्यूशन क्या? हमारे धर्मों की बात की जाए तो यहां पर लिखा है कि जो भी तकलीफ में हो, उसकी मदद की जानी चाहिए। मदद की सीमारेखा भी है क्या? अगर कोई मरीज इतनी तकलीफ में है कि उससे जीवन जीते ही नहीं बन रहा है तो फिर क्या उसे यूथेनेशिया दे देना चाहिए। कानून इसकी आज्ञा नहीं देता है। अब उन लोगों को क्या ऐसे ही तकलीफ में डाल दिया जाए, जो एक बार मरने की बजाय पल-पल मरते हैं। उन्हें यूं ही तड़पने के लिए छोड़ दिया जाए। मानवता तो यह करने नहीं देती, लेकिन मानवता की बात की जाए तो वह इसकी इजाजत भी नहीं देती है कि उसे मौत दी जाए। तो फिर इस समस्या का हल क्या? फिल्म गुजारिश में बहुत ही बेहतर तरीके से इस बहस को छेड़ा गया है, जिसमें सफल नायक बाद में इच्छामृत्यु मांगता है, लेकिन कानून उसकी मदद नहीं करता। हालांकि नायिका ने यह साहस भरा कार्य जरूर यिका है, अपने ही सुहाग को उजाड़ा उसने, लेकिन उसे इसका मलाल नहीं रहता है, क्योंकि वह उसके चौदह साल की तड़प को मिटाती है। उसे मुक्ति देती है। यह भी तो नेक काम है। सवाल जीने मरने का नहीं है, इच्छामृत्यु को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि बीमारी या हादसे पर किसी का वश नहीं होता है। जब डॉक्टर भी लाचार हो जाते हैं तो मरीज के पास सिवाय तड़पने और कराहने के और कुछ नहीं बचता। उस समय उसके जीवन में सिफ अंधेरा ही अंधेरा रहता है। उसे न तो कोई रोशनी दे सकता है, और न ही कोई चमत्कार जैसी चीज होती है। जीवन उसका बच भी जाए तो वह किसी काम का नहीं होता है, क्योंकि वह पूरी तरह से अपंग या नाकाबिल हो चुका होता है। ऐसे में अगर इस दर्द को कम करने के लिए वह इच्छा जताए तो उसकी इस मंशा या गुजारिश पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। सालों तड़पने की बजाय वह सिर्फ कुछ घंटे ही तड़पे और फिर उसे इस मोहजाल और मृत्युजाल से छुटकारा मिल जाए। उस मरीज के लिए भी कितना सुखद छण रहेगा, क्योंकि उसे जीवनमुक्ति मिल जाएगी। इस चक्रव्यूह का हल अभी निकलता नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन समाज के सामने यह नई बहस पर हर कोई मंथन कर रहा है और आखिर निर्णय क्या हो ? इस बहस में शामिल हो गए हैं। निश्चय ही इस पर बहस होनी चाहिए, और इसके परिणाम तक भी आना जरूरी है, क्योंकि किसी के कष्टों का निवारण होगा तो एक तरह से यह समाजसेवा ही तो हुई, लेकिन इस ‘गुजारिश’ को अभी कई पेंच हैं।

Sunday, December 26, 2010

उमा की ललकार


उमा के कितने रंग...शायद कोई नहीं जानता। खुद बीजेपी भी नहीं। बार-बार बीजेपी को उमा के नए नए चमत्कार देखने को मिल रहे हैं, इन चमत्कारों से लोग परेशान हैं। उमा की इस ललकार का उनके पास कोई जवाब भी नहीं है...इस सन्यासिन से पूरी बीजेपी पस्त हो गई है। पस्त इसलिए क्योंकि, ये कब कोैन सी चाल चल देते हैं, और कब धोखा दे जाती हैं, कोई नहीं जानता। जिस तरह से बौखलाकर या कहें कि बागी बनकर उन्होंने बीजेपी का साथ छोड़ा था और ताव शाव में उन्होंने एक नई पार्टी की बुनियाद भी रख दी थी, लेकिन वो सभी बीती बातें हो गई थीं। बीजेपी को ताज भी उमा ने ही दिलवाया था । हां, यह अलग बात है कि उस समय दिग्विजय के विरोध में कोई भी खड़ा होता तो जीत जाता, लेकिन बदलाव की बयार ने पलटी ली, और उमा-बीजेपी का साथ छूट गया। मनाने का दौर भी चला, लेकिन गुस्सैल सन्यासिन नहीं बदली। आडवाणी से लेकर अटल तक ने उन्हें मनाने की कोशिश की, लेकिन उन्होेेंने नहीं मानी। फिर उमा ने बीजेपी से माफी मांगने की पेशकश की, उन्होंने कहा कि मैं वापस बीजेपी में आना चाहती हूं। बड़े नेताओं ने कहा कि उमा वापस आ सकती हैं, और उन्हें आना चाहिए, लेकिन कुछ कारणों से नहीं आई। पिछले एक साल से कवायद हो रही है कि उमा बीजेपी में आने वाली हैं। इससे बीजेपी के कई सिकंदरों के कान खड़े हो गए थे। कानाफूसी का दौर चला, किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ। लेकिन एक बार फिर उन्होंने नागपुर में ऐसा बयान दे डाला, जिसने यह बता दिया कि मुंह पर काबू नहीं है उमा का। यह सन्यासिन अब परिपक्व मानी जाती है, लेकिन वह किसी से नहीं डरती और अपनी बात बड़ी निष्पक्षता के साथ कही भी। दुनिया बदल रही है और महिलाओं को संबल भी मिला है, और इन सबमें बीजेपी अभी तक उबर नहीं पाई। वह अभी भी गर्त में पड़ी हुई है और उसे सामने से समुंदर की तूफानी लहरें आती नजर आ रही हैं, सवाल का रेतीला तूफान उसे बार-बार छलनी कर जाता है, ऐसे में उमा का हथियार बीजेपी को नई चेतना दे सकता है। इस सन्यासिन की पूजा काम आएगी। यह बीजेपी ने कई बार सोचा, लेकिन हालात फिर परिवर्तन हो गए हैं। एक बार फिर बीजेपी में सुगबुगाहट का दौर चल रहा है, गुफाओं से रोशनी चीर कर आ रही है। और एक पत्थर पर टिमटिमा रही है, वह पत्थर भी कभी कोहिनूर बन जाएगा, न भी बना तो एक चमक का मकसद जरूर छोड़ जाएगा। सनसनाती हवाएं जब आसमां से उतरती हैं, तो ठंड की परी आती है, धीरे से बदन में कंपकंपी दे जाती है। बीजेपी का भी यही हाल है, वह एक अहसास को लेकर जी रही है और हो हल्ला में बढ़ावा देने को मजबूर है। देखा जाए तो जिस तरह से बीजेपी और उमा का चेप्टर अभी तक नहीं थम रहा है, बुनियाद में ही त्रिकोड़ आ गया है, इस त्रिकोड़ में क्या उमा अपना रंग भर पाएंगी, क्योंकि जिस तरह से बयान देकर वो बुलंदी पर हैं, वह उन्हें तो मजबूत कर रहा है, लेकिन मतभेद की खाई में कई उबाल आ रहे हैं। और इस उबाल को कौन रोकेगा, जाने...? जिस तरह से उमा और बीजेपी में चक्रव्यूह की उलझन बढ़ी है, आज अगर दोनों का गठजोड़ होता है तो निश्चय ही पार्टी में दो धड़ भी हो सकते हैं, हो सकता है कि वर्चस्व की लड़ाई हावी हो जाए...और आखिर कब तक लड़ाई में लड़ाके भिड़े रहेंगे, या तो अब उमा आएंगी या फिर बीजेपी अपने उसी रौब पर रहेगी, लेकिन जो इसके रंग में परिवर्तन आया है। वह विरोधियों के लिए काफी राहत की बात है, पार्टी अब क्या रणनीति अपनाएगी, या फिर उसी रुतबे के साथ आएगी, यह तय तो जनता करेगी, लेकिन उमा के बवालों के बुलबुले अभी और उठेंगे।

Thursday, December 23, 2010

आसमान में सचिन सितारा भी है


सवाल बड़ा अजीब है कि क्रिकेट की दुनिया में महान कौन सा बल्लेबाज है...यहां महान की तलाश नहीं करनी चाहिए, बल्कि सर्वश्रेष्ठ की तलाश करनी चाहिए। सर्वश्रेष्ठ हो सकते हैं, लेकिन टीम में महान कैसे? इस बहस को यहीं रोकते हुए हम तलाश करते हैं सर्वश्रेष्ठ की, वह भी क्रिकेट में। चलो मान लें अर्थात् क्रिकेट में कौन बेहतर है, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, सर डॉन ब्रेडमैन, ब्रायन लारा, रिकी पॉटिंग या फिर कोई और। जब से क्रिकेट शुरू हुआ है, यह बहस तब से शुरू है। क्रिकेट में कौन कितना दिग्गज है, कौन कितने पानी में और किसने कितने मौकों पर श्रेष्ठता दी है, यह आंकलन करना बहुत मुश्किल है। जिस तरह से टीम इंडिया का सरताज, सचिन तेंदुलकर आज क्रिकेट का सितारा बनकर चमक रहा है। यह वह कोहिनूर है, जो अपनी रोशनी से क्रिकेट के मैदान को जगमगा रहा है। तो क्या कह दिया जाए कि सचिन रमेश तेंदुलकर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज हैं। सौरव गांगुली अपने ही खेल के लिए जाने जाते थे, उनकी आक्रामक शैली उन्हें उनके फैंस में लोकप्रिय बना रखी थी। उनके चहेते सचिन से ज्यादा थे। वह बालकनी से शर्ट उतारकर लहराना, उस पल को शायद ही कोई भारतवासी भूल पाएगा। हां शर्ट तो धोनी ने भी उतारी थी, जब उन्होंने विश्वकप जीता था, लेकिन उनमें वह बात नहीं थी। वह इतने खास नहीं लगे, जितने दादा लगे थे। बात आगे बढ़ाते हैं, तो क्या रिकी पॉटिंग जो आॅस्टेÑलिया टीम की धार हैं और उन्होंने टीम को तीन दो क्रिकेट वर्ल्डकप जितवाएं हैं। उन्हें श्रेष्ठ करार देना चाहिए। वैसे कई लोग सचिन से उनकी तुलना करने का जोखिम जरूर उठा लेते हैं, लेकिन उन्हें एक ही जवाब दे दिया जाता है, जिससे सुनकर वो लोग चुप हो जाते हैं। सचिन को रिकी से आगे रखा जाता है। इसके बाद बात आती है ब्रायन लारा का। यह लारा का...अदम्य कद का है। यह कद कितना बड़ा है, जिसे देखकर हर कोई एक बार अपने कद पर नजर भी डालता है। तो फिर कौन है महान...स्वॉरी सर्वश्रेष्ठ। आखिर किसे दिया जाए यह ताज। इस ताज में कांटे भी हैं और कई बुराइयां भी। क्योंकि इसमें आरोप भी मढ़े जाएंगे, वह आरोप रहेंगे कि ये श्रेष्ठ नहीं हैं, इसके बावजूद ताज पहनने की उम्मीद जरूर होगी। अब भारतीय के संदर्भ में बात कि जाए तो हमारे दिल तो मां की तरह होते हैं, बेटे में सैकड़ों कमियां होने के बावजूद दुनिया में सबसे अच्छा लगता है। हमारे खिलाड़ी कितने ही मौकों पर हमें निराश क्यों न कर दें, लेकिन जब बात पक्ष लेने की आएगी तो फिर ये लोग किसी की सुनने वाले नहीं हैं। अपने क्रिकेटरों को ही आगे बढ़ाएंगे। वो तो सचिन, सौरभ और राहुल को ही दुनिया के पहला बल्लेबाज करार देंगे। न कोई सर, न कोई रिकी...यहां तो हिंदुस्तानियों की ही चलती है और अगर एसमएस के जरिए यह पता लगाया जाए कि दुनिया का कौन सा बल्लेबाज महान है, तो निश्चय ही हम एसएमएस में भी जीत जाएंगे। अब यह तो अति प्यार और अति पागलपन भी हो सकता है, लेकिन हम तो सचिन को ही शिखर पर कहेंगे। हां दुनिया में यह बहस जरूर रहती है, जिसमें सचिन को ब्रेडमैन के पीछे रखने की साजिश अंग्रेजों की है, लेकिन देखा जाए तो सचिन से बेहतर मैन भी नहीं थे। सचिन का खेल देख लें, क्रिकेट की हर कला में वह पारांगत है, फिर चाहे टेस्ट हो या वनडे। ट्वेंटी-20 में भी हमने उनके जलवे देखे हैं, कोई उनके नकार नहीं सकता है। कोई यह नहीं कह सकता है कि हमारे सितारे में कम चमक है। सचिन तो आसमान का तारा है, अब उसकी चमक से जग जगमगा रहा है।

Wednesday, December 22, 2010

बयानों से तूफान नहीं आएगा


यह बात हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी कर रहे हैं। एक बार फिर बयानों को की आंच से चाय को उबाल रहे हैं, सोच रहे हैं कि इसमें बिना दूध डाले इसे सफेद कर लिया जाएगा, लेकिन यह सिर्फ कोरी कल्पना है, क्योंकि जब तक चाय में दूध नहीं डालेंगे वह काली ही रहेगी। आरोप का आडंबर कितना ही खड़ा कर लो, जब जनता का दरबार सजता है, तो वह सच्चाई उजागर कर ही देता है। यहां नितिन भले ही कितनी ही निर्लज्जता साबित कर दें, कांग्रेस को चोर कह दें या खूनी। जनता तो उनके बयानों को हवा ही मानेगी। क्योंकि बीजेपी सिवाय आरोप लगाने के और कुछ भी नहीं कर रही है। अगर भ्रष्टाचार पर कांग्रेस को वह घेर रही है तो इसके पीछे कौन दोषी है, यह पूरी जांच की जाए। सवाल यह उठता है कि अगर टूजी में कांग्रेस सरकार फंसी है तो आग के छींटे एनडीए सरकार तक भी गए हैं और जब तेजाब के छींटे जाते हैं तो यह सिर्फ छींटाकशी तक ही सीमित नहीं रहते हैं, बल्कि जहां भी गिरते हैं, वहीं से मांस लेकर बाहर आ जाते हैं। बयानों की बाढ़ एक बार फिर लाई जा रही है और इस कल्पना की बाढ़ में बीजेपी कांग्रेस को डुबोना चाह रहेगी, लेकिन होगा बिलकुल उलट, जब बाढ़ आएगी तो वह यह नहीं देखेगी कि सामने कांग्रेस है या फिर भाजपा। दोनों इसमें बह जाएंगे, या फिर वही बचेगा जिसका किला मजबूत होगा। अभी की स्थिति में देखा जाए तो कांग्रेस का किला बहुत ही मजबूत दिखाई दे रहा है, बीजेपी तो सिकंदरों से परेशान है, यहां पर हर कोई हॉफ राबिनहुड और तीस मार खान बनने की जुगत में भिड़ा हुआ है। आखिर कब तक इस डंडे से रेलगाड़ी को हांकने की कोशिश की जाएगी। आडवाणी भी उबल रहे हैं, आखिर करते क्या? बेचारे बुजुर्ग नेता का ख्वाब पूरा होता नजर नहीं आ रहा है, सोचा था प्रधानमंत्री बन जाएंगे, लेकिन जिस तरह से पार्टी को हार की हताशा मिली है, वह उससे अभी तक उबर ही नहीं पाए हैं, हां आज कुछ बयान देखकर उन्होंने जताया है कि मुझे कम मत आंकों, मेरे अंदर अभी भी आग है, मैं अभी भी बूढ़ा नहीं हुआ हूं। जो कुछ कहना था उन्होंने भी ऊलजलूल कहा, लेकिन अंत में फैसला तो जनता जर्नादन के हाथ में ही है। और आज की जनता काफी जागरूक हो गई है, वह किसी भी कीमत में हरल्लों और मुंह के तीखों को नहीं रखेगी, हां उसे मीठों से भी नफरत है, लेकिन इतनी भी नहीं। खैर जो हो रहा है वह किसी हादसे से कम नहीं है, क्योंकि पूरी तरह से विपक्ष अपने कर्त्तव्यों से विमुख हो गया है, वह सिर्फ सत्तासीन होना चाहता है और इसके लिए वह सत्तादल को बदनाम करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। कौन इस खेल में हारेगा और कौन जीतेगा, इसमें तो अभी फैसला आना बाकी है, लेकिन बीजेपी जिस तरह से यह कारनामे करने में जुटी है, वह अपवाद साबित हो सकता है, क्योंकि आज का युवा सिर्फ विकास की राह पर चलना जानता है, उसी की बातें सुनता है, जो इससे हटकर बातें करता है, वह लोगों को नहीं भाता है। बहुत हो गया भ्रष्टाचार, महंगाई या अन्य मुद्दे, अब सब बोर हो गए हैं, कुछ नया चाहिए। ये दिल मांगे मोर...लेकिन गोलमोल कुछ नहीं चलेगा, गोलमाल से तो लोग सिर्फ हंसते हैं, अब तो उन्हें तथ्यपरख चीज चाहिए, और अगर ऐसा देने में बीजेपी असमर्थ साबित होती है तो निश्चय ही उसके हाल पुन: वही हो जाएंगे। जिस तरह से आम आदमी अपनी समस्याओं फंसा हुआ है, वो नेताओं के नाम से ही चिढ़ने लगता है, और इनके गंभीर भाषण उसे सोचने पर मजबूर नहीं करते, बल्कि उसे हंसी दिलाते हैं। वह साथियों के साथ खूब ठहाके लगाता है। क्योंकि आजकल तो बयान सिर्फ ठहाके लेने के लिए ही बचे हैं।

Sunday, December 19, 2010

धर्म, अपराध और सेक्स


आज हम इन तीन शब्दों पर बात करने वाले हैं, यह तीन शब्द हैं धर्म, अपराध और एस। इन तीनों में जीवन का सार छिपा है, अगर देखा जाए तो जीवन का प्रयाग भी यही है और अंत भी यही। सार भी यही है और तत्व भी। हम जाने अनजाने कितने ही बेगाने क्यों न हो जाएं, जीवन से कितना ही क्यों न कट जाए, हम इन तीनों में से एक के आसपास जरूर रहते हैं, फिर चाहे वो धर्म हो या अपराध या फिर एस। आप सोच रहे होंगे कि हम तीनों शब्दों को एक लड़ी में पिरोने की कोशिश क्यों कर रहे हैं, सवाल बेहतर है, क्योंकि हमें फितूर ही ऐसा चढ़ा है। भला तीनों में अंतर जमीन आसमान जैसा है। यहां आसपास इनके कोई भी एलिमेंट एक-दूसरे कहीं मेच नहीं हो रहे हैं। जी हां आपने सही सोचा, लेकिन जीवन एक चक्र है और सदा घूमता रहता है, यह इन तीन के इर्द-गिर्द ही नजर आएगा। मैं कई महात्माओं से मिला, कई अपराधियों से मिला और कई सेक्स वर्करों से भी। तीनों में मुझे कोई अंतर नहीं मिला। तीनों अपने-अपने काम में सुखी हैं। और पूरी शिद्दत से उसे करने में जुटे हुए हैं। क्या है यह...जीवन क्या चार पहियों की जगह इन तीनों पर आकर अटक गया है, यह भी बड़ा सवाल है, सवाल यह भी है कि क्या सागर से भी गहरे जीवन की गहराई इन तीन शब्दों से बढ़कर नहीं है। क्या आसमान से भी अधिक ऊंचाई है इनकी। अब तक आप सोच रहे होंगे कि मैं सिर्फ इनके बारे में कहकर बहलाने की कोशिश में जुटा हुआ हूं। तो यहां मैं साफ करना चाहता हूं कि हम बहुत ही गंभीर और संवेदनशील मुद्दे पर विचार और मंथन कर रहे हैं। क्योंकि जीवन का यही सार है, जिसका दायरा इन तीन शब्दों में आकर सिमटता है। सिमटन कई और भी हो सकती हैं, लेकिन इन्हें इन तीन शब्दों ने अपने दामन में ऐसा बांध रखा है कि कोई भी इसके विपरीत जा भी नहीं सकता। तीनों की प्रवृत्ति बिलकुल अलग है, जो धर्म से नाता रखता है, उसे जीवन संसार से कोई लेना- देना नहीं होता है। उसका सबसे पहले पल्ला छूटता है तो वह अपराध और सेक्स से। धर्म को पूरी तरह तभी पाया जा सकता है, जब इन दोनों का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया जाए। बिना त्याग इसके शील का भांपा नहीं जा सकता है। वहीं जो अपराध में राज कायम करता है, उसमें अपना धैर्य लगाता है, वह धर्म को सर्वप्रथम त्याग देता है, उसके दिलोंदिमाग में धर्म जैसी कोई भी छोटी सी चीज भी नहीं होती है। इसके आगे और चलते हैं, वह यह कि सेक्स, अपराध का साथी हो सकता है, लेकिन जो पूर्ण धर्म को मानते हैं, वह इनसे बहुत दूर चले जाते हैं। या कहें कि इनके संगम की कोई धारा कहीं भी नहीं मिलती है, ये समानांतर चलते जाते हैं। आडंबर का तिरपाल यहां नहीं चल पाता है, क्योंकि वह इनके आगे टूट-फूट जाता है। बारिश की हवा में इसमें कई छेद हो जाते हैं और पानी टिप-टिप बूंदों के प्रखर स्वर से नीचे आने लगता है। अपराध सेक्स और धर्म की यह नई व्याख्या जीवन को नया अवतार देती है, अब यह प्राणी पर निर्भर करता है कि वह किस क्षेत्र में है और उसका उद्देश्य क्या। हालांकि तीनों में पहचान और ख्याति का फर्क काफी पड़ता है और कुछ में तो जीवन भी बर्बाद हो जाता है। धर्म की गाथा बहुत बड़ी है, और अपराध की दुनिया बहुत ही लुभावनी और क्षणिक होती है। सेक्स की दुनिया इन दोनों से बहुत अलग है, जो जीवन में एक नया आक्रोश भी पैदा करती है और एक सुकून भी देती है। बदलते दौर में इन्हीं तीन स्वीकृतियों पर जीवन का पहिया रगड़ रहा है।