Thursday, August 26, 2010

‘वो’ ‘उनसे’ बढ़कर हो गया


मुहब्बत की हवा कब बदल जाए यह कोई नहीं जानता है। यह कब किसके लिए उमड़ जाए यह जान पाना भगवान के लिए भी मुश्किल है। प्यार के ढाई अक्षरों में भले ही ऊपरी रंगत न हो, लेकिन तह में उतरने पर यह जिंदगी का या तो सबसे बड़ा दु:ख बन जाता है या फिर सुख। कई जानें भी बर्बाद हो गई, कई गुलशन भी गुलजार हो गए। किसी को मौत मिल गई तो कोई जिंदगी को जन्नत बनाए बैठा है। आशिकी, दीवानगी औैर दिल्लगी की यह धारा कब अपना मार्ग बदल दे कुछ कहा नहीं जा सकता, यह कभी-कभी उधर भी मुड़ जाती है, जिधर जाने का कोई सवाल ही नहीं रहता है। यह नदी नहीं है, बल्कि बिफरा समुंदर है, जो रास्ते तोड़ता हुआ अपनी मंजिल पाता है, इसके बीच में आने वालों की न तो यह पर्वाह करता है और न ही उन्हें छोड़ता है। मगर प्यार के बाद प्यार की दास्तांनें भी देखी गई हैं, और ये उतनी ही सच हैं, जितना की आप और मैं। बात उठी है इश्क की तो इसकी गर्माहट के साथ इसके बहके कदमों पर भी गौर फरमा ही लिया जाए, यह मीठा जहर तो है ही, साथ ही अंधा भी होता है, क्योंकि यह जब होता है तो यह भी नहीं देखता कि वहां सिर्फ मौत है, बर्बादी है और तबाही। आंसू तो इनका हफसफर बन जाता है और हौसला इनका साथी। ये दोनों मिलकर मुहब्बत की नई इबारत को जन्म देते हैं। बात उस मुहब्बत की नहीं है जो एक से हो, बात है उस मुहब्बत की, जहां से इसकी कोई गुंजाइश नहीं होती है। बात उस मुहब्बत की है, जहां से इस तरह के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं। दूसरों के बारे में सोचना भी नहीं चाहता है। आपको रब ने बना दी जोड़ी याद होगी, जिसमें नायिका को अपना पति पसंद नहीं था, भले ही वह उसके लिए न जाने क्या -क्या करता था, मगर वह उससे प्यार नहीं करती थी, जबकि वही पति दूसरे रूप में जब उसका मन बहलाता है तो वह उसे प्यार करने लगती है। बात यहीं से है, कि सारा खेल जरूरतें पूरी करने से नहीं शुरू होता है, बल्कि दिलों को जीत ले वहीं माशूका और आशिक का दिलजीत होता है। यहां से मैं आपको एक ऐसी कहानी, लेकिन सच्चाई की तह में ले जाऊंगा, जहां से आपको यकीन हो जाएगा कि यह दिल भी कितना बावला होता है, कब किसको बिठा ले और किसको बाहर कर दे कुछ कहा नहीं जा सकता।
बात पांच साल पहले की है, मिस्टर और मिसेस जोशी। अपनी शादी के 15 साल गुजार चुके थे, इस दौरान उनमें इतना प्रेम था कि पड़ोसी और रिश्तेदार उनकी मिसाल दिया करते थे। उन्हें दो बेटे और एक बेटी भी थी, जो पढ़ाई करते थे। मिसेस जोशी माशाअल्लाह क्या खूबसूरत थीं, वहीं मिस्टर जोशी भी कम नहीं थे। दोनों का प्यार अब तक जवां था। हर दिन वो एक दूसरे को अपना प्यार की कसक और उसका एहसास दिला ही देते थे, साथ ही उस ईश्वर का भी शुक्रिया करते थे, जिन्होंने दोनों को मिलाया था। उनकी जिंदगी की गाड़ी समतल सड़क पर बिना उतार-चढ़ाव सरपट दौड़ रही थी। एक दिन जोशी जी को एक माह के लिए आॅफिस के काम के सिलसिले में बाहर जाना पड़ा। इस दौरान ही उनके घर के बाजू वाले फ्लैट में अमित नाम का एक युवा रहने आया था। वह अकेला था इसलिए उसने मिसेस जोशी से कुछ हेल्प मांगी। इस दौरान दो-तीन दिनों में वो काफी घुल मिल गए, और लगभग पंद्रह दिन हुए थे कि अमित ने उससे इजहारे इश्क कर दिया। वो क्या सुरुर था, वो क्या अहसास था, या कहे कि वो क्या समय की खुमारी, या इश्क का अहसास था जिसने मिसेस जोशी की हां में उस इश्क का जवाब दिया। वो मिस्टर जोशी के लिए जो अपनी जान भी दे सकती थीं , वह सब भूलकर वह भी अमित से प्यार करने लगी। अब तो महीना गुलजार गुजरने लगा। धीरे-धीरे उनकी नजदीकियां भी बढ़ने लगी। प्यार प्रगाढ़ होने लगा। कब महीना बीत गया कुछ पता ही नहीं चला। और जोशी जी भी काम करके आ गए। अब उन दोनों के बीच की वो प्यारी कशिश कम होने लगी। हालांकि मिसेस जोशी उन्हें अहसास नहीं होने दे रही थीं, लेकिन दिल तो वो विद्वान है जो हर चेहरे को किताब की तरह पढ़ लेता है। कई बार जोशी जी ने उन्हें कहा भी कि तुम्हारा प्यार कम हो रहा है , तो मिसेस जोशी उन्हें टाल गईं। जब वो आॅफिस चले जाते तो वो घंटों अमित के साथ अपने इश्क की इबारत को लिखने में जुटी रहती। अब मिसेस शर्मा के लिए ‘वो’ ‘उनसे’ प्यारा हो गया था। प्यार बदल गया था, जिंदगी का वो पंद्रह साल पुराना अहसास इस नए प्यार के आगे बंट गया था। तो लगा कि दिल तो बच्चा होता है, यह नादान होता है, कब इसका मन किसे चाहने लगे कोई नहीं जानता है। यह जिंदगी है...जिसमें न जाने कब समतल सड़क पर एक बड़ा गड्ढा आ जाए और जिंदगी का बैलेंस डगमगा कर किसी और टैÑक पर चला जाए। ही तो जिंदगी है जो किस पटरी पर कब दौड़े किस राह में कब बंट जाए, किसकी हो जाए और किससे रिश्ता तोड़ ले....सब अनजाना है...।

Wednesday, August 25, 2010

अकेले शिकार तो शेर ही करते हैं


यहां किसी को ललकार कर युद्ध में शेर बनाने की बात नहीं चल रही है, क्योंकि एक दिन के शेर मेमने ही होते हैं, जो मैदान-ए-युद्ध देखकर पीछे की ओर भागते हैं, क्योंकि उन्हें मौत का भय रहता है। साहस एक दिन में पैदा नहीं होता और जिनका खून खून होता है, वो पानी कभी नहीं बनता। सूअर ही ग्रुप में शिकार करते हैं, शेर अकेला करता है। बस यही तो जीवन का दर्शन है, जहां जीना एक दुर्लभ है। क्या जीवन जीते हो, और क्या नहीं? सवालों के बादल घुमड़-घुमड़ के घूमते रहते हैं , कभी जिंदगी में यह गरजते हैं तो कभी बादल बूंदों के बाण बनाकर छलनी भी करते हैं, मगर तय यह करता है आप उसके सामने कैसे खड़े हो। जिंदगी सबको दी है, जाहिर है आप अपंग नहीं है, क्योंकि तब आपके पास बहाना होता। अब कोई बहाना नहीं चलने वाला। मगर फिर भी हम यह उलाहाने देकर सच्चाई की आंखों में धूल झोंककर साफ निकलना चाहते हैं। समुंदर की लहरे उन्हें ही सलाम करती हैं, जो उनके विरुद्ध चलते हैं, उन्हें नहीं जिसे वो ही फेंकती हैं। और जिसे वो फेंकती हैं, वह मुर्दा ही तो है। इस जीवन कश्ती में कुश्ती करनी पड़ती है और अगर एक भी दांव गलत चल गया तो जीवन की जंग हार जाते हैं। जीवन एक शतरंज है और इसे जीतने के लिए बुद्धि की जरूरत है, अगर तुममें दम नहीं है तो तुम्हें यहां से उखाड़कर फेंक दिया जाएगा। उन विरोधी और घमंडी अश्वों को काबू में करना है तो उस पर कोई बल का प्रयोग नहीं होगा, क्योंकि वहां तो वल्गाएं खींचने में जो माहिर है, बस वही उनका मालिक कहलाएगा। इतिहास के पन्नों का उधेड़े तो सबकुछ सामने आ जाएगा। फिर चाहे रामचंद्र की रावण विजय हो या फिर कर्ण का विश्वजीत बनना। मगर बुद्धि के साथ जीवन की वैतरणी में पार लगाना हो तो कृष्ण की तरह बनो, जो अर्जुन के सारथी बनकर गीता के सागर से उसे सुरक्षित लेकर आ गए। यह सिर्फ कृष्ण ही तो कर सकते थे। चालों की चपलता से इतिहास बदल जाते हैं और शहंशाहों के ताज मिट जाते हैं, सल्तनतें खाक में मिल जाती हैं तो फिर क्यों यह गर्व है, जिसमें झूठे आडंबर है, खोखला अहंकार है। अहंकार तो उस वैश्या में भी है जो जमीन की धूल है, लेकिन उस धूल को चांटने भी तो ताज पहनने वाले ही जाते हैं। मिथ्याओं का महल खड़ाकर उसमें ज्यादा दिनों तक रहा नहीं जा सकता, क्योंकि पहली आंधी तो वह बर्दाश्त कर भी जाएगा, लेकिन दूसरी आंधी तो उसे ढहाकर जाएगी ही। अब यहां से उम्मीदों की उड़ान को परवान चढ़ाना गलत है, यहां तो हवाएं भी कातिल हैं और लोग उस कत्ल के बाद लाशों से भी उगाही में जुट जाते हैं। जीवन से बेवफाई कर किसी के तलवे चांटकर अगर जीवन जीते भी हो तो निश्चय ही वह मृत है। माना की यह कलियुग है, लेकिन कोई भी युग हो खून और सिद्धांत तो नहीं बदलते। गैरत और रौब तो कम नहीं होता। यहां किसी को उद्वेलित करने का मन भी नहीं है, लेकिन जमीन पर रेंगने से अच्छा है कि जमीन से ऊपर उठो। यहां बहुत सारे केकड़े हैं जो तुम्हारी टांगे खींचेंगे, लेकिन उन्हें हराने की कोशिश तो करो। जीवन किसी के रहमोकरम पर पल रहा है तो क्या मतलब, कभी अपनी शक्ति और अस्तित्व को भी तो पहचानकर देखो। एक बार जीना तो सीखो...। जिस मां ने तुम्हें जन्म दिया है उसने तो कभी नहीं चाहा कि उसका लाल किसी के तलवे चांटे, सम्मान की बात एक तरफ, लेकिन पराधीनता वह भी मन से...शायद अंग्रेजों की पराधीनता तो फिर भी ठीक थी, लेकिन अब तो पराधीनता का स्वरूप ही बदल गया है। अब तो चमचो ने चांद को छूना सीख लिया है, लेकिन यह चांद खोखला है, क्योंकि वह किसी और का तलवा था, जिसे छूकर तुम यहां तक पहुंचे हो...। मत जियो यार ऐसी जिंदगी, अपने भीतर झांको, इस ईश्वर ने तुम्हें भी वो आवाज दी है, जिससे यलगार पैदा हो जाएगी। एक बार दहाड़कर तो देखो, दुनिया के कदम पीछे अपने आप चले जाएंगे।

Tuesday, August 24, 2010

तुझे सब है पता है न मां...



भगवान हमारे साथ हर समय हमारे साथ नहीं रह सकते हैं, शायद इसलिए उसने हमें मां दी है...हर गम और हर तूफान से हमें बचाती है मां। जब कोई मुश्किल आए तो दुनिया में मां ही होती है, जो अपने बच्चे के साथ डटकर खड़ी रहती है। जब भी मैं उदास हुआ, वह मुझे दुलराने लगी। जब भी कुछ जरूरत हुई तो उसने अपना पेट काटकर मेरी उस जरूरत को पूरा किया। हर गम को सहा उसने, मगर मुझे हर आंच से बचाया। कभी भूख लगी तो मनपसंद खाना तैयार कर देती थी। मगर आज मैं इतनी दूर हूं, मां से काफी दूर आ गया हूं। वक्त और हालातों के थपेड़ोें में वह बचपन की यादों तोहफा ही मेरे पास है, जो सिर्फ आंसू ही देता है। वो पल, जब मैं बीमार हो जाता था तो मां रात-रात भर मेरे सिर पर हाथ धरे बैठी रहती थी, जब कभी मुझे लग जाती थी तो उसका दर्द मैं मां की आंखों मेें महसूस किया करता था। मैं बहुत छोटा था और तोतलाकर बोलता था, मेरी उस भाषा को और कोई समझ नहीं पाता है, सिवाय मेरी मां के। मैं जो भी बोलता, न जाने वह कैसे समझ जाती। क्योंकि वो मेरी मां है, उसे न जाने क्यों मेरी तकलीफ मुझसे पहले पता चल जाती है। अब मैं उससे सैकड़ों मील दूर हूं, और वह पल मुझे बार-बार रुला रहे हैं। मां अब मुझे भूख लगती है तो यहां सिर्फ चावल ही मिलते हैं, तुम्हारी बहुत याद आती है, तुम्हारे हाथों के खाने की। मुझे लगता है कि मैं भी कितना शहंशाह था घर में, हर समय मां को सताया करता था, हर बात पर रौब और हुक्म झाड़ता था। यहां तो मेरा कोई रौब नहीं चलता मां। मां तेरे बिना यह दुनिया कितनी अधूरी है, कितने बेदर्द हैं लोग , जो हमेशा नोंचने के लिए बैठे रहते हैं। अब रात को जब मैं बिस्तर पर सोता हूं तो तेरी गोद नहीं मिलती, तेरा वो मेरे सिर पर हाथ फेरना...मां तुझे सब है पता...मैं यहां बहुत दूर हूं तुझसे, मगर मुझे मालूम है कि मेरी तकलीफ का अहसास होगा तुझे, मगर मां मैं क्या करू, मुझे भी तेरी बहुत याद आती है, यहां खाने में रोटी नहीं मिलती है, चावल देखकर रोना आता है मां...पैसे और कॅरियर ने मां मुझे तुझसे दूर कर दिया है , मुझे पता है कि तू भी उदास है और मुझे पता है जब मैं जा रहा था तो तेरी आंखों से आंसू बह रहे थे, और मुझे यह भी पता है कि जब मैं तुझसे फोन करता हूं तो बाद में तू घंटों रोया करती है, मेरी यह बातें तेरे मन को तड़पा देती हैं, मगर मां यह दुनिया कैसी है, अब मैं साफ बोलता हूं, फिर भी समझ नहीं पाती। मां मैं तुझे रोज याद करता हूं मां। तेरी नजर मुझे पता है कि दरवाजे पर ही टिकी रहती है कि कब तेरा लाल आएगा, मां मैं जानता हूं, और मेरा भी मन यहां नहीं लगता है। मैं जल्द आऊंगा!

Sunday, August 22, 2010

दौलत की अंधी जंग


पैसा भगवान नहीं है, लेकिन भगवान से कम भी नहीं...सचमुच पैसे का चाबुक आपके पास नहीं है तो इस दुनिया में जिंदगी को हकालना बहुत मुश्किल हो जाता है। इसलिए इसका साथ होना बहुत जरूरी है। आज कोई भी ऐसा शख्स नहीं है, जिसका दुनिया में दौलत के लिए मोह न हो। बड़े-बड़े तख्त और ताज भी इसमें लुट गए, हत्याएं और डकैतियां सिर्फ इस दौलत के लिए ही हुई हैं। मगर इसकी भी खासियत है कि यह हमेशा बेवफा रही है। इसमें एक सुहागन का कोई गुण नहीं है। क्योंकि यह एक की हो ही नहीं सकती। इसकी तो दुनिया चाहने वाली है तो यह भी क्या करे, आज इसके पास तो कल उसके पास। आज उससे वफा और कल उससे बेवफाई। लगातार बार-बार यह क्रम चलता ही जा रहा है, हर कोई इस अंधी जंग में उतरना चाहता है, दौड़ना चाहता है। मगर बेबसी है कि वहां तो पांव रखने की जगह भी नहीं है तो दौड़ने की कहां से मिलेगी, लेकिन यहीं तो सारा पौरुष दिखाना है, अगर यहां कामयाब हो गए तो जिंदगी की रावलपिंडी पटरी पर सरपट दौड़ने लगेगी। यह तो हो गई दौलत की दास्तां...मगर पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त। कहते हैं जब किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो सारी कायनात उसे मिलाने के लिए जुट जाती है, भई हम जैसे लोगों ने दौलत को हमेशा से ही चाहा है, लेकिन यह कायनात उसे छीनने पर तुली रहती है। आज का कोई ब्रहस्त्र है तो वह सिर्फ माया ही है। अगर माया का खेल नहीं आया तो समझ लो तुम्हारा जीवन में आना व्यर्थ ही कहलाएगा। जीवन की कश्ती का वैतरणी के पार होना मुश्किल हो जाएगा। सड़क में इतनी खाइयां आ जाएंगी कि गुजरना असंभव हो जाएगा। यहां अगर कुछ करना है तो वह है दौलत से दोस्ती करो और उसे सदा के लिए अपने पास ही रख लो, फिर तो तुम्हारा जीवन ही सफल हो जाएगा। बहुत से पीर फकीर और बाबाओं ने कहा है कि इस मायामोह में कुछ नहीं रखा है, जो भी है भगवान के चरणों में उसकी भक्ति में। तब सत्य क्या है, क्या सत्य है इस दुनिया में । सचमुच इस पर भी विश्वास करना एक कठिन कार्य तो नहीं है। कहीं राम भगवान थे, कोई रावण असुर था, क्या ग्रंथों में लिखा सच्चाई थी , कृष्ण हैं...किसी से भी आप इस समय पूछेंगे तो वह तपाक से उत्तर दे देगा, बिलकुल थे। शायद आप भी और मैं भी हां कह देंगे, लेकिन इसके पीछे भी कहीं कोई रचियता तो नहीं है। क्या आपने राम के युग को देखा है, या किसने देखा है, जिससे हम मिले हों। जाहिर है समाज रुढ़ियों में कैद है और इस बात से आप भी इनकार नहीं कर सकते। वह तो बीमारियों के लिए भूत-पिशाच को दोषी देता है, जिसे हमने मानना बंद कर दिया है , तो क्या यह नहीं हो सकता है कि उस समय कोई इतना महान लेखक हो, जिसने राम के युग की एक कल्पना की हो और उसकी कल्पना इतनी प्रबल और सत्य के समान है कि उसे झुठलाने की कोशिश नहीं कि जा सकती है। यहां अभी आप थोड़ा कन्फ्यूज हो गए हैं, बात यह है कि हो सकता है आज हम किसी फिल्म को लें लें, कृष को ही ले लिया जाए। मानों पूरे रिकॉर्ड और दुनिया तबाह हो जाए। इस धरती पर कुछ नहीं बचे।
अरबों साल बाद कोई नया जीवन आए, उस समय कहीं पृथ्वी में दबी हुई कृष की सीडी मिल जाए या फिर किताब मिल जाए। तो उस समय के लोगों को तो कृष भगवान ही लगेगा। उन्हें तो यह नहीं लगेगा कि यह किसी राकेश रोशन और रितिक रोशन जैसी कोई कल्पना होगी। अब इससे तो आप मेरी बात से पूरी तरह से सहमत हो चुके होंगे। ऐसा ही राम और कृष्ण के संबंध में भी हो सकता है। हमने उन्हें ग्रंथों में ही तो पढ़ा है, जो आज तक हमारी श्रद्धा को बनाए हुए हैं। बात यही बताने की है कि क्या श्रद्धा कुछ है , भक्ति कुछ है, या फिर दौलत ही खुदा है। यह सोचने का विषय है?

Saturday, August 21, 2010

अमीरी के आगे गिड़गिड़ाती गरीबी


मेरी किस्मत में मेरी तकदीर लिखी है, लेकिन मेरा ही बस इस पर नहीं चलता...सचमुच यह जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है।
सदियों से गरीबी ने आदमी को जीने नहीं दिया है। वह युग हो या फिर यह युग। या फिर आने वाला युग । हर युग में यही दिखाई दे रहा है कि गरीब गरीबी के आगे गिड़गिड़ाता रहेगा, लेकिन वह इसकी एक न सुनेगी। हर अमीर आज चांद को छूने की बात करता है, लेकिन गरीब के पास जमीन पर रहने तक का बसेरा नहीं है। कुदरत भी न जाने क्या कहर बरसाता है, जिसमें न आदमी सिसक पाता है और न ही तड़प पाता है। दुनिया में न जाने कितने रंग हैं, जिसने जीवन को जहन्नुम बना दिया है। आखिर कब तक हम आश्रय की जिंदगी के मोहताज रहेंगे। कब तक यह खुरदुरी जमीन पर हमें रीते पांव दौड़ लगानी होगी। अब तो मुश्किल हो रहा है, क्योंकि पांव लहूलुहान हो गए हैं। क्या करें, कुछ समझ नहीं आता है, जिंदगी जीने के ख्वाब देखती है, लेकिन गरीबी है कि उस ख्वाब का कत्ल कर देती है। बचपन से इसने बहुत रुलाया, पहले मां बाप को, उनसे पहले दादा दादी को, इसके बाद अब मुझे रुला रही है। मैं जब से भी थोड़ा समझदार हुआ हूं, इस सेठ के आगे देखा है कि घुटने टेके और हाथ फैलाए ही खड़ा हुआ है। ऊपर से यह बेदर्द समाज, जो आदमी को नीचे ही रखना चाहता है, उसका भी तो कुछ किया नहीं जा सकता है। स्थिति गंभीर और विकट है, कौन बचाएगा इस रोग से, जो शरीर को अंदर ही अंदर तोड़ देता है। न तो जीने देता है और न ही मरने देता है। दो धारी जीवन हो जाता है, जिसके अंदर से बूंद-बूंद खून गिरता है। वह सिसकन बड़ी तड़पाती है, क्योंकि यह गरीबी भूख से मार देती है, कभी रोग से मार देती है, इनसे भी बच गए तो अमीरों के तलवों के नीचे मार डालती है। आखिर कैसे जिए, इस गरीबी में, क्योंकि इसकी सबसे बड़ी सहायक इसकी बहन महंगाई डायन है। उसका तो प्रलय सब दूर चल रहा है, उसने तो अमीरों को भी नहीं बख्शा है, लेकिन उनके पास लक्ष्मी की ताकत है, जो इस डायन का गला घोंट देती है। छीछालादर तो उन बेचारे गरीबों की हो जाती है, जिनके पास सिवाय बेबसी, लाचारी और आत्महत्या के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं है। आखिर कब तक दुनिया में गरीबों को इस अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा, कब तक हम सरक-सरक कर जिएंगे। मगर कुछ कर भी तो नहीं सकते, क्योंकि यह खाई तो बढ़ती जा रही है, कोई विकल्प गरीबी के आगे दिखाई नहीं देता है। जिंदगी की लीला यही अजगर, यही नागिन लील लेती है, और ऐसा जहर भर देती है कि जीवन भर उसे जीने नहीं देती है। परमाणु हमला तो फिर भी ठीक है, क्योंकि उसमें तो एक बार ही मरना पड़ता है, लेकिन इसमें तो पल-पल तिल-तिल कर तड़पना होता है, मरना होता है। गरीबों उठो, क्योंकि यहां कोई तुम्हारे लिए अवतार बनकर नहीं आएगा। सरकार और नेता तो भ्रष्टाचार की चादर ओढ़ कर कुंभकर्णी नींद सो गए हैं, उन्हें जगाने में तो युग निकल जाएंगे। अपने लिए तुम्हें ही करना होगा, क्योंकि अपने मरे ही स्वर्ग नसीब होता है। जब तक तुम आगे नहीं आओगे, डटकर इस गरीबी का सामना नहीं करोगे, यह तुम्हें अपनी गुलामी करवाती रहेगी, और तुम इसके सामने हथकड़ियों में जकड़े नजर आओगे। बस...अब ज्यादा सवाल नहीं, क्योंकि समय आ गया है, जब पेट न भरो, बल्कि गरीबी दूर करो। अगर यह कर लिया तो हम सदा के लिए मुक्त हो जाएंगे । किसी एक पीढ़ी को तो संघर्ष करना ही होगा, हमें विरासत में मिली गरीबी, लेकिन यह गरीबी को हटाया भी तो जा सकता है, इसका दम मिटाया भी तो जा सकता है । हर गरीब आज संघर्ष करे, सूरज के प्रकाश को भी रोका जा सकता है, बस हौसला होना चाहिए। इन वादियों और इस धरती से एक कसम लो कि अब गरीबी के आगे गिड़गिड़ाएंगे नहीं, बल्कि डटकर इसका मुकाबला करेंगे।

Thursday, August 19, 2010

भ्रांतियों का भ्रम घुप अंधेरा



यहां नदी है, नहीं यहां तो जमीन है, अरे नहीं जमीन जैसी कोई चीज ही नहीं है..., दूसरी ओर यहां खाई है, नहीं यह तो कुआं ही है, अच्छा मरीचिका...बिलकुल नहीं वहां तो पानी है ही...दिमाग वह शक्ति हो जो आसमां से जमीन तक का सफर तय करवाता है। जब यह दिल्लगी करना बंद कर दें तो समझ लो कुछ गलत होने वाला है और इसने क्रोध बाण चलाए तो फिर इसके आगे कर्ण का न तो कवच-कुंडल काम आएगा और न ही हनुमान का वज्र शरीर। विचारों की वल्गाएं यहीं से आसमां में गोते लगाती हैं, फिर तय होता है कि यह आसमां से समुंदर की गहराई को नापेंगी या फिर आसमान की हवा में ही भटकती रह जाएंगी। जिंदगी का पैमाना भी यही है और इसकी प्रायिकता भी। मगर दिमाग अगर एक बार कोई धारणा बना लेता है तो फिर वह रात को दिन भी कह सकता है और दिन को रात...इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। जिस पर यह मेहरबान होता है उसकी जिंदगी जानशीं हो जाती है और जिसके साथ इसकी लड़ाई हो जाती है, वह रणभूमि तो क्या गृहभूमि में भी धूल चांट लेता है। आक्रामकता आक्रांत को जन्म देती है, भय को देती है और जहां डर होता है, वहां जीत तो हो ही नहीं सकती। या ये कहें कि यह राम है तो वह रहीम। एक बारगी राम और रहीम तो गले मिल सकते हैं, लेकिन इन दोनों में कुछ भी संभव नहीं होता है। समाज जिन बेड़ियों में जकड़ा है, उसका बहुत पुराना और एकमात्र कारण यही है, बहुत हद तक देखा गया है, कि हम परंपराओं की पतंगे उड़ाया करते हैं, लेकिन इसमें कब कोई सियासत का कट मारकर हमें काट जाता है, हम नहीं जान पाते हैं। उस स्थिति में हमारे पास सिवाय पछतावे के और कुछ भी नहीं होता है। बड़ी भयानक स्थिति होती है वह जहां जिंदगी के सामने कई सुरंगनुमा रास्ते हों और उनके आगे अंधेरा छाया हो। यह विश्वास जरूर जगाया जा सकता है कि हर रात के बाद सुबह होती है और एक सूरज आता है, जो हमारी जिंदगी को दोबारा रोशन कर देता है, मगर इस बात को हम बार-बार क्यों भूल जाते हैं कि जब वह सूरज आता है तो वक्त और हालात दोनों बदल चुके होते हैं, हर गम से हमें ही समझौते की लाठी पकड़कर उसकी पूजा करनी होती है। यहां न तो आपका कोई हमदर्द होता है और न ही हितैषी। मगर हम आधी जिंदगी तो बिना डर के डर में काट देते हैं, जो असल जिंदगी या असल मायने में होता ही नहीं है, भले ही माउंटेन डियू का एड है कि डर के आगे जीत है, लेकिन किसी भी चीज के लिए जिद का होना तो जरूरी है, यही जिद आपकी मंजिल तय करती है, लेकिन यहां तो हम भ्रांतियों के भ्रम में ऐसे उलझे हैं कि उसके आगे हमें सिवाय अंधेरे के और कुछ नजर नहीं आता है। मजबूरी या तो हमारे परिवेश की रहती है या फिर हमारे संकल्प और साहस की। आत्मविश्वास हमारा इतना कमजोर रहता है कि वह कभी साहस का हाथ पकड़कर खड़े होने की कोशिश भी करता है तो गिर पड़ता है, यह कमियां हैं हमारी और समाज की। जब तक भ्रांतियों की बेड़ियों को हम तिलांजलि नहीं देंगे, हमारा कल्याण नहीं हो सकता। इस डर को जीतना ही होगा, वरना यह एक दिन हमें चबा जाएगा और हमारी जिंदगी को तबाह कर देगा। पहला काम यही करें कि हम भ्रांतियों पर विजय प्राप्त करें, अगर ऐसा करने में कामयाब हो गए तो समझ लो कामयाबी इस्तेकबाल करने खुद आएगी। अब तो इन भ्रांतियों पर वज्रपात करना ही होगा, क्योंकि यही से हमें विजयपथ पर विजयरथ की लंबी रेस लगानी है।

Wednesday, August 18, 2010

सूरज तूने ये क्या किया?


सहवाग आग बरसा रहे थे, एक के बाद एक अस्त्र ऐसे निकाल रहे थे की लंका मानो पूरी तरह से ढह रही थी, मन ही नहीं हौसले भी पस्त हो चुके थे। न तो कोई गेंदबाज असर कर रहा था और न ही कोई फील्डर। चतुरों की चतुराई भी काम नहीं आ रही थी, फील्ड पर जो उनका एक ग्रुप काम करता है, वह भी पूरी तरह खामोश हो गया था। आखिर सहवाग थे ही इतने धुआंधार। फिर लंका ने एक ऐसी चाल चली, जिसकी तर्ज थी कि सनम हम तो डूबे हैं, तुम्हें भी ले डूबेंगे। सूरज ने अपने नाम के विपरीत काम किया, और इसके लिए सबका दिल जीतने वाले दिलशान ने उन्हें प्रेरित किया। एक फीट आगे से नो बॉल कर डाली। चतुराई भी ज्यादा दिखा दी तो भला ऊपर बैठी तीसरी आंख कैसे यह ज्यादती होने देती। उसने फौरन मौका को ताड़ लिया और वह लंकाई चीतों के इरादे भांप गई। यह जो भी घटना हुई है, उसने लंका को शर्मसार जरूर कर दिया है, भारत ने मैच भी जीता और दिल भी। इंडिया एक हार के बाद कुछ करने के इरादे से उतरी थी, पिछले मैच में कीवियों से जीतकर लंका के हौसले तो बुलंद थे ही, साथ ही वो दादागिरी दिखाने के मूड में भी थे, लेकिन वो मूछों में ताव देते, इससे पहले ही भारतीयों ने उन्हें कतरना शुरू कर दिया। टीम को बुरी तरह हराने का सपना जो उनकी आंखों में तैर रहा था, उसने शुुरुआती पांच ओवरों में टूटता नजर आ गया। मगर झल्लाहट पूरे मैच के दौरान कभी कम होती नजर नहीं आई, हर लंकाई खिलाड़ी बौखला रहा था कि आखिर भारत ने उनके घर में घुसकर जो उन्हें पटकनी दी थी। मैच बुरी तरह हार रहे थे, ऐेसे में हर चीज उनकी पहुंच से दूर थी। आखिरी में एक दांव था, जिसमें सहवाग का शतक ही था, तो उन्होंने महज शतक न बनने देने की आग में इतने जल गए कि विवेक ही खो दिया। और क्रिकेट को कलंकित कर मर्यादाओं को भंग कर दिया। जी हां, उसने सभ्य क्रिकेट को दागदार कर दिया है। क्रिकेट में इससे भी अधिक कई दागदार पल देखे हैं , इसलिए अब टेंशन की कोई बात नहीं है, क्योंकि इस तरह की कई चीजें यूं ही फील्ड पर घटती रहती हैं, जिससे यह तो तय है कि अब इस खेल में जीत हार ही सबसे बड़ा मुद्दा हो गया। हम यह नहीं कहते कि भारत इसमें पूरी तरह से साफ है और वह इस तरह की कोई ओछी हरकत नहीं करता, लेकिन जब खेल ही है तो फिर आर पार ही खेलों, इस तरह सभ्यता का नकली जामा पहनकर उसे क्यों धोखे में रखा जा रहा है। सूरज पर कार्रवाई हो या न हो, लेकिन उसने अपने तेज को कहीं न कहीं कलंकित जरूर किया है, उनकी यह हरकत सालों तक लोगों के जेहन में रहेगी। हालांकि इसका परिणाम वो भी नहीं जानते थे, इसलिए यह बेवकूफी कर बैठे, मगर समय, प्रसिद्धि, ग्लैमर और बहुत सारी चीजों ने क्रिकेट की हवा को बदल दिया है, अब यह दूसरी करवट पर आ गया है, जिससे ताल से ताल मिलाना जरूरी है, हम पुराने रागों को अलाप नहीं सकते, क्योंकि आज चीजें पूरी तरह से परिवर्तित हो गई हैं, और अगर खुद को बदला नहीं गया तो हम पिछड़ जाएंगे। वैसे भी कहते हैं, इश्क और युद्ध में हर चीज जायज होती है, साम, दाम, दंड भेद, कुछ भी करो, आपकी जीत और हार को लोग याद रखते हैं , यह मैटर नहीं करता है कि आपने कैसे जीत हासिल की थी। इसलिए अब महत्वकांक्षी होना पड़ेगा, क्योंकि यही हमेें जीत की दहलीज से पार कराएगी। अन्यथा हम अन्य खेलों की तरह क्रिकेट में भी पटकनी खाते रहेंगे। बदलाव के साथ कदम से कदम मिलाना होगा, यह हादसा भी ज्यादा दिनों तक याद नहीं रखा जाएगा, क्योंकि बड़ी-बड़ी त्रासदियों को भी भुला दिया गया है। इस गुलशान में वही गुलजार होता है, जो आसमां में पहुंचकर चमकता है। इसलिए लंका की इमानदारी या बेइमानी उनके साथ, हमें तो बदला हुआ क्रिकेट खेलना है, क्योंकि हमारा अलगा मिशन विश्वकप 2011 है, जिसे हर हाल मेें भारत के पास लाना है।

Saturday, August 14, 2010

क्या आजाद हैं और क्या आजादी भी है?



कुर्बानी की वो गाथाएं जो हमने हमारे पूर्वजोें से सुनी हैं, वो गाथाएं जो आज भी हमारे रोंगटे खड़ी कर देती हैं, दिल को मचलने और दिमाग में जुनून पैदा कर देती हैं, जब सुनते हैं तो हमारा भी खून खौल जाता है, मन मचल जाता है, लगता है कि काश हम भी तब होते तो हमारी आजादी के लिए एक कतरा जरूर देते। तब भारत मां का ऋण जो हम पर आज है, उसे चुकाना हमारा फर्ज रहता..वह देशभक्ति का जुनून और वह समय ही हमारी मन को जय हो का नारा दे देता है, लगता है कि हम भी गांधी के साथ उस सभा में नारे लगाते रहते, भगतसिंह के साथ संसद में बम फेंकते और हंसते-हंसते फांसी पर लटक जाते, वाह जन्मभूमि पर कुर्बान होने के लिए तो मिलता...मगर...मगर...मगर यह क्या? हमारी आजादी को हम हरगिज भुला बैठे हैं और जो विरासत हमें संभाल कर दी गई थी या कहें संभालने के लिए आज उसकी हालत बहुत बुरी हो गई है, इस सोने की चिड़िया को हमने कब का बेच दिया है, आखिर हम हमारा देश किस ओर जा रहा है, हमने तो कभी नहीं सोचा था कि आखिर ऐसा कुछ हो, लेकिन भ्रष्टाचार की धारा हरे रामा हरे कृष्णा के वेष में आ चुकी है, जिसे पहचानना भी मुश्किल है, कालिया नाग अब यमुना में नहीं है, बल्कि लोगों के मनों में बैठा हुआ है और वहां से वार कर रहा है, इसलिए उसे मिटाया भी नहीं जा सकता है। हम तो बदलते युग की पहचान बनना चाहते थे, हम आजाद परिंदे थे और ऊंची उड़ान ही हमारा लक्ष्य था, लेकिन वह धरा ही भसक गई, क्योंकि उसकी जमीन में भ्रष्ट माटी लगा दी गई थी, जिसका धसकना तो लाजमी ही था। अब वह धसक गई है तो इसने देश की बुनियाद को ही हिलाकर रख दिया है। यह वक्त है सियासत का, यहां सियासत ने जो सितम ढाए हैं, उसने उन लोगों की कुर्बानी को जाया कर दिया है, जिसने देश के लिए न जाने कितने त्याग किए थे। मगर सियासतो के सौदागरों ने अपनी सत्ता के लालच से इसे मट्टी पलीद कर दिया है, आज अगर सबसे ज्यादा बू आती है तो इन्हीं सफेद कुर्तों वालों के पास से आती है, जिनके पास पूरा पॉवर है और उस पॉवर का इस्तेमाल इन गलत हाथों में है, आखिर क्यों यह देश के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है, उसके साथ छलात्कार और बलात्कार किया जा रहा है, इसकी दुर्दशा दुर्दांत होती जा रही है, लेकिन इसकी चिंता किसी को नहीं है, गद्दारों की कमी नहीं है, इनके कारण ही देश के सितारे गर्दिश में चले गए हैं। आज अमेरिका, चीन, रूस, जापान हम पर राज कर रहे हैं, हम उनसे कोसों दूर हैं। हमारा न तो कोई हिस्सा है और न ही कोई हैसियत...आज उनके सामने हमें भिक्षकों की भांति खड़े रहना पड़ता है, क्या यह आजादी है या फिर यह आजादी है कि हमारे यहां हर अमीर गरीब पर शासन चलाता है, हर बड़ा अधिकारी नियमों का उल्लंघन करता है। हर नेता जनता को धोखा देता है और वादों की एक कमजोर नींव खड़ी करता है और वह उसके हाथ में सत्ता आने के बाद जमींदोज हो जाती है। आईएस से लेकर रुटिन अधिकारी तक जाने वालों की हालत बहुत ही खराब है, हर कोई इस भ्रष्ट सरिता में डुबकियां मार रहा है, मगर किसी को कोई परवाह नहीं है क्योंकि अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता। आज यह सब देखकर इस आजादी को मनाने का दिल नहीं करता है, क्योंकि हम आजाद हैं आजादी हमारे पास है, इस पर शक हो रहा है, हर कोई तो हम पर शासन करने में जुटा है, कभी महंगाई तो कभी विकास के नाम पर हमें ठगा जा रहा है, बावजूद हम सहने में लगे हैं और लग रहा है कि हमारा खून सूख चुका है। तो कैसी है यह आजादी और आखिर क्यों हमें इसपर गर्व हो, क्योंकि यहां गर्व जैसी तो कोई बात ही नहीं दिखाई देती है। यह दर्द है, अगर यहां से ऐसा लग रहा है कि हम गुलाम हैं, आजाद भारत में गुलाम...।

Wednesday, August 11, 2010

गर्दिश में हैं सितारे



किसमत ही है वह जो आदमी को राजा से रंक बना देती है, जमीं से आसमां तक पहुंचा देती है, कल तो जो गलियों की खाक छान रहा है, उसे बादशाह का ताज दिला सकती है। इसका कोई भरोसा नहीं है, क्योंकि यह कभी तो इतनी मुहब्बत लुटाती है कि दिल भर जाता है और कभी तो इतनी रुसवाई और बेवफाई देती है कि जिंदगी जहन्नुम से भी बद्तर हो जाती है। इसे भाग्य का फेर और समय का चक्र कहते हैं, और यह निरंतर बदलता रहता है। जिसके लिए यह होता है वह कालचक्र में विजेता बन जाता है और जिसके विरोध में घूमता है उसे कोई नहीं बचा सकता है। यह तेज भी है और तर्रार भी। इसके वार की आवाज नहीं आती है और इसकी रहमत को कोई चुनौती भी नहीं दे सकता है। जब यह मेहरबान होता है तो खुद जमीं और आसमां तुम्हारे कदम चूम लेते हैं और जब धोखा देता है तो दर्द भी तुम्हारा दामन छोड़ देता है। कुछ यही हुआ है किसमत के धनी धोनी के साथ। जब वो आए थे तो उनके सितारे बुलंदियों पर थे। वो बल्ले को हाथ भी लगा दें तो वह छक्के पर छक्के उगल देता था। उनकी मौजूदगी ही उनके विरोधियों को जमीं चटा देती थी, लेकिन वक्त और हालात किसी के गुलाम नहीं होते हैं, इनकी चाल तो हर वक्त बदलती रहती है। बस यही हुआ है धोनी के साथ। जो कल तक अपने सितारों के दम पर जीत का सेहरा पहनते थे, आज वही सितारों ने उनका साथ छोड़ दिया है। आज टीम की बुरी गत हो गई है, टीम को नंबर एक का ताज दिलाकर क्रिकेट का नया बादशाह बनाने वाले धोनी अब उसे गर्त में ले जा रहे हैं। जिस तरह से टीम इंडिया के फजीते हो रहे हैं, उसने निश्चय ही उसके भविष्य पर तो सवालिया निशान लगा ही दिए हैं, साथ ही विश्वकप का संकट भी खड़ा कर दिया है। टीम का मनोबल पूरी तरह से खाई के अंदर घुसा हुआ है, जहां सिर्फ अंधेरा ही अंधेरा है, और सूरज की कोई किरण वहां नहीं जाती दिखाई दे रही है। टीम अपने पट्टे पिचों पर तो जोरदार धमाल मचाती है और तीन सौ रन का अंबार लगा देती है, लेकिन जब थोड़ी तेज पिच मिलती है तो ये बैट पकड़ना ही भूल जाते हैं। अगर देखा जाए तो इस समय टीम को देखकर लगता ही नहीं कि यह टीम विश्वकप खेलने के लायक है। जो कार्य कई साल पहले या कई महीनों पहले से हो जाना चाहिए, वह अभी तक नहीं हुआ है। टीम में न तो खिलाड़ी कन्फर्म दिखाई दे रहे हैं और न ही जीत की कोई उम्मीद। टीम के पास ऐसा कोई भी गेंदबाज नहीं है, जिसे विश्वकप के लिए पक्का कहा जा सके। किसी के पास स्टेमिना ही नहीं है कि वह सात ओवर एक साथ डाल दे। न तो फास्ट बॉलिंग ठीक है और न ही स्पिन। एक ही गेंदबाज को ुटीम इंडिया का जमाई बना रखा है, वहीं तीन-चार गेंदबाजों को फ्लॉप होने के बावजूद दांव खेला जा रहा है, आखिर गधे पर आप कितनी ही मेहनत कर लो, लेकिन वह कभी घोड़ा नहीं बन सकता। ठीक हालात टीम इंडिया के हैं, वह इस समय बेदम पड़ी हुई थी, अब आखिर कैसे टीम ऊपर आएगी और नहीं आई तो क्या होगा देश के ख्वाब का, क्या हमारे लिए विश्वकप एक आस ही बनकर रह जाएगा। क्या सचिन ने जो सपना देखा है वह पूरा हो पाएगा। जिस तरह के हालात हैं, उसे देखकर तो नहीं लगता। हम क्रिकेट में बहुत पिछड़ गए हैं और अगर एक-दो माह में कठोर निर्णय नहीं लिया गया तो निश्चय ही हम विश्वकप लाने के लायक नहीं रहेंगे। और रहा सवाल क्रिकेट के भगवान को, तो वो भी कुछ नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उनकी सेना में ही वो बल नहीं है। इसलिए जरूरी है कि कुछ माह के लिए भ्रष्टाचार को तिलांजलि देकर सिर्फ क्रिकेट खेलना होगा, और अगर हम पूरी शिद्दत से खेलते हैं तो जीत मिले न मिले, हार शर्मनाक नहीं होगी।

Monday, August 9, 2010

सितमगार सियासत

जनता का क्या हो रहा है, उसे महंगाई डायन चबा रही है, या फिर नक्सली हिंसा लील रही है। देश में कोई आतंकवाद का अजगर आकर दिनदहाड़े न जाने कितनों को निगल कर चला जाए, कोई भी भयंकर तबाही मचा दे, मगर यहां तो सनम की तरह बेवफा सरकार हो गई है और सितम पर सितम ढाए जा रही है। कौन किसके लिए और क्यों परेशान होगा, कोई नहीं जानता, क्यों किसी के लिए कोई तड़पेगा.... इन सबके लिए कोई परेशान नहीं है। क्योंकि आज सब अपने लिए जी रहे हैं, तो कौन यहां तो लोग मरे, इन्हें क्या। सियासत के ये सौदागार तो सिर्फ सौदेबाजी करने में जुटे हैं, इन्हें कोई मरे इससे क्या, इनके घर में उजाला रहना चाहिए। अगर वह नहीं रहा तो हाहाकार मच जाती है, वरना तो कुछ भी हो जाए, इनके कानों में जू तक नहीं रेंगती है। जिस तरह से महंगाई ने आम आदमी को मार डाला है, उसी प्रकार कश्मीर जल रहा है, मगर इसकी परवाह किसी को नहीं। हर सियासतदार अपनी सियासत चमकाने में जुटा हुआ है और जितना हो सके माल अंदर करने में। कश्मीर में यह गंदी राजनीति वहां की वादियों को दूषित कर रही हैं। वहां लहू बरस रहा है, पर ये लोग तो अपनी दादागिरी और सियासत बचाने में लगे हैं। इंसान तड़प रहा है और ये लोग चांदी काटने में जुटे हुए हैं । केंद्र से लेकर राज्य और शहर स्तर की राजनीति का स्तर स्तरहीन हो गया है। मजबूरियों को आम आदमी के हवाले कर दिया है और खुशियों को ये लोग भगा कर ले गए हैं। कश्मीर ही नहीं जल रहा है, दूसरे राज्यों का भी यही हाल है , हर ओर तबाही ही तबाही है, नक्सलवाद न जाने कितनी जानें ले रहा है, पर परवाह कहां... आखिर दोषी भी तो कोई नहीें बनता है, क्योंकि जो दोषवान है उसके हाथ में ही तो कमान है और जब कोई आपत्ति आती है, तो वह उसे खींच देता है। भई देश का बुरा हाल है, जनता यहां हाल बेहाल है, कौन किसके लिए मरेगा और कौन किसके लिए जिएगा, इससे किसी को लेना देना नहीं है। देखा जाए तो अपनी जेबें भरे और बाकी कोई लेना देना नहीं है। नक्सलवाद ने छत्तीसगढ़ को लील लिया है, यहां पुलिस की खैर मना रखी है, मगर इन पर कार्रवाई की जगह खानापूर्ति हो रही है। इस भयावह समय में आखिर न तो सरकार जिम्मेदारी लेती है और न ही कोई लेना चाहता है। इससे ही बर्बाद हो रहा है देश। यहां सभी नेता भ्रष्ट चोर हो गए हैं, हर किसी को सियासत दुधारू गाय नजर आ रही है। सभी दुह लेते हैं। इन सबके पीछे हर कोई चुप्पी बांधे बैठा है, तड़प और तरस रहा है तो वह है आम आदमी। उसकी पुकार सुनने के लिए किसी ने अपने कान नहीं खोल रखे हैं, इसकी न तो किसी को फिक्र है और न ही किसी को चिंता। सब अपनी मर्जी के मालिक बन बैठे हैं, जनता ने जिस उम्मीद से उन्हें उस मुकाम तक पहुंचाया था, वो वहां के खुद को सेवक नहीं बादशाह समझने लगे हैं और जनता को जर्नादन नहीं, बल्कि अपना गुलाम मान बैठे हैं। ऐसी स्थिति में विरोध के ज्वर निकलना तो स्वाभाविक ही थे, इसे कौन रोक सकता था। जहां नजर जा रही है वहां समुंदर की तरह पानी ही पानी नजर आ रहा है, मगर यह पानी भ्रष्टाचार का है, जिसमें सब डुबकी लगाने में जुटे हुए हैं। अब इतना सब हो रहा है, पर कोई सांस तक नहीं ले रहा है, बल्कि ऊलजुलूल बयान देकर लोगों को उकसााया जा रहा है, शांति और भ्रष्टाचार को बढ़ावा दिया जा रहा है। इन सबके चलते आखिर भारत समस्या से घिरी वह जोरू नजर आ रही है, जिसके सभी मालिक हैं और सभी उसके साथ छलात्कार करने में जुटे हैं।

Monday, August 2, 2010

बचा लो इस जन्नत को


- यह जन्नत भी है और जहन्नुम भी
अगर आप भगवान पर विश्वास करते हैं तो आपको शैतान पर भी विश्वास करना ही होगा...यह बात आज से कई साल पहले एक हिंदी फिल्म में कही थी, निश्चय ही यह सही है, क्योंकि जहां पॉजिटिव होता है, वहां निगेटिव भी होगा। यह वैज्ञानिक सत्य है और इसे कोई झुठला नहीं सकता है। यहां न्यूटन के तीसरे नियम पर भी प्रकाश डालना चाहूंगा, जिसमें लिखा हुआ है कि प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है, यह भी सत्य है, उसी तरह जहां खूबसूरती होती है कांटे भी वहीं होते हैं, यह प्राकृतिक रूप से भी सत्य है, क्योंकि गुलाब की हिफाजत के लिए कांटे हैं और कोई उसे आसानी से मसल न दे, लेकिन यहां तो बात कुछ और ही है...जी हां, हम बात कर रहे हैं इस धरती की जन्नत की। इस वाक्य से आप समझ गए होंगे कि हमारा इशारा किस ओर है, बिलकुल सही...कश्मीर की बात हो रही है जी...धरती की इस जन्नत में हर कोई जीना चाहता है, यहां रहना चाहता है, वो बहुत खुशकिस्मत हैं, जिन्हें यह नसीब हुआ है, वरना तो कुछ अभागे ऐसे भी हैं, जिन्हें इस जन्नत की जमीं नसीब ही नहीं हुई है। मगर इस जन्नत में ये क्या हो रहा है, यहां की खूबसूरती के पीछे का काला दाग उसे लील रहा है, यहां की वादियां जल रही हैं, घाटियों में आग निकल रही है, यह हाहाकार कैसा, यह विचलन कैसी, यह लोग क्यों बिलख रहे हैं, कहां तड़प रहे हैं, यहां की धरती लाल क्यों है, हवा बेचैन क्यों है, न जाने इस सन्नाटे के पीछे कैसी तबाही है, क्यों तड़प रहा है कश्मीर, क्या हो गया है इसे? आखिर क्या कारण हो गए हैं कि देश का यह टुकड़ा देश के दिल से टूट रहा है, लोगों को यहां पैदा होने पर दु:ख क्यों हो रहा है..., इन सवालों के जवाब मिलना तो मुश्किल है, लेकिन जो कुछ भी कश्मीर में हो रहा है , वह कहीं न कहीं देश और जम्हूरियत के हित में नहीं है। जिस तरह से लोग अपने फायदे के लिए यहां ज्वालामुखी भड़का रहे हैं, वह बेहद चिंता का विषय है, जिन लोगों के मासूम चेहरे बर्फ की तरह स्वच्छ दिखाई देते हैं, उनके अंदर इतना खौफनाक शैतान कैसे प्रवेश कर सकता है। अब तो यहां के हालात देखकर डर सा लगने लगा है, साथ ही हैरत भी होती है कि क्या लोग इतने स्वार्थी भी हो जाते हैं, कि यहां तक गिर जाते हैं। जो आग इस समय जम्मू-कश्मीर में जल रही है, उसका अंत तो नहीं, बल्कि उसमें लगातार घी डाला जा रहा है, लोग मुहब्बत के इस शहर में नफ्रत की बीच बो रहे हैं और यहां अंगार पैदा हो रहे हैं। तो क्या हालात हमेशा ऐसे ही बने रहेंगे, निश्चय ही हम कितना ही लिख लें, जागरूकता लेकर आ जाएं, जब तक आवाम नहीं समझेगी, तब तक कुछ नहीं होगा, क्योंकि सियासत के यह सौदागर अपनी गद्दी के लिए इसे जलने के लिए आग में छोड़ देंगे और उनका कोई मिशन नहीं है कि यहां पर शांति आए। मगर देश की रक्षा तो हमारा ही फर्ज है और उस जन्नत को संभालना न सिर्फ उन कश्मीरियों की जिम्मेदारी है, बल्कि दिल्ली में बैठी सरकार का भी फर्ज है। जब गांधी परिवार को सत्ता का मोह नहीं है, सोनिया जैसी लीडर जो पद की लालसा नहीं रखती तो वे कश्मीर को लेकर कोई सख्त कदम क्यों नहीं उठाती, और देश में हिंदुत्व का झंडा लहराने वाली पार्टी इस कश्मीर में शांति के लिए कोई प्रयास नहीं करती। इसे तो सिर्फ फालतू लोगों को पीटकर अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करते आता है। यहां मैं सभी से गुजारिश करना चाहूंगा कि बचा लो इस जन्नत को, जो आज जहन्नुम बनने की कगार पर खड़ी है, यहां कोई अवतार नहीं होगा, जो भी करना है बस हमें ही करना है, आगे भी हमें ही आना होगा, कश्मीर में लगी आग को बस अब बुझाना होगा, वरना यह आग बढ़कर पूरे भारत को लील जाएगी।