Friday, July 23, 2010

कौन वैश्या और कौन संत



यहां तो बाजार है, और यहां तरह-तरह के लोग रहते हैं। तो यहां भगवान धर्मात्मा भी लोगों को दिखाई दे जाते हैं, तो पापी भी पुण्य की वैतरणी को गंदा करने की जुगाड़ में जुटे रहते हैं। तो किसे मान लिया जाए कि कौन यहां संत है और किस पर सारा दोष मढ़ दिया जाए। यहां समाज का परिदृश्य किसी से छिपा नहीं है, क्योंकि बात जब होती है कि आखिर समाज की गंदगी है कौन, समाज को बिगाड़ किसने रखा है, किन कारणों से बॉलीवुड, राजनीति या अन्य किसी बिजनेस कंपनी में तरक्की के रास्ते तय किए जाते हैं। प्रथम दृष्टया तो यह कहा जाता है कि इन्होंने सीढ़ी का इस्तेमाल किया और इस इस्तेमाल में कहीं न कहीं वैश्या बनना पड़ा है। हां, यह जरूर हैं कि कुछ इस धंधे को सरेआम सबके सामने करती हैं तो वो वैश्याएं कहलाती हैं और जो इन्हें छिपकर करती हैं, वो इज्जतदार जिंदगी जीती हैं, चलों यह तो उन महिलाओं के लिए हो गया, जिन्हें इस तरह के कृत्य में उतरना पड़ता है, हां कई बार उनकी मजबूरी हो सकती है, और कई बार विलास जिंदगी के लिए वो ऐसा करती हैं, और कुछ की भूख इतनी ज्यादा रहती है कि वो इस तरह के धंधे को करती हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि यहां पर पग-पग में वैश्याएं हैं, अगर इसके समर्थन में लोग आते हैं तो यह भी कहा जाएगा कि यहां कोई संत नहीं है। हर कोई उस स्त्री का हनन कर उसे वैश्या बनाने पर तुला है, बस फर्क यह है कि कोई पैसों से उसे चादर में छिपा लेता है और कोई पैसा देकर उसे बदनाम कर देता है। वक्त बड़ा बदमाश और धोखेबाज होता है, यह जिंदगी के साथ कब बेवफाई कर दे, कोई नहीं जानता। यहां किसे वैश्या माना जाए, उसे जो सरेआम अपना जिस्म इसलिए बेचती है, क्योंकि उसे पैसा चाहिए। यहां नजरिए का फर्क है, क्योंकि वह इसे वैश्यावृत्ति नहीं, बल्कि वह उसे उसका कार्य मानती है और उसकी वकालत करते हुए कहती है कि आखिर किस तरह वह अपना कार्य बड़ी शिद्दत से करती है। उसके अनुसार कोई कार्य बुरा नहीं है, भले ही वह अपना जिस्म बेच रही है, लेकिन छुपा तो नहीं रही, साथ ही यह उन लोगों की भी मदद है जो कहीं न कहीं अतृप्त आत्माएं हैं... हालांकि समाज इसे बुरा कहता है, मगर ये बुरी नहीं हैं...वहीं छिपी हुई वैश्याएं...जो अपनी तरक्की की सीढ़ियां चढ़ जाती हैं...पर यहां तो कई बार उन्हें मजबूर किया जाता है और कई बार वो स्वयं ही बिछ जाती हैं। तो क्या इन्हें वैश्याएं कहेंगे। यह बड़ा सवाल है, सवाल यह भी है कि ये वैश्याएं कैसे हुई, क्योंकि इसके लिए तो वो दुर्दांत लोग जिम्मेदार हैं, जो इन्हें वैश्याएं बनाते हैं, उनके हस्तक्षेप के बिना ये वैश्याएं तो नहीं हो सकती, और न ही कोई जन्म से वैश्या पैदा होता है, इन्हें यह समाज ही वैश्या बना देता है, वह पुरुष इन्हें वैश्या करार करवाता है, क्योंकि इसके लिए वह ही जिम्मेदार है, जब तक वह इन्वॉल्व नहीं होता, महिला वैश्या कैसे बन सकती है। तो फिर यह समाज इन महिलाओें को ही वैश्या क्यों कहता है, या फिर उन पर ही लांछन क्यों लगाता है। आखिर उस पुरुष को कठघरे के घेरे में क्यों नहीं लिया जाता है, जो इसके लिए मूल रूप से जिम्मेदार होता है। इन तीनों मेें देखा गया है कि पुरुषा साफ रूप से संत बनकर निकल जाता है, जबकि रोग उसने ही किया है, और उस स्थिति तक पहुंचाने के लिए जिम्मेदार भी वही है, दरअसल यह पूरा खेल पुरुषवादी समाज के चलते हो रहा है, जहां महिलाओं पर अत्याचार किया जाता है, अपना दोष तक उन पर मढ़ दिया जाता है और बाद में उन्हें दोषी करार कर उन्हें सजा भी दे दी जाती है। और महिलाओं को उन्हें मानना भी पड़ता है....तो प्रश्न आपके लिए है आप ही निश्चय कीजिए कि कौन वैश्याएं हैं, कौन संत है, और इन सबका कारण किसे दिया जाना चाहिए।

Thursday, July 22, 2010

इनका बस चले तो भारत का नाम ही मराठी कर दें


शिवसेना की उग्रता दिन- ब-दिन लोगों की जिंदगी में खलल तो डाल ही रही है, साथ ही देश के ऊपर एक तानाशाह शासन करने की कोशिश कर रही है। पहले बाला साहेब ठाकरे, इसके बाद राज ठाकरे जिस तरह से सरेआम गुंडागदी कर रहे हैं, निश्चय ही उसने देश की व्यवस्था के ऊपर कालिख पोत कर रख दी है। ये नेता, कम गुंडे बनकर देश के नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं, और सत्तासीन धृतराष्ट्र की भूमिका में नजर आ रहे हैं। आखिर वो कौन सी ताकतें हैं जो राज के कद को इतना बड़ा बना दे रही हैं कि हाइकमान सोनिया और प्रधानमंत्री साहब कोई कदम नहीं उठा रहे हैं। जिस तरह से मुंबई में इन लोगों ने आतंक मचा रखा है, वह किसी से भी छिपा नहीं है। वहां जब मर्जी होती है शिवसेना के गुंडे आते हैं, लोगों की पिटाई करते हैं और मनमानी वसूली करते हैं। साथ ही साथ अपने फैसले दूसरों पर थोप देते हैं। कुछ दिनों में माहौल देखकर तो ऐसा लग रहा है कि इनकी मर्जी के बाद ही दूसरों के घरों की औरतें कपड़े पहनेंगी। राज ठाकरे बेदह गुंडा तत्व है और उन्हें, कार्यकर्ताओं सहित रोकने की जरूरत है, क्योंकि जिस तरह से उन्होंने मुंबई की वॉट लगा रखी है और मराठी हित के नाम पर राजनीति के दांव-पेंच चल रहे हैं, वह न तो मराठियों से छिपा है और न ही देश की जनता से। जब देश के संविधान ने जाविाद और क्षेत्रवाद का कोई विकल्प नहीं बनाया तो वो आग लगाकर घी क्यों डाल रहा है। विडंबना तो अब होगी, जब बैंकों को निर्देश दिए जाएंगे कि सभी बैंके अपने नाम मराठी में लिखें, चूंकि शिवसेना का मामला है और अगर ऐसा नहीं करते हैं तो निश्चय ही बैंक में तोड़-फोड़ होगी, इसलिए प्राइवेट बैंकें तो फटाफट अपने नामों के होर्डिंग मराठी में करने का मन बना रहे होंगे। मगर यह क्या? क्या इस देश की कल्पना हम कर रहे हैं, क्या ऐसे देश मेें हमें जीना भा रहा है, जहां कुछ लोग अपने हितों को साध रहें हैं। वक्त हाथ से सरपट निकला जा रहा, और शिवसेना का आतंक भी। ऐसे में अगर इसे यहीं नहीं रोका गया तो आने वाले दिनों में सर्प अजगर बन जाएगा और तब डसेगा नहीं, सीधे ही लील जाएगा। आखिर तानाशाही का अंत होना चाहिए और जब तक पुलिस के लोग उनके पिद्दे बने रहेंगे, नेता अपनी कुर्सी पकड़े रहेंगे तब तक ऐसा नहीं हो सकता है। जरूरत है सख्त कदम उठाने की, शिवसेना को सबक सिखाने की, वरना यह संगठन देश के लिए वह काला अध्याय लेकर आएगा, जिसकी अभी तक कल्पना भी नहीं की होगी। ये लोग इतने उग्र हो गए हैं कि हर चीज को मराठी बनाना चाहता है। आज भाषा पर वार किया, लोगों पर वार किया, स्वतंत्रता पर वार किया, फिर भी इनके दुशासन को रोका नहीं गया, अब भी अगर हम मौन साधे बैठे रहे तो कल यह भारत का नाम बदलकर मराठी रखने में भी नहीं हिचकिचाएंगे...और तब भी कोई कुछ नहीं कर पाएगा। इसलिए जल्द से जल्द इस बेबसी और लाचारी की चादर को बाहर फेंकना होगा, क्योंकि मराठावाद देश की संप्रभुता के लिए एक खतरा दिखाई दे रहा है। खासकर शिवसेना द्वारा जिस तरह से भोले-भाले मराठियों को बहकाकर उनका इस्तेमाल कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने की कोशिश की जा रही है, वह सब जानते हैं। ऐसे में मराठी लोगों को भी विरोध करना होगा, क्योंकि अपराधियों का साथ देना कर्त्तव्य नहीं है, और यह नियम के विरुद्ध भी है, इस पर विशेष गौर करना होगा। उन्हें अपना एक दिग्दर्शन स्वयं इस्तेमाल करना होगा, क्योंकि ऐसा नहीं हुआ तो निश्चय ही मराठी पूरे देश के लिए नासूर बन जाएगा, तब कुछ नहीं किया जा सकेगा।

Wednesday, July 21, 2010

मुरली की तान पर विकेट दौड़े चले आते हैं...



हमने अभी तक सुना था कान्हा की बांसुरी इतनी सुरीली थी कि गाएं दूध देना शुरू कर देती थीं, गोपियां नृत्य करने लगती थीं। कहीं दूर कोई हो तो वह मुरली सुनकर दौड़े चले आते थे। कुछ ऐसा ही श्रीलंका के गेंदबाज मुथैया मुरलीधरण के साथ भी दिखाई देता है। क्रिकेट का ब्लैक जादूगर के पास वह करिश्माईकलाईहै, जिसने पूरे विश्व के नाक में दम कर रखा है। पिछले दस-बारह साल में इसके कद को कोई भी छू नहीं पाया है। साधारण सा चेहरा, हमेशा मुस्कान रहने वाला जब यह खिलाड़ी मैदान पर उतरता है तो यह और खूंखार हो जाता है। गेंदों तो इसके इशारे पर नाचती हैं, और जब मुरली की तान बजती है तो समझ लो विकेट दौड़े चले आते हैं, जब यह दहाड़ता है तो फिर श्रीलंकाई शेरों के आगे कोई टिक नहीं सकता है। सालों से यह जादू देखने के लिए क्रिकेट प्रेमी तरसते हैं, विरोधी टीम वाले भी इस बाजीगर के कायल हैं। क्रिकेट के लिए हमेशा 101 प्रतिशत देने की तत्परता ही इस मुरली को दूसरों से अलग करती है, कई बार उनकी कलाई पर कम बुद्धि वालों ने सवाल खड़े किए, मगर सच तो आईने की तरह होता है और उसे झुठलाया नहीं जा सकता है, ठीक वही हुआ और मुरली बेदाग होकर निकले, और खूंखार बनते चले। एशिया से लेकिन अफ्रीका हो या फिर आॅस्ट्रेलिया, इनकी टक्कर का कोई खिलाड़ी नहीं है। अगर स्पिन की जादूगरी और बुलंदी को नापें तो दो खिलाड़ी ही विश्व में आते हैं, पहले मुरलीधरन और दूसरे शेनवॉर्न। अगर यहां यह कहा जाए कि जिस तरह बैटिंग में भगवान सरडॉन बै्रडमैन थे, उसी तरह बॉलिंग का कोई सर डॉन ब्रैडमैन है तो वह मुरली ही है। इनके खेल में वो जादू है कि लोगों को दीवाना बना दे, हर कोई इनकी तारीफ करता नहीं थकता। आॅफ द फील्ड भी इस खिलाड़ी का कोई जोर नहीं है, लेकिन यह इस शहंशाह ने अब टेस्ट क्रिकेट से अलविदा कहने का निर्णय लिया है। हालांकि गाले टेस्ट उसका आखिरी टेस्ट है, लेकिन आज भी धोनी जिस गेंद पर आउट हुए हैं, वह अद्भुत गेंद थी। इनकी तरकश के तीर देखकर कई बार तो स्वयं मुरली भी अचंभित हो जाते हैं, वाह क्या गेंदबाज है, लेकिन अब यह हमें ज्यादा देखने को नहीं मिलेगा, यह श्रीलंका ही नहीं पूरे विश्व के लिए एक दु:खद समाचार है। श्रीलंका टीम तो सूनी हो जाएगी, क्योंकि इनकी जगह भरना काफी मुश्किल है। इस बुलंद बादशाह के उफान और विदेशी टीमों को नाकों चने चबवा देने वाला यह गेंदबाज का शौर्य अतुल है, उसका कोई सानी भी नहीें है, बस दिल में मलाल यही रहेगा कि अगली बार श्रीलंका टीम खेलेगी तो उसमें मुरली नहीं होंगे, तब शायद दूसरी टीमें राहत की सांस लें, लेकिन जिन्हें मुरली भातें हैं वह तो दु:खी ही होंगे। बस इस बादशाह के सन्यास पर ऐसी विदाई देनी चाहिए, कि जाने का दु:ख न हो?

Monday, July 19, 2010

उनका क्या कसूर था...


ेउनकी शादी अभी-अभी हुुई थी और वो मां के दर्शन के बाद जीवन की शुरुआत करना चाहते थे, इसलिए वो उस टेÑन में सवार थे। एक भाई बॉर्डर से बहुत दिनों बाद छुट्टी मिलने पर अपने घर अपनी मां-बाप और बीवी से मिलने जा रहा था। एक युवा जो अपने जीवन के 25 बसंत पढ़ाई करते-करते बिता देने के बाद वह अपने सपनों को पूरा करने के लिए नौकरी करने जा रहा था। एक भाई अपनी बहन से मिलने जा रहा था। लेकिन इन सबका मिलन अधूरा रह गया, क्योंकि जिस जिंदगी में खुशियों के लिए ये लोग जा रहे थे, वहां से इन्हें मौत मिली। और इस मौत के बाद इनके साथ जुड़े कई लोगों को गम का साया जिंदगीभर के लिए मिल गया। जी हां... ये वो लोग हैं जो कर्मभूम में बैठे हुए थे और नींद ले रहे थे, लेकिन उन्हें क्या पता था कि बीती रात जब वो नींद के आगोश में जाएंगे तो वहां से वापस ही नहीं लौटेंगे। हुआ ही कुछ इतना दर्दनाक, टेÑन हादसे ने उनकी जिंदगियां तबाह कर दी। अब इसे तो इत्तेफाक कह सकते हैं क्योंकि हादसों पर तो किसी का जोर नहीं चलता, लेकिन बार-बार लगातार हो रहे हादसों के लिए कोई न कोई तो जिम्मेदार होगा ही। कहीं न कहीं पटरियों की लचर व्यवस्था, भ्रष्टाचार, कार्य प्रणाली और जिंदगियों को महत्व न देना। अगर देखा जाए तो ममता बेनर्जी ने बजट के समय में उम्मीदें तो खूब जगाई थीं, ममता भी खूब लुटाई थी, लेकिन वे सब धरी की धरी रह गई, उनकी ममता मुसीबत बन गई, उन्होंने राहत की रेवड़ी तो बांट दी, लेकिन सुरक्षा के मामले में जरा 17 ही साबित हुई, नतीजा यह हुआ कि जब से ममता ने कार्यभार संभाला है, टेÑनों की दुर्घटनाएं बहुत बढ़ गई हैं, और हर बार जांच के नाम पर जिम्मेदारों को छोड़ दिया जाता है। इतने टेÑन हादसे हुए, इतने लोगों की जानें गई और इतनी जांचें बैठी, लेकिन उन जांचों में से कौन सी पूरी हुई, इसके बारे में शायद हम भी नहीं जानते हैं, तो गलती किसकी है, क्या उस व्यक्ति की जो उसमें सवारी करके अपनों तक पहुंच रहा है या फिर उनकी जो उनका इंतजार कर रहे हैं। पहली नजर में देखा जाए तो यही दिखाई पड़ रहा है, लेकिन जितनी आसान स्थिति हम समझ रहे हैं, वैसा है नहीं, क्योंकि यहां पर पूरा रेल प्रशासन जिम्मेदार है, चपरासी से लेकर मदरासी तक, उन्हें क्या फर्क पड़ता है, दूसरों के घरों में मातम मनने पर कोई दु:ख नहीं होता, दर्द तो तब होता है, जब वह अपने घर में हो। रेलवे जिस तरह से लचर व्यवस्था से चल रहा है, वह निश्चय ही चिंता का विषय होना चाहिए। मगर मैडम ममता को तो राजनीति के जोड़-तोड़ से ही फुर्सत नहीं मिलती है तो वो इस पर क्या ध्यान देंगी। जब कभी भी कोई हादसा होता है तो वो दौरा कर राहत बांट देती हैं और मामले की जांच होगी, दोषियों को छोड़ा नहीं जाएगा, जैसी बातें कहकर मामले को ठंडे बस्ते मेें डाल देती हैं। कभी भी रिजल्ट सामने नहीं आया और मौतों का सिलसिला लगातार जारी है, इसके लिए कहीं न कहीं लापरवाही भरा रवैया ही है, जो जिंदगी को कुछ नहीं समझता है। आखिर इन मौतों की कीमत ममता को इस्तीफा देकर चुकानी होगी, क्योंकि यहां 50 से अधिक मौतें हो गई हैं और न जाने कितने घायल तो ऐसे में स्थिति स्पष्ट है कि उनसे कार्य संभल नहीं रहा है, वो दस जनपथ के चक्कर लगाने में ही बिजी हैं, ऐसे लोगों को जिम्मेदार पदों से फौरन हटा देना चाहिए, क्योंकि यहां पर किसी की मौत और किसी की जिंदगी का सवाल रहता है...और अगर संभला नहीं गया तो इस तरह के हादसे होते रहेेंगे और उन्हें दुर्भाग्यवश करार देकर टेÑनें मौत बनकर पटरी पर दौड़ती रहेंगी।

Sunday, July 18, 2010

आंखें भर आईं



वह मासूम सा चेहरा, जिसमें ईश्वर की पाकीजगी थी, वह जो सदा खिलखिलाता था। चिड़ियों के पंख लगाकर सदा आसमान की ओर उड़ना चाहता था। हर किसी को खुशी बांटती चलती थी वह। वह ओस की बूंद की तरह थी, लेकिन उसका हौसला आसमान की तरह विराट था। सृजन उसका कार्य था, चेहरा देखते ही लोग गमों को भुला देते थे, लोग उसके कायल थे। हर कोई उससे प्यार करता था, बेटी जो थी वह। जमाने की करवट न तो 20 वीं सदी की थी और न ही 21वीं सदी की। यह युग था 25वीं सदी का। यहां उसका सम्मान किया जा रहा था। न तो उसे गर्भ में मारने की कोशिश की गई और न ही स्कूल जाने से रोका गया। बचपन में उसके कंधों पर दूसरे भाई को खिलाने का बोझ भी डाला नहीं गया। वह उसकी मर्जी से उन्मुक्त गगन की सैर कर सकती थी, भाई की तरह खेल सकती थी, न उसे मां का डर था और न ही उसे पापा का खौफ। बड़ी होकर जब वह ससुराल जाएगी तो उसे दूसरों के घर जाकर चूल्हा-चौका करना होगा, जी नहीं! इसलिए उसे काम करने और खाना बनाने की भी कोई चिंता नहीं थी। वह तो खूब पढ़ रही थी, हर कोई उसे फरिश्ता और देवी का अवतार मानने लगा था। पुरुष से लेकर परिवार कोई भी पग-पग पर चुनौती बनकर नहीं खड़ा था। यहां न तो उसके साथ कभी कोई छेड़छाड़ करता और न ही उसे डराने या धमकाने की कोशिश करता। परंपराओं की बेड़ियां कभी उसकी राह का रोड़ा नहीं बनी, कभी उसे लड़की होने का दु:ख नहीं दिया गया, बल्कि उसे इस बात का गर्व दिलाया गया कि तुम नारी हो, शक्ति हो, किसी की बेटी हो, किसी की बहू बनोगी, किसी की पत्नी बनोगी और किसी की मां बनोगी। संसार तुम्हारे सृजन से ही आगे बढ़ेगा और तुम ही इस धरा की देवी हो। वाह वह बेटी भी कितनी खुश थी जो अपनी दादी से हमेशा सुनती थी कि उनके समय में औरतों पर कितने जुल्म होते थे, वहां बेचारी वह जिंदा पूरी जिंदगी अगर जी जाएं तो ही आश्चर्य होता था। आज हालात और परिस्थितियां दोनों अनुकूल नहीं है, इसके बावजूद सब लोग जी रहे हैं, मगर स्त्रियों के रूप में यह पूरी तरह हाल बदल गए हंै, अब उनके पैदा होने पर न तो परिवार को दु:ख होता है और न ही उस बेटी को। आज वह बेटी 25 साल की हो गई है और उसने अपने लिए एक योग्य जीवनसाथी भी चुना है, वह उसके साथ अपनी जिंदगी के ख्वाब सजाए बैठी है, अब न तो दहेज का कोई रोड़ा होगा और न ही कोई सामाजिक बेड़िया होंगी। उसकी शादी हो चुकी है, और वह भी मां का सुख पाना चाहती है, लेकिन उसकी पहली ख्वाहिश एक बेटा न होकर बेटी की मां बनना है, क्योंकि वह स्वच्छंदता की वह उड़ान देख चुकी थी, जो उसने स्वयं उड़ी थी। हालात बदल गए थे, अब यहां बेटियां ईश्वर का वरदान माने जाने लगा था। सब कुछ अच्छा था। मगर रुकिए... यह एक महज कोरी कल्पना है, जो अभी पूरी होती नजर नहीं आती, यह 21वीं सदी है, यहां बेटियों का हाल आज भी वही पुराना है, वह परेशान है, वह बेबस है, वह लाचार है, क्या कभी उसके हालात बदल पाएंगे। हर कदम पर मिलने वाली चुनौती कभी समाप्त हो पाएगी। शायद वह कल्पना ख्वाब ही बनकर रहेगी, क्योंकि इसके लिए कोई भी ठोस जमीन तैयार नहीं दिखाई दे रही है, हर तरफ उसके लिए दलदल ही दलदल है और इस स्थिति से निपटने में उसे हम अक्षम कर दे देते हैं, इस परेशानी से कैसे निजात् मिलेगी, शायद कोई नहीं जानता है। हम क्यों नहीं उबर पा रहे हैं अपनी उसी ढकियानूसी मानसिकता से, जो सदियों पहले से चली आ रही है, उसमें ही हम अपनी आगे की जिंदगी को बिताना चाहते हैं, यह समस्या है हमारी, यह हमारी लाचारी है और अगर उस बेटी को आज देखा जाए तो आंखें भर आती हैं, क्योंकि उसके इन हालातों के जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम हैं।

Saturday, July 17, 2010

इन्हें तो फांसी पर चढ़ा दो...



हिंदुत्व का डंका पीटते रहते हंैं, शांति स्थापना के लिए ये लोग मारकाट मचाते हैं, किसी के ऊपर दादागिरी दिखाना इनका शौक बन गया है, लोगों से पैसा वसूली, मकान खाली करवाना, चाकू बाजी करना जैसे ढेरो अपराध आरएसएस के कार्यकर्ता कर रहे हैं, और ऊपर से जवाब आता है कि यह प्रदर्शन शांति पूर्वक किया गया, वाह क्या जवाब है, मीडिया ने इनके कुकर्मों और अराजकता को सरेआम किया तो ये खौल उठे, सच्चाई को जो हजम कर जाए, उसे ही मानव की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, मगर यहां तो कुछ और ही चल रहा है। तीज त्योहारों पर धर्म और संस्कृति के नाम पर सरेराह लोगों को पीटना, गुंडागर्दी करना इनका पेशा हो गया है, आरएसएस पूरी तरह से तानाशाही की ओर चला गया है तो आखिर ये लोग हमारी संस्कृति के संरक्षक कैसे हो सकते हैं। ये तो खुद उसका बंटाढार करने में तुले हुए हैं, तो उन्हें हम अपना कैसे मान लेें। मीडिया की सच्चाई से ये इतने तिलमिला गए कि उस पर प्राण घातक हमला ही कर बैठे, जिसका वीडियो यह बता रहा है कि इनमें कितनी उग्रता थी। और इनके कर्ताधर्ता इसे शांति पूर्वक प्रदर्शन बता रहे हैं। निश्चय ही इस संगठन को नक्सलवाद से कम नहीं माना जाना चाहिए और सरकार को इस पर पाबंदी लगा देनी चाहिए, क्योंकि यह रौब अगर अभी नकारा गया या इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो निश्चय ही यह समस्या को और अधिक विकराल कर देगा, तब यह एक बड़ी समस्या के रूप में मौजूद रहेगा और इसका भुगतान देश की जनता ही करेगी। फिलहाल तो सरकार को इस कसौटी पर पूरी तरह से खरा उतरना चाहिए, क्योंकि जिस तरह से इन्होंने देश का अपनी जागीर समझकर उस पर मनमानी कर रहे हैं, उस पर काबू पाने की आवश्यकता है। अगर अभी कोई प्रत्यन नहीं किया गया तो यह सरकार के साथ देश की नाकामी होगी। जिस तरह से राज ठाकरे ने महाराष्ट्र में अपनी तानाशाही चला रखी है, उसी तर्ज पर संघ भी आ रहा है, आखिर ये हैं कोैन, और इन्हें अधिकार क्या है कि देश की संस्कृति बचाए, छुटभैये नेता बनकर अपनी ताकत दिखाते हैं। ये लोग अपने फैसलों से आम जनता को त्रस्त कर देते हैं और वह बेचारी अकेली होती है, इसलिए ये लोग उसे दबा देते हैं। यहां दिक्कत यह भी है कि ये लोग युवाओं को भटका रहे हैं , उन्हें संघ में आकर उनसे गुंडागर्दी करवाई जा रही है। हालांकि समझदार और पढ़े-लिखे युवा इसमें भागीदारी नहीं निभाते, लेकिन जो कम पढ़े-लिखे हैं और बेरोजगार हैं, वो इनके नुमाइंदे बन जाते हैं, इस विकट परिस्थिति से देश को बचाना होगा, साथ ही इसमें परिवार के लोगों की भी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है, उन्हें अपने घर के सपूतों को इसमें जाने से रोकना चाहिए, क्योंकि यहां कोई भविष्य नहीं है, अगर आप उन्हें नहीं रोकेंगे तो आखिर कौन रोकेगा और अगर यहां नहीं रोका गया तो निश्चय ही इनकी ताकत बढ़ती जाएगी और जब ताकत का मद चढ़ता है तो विध्वंस होता है। इसलिए आरएसएस की तानाशाही को यहीं रोकना होगा, वरना यह देश के लिए घातक सिद्ध होगा। सरकार को भी अपनी ताकत दिखानी होगी और इन लोगों को सख्त से सख्त सजा देनी होगी, अन्यथा ये लोग हमें शांति और आजादी से जीने नहीं देंगे।

Monday, July 12, 2010

पॉल बाबा यहां आओ, जबरदस्त मौका है


जैसा कि इस समय सबसे सटिक भविष्यवाणियां अगर कोई कर रहा है तो वो हैं बाबा पॉल आॅक्टोपस...ये इस समय किसी सितारे से कम नहीं है और इनकी गूंज सिर्फ साउथ अफ्रीका या स्पेन तक नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में है। आखिर बाबा है ही इतने सटिक। इनके कहे हुए एक-एक शब्द ब्रम्ह की लकीर की तरह सच साबित हुए हैं, फुटबाल के बारे में जो भी वो कहते वैसा ही हुआ, उन्होंने कहा ब्राजील हारेगा तो किसी को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन वह हारा तो लोगों का विश्वास बढ़ा, फिर वो बोले कि अर्जेटीना और जर्मनी में से कोई भी फाइनल नहीं खेलेगा तो पूरी तरह यकीन नहीं हुआ, लेकिन अंत में सारी शंकाओं का अंत हो गया और बाबा की सारी भविष्यवाणियां सच हो गई। वाह बाबा वाह! मगर मैं आपको एक छोटी सी सलाह देता हूं, सलाह यह है कि साउथ अफ्रीका में न तो आपकी कदर होगी और न ही कोई यूरोपीय देश में। पूरी दुनिया में आपको ज्यादा तवज्जो नहीं दिया जाएगा, लेकिन आप अगर हमारा निमंत्रण लेकर भारत आ जाएं तो आपको यहां बाबा से भगवान बना दिया जाएगा। वैसे आपके इतना कहने पर ही इंडिया ने आपको बाबा का तमगा दे ही दिया है, लेकिन भगवान बनना है तो प्लीज आप यहां चले आए। अगर यहां आ गए तो आपके भक्तों का तांता लग जाएगा, फिर क्या गरीब और क्या अमीर, सब तेरे दर पर माथा रगड़ने चले आएंंगे, हर कोई आपके सामने भीख मांगते नजर आएगा। अरे नहीं नहीं...आप चिंता मत करोे भाई...
यहां भी आपकी कम वकत नहीं होगी, आपको जितना पैसा चाहिए मिलेगा, हमारा तो देश ही ऐसा है, जहां बाबाओें और मंदिरों में हम बहुत अधिक खर्चा करते हैं, हम तो उधार ही ढूंढ़ते रहते हैं कि कोई पहुंचवाला बाबा हमें मिल जाए।
इस चक्कर में कई बार पाखंडी हमें बेवकूफ बनाकर निकल जाते हैं, हम लुटा भी जाते हैं, लेकिन हमारी तलाश पूरी नहीं होती है, अब आप पर तो शक का कोई सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि आपकी भविष्यवाणियों पर तो पूरा दुनिया विश्वास करने लगा है, आज फुटबॉल की खुमारी भले ही न उतरी हो, लेकिन अगले दस से पंद्रह दिनों में आपको कोई याद रखने वाला नहीं है, लेकिन महाशय ये इंडिया है, यहां हीरो भी हिट और जीरो भी, यहां भीडू को भी भान हो जाता है और चपरासी भी मदरासी बन जाते हैं। तो आप तो बहुत पहुंचे हुए हैं, पूरी दुनिया में आपका नाम चल रहा है
यहां थोड़ी सी नजरें घुमा दीजिए, अगर ऐसा कर दिया तो निश्चय ही हमारे भाग खुल जाएंगे, साथ ही अमीरों के साथ गरीबों की भी किसमत बदल जाएगी, क्योंकि यहां गरीबी बहुत है, अब मान भी जाओ...यहां से अब हम कल्पना लोक में चलेंगे, जहां आगे का भविष्य दिखाया जाएगा, उसमें यह कि बाबा पॉल इंडिया आने के लिए तैयार हो गए हैं, वाह बाबा इंडिया आ रहे हैं, अखबारों ने प्रथम पृष्ठ से लेकर आखिरी पन्ने तक उनकी रामायण छाप दी, टीवी चैनल बेकरार हैं, उन्हें दिखाने के लिए....
बाबा का प्रवेश इंडिया में हो गया, हजारों लोग उनके इस्तेकबाल के लिए खड़े हैं, बाबा को एक फाइव स्टार होटल के सामने बैठा दिया गया... नजारा देखो, सैकड़ों लोगों की भीड़ चली आ रही है, हर कोई इस बाबा के घर अपनी झोली भरवाने के लिए आ रहा है, सबकी ख्वाहिशें पूरी हो रही हैं, बाबा का मंदिर भी बन गया, नेता लोग कोई कार्य करने से पहले बाबा के दरबार में हाजिरी लगाना नहीं भूल रहे हैं। गरीब अमीर बनने के ख्वाब उनके सामने बता रहा है, सैकड़ों लोगों की समस्याएं सुनते-सुनते बाबा को कुछ दिन तो अच्छा लगा, अब बाबा परेशान हो उठे, मगर जो उन्हें लाया उसे तो इतना चढ़ावा मिल रहा था कि वह खूब उछल कूद मचा रहा था। अब बाबा का मन नहीं लग रहा था, वो बेचारे क्या करें, उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था। बाबा ने तरकीब निकाली, चलो अब वो इलाज नहीं करेंगे। तब बाबा ने अपना प्रताप बंद कर दिया, मगर जो लाया तो उसे तो कमाई जारी रखना थी। उसने बाबा को वापस विदेश भेज दिया और कहा कि बाबा ने समाधि ले ली, अब वहां मंदिर बन गया, लोगों की भीड़ फिर भी कम नहीं हो रही थी, और देश में फैली अंधी आस्था के जाल में भोले मासूम बेचारे फंसते जा रहे थे...अब जरा ठहरिए हम कल्पना और स्वप्न लोक से बाहर आकर बात करते हैं तो हकीकत यह है कि न तो बाबा पॉल आ रहे हैं और न ही ऐसा कुछ हो रहा है, लेकिन हम लोग अंधी आस्था और बाबाओं के चक्कर में आज भी जकड़े हुए हैं, हम आज भी उन्हीं भुलावों और परंपराओं के चक्कर में अपनों का गला घोंट रहे हैं, यह कैसी विडंबना है और यह कैसा जीवन, जो जिंदगी के लिए मोहताज है, यहां बनावटी और अंधी आस्था का जाल है,यहां तो कोई भी बाबा बनकर किसी को भी लूट सकता है, हम तो अभागों की तरह उन ढोंगियों के दर पर पहुंच जाते हैं...यही है भारत, जिसकी सच्चाई बहुत कड़वी है और लोग इसे खा नहीं सकते।

Sunday, July 11, 2010

‘अब्दुल्ला की शादी’ और आज दुल्हन उसकी


इस विश्वकप में अंदर नजर दौड़ाओ तो वहां भी दिल धड़क रहा था और बाहर नजर दौड़ाओ तो वहां भी धड़कने लगता था। माहौल ही कुछ ऐसा था हर ओर खूबसूरत बालाएं अपने जलवे दना दन गोल की तरह दिखा रही थी, और हमें उनकी अदाएं क्या खूब भा रही थीं। इनकी दीवानगी देखकर हमारी दीवानगी बढ़ रही थी, यह तो हुआ कॉरिडोर का मामला। जरा रुकिए... अब हम साउथ अफ्रीका से इंडिया आते हैं.... यहां के हाल....
इस विश्वकप में यह जीतेंगे, यह खिलाड़ी सबसे तेज है और यही सबसे ज्यादा गोल दागेगा। यह तुरुप का इक्का हो सकता है, यह कोच टीम को विश्वकप दिलवाने ही आया है, इसके विरुद्ध कोई रणनीति काम नहीं आएगी। ये तो विश्व चैंपियन हैं और इसे कोई परास्त नहीं कर सकता है, हमारी टीम तो अजेय है...बात यहीं तक नहीं रुकी, भावनाओं का सैलाब इससे आगे तक बह गया और इस अनजानी शादी में हर कोई दीवाना हो गया, लोग अपने-अपने खिलाड़ी पर दांव लगाने लगे, किसी ने पैसे भी लगाए तो किसी ने महज शर्त ही ठोंक डाली। कोई बोलता यह टीम ही है दावेदार, कोई कहता आज अगर यह जीती तो नाश्ता, लेकिन हार पर उन्होंने कोई हंगामा नहीं मचाया। हर तरफ जज्बात उमड़ रहे थे, मैच साउथ अफ्रीका में चल रहे थे, लेकिन गोल के पास गोल-गोल पूरी दुनिया घूम रही थी आखिर धरती गोल जो है, ऐसे में गोल-गोल तो करना ही पड़ेगा और घूमना ही पड़ेगा। कभी पूरी शंका-कुशंका शांत हुई, कोई कहता टोटका इस बार इसका है, नक्षत्रों का भी हवाला दिया गया। वहीं बीच में नया शिगूफा यह आया बाबा आॅक्टोपस का। इनकी सारी भविष्यवाणियां मानने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। इन्होंने अभी तक जो कहा वह सच हुआ है और अगर आगे भी होता है तो निश्चय ही विश्व विजेता स्पेन ही बनेगा। आज फीफा विश्वकप फुटबाल का आखिरी दिन है, आज शहंशाह की जंग के लिए दो टीमें भिड़ेंगी। सबके जज्बात भी चरम पर होंगे और खेल में दम भी दिखाया जाएगा। कौन किस पर भारी है और किसमें कितनी स्पीड है, इसका फैसला आज होगा, हर खिलाड़ी इन तीन घंटों को अपना सर्वश्रेष्ठ खेल दिखाने की कोशिश में लगा हुआ है, सबने जांबाजों की तरह तैयारी कर रखी है और जिसने भी एक मौका दिया या लिया तो समझ लो फतेह उसी को मिलेगी, यार यहां तो जीत उनकी, हार उनकी, मगर हमारे देश की जबरदस्ती वाली भावनाएं जो उमड़ी आ रही हैं, निश्चय ही आज बरात क आखिरी रात में जश्न मन जाएगा और फिर विदाई हो जाएगी । इसके बाद कुछ लोग स्वयंवर की तरह खाली हाथ लौट चुके हैं, कुछ और लौटेंगे और कुछ अपनी बाजुओं में दुल्हन (ट्रॉफी) लेकर दौड़ते नजर आएंगे । ये तो किस देश में जाएंगे और हमारा इनसे कोई वास्ता भी नहीं है, और अगले चार सालों के लिए हम फिर इन्हें भूल जाएंगे, मगर इस समय तो हमारी स्थिति यह है कि हम लोग उनके दीवाने हो गए हैं, इसमें हम हमारी दीन दुनिया ही भुला बैठे हैं, महाशय गरीब हो या अमीर...सबकुछ दु:खियों की बातें नहीं है , यह वक्त हमारा है तो इस दीवानगी के लिए चर्चे भी होने चाहिए, मगर बहुत हो गया भइया अब तो कम से कम आज मुक्ति मिल ही जाएगी, वरना तो हम परेशान हो गए हैं रात से ही लोग गोल गोल चिल्लाने लगते हैं, बच्चे डर जाते हैं, अब लगता है कि न जाने कौन सा तारा गोल -गोल दिख रहा है, हर कोई शाम से जमघट लगाए बैठा था, हाल वही था कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बंसी बजा रहा था देश की धज्जियां उड़ रही हैं और लोग फुटबॉल में मदहोश हैं। वाह इंडिया वाह, अभी तक तो क्रिकेट का जमाना था अब फुटबॉल का, मैं तो उस दिन की कल्पना करता हूं जब इंडिया फुटबॉल में पहुंचेगा, कसम से, दूसरे खेलों की तो वॉट लगने वाली है, मगर अभी धोनी को टेंशन लेने की कोई जरूरत नहीें है, भाई की नई-नई शादी हुई है और साक्षी जैसी बीवी मिली है तो इंजॉय। मगर यहां तमाशबीनों का क्या करें, क्योंकि ये तो हर चीज को तमाशा बनाकर अपनी मुट्ठी को मजे से खोलना चाह रहे हैं। आज जज्बात के उफान खत्म होने के बाद कल से कहीं न कहीं इन लोगों को बोरिंग जरूर होने वाली है, और रह रहकर उन तीन घंटों का रोमांच सताएगा, क्योंकि अब तो आदत सी हो गई है, फुटबॉल की। मगर यह मुंह की लगी नहीं है, जो छूटे न, आज के बाद अगले विश्वकप में ही हम इसके प्रति दीवाने होने वाले हैं, अगले चार साल तो हमें इसका होश तक नहीं रहेगा।

Tuesday, July 6, 2010

बंद से सांसें हो गई बंद

प्रिया को अचानक पेट में दर्द उठा, वह प्रेगनेंट थी, और उसकी डिलिवरी का आखिरी समय चल रहा था, उसका दर्द बढ़ता गया, मगर न तो टैक्सी मिली उसे ले जाने के लिए और न ही कोई वाहन। हार कर पति ने अपनी टू व्हिलर में उसे बैठाया और निकल पड़ा उसे अस्पताल पहुंचाने के लिए...मगर जब तक वह उस पर बैठ नहीं पाई और रास्ते में उसे उतरना पड़ा...इस पर पति ने उसे हाथों में उठाया और अस्पताल की ओर निकल पड़ा। मगर जब तक वह अस्पताल पहुंचता वह दम तोड़ चुकी थी....पंजाब के एक इलाके में वैभव के पिताजी को कल दिल का दौरा पड़ा और उन्हें जल्द से जल्द अस्पताल ले जाना था लेकिन बंद के चलते वे नहीं जा पाए और उसके सिर से बाप का साया उठ गया।...सोनम की शादी अगले माह ही होने वाली थी, मगर मां की अर्थी उठ जाएगी यह किसी ने भी नहीं सोचा था। घर के सामने बीजेपी के कार्यकर्ताओं द्वारा जमकर मारपीट की गई, इस दौरान उन्होंने विरोध जताया तो उसे भी पीट दिया गया, राहुल कॉलेज जा रहा था, उसे पता नहीं था, लेकिन रास्ते में उसे बीजेपी वालों ने मारा...यह सब घटा एक दिन, यह हालांकि काल्पनिक है, लेकिन यह सब घटता तो कोई आश्चशर्् नहीं होता, क्योंकि बंद ने पूरे देश को बेहाल कर दिया था। जिस दिन बीजेपी का राष्ट्र बंद अभियान था, मगर इससे किसी को क्या फर्क पड़ता है, क्योंकि जिन लोगों ने इसका ठेका लिया था, उनके घर में कोई भी ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई, जिसके कारण उनके दिलों को चोट पहुंचे। यह थे देश के हालत। पूरा एक दिन लोग दहशत में जिए और बीजेपी इसे पूर्ण समर्थन का नाम दे रही है। आप से ही एक सवाल, आप क्या बंद में शामिल हुए, या फिर किसी तरह का कोई झमेला न हो जाए इसलिए आप ने बीजेपी के बंद में जबरन हामी दे दी, याद रखिए मौन स्वीकृति भी एक तरह का पाप होता है, और कहीं न कहीं इसकी कीमत आगे चलकर हमेें ही सिखानी पड़ती है। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर इतने बड़े बंद से व्यापक असर का क्या मतलब, जहां तक देखा जाए एक दिन में करोड़ों की चपत लग गई है, इससे कहीं न कहीं व्यापार प्रभावित जरूर होगा । वह तो ठेकेदार हैं, जिन्होंने बंद कराने का ठेका लिया था और नुकसान से कोई लेना देना नहीं है, जो हजार करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ है, अगर उसे भाजपा भर देती है तो इस बंद का कोई मतलब भी समझ में आता है, अन्यथा यह तो सीधे-सीधे गुंडागदीर् है। बदमाशोें और इनमें भला बताइऐ कौन सा अंतर रहेगा वो भी तो बंद करके ही लूटते हैं, इन्होंने भी तो कुछ ऐसा ही किया। इसलिए इन्हें दोषी देना ही होगा। और जहां तक बात रही इस बंद से तो इससे कुछ नहीं होने वाला है...मगर यहां यह भी तो है कि जिन्होंने इसे बंद करवाया है, उन्हें भी इससे कोई लेना-देना नहीं है, वो तो सिर्फ जनता की सोच की धारा को परिवर्तित करने की कोशिश में लगे हुए हैं। और कुछ हद तक कामयाब भी हुए हैं, मगर ये जनता है सब जानती है ये पब्लिक है, और इन नेताओं को भी समझ लेना चाहिए कि इस तरह से राजनीति कर देश का नुकसान न करें, क्योंकि इससे सिर्फ हंगामा मचायाा जा सकता है, जनता का प्यार हासिल नहीं हो सकता और जब तक वह नहीं होगा, जीत ताज हाथ नहीं आएगा। इस बंद ने प्रबुद्ध वर्ग के लोगों में निश्चय ही बीजेपी की नकारात्मक छवि को गढ़ दिया है, इससे कहीं न कहीं कांग्रेस को थोड़ा फायदा हुआ है, और अगर बीजेपी लगातार इस तरह कुल्हाड़ी पर पांव मारती जाएगी तो एक दिन पूरा पांव ही कट जाएगा। अब यह निर्भर करता है कि आखिर कैसे वो इस सोच को आधुनिकता का अमली जामा पहना पाती है, क्योंकि ऐसा नहीं कर पाई तो उसकी भूमिका पर प्रश्नचिह्न उठाए जाने लगेंगे।

Thursday, July 1, 2010

इससे तो अच्छा होता कि भ्रुण में ही गला घोंट देते



हम खुद को श्रेष्ठ कहते हैं, हमारे पास हर वो चीज है, जो मानवता की मिसाल बनाई जा सकती है, लेकिन यह सब हम स्वार्थवश की करते दिखाई देते हैं, मतलब हमारी असली जिंदगी तो कुछ और ही रहती है, दोहरा जीवन जीने में लगता है हमें मजा आता है, हम बेटियों को आधी आबादी कहकर उन्हें बराबर का अधिकार देते हैं, लेकिन जब उन्हें वास्तव में अधिकार देने की बात आती है, तो हमारे कदम पीछे सरक जाते हैं। बेटी...जिसका नाम सुनते ही मां-बाप के जीवन की रौनक खत्म हो जाती है, वह मां जो कल स्वयं बेटी थी, वह सास जो खुद एक औरत है, आज वही उसकी कातिल बन जाती है। तो क्या दोष है उसका, उसकी मानसिकता भी इस समाज में बदल गई है, कहीं न कहीं समाज में मौजूद हालात इसके लिए जिम्मेदार हैं। एक बेटी को इस समाज मेें जगह-जगह पर खतरा है, हर कदम पर उसे जीने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इसी संघर्ष की एक छोटी सी कहानी मैं बताना चाहूंगा...उसका नाम था सोनू। जब वह सात साल की हुई तो पता चला कि माता पिता उसे गर्भ में ही मार देना चाहते थे। एक दिन झल्लाहट में उसकी दादी के मुंह से उसने ऐसा सुन लिया था। तब उसे हालांकि इसके बारे में न तो ज्यादा समझ आया और न ही उसने इस बारे में अधिक ध्यान दिया। बचपन से ही उसके तीन साल छोटे भाई की अपेक्षा कम महत्व मिलता था। घरवाले उसे खेलने नहीं जाने देते थे। दिनभर काम करवाते थे, अगर उसका मन कभी भाई के साथ खेलने को करता तो उसे मना कर दिया जाता था। वह अंदर ही अंदर सिसक कर रह जाती, मगर कुछ कर नहीें पाती। दिनभर काम करती, शाम को पिता की दो बातें भी सुनती। अब तो सोनू स्कूल जाने लायक हो गई थी। किसी तरह माता-पिता ने उसे स्कूल भेजा, लेकिन न तो उसकी कभी पूरी ड्रेस रहती थी और न ही कभी पूरी किताबें । लेकिन बेचारी वह पढ़ने में अच्छी थी और हर बार अच्छे मार्क्स से पास भी होती थी। हर दिन उसे हर बात के लिए प्रताड़ित किया जाता था। अगर गलती घरवालों से होती थी तो भी उसे ही जिम्मेदार ठहराया जाता था। पर बेचारी वह कुछ नहीं कर पाती। जैसे-जैसे वह बड़ी होती गई, वैसे-वैसे न जाने किस अंधेरी खाई में उसका मन सिसकता रहा। मगर उसकी सुनने वाला कोई नहीं था। लगभग 17 साल की वह हो गई थी तो घरवालों ने उसे पढ़ने से रोक दिया, जबकि वह पढ़ाई करना चाहती थी। उसकी पढ़ाई बंद कराकर घरवाले जल्द से जल्द उसके हाथ पीले करने की जुगाड़ ढूंढ़ने लगे। एक दिन उसका रिश्ता तय हो गया। वह 17 साल की थी और उसके दूल्हे की उम्र 35 साल, जिसकी पहली बीवी गुजर चुकी थी। मगर इस पर भी उसने ऐतराज नहीं जताया, क्योंकि घरवालों की मर्जी थी। इसलिए इस खून के घूंट को भी वह चुपचाप पी गई, बिना विरोध किए। ससुराल चली गई। उसे लगा कि शायद ससुराल जाकर उसे सारी चीजों से मुक्ति मिल जाएगी, मगर ऐसा नहीं हुआ, क्योंकि ससुराल में पहले ही दिन जब उसने कदम रखा तो उसके पैरों के नीचे से जमीन ही खिसक गई। उसके दो बेटे और एक बेटी। पहली बीवी से। ससुराल में वह पत्नी और बहू तो बाद में बनी, पहले एक मां बन गई। इस जहर को भी उसने खुशी-खुशी पी लिया और पति की सेवा और बच्चों की परवरिश को अपना जीवन मान लिया। एक साल बीत गया, अभी तक उसके पति से उसे स्नेह नहीं मिल पाया था। इसके बावजूद यह बात उसने परिवार और समाज में जाहिर होने नहीं दी थी। इस बात को लेकर पति झल्लाता और कई बार सोनू की पिटाई भी करता था। रात- रात भर वह तकिए में अपने आंसू बहाया करती थी। वह तकिया कई बार गीला हुआ, उसके दु:ख की कहानी वह तकिया ही बता सकता था और कभी-कभी लगता है कि सोनू के दु:ख से वह भी रो पड़ता था। मगर उसकी सिसकियां और किसी को सुनाई नहीं देती थी। दिन गुजरते गए, लेकिन सोनू के आंसू बढ़ते ही जा रहे थे। पल-पल उसे मौत मार रही थी। कभी पति की पिटाई तो कभी सास के ताने तो कभी ससुर की अंगड़ाई का भार उसे ही चुकाना पड़ रहा था। एक दिन तो हद ही हो गई, सोनू के छोटे देवर साहब ने उसकी इज्जत पर हाथ साफ कर लिया। उस दिन भी आरोप सोनू पर ही डाल दिया गया और उसे मारने के लिए ससुरालवालों ने पूरी योजना बनाई। उन्होंने उसे जलाने के लिए प्लान तैयार किया। घरवालों ने उसका दरवाजा बाहर से लगा दिया और बाहर से पेट्रोल डालकर आग लगा दी। सोनू ने बहादुरी दिखाते हुए खिड़की से बाहर कूद गई...सोनू बिलख पड़ी और कहने लगी कि अच्छा होता अगर मेरा गला भ्रुण में ही घोंट दिया होता। मां तूने ऐसा क्यों नहीं किया, मुझे यह जिंदगी क्यों दी, आखिर क्यों???????? सोनू का सवाल वाजिब है, हम भु्रण में हत्याओं को रोकने की बात करते हैं, लेकिन कभी यह सोचा है कि आखिर भ्रुण में बेटियोें का कत्ल क्यों किया जाता है, शायद इसलिए कि इस समाज में आकर उनका बार-बार कत्ल न हो, उन्हें जहन्नुम जैसी जिंदगी न जीनी पड़े। यह एक सोनू की कहानी नहीं है, बल्कि इस देश की हर लड़की की कहानी है, और हमारा मिशन भ्रुण हत्या रोकने का है, वह तब तक बंद नहीं होगा, जब तक यह समाज नहीं सुधरेगा, जब तक बेटियों पर बर्बरता नहीं रुकेगी। अगर समाज में और समाज के प्राणियों की मानसिकता को अगर हम बदल दें तो भ्रुण हत्या जैसी कोई समस्या नहीं होगी, इसलिए परिणाम पर सीधे मत आओ, पहले समस्या की जड़ को समाप्त करो, समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी। खुद बदलो, जग बदल जाएगा। बेटियों के लिए संकल्पि होकर अपनी मानसिकता को बदल दो, सच मानों देश की तकदीर ही बदल जाएगी। बेटी को पल-पल मरना होता है, इससे बचाने के लिए उसे पलने में आने से पहले ही मार दिया जाता है, और ये कातिल उसके अपने ही होते हैं, काश! इस समाज की सोच बदल जाए, वह बेटियों को उनकी पूरी आजादी दे, इसमें हम बेटों को भी भूमिका निभानी होगी, तभी यह मिशन सफल होगा। आखिर इन्हें भी तो जीने का अधिकार है, और अब इन्हें जीने दो?