Thursday, September 30, 2010

अयोध्या का धर्मसंकट


बागों में बयारों में सन्नाटा छाया है
दहशत और डर का साया है
क्यों अमन में आंच आ रही है
...धर्म के नाम पर आवाज आ रही है
तनाव का तूफान फैल गया है...बस गुजारिश है
इसे यूं ही थमने दिया जाए...
अयोध्या पर फैसला किसी धर्मसंकट से कम नहीं है। आखिर अयोध्या के अध्याय का बवंडर पूरे देश में फैल रहा है, कब क्या हो जाए, कहां से कोई चिंगारी उठकर शोला बन जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। दिलों में आग दहक रही है और एक गलती उसे ज्वालामुखी बना देगी। ऐसे में कुछ दिलों में अमन के लिए भी जज्बात उमड़ रहे हैं, आखिर फैसले की इस घड़ी में हर कोई दोहरी जिंदगी में फंस गया है। क्यों यह मुश्किल हो रही है, क्यों आईने में तस्वीरों पर खून नजर आ रहा है, क्यों समुंदर की लहरे आज टकराकर बाहर आने को बेताब हैं, क्यों इस फिजा में गरमी बढ़ गई है, क्यों मुहब्बतों का बाग की खुशबू खत्म होती नजर आ रही है। अयोध्या ने तो अपने नाम के अनुरूप ही हमेशा फैसला किया है, यहां कोई युद्ध नहीं, लेकिन देश क्यों बेताब हुआ जा रहा है, पार्टियां क्यों सियासत के लिए सितम ढा रही हैं, आज तो क्वार की यह धूप भी दहक रही है, मगर पहरा भी तो है। यह सूरज की रोशनी पूरे समय पहरा दे रही है, कहीं आशंकाओं के बादल इस भय को बढ़ा न दें, कहीं कोई तनाव का तूफान आकर देश को उजाड़ न दे। हर किसी की आंखें और कान अयोध्या पर लगे हैं। मजार और मूर्ति का यह लफड़ा पचड़ा बन चुका है, जिससे पूरा देश बदनाम हो गया है। सालों की शांति में आज खौफ नजर आ रहा है। दिलों में रहने वाली मुहब्बत में आज जहर दिखाई दे रहा है। जो गुलशन दोनों धर्मांे की इबादत से गुलजार होता था, आज वह मजधार में फंसा हुआ है । आपस में प्रेम करना सीखो मेरे देश प्रेमियों, मगर यहां तो कुछ और ही हो रहा है, मंदिर और मस्जिद की लड़ाई घर-घर में पहुंच गई । रगों में खून की जगह धर्म बहता दिखाई दे रहा है और यह देश के लिए काफी घातक हो सकता है, क्योंकि यह भावनाओं का उबाल है , और जब यह आता है , तो सिवाय तबाही के और कुछ भी नहीं होता है। देश उस अंधी आग में सो रहा है और यह जागेगा तो न जाने क्या होगा। पूरा विश्व आज हमारे यहां मेहमान बना है, और ऐसे में हमारी हर हरकत पर उनकी नजर है । नजरे तो उन दुश्मनों की भी हैं, जो सालों से ऐसे मौकों के इंतजार में जुटे हुए हैं। मस्जिद और मंदिर के खेल को वो दिलों तक पहुंचाकर उसमें ज्वार लाना चाह रहे हैं। ऐसे में हमें ही उस फिजा को स्वच्छ रखना होगा, जो बदलती नजर आ रही है। इस धर्मसंकट के लिए न तो कोई राम आएंगे और न ही कोई अल्लाह। कुछ खून खराबा हुआ तो वह भी हमारे अपनों का ही होगा। दर्द भी हमें होगा और खून भी हमारा ही बहेगा। इसलिए संयम और सन्मति के इस मौके पर देश हित का फैसला लें, पूरी तरह से शांति और संयम धारण कर इस डर पर जीत दर्ज करें। शांति और एकता के इस पथ पर चलने वाले हमारे देश को कोई भी फैसला डिगा नहीं सकता, सालों से जो हमारे हैं, उनसे हम लड़ नहीं सकते, देश को आज अमन की आस है, और उस पर हमें आंच नहीं आने देना है।

Thursday, September 2, 2010

हे पार्थ यह तो कर्मयुद्ध है...



इतिहास गवाह है कि अगर महाभारत के युद्ध में कृष्ण पांडवों का साथ न देते तो अकेला कर्ण ही पूरी सेना पर भारी पड़ता, लेकिन मैनेजमेंट के इस गुरु ने ऐसा युद्ध मैदान में बिना शस्त्र उठाए ऐसा खेल दिखाया कि कौरवों की अपार सेना के साथ महावीर और विश्वविजयी कर्ण भी हार गए। पांचों भाइयों के साथ खड़ा ये ग्वाला अपनी वैराग्यता और चातुर्यता से पूरे युद्ध की वल्गाएं खींच रहा था, यह शस्त्र तो उठा नहीं रहा था, लेकिन सारथी बना बैठा पार्थ के रथ की वल्गाएं नहीं थामे था, बल्कि पूरे युद्ध की वल्गाएं इसके हाथ में थी। यह जिस तरह चाह रहा था, वैसा ही तो उस युद्ध भूमि में हो रहा था। इसने हर मान को और हर वचन को निभाया, लेकिन कर्ण के सामने यह छोटा पड़ गया। जिस समय अर्जुन और कर्ण का युद्ध चल रहा था, उस समय कृष्ण ने कहा कि जीत के लिए सारे साम, दाम, दंड भेद और कूटनीति सबका इस्तेमाल कर दो , क्योंकि हार के बाद तुम्हें कोई नहीं पूछेगा। तुम इस धरती में मिट जाओगे। ठीक वहीं हुआ कर्ण के साथ, सत्य का वह पुजारी, कान्हा की आंखों और चातुर्यता की भेंट चढ़ गया, लेकिन वचन का तो वह भी पक्का था, तभी तो कान्हा ने भी उसकी देह को ऐसी जगह ले गए, जिस पर किसी और का वश नहीं चलता। उदंडता तो उस समय हो गई थी जब कान्हा ने अपने वचन से भी दगा कर दिया था, उन्होंने जो वचन दुर्योधन को दिया था, वह कर्ण के आगे टू ट गया, लेकिन कर्ण ने जो अपनी मां को वचन दिया था, उसने उसका पूरा मान रखा। वह चाहता तो उन चारों भाइयों को कब का मौत की नींद सुला सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसे तो केवल अर्जुन को मारना था, लेकिन अर्जुन के साथ तो चालबाज कन्हैया था, जिसने पूरे समय कर्ण से उसे दूर ही रखा। पहले उसका कवच-कुंडल हथियाया, फिर श्राप का कोप और बाद में धोखा...इसके बावजूद भी वह वीर कर्ण शूरवीर की तरह लड़ा। इस दौरान का वह प्रसंग भी तो हैरत करने वाला ही था, जब कर्ण बाण मारता तो अर्जुन का रथ 5 फीट पीछे जाता, और जब अर्जुन बाण मारता तो कर्ण का रथ 10 फीट पीछे चला जाता। इस पर कर्ण के बाण पर मुरली वाले कहते वाह कर्ण वाह...यह देखकर अर्जुन हैरत में पड़ जाता है और वह कहता है कि हे कान्हा आखिर मेरे बाण का असर तो ज्यादा दिखाई दे रहा है फिर कर्ण के बाण पर आप उसे वाह-वाह क्यों दे रहे हैं, तो कान्हा कहते हैं अर्जुन तेरे रथ पर तो मैं और हनुमान बैठे हैं, तब भी पांच फीट जा रहा है, उसके रथ पर तो कोई नहीं है। आखिरी में उसका रथ कीचड़ में फंस जाता है, उस समय कर्ण ने कहा था कि मैं निहत्था हूं और वीर निहत्थों पर वार नहीं करते, लेकिन कृष्ण ने उस समय अर्जुन को कहा कि इसे मत छोड़ो और वहीं पर उसका वध कर दिया गया। वह मर कर भी युद्धभूमि को अमर कर गया। ऐसा महान था कर्ण, जिसने कृष्ण के कद को छोटा बना दिया था। बात यहां कृष्ण को कम करने की नहीं है,बल्कि यह भी है कि युद्धभूमि में कोई किसी का रिश्तेदार नहीं होता है और यह जीवन एक कर्मयुद्ध है, अगर यहां सभी योद्धा हैं और जिस तरह एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकती हैं, उसी प्रकार एक युद्ध में दो विरोधी वीर नहीं हो सकते , या तो उसे मरना होगा या इसे। भावनाओं के खेल वास्तविकता के धरातल पर चकनाचूर हो जाते हैं और सपने हकीकत तभी बनते हैं, जब उसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति और असीम त्याग करना पड़ता। अर्जुन कई बार दुर्बल हुआ, लेकिन उसके साथ वह कृष्ण था। आज भी हमारे पास कृष्ण के आदर्श हैं और उस तरह से जीवन को जीना चाहिए, क्योंकि मैनेजमेंट का जमाना है और अगर जीवन मैनेजमेंट आपने नहीं किया तो कुछ नहीं हो सकता है।