Thursday, July 28, 2011

बदजुबान को छूट दी जाती है...


कहावत है कि कम बोलो अच्छा बोलो, और अगर ऐसा नहीं कर सकते हो तो चुप रहो, खामोशी में बड़ी ताकत होती है। यह अभी तक सर्वमान्य था, लेकिन अब तो वाचालों का जमाना आ गया है, जो बोलता नहीं है, वह हमेशा दु:खी रहता है और जो बोलता है, वही रेवड़ी ले जाता है। न बोलने वाले तो अपना हक भी खो देते हैं और जो बोलते हैं ,वह ही उन न बोलने वालों का हक उड़ा ले जाते हैं। अभी तक यह बातें आप समझ नहीं पाए होंगे, या फिर कयास लगाने में जुटे हैं, लेकिन अब बता दें कि यह पूरा का पूरा राजनीति के संदर्भ के साथ आम जीवन की बात को भी परदे पर बकायदा स्क्रिप्ट के जरिए उतारने की कोशिश की जा रही है। जिस तरह से प्राय: बयानों के ब्लास्ट होते हैं, उसमें कई घायल हो जाते हैं, लेकिन ये घायल जब निरुत्तर हो जाते हैं, तो जीत उसी की मानी जाती है, जिसने घायल किया हो। कांग्रेस के पास एक मदारी है, और उसका डमरू सोनिया गांधी के पास है। यह मदारी जब देखो तब ऊल-जलूल बयान दे देता है, कभी आतंकवादी तो कभी जोकर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता है। इस मदारी की मालकिन मैडम है, और वह इसे जहां देखो वहां पर भेज देती है। वहीं कई और भी बंदर हैं, जो डमरू नहीं दिल्ली के इशारों पर नाचते हैं, और उनसे संबंध बनाने के लिए ये न जाने क्या-क्या कर डालते हैं। इनकी हालत तो उनकी उतरैल तक पहनने की हो जाती है, मगर सार्वजनिक नहीं कर पाते हैं। कई बार तो पतलून साफ करने से भी नहीं हिचकते हैं। हां, ये लोग पब्लिक के बीच फेमस होने के चलते सभी चीजें छुपा जाते हैं। खैर... यहां सिर्फ एक ही पार्टी या एक ही व्यक्ति के पास बिच्छू नहीं है, बल्कि हर डाल पर उल्लू बैठे हैं और उनसे बचने के लिए न जाने कितने जोर लगाने पड़ते हैं। इनके बयानों को बारूद के ढेर तक ले जाने का कार्य इनका पिछलग्गू बना मीडिया करता है। वह बार-बार आग को हवा दे देता है , और विस्फोट के बाद कई बार विस्फोट करने की कोशिश करता रहता है। अब देखने की कवायद यह नहीं है कि हम क्या करते हैं, लेकिन इनकी निर्लज्जता देखकर अफसोस होता है कि क्या इस तरह के लोग भी हैं समाज में। हमने डेल्ही बेली पर राजनीति होते देखी है। वहां गालियों का विरोध किया गया था, कोई बात नहीं, ठीक है, लेकिन जब मंच से गालियां बकी जाती हैं, तो फिर वहां गरिमा नहीं खोती है। नेता अपने घर के अंधेरे को नहीं देखते हैं और दूसरे के घरों के अंधेरे पर सवाल उठाने लगते हैं। यह कोई एक पार्टी नहीं है, बल्कि हर पार्टी के पास ऐसे बिच्छू हैं और वह देर सवेर इस तरह की हरकतों को अंजाम देने से नहीं चूकते हैं। तब लगता है कि देश की राजनीति जो कभी गरिमा का पर्याय बनी रहती थी, आज न जाने कहां खो गई है, कहां गुम हो गई है। यहां भाषाई शत्रुता निभाई जा रही है, लेकिन इसे रोकने वाला कोई भी नहीं है। हर कोई जीवन को अपने तरीके से जीने की कोशिश कर रहा है, यह ठीक है, लेकिन ये लोग ऐसे हैं जो दूसरे के जीवन को भी प्रभावित करने से गुरेज नहीं करते हैं। बयानों से बखेड़ा खड़ा कर समाज में ज्वाला भड़काने की हर वो कोशिश करते हैं, जिससे की चिंगारी शोला बन जाए। कई बार ऐसा हुआ भी है, और कई बार ऐसा नहीं भी हुआ है। माना आज का युवा समझदार है, लेकिन ऐसा बहुत कम मौकों पर हुआ है। जिस तरह से हमने देखा है कि आदमी आदमी का दुश्मन है, लेकिन जिन्हें हम अपना भविष्य देते हैं, वही हमें डुबो रहे हैं। हर नेता भ्रष्टों का सरताज बनने की कोशिश कर रहा है। मुंह से आग उगलता है और तिजौरी भरता है। उनके पास सिर्फ यही काम है। तब देश का विचार आता है कि आखिर उसकी दिशा क्या है। जिस तरह से देश पर संकट है, उससे तो यही लगता है कि आखिर उसके तो उड़ने के पर इन लोगों ने पहले ही बांध दिए हैं। हम कौन सी तस्वीर पेश करना चाहते हैं, यह हम नहीं जानते। पर जिस तरह का माहौल देश में बना है, उसे देखते हुए सबसे पहले कोई ऐसा कानून बनाने की जरूरत है, जिसमें कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक इस तरह की भाषा का प्रयोग न करे। मानहानि के दावे को बढ़ाना चाहिए। माना मौलिक अधिकारों में अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन यह विचार तो नहीं हो सकते हैं, और फिर विचार आप सार्वजनिक इस तरह की भड़काऊ भाषा के साथ प्रस्तुत तो नहीं कर सकते हो, क्योंकि जिस तरह से व्यवस्था के साथ नाता तोड़ा जा रहा है, वह चिंतनीय विषय है। हमारे राष्टÑपिता ने तो अंग्रेजों की लाठियां खाने के बावजूद भी कभी इस तरह से अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। अहिंसा को हथियार मानने वाले हम कहीं अपनी सोच से परे तो नहीं हो गए हैं। हम सिर्फ बातें अहिंसा की करते हैं, लेकिन हिंसा में पूरा विश्वास करते हैं, और यह टूटे नहीं, इसके लिए कई बार प्रयास भी करते हैं। कभी-कभी हिंसा का टेÑलर भी दे देते हैं, जिससे परिस्थितियां विपरीत हो जाती हैं। खैर फिलहाल तो इन्हें नसीहत ही दी जा सकती है।

Wednesday, July 27, 2011

ब्यूटी विथ ब्रेन


ईश्वर जिसको भी देता है, उसे छप्पर फाड़कर ही देता है। यह कई मौकों पर साबित भी हुआ है और साबित होता रहेगा। एक बार फिर हम ईश्वरीय बातों से निकलकर सियासत के चक्रव्यूह में आकर बात करते हैं। वह भी भारत-पाक की सियासत के सिलसिले में, जहां कुटिलता के साथ ऊपरी दिखावा भी होना चाहिए। यहां हर एक कदम फूंक-फूंककर रखा जाना चाहिए। लंबे समय से हम अपने पड़ोसी के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। आखिर पड़ोसी भी तो ऐसा ही है, बिना वजह हम पर हमले और विस्फोट करता रहता है। आखिर कब तक हम उससे रिश्तों की बात करेंगे, जब वह हमें खत्म करने पर ही आमादा है, तो ऐसी स्थिति में हमने भी तो हाथों में चूड़ियां नहीं डाल रखी है। माना की हम शांतिप्रिय हैं, लेकिन जब बात गर्व की है, सम्मान की हो, देश की आबू्र की हो तो फिर हम मरने से नहीं डरते। तो क्या हुआ कि हमारे बाद हमारे परिवारों को दु:ख होगा, तो क्या हुआ कि हमारे बाद उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, तो क्या हुआ कि वो लोग दर-दर की ठोंकरें खाएंगे, लेकिन देश पर मर मिटने से पीछे हटने के लिए ये कारण पर्याय तो नहीं हैं। बात सियासत के शिखंडियों की, जो अपने-अपने फायदे के लिए झूले को इधर-उधर ढकेलते रहते हैं। यह तो हुई अभी तक की बातें, लेकिन पाक की सबसे लोकप्रिय विदेश मंत्री भारत में मेहमान हैं। अब उन्हें देखकर तो उनकी खूबसूरती का हर कोई कायल हो सकता है। 30-31 साल की यह महिला हिना रब्बानी...जिसे पहली बार देखो तो किसी पॉलिटिकल पार्टी की नहीं,बल्कि फिल्म की हीरोइन अधिक लगती है। वाह, खुदा भी किसी किसी पर कितना मेहरबान हो जाता है। मैडम के पास ब्यूटी की कमी नहीं है, माशाअल्लाह ब्रेन भी लाजबवा है...और तो और दौलत भी खूब है। पाक की यह विदेश मंत्री...न सिर्फ अपनी खूबसूरती से भारत को दीवाना बना गई, बल्कि पाक की ओर से उसने जो शिगूफे छोड़े, उसमें भारत उलझ कर रह गया। जब वह मिस्टर कृÞष्णा कहकर हमारे विदेशमंत्री को संबोधित कर रही थी तो फिर कृष्णा साहब के पास सिवाय मुस्कराने के और कोई चारा नहीं था। हां, कुछ लोग पहले आंक रहे थे कि इतनी कम उम्र की लड़की, और उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी गई, कहीं वह फेल न हो जाए, लेकिन जिस तरह से उसने चीजों को हैंडल किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है, और तो और उसने भारत के सामने यह विकल्प भी रख दिया कि बातचीत के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। लंबे समय से भारत कई बार अपनी जिदों पर अड़ जाता था। मुंबई हमले के बाद हमारे बीच काफी तनातनी थी, एक बार फिर बातचीत के जो द्वार खुले हैं, उसमें हिना पूरी तरह से भारी नजर आर्इं। हिना की बेबाकी और उनकी इंटेलिजेंसी का हर कोई कायल हो गया। उनकी बातें पाक में भी सुनाई दे रही होंगी और उन्हें भी अपनी कम उम्र की बेटी पर गर्व होगा, क्योंकि बकायदा उन्होंने दिखा दिया कि उन्हें धुप्पल या फिर सिफारिश में विदेश मंत्री का पद नहीं मिला है, बल्कि इसके लिए बकायदा उनमें कूबत है, हुनर है और इसी हुनर पर भरोसा कर के उन्हें विदेशमंत्री का पद दिया गया है। उनकी बातें सुनकर भले ही टिप्पणीकर या आलोचक उन्हें कम उम्र और अनुभवहीनता की सलाह दें, लेकिन यह उनके पर्सनल विचार होंगे और यहां जो लिख रहा हूं, वह भी मेरे पर्सनल विचार हैं, जिसमें मैंने पाया कि वास्तव में हिना ने बेहतर तरीके से नेतृत्व क्षमता दिखाई। हां, उनकी कुछ बातें अलग थीं, लेकिन नया कुछ भी नहीं निकला। इसे रुटीन मीटिंग ही कह सकते हैं, मगर इस्लामाबाद में 2012 में जो मुलाकात होगी, उसके बीच का जो समय रहेगा, वह हालात ही वहां की मीटिंग को तय करेंगे,और तभी समझ में आएगा कि आज जो मुलाकात हुई है, वह सिर्फ बातचीत की टेबल ही साबित हुई है, या फिर कुछ और। आने वाले समय में देखना होगा कि क्या हिना ने जो कहा है, उस बात पर पाक कायम रहता है, और तो और खास बात यह रहेगी कि क्या इस दौरान पाक सच्चाई और ईमादारी बरतता है, यह तो भविष्य के तीर हैं, जो पता नहीं लक्ष्य भेद पाएगा या नहीं। यह नहीं जान पाएंगे...दुनिया भी इन दोनों की बातों को टकटकी लगाए थी, क्योंकि अभी कुछ दिन पूर्व ही हिलेरी ने भारत दौरा किया था, और उनकी कुटिलता और मुस्कान के पीछे क्या छिपा है, यह समझ नहीं पाया। खैर...आने वाला समय ही बताएगा कि इन दोनों के बीच बंद कमरे में क्या हुआ और सार्वजनिक क्या हुआ...यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल तो जैसा बयान इन्होंने दिया है, उसे हम सच मानकर भविष्य की अटकलें लगाए रहेंगे। उम्मीदें पाले बैठे हैं, और यह उम्मीदें हकीकत से कितना वास्ता रखेंगी यह तो बात की बात ही है। हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि हिना रब्बानी...कुछ-कुछ अमेरिका की हिलेरी क्लिंटन को टक्कर देंगी, क्योंकि उनकी तरह इनके पास भी ब्यूटी विथ ब्रेन है।

Tuesday, July 26, 2011

अंग्रेजों के हाथों आएंगे ताज गवाकर


धोनी ने जिस अंदाज में आगाज किया है, अब अंजाम तक वह नहीं पहुंच पा रहा है। विश्व का एकमात्र कप्तान जिसने ट्वेंटी-20 के साथ विश्वकप अपने हाथ में उठाया है, आज उसकी टीम का हालात बुरे हैं। इंग्लैंड में टीम इंडिया का प्रदर्शन लचर रहा। जिस अंदाज में हमने बल्लेबाजी की है, उससे तो लगता ही नहीं कि एक विश्व चैंपियन टीम खेल रही हो। यह वही टीम है, जो पिछले एक साल से टेस्ट क्रिकेट की बादशाहत कर रही है, लेकिन इंग्लैंड में जाते ही उसकी कमजोरियां सामने आने लगी। वह अपना बेहतर खेल नहीं दिखा पा रही है। सचिन हो या फिर लक्ष्मण...कोई भी अपने खेल के अनुरूप खेल नहीं रहा है। हां, सहवाग की कमी जरूर अखर रही है, लेकिन बाकी खिलाड़ी क्या कर रहे हैं। सिवाय राहुल द्रविड़ के कोई भी बल्लेबाज अंगे्रेजों के आगे टिक नहीं पा रहा है। आखिर विश्व चैंपियन को हो क्या गया है। माना अभी दौरा बहुत बड़ा है, और आगे मौके मिलेंगे, लेकिन भारत की हार तो तभी तय हो गई थी, जब उसने प्रैक्टिस मैच में शिकस्त झेली थी। हां, उम्मीद थी कि शायद पहले टेस्ट में बेहतर करेंगे, लेकिन एक बार फिर विदेशी पिचों की वही कहानी फिर सामने आ गई। हम घर के शेर हैं,और बाहर कचरे का ढेर हैं, कोई भी हम पर भारी पड़ जाता है। अगर हम पांचवें दिन बेहतर खेलते तो शायद मैच बचा सकते थे, हमारे पास नौ विकेट थे और कोई भी बल्लेबाज विकेट पर टिककर नहीं खेल पाया। खुद कप्तान धोनी की बल्लेबाजी पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो रहा है। धोनी के धुरंधर भी धुआं हो रहे हैं और खुद माही भी अपने अंदाज में नहीं खेल पा रहे हैं। अगर धोनी की बैटिंग देखी जाए तो विश्वकप फाइनल को अगर छोड़ दिया जाए तो पिछले कई मैचों से उनका यही प्रदर्शन है। और अगर यही स्टाइल उनका खेलने का रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब भारतीय टीम फिर से पांचवें और छठे स्थान पर आ जाएगी। इसमें कोई शक नहीं है,कि आॅस्टेÑलिया और साउथ अफ्रीका जैसी टीमों से नंबर एक का ताज छीनकर भारत ने अपने खेल की धाक पूरे क्रिकेट जगत में जमाई है, लेकिन यह धाक सिर्फ एक या दो साल की ही दिखाई दे रही है। आखिर क्यों हम दुनिया का ताज सालों साल कंगारूओं की तरह नहीं रख पा रहे हैं। अगर अंग्रेजों ने हमारा ताज छीना तो निश्चय ही भारत की एक बार फिर खिल्ली उड़ जाएगी। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये वही अंग्रेज हैं, जिन्होंने भारत पर सालों राज किया है,अब उनके खेल में उनको ही हरा कर हम उनके मुंह पर तमाचा मार सकते हैं। हम उन्हें बता सकते हैं कि मेहनत अगर की जाए तो हम उन्हें उनके घर में ही मार सकते हैं। अभी हमें अपनी क्षमता के अनुसार खेलना पड़ेगा। टीम इंडिया को कुछ कड़े फैसले लेने होंंगे और खासबात यह है कि जो फीट है, वही खेले, भले ही वह कितना अच्छा गेंदबाज हो या फिर कितना ही अच्छा बल्लेबाज। पुराने प्रदर्शन या फिर कद के हिसाब से खिलाड़ी को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। फिलहाल तो टीम इंडिया को सरताज बनाने के लिए धोनी को एक बार फिर अपने लड़ाकों में मंत्र फूंकना पड़ेगा। अगर वो ऐसा करने में कामयाब हो गए तो फिॅर हमारा ताज सलामत रहेगा। हां, अभी इज्जत बचाने का मौका है, टीम इंडिया को कोई भी ढिलाई नहीं बरतना चाहिए, क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही सालों की मेहनत पर पानी फेर सकती है,और अगर एक बार यह ताज हमारे पास से गया तो फिर दोबारा इसे पाने में न जाने कितने साल लग जाएंगे। अभी एक टेस्ट तो हम हार चुके हैं, जितने भी टेस्ट बचे हैं, हमें उनमें ही कमाल करना होगा। टीम इंडिया को अपनी ताकत नहीं बल्कि शक्ति के साथ खेलना होगा। हमें वह पुरानी लय वापस लानी होगी, जो हमने विश्वकप के दौरान दिखाई थी। सचिन से लेकर सारे सीनियर खिलाड़ी और युवा चेहरों को जमकर खेलना होगा। विकेट पर टिकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दिखाना होगा। अब अगर यह करिश्मा करने में हम कामयाब हो गए तो फिर हम अंगे्रेजों को फिर उन्हीं की धरती पर धूल चटा देंगे। और वह जीत का जश्न बहुत यादगार रहेगा। अब वक्त है, रणनीति बनाने का, इंग्लैंड के गेंदबाजों का सामना करने का, उन्हें निपटाने का। इसमें धोनी की बहुत बड़ी भूमिका है, और वही रीढ़ की हड्डी हैं, वही उन्हें अपना खेल का स्तर भी सुधारना होगा, क्योेंकि वह नहीं सुधरा तो मामला थोड़ा गंभीर हो जाएगा। टीम इंडिया को कुछ बेहतर करना होगा, कुछ नए प्रयोग करने होंगे। ये धरती पुत्र धोनी...तुमसे कुछ मांग रही है, इस धरती का कर्ज तुम्हारे कंधों पर है, इसे जीतकर उतार दो। सिर्फ हम जीत मांग रहे हैं, और हमें कुछ नहीं चाहिए, बाकी हमारे दिलों के बादशाह तो आप हैं ही, और आप अगर जीतकर आए तो यह देश आपका शान से स्वागत करने को तैयार है।

Saturday, May 14, 2011

सत्ता त्याग ही नहीं बलिदान भी मांगती है...


सत्ता वह सुख है, जो सबकुछ लूट लेती है या फिर लुटा देती है। लेकिन इसका रसपान उन्हें ही नसीब हुआ है, जिन्होंने हमेशा त्याग किया और मौकों पर बलिदान दिया है। बेशक कुछ सालों के लिए उन चटोरों के भी हाथ लग जाती है, जो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं, या उन्हें मिल जाते हैं जिनकी किसमत अचानक गोता खा ले। मगर इसे संभालने की कूबत उनमें नहीं होती है। हां, यह सही है कि सत्ता हमेशा सही हाथों में नहीं रह पाई है, इससे अकसर इसका गलत इस्तेमाल ही हुआ है। वक्त के किसी भी दौर में या पड़ाव में हम पाएंगे कि जिसे भी सत्ता मिली है, उस पर हर कोई सांप की तरह कुंडली मारे नजर आया है। हर किसी ने अपने कब्जा जमाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन यह खूबसूरत है तो कातिल भी है, और धोखा देना तो इसकी फितरत में ही है, लेकिन जब भी इसे बलिदान मिलता है, उसके पास सत्ता जरूर आती है। ठीक वही हुआ है, ममता के साथ। रेल में अपना जादू दिखाने के बाद अब उन्होंने बुद्धदेव भट्टाचार्य की दुकान को पूरी तरह से ताला लगा दिया है। लगभग दो दशक बाद यह उलटफेर करने में कामयाब हुई, लेकिन लाल किला अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। बंगाल में बहुत सारी दिक्कतें हैं, और नक्सली घटनाएं तो चरम पर हैं, कई बार तो वहां की सरकारोें की मिलीभगत भी इसमें शामिल लगती है। लेकिन कोई भी देश हो या शहर या फिर कॉलोनी या घर....हर कोई शांति से रहना चाहता है, शांति से जीना चाहता है। कोई उसकी शांति में दखल देता है तो वह एक सीमा तक सहन भी करता है, लेकिन जब सब्र का बांध आम आदमी तोड़ देता है, तो फिर बड़े से बड़े पहाड़ों को भी डोलना पड़ता है, उन्हें भी अपना कद छोटाकर जनता को आगे जाने देना पड़ता है। ममता ने लंबे समय से त्याग किया, बलिदान किया, यह वहां की जनता ने समझा और लाल किले को ढहाने में ममता को पूरा साथ मिला। नतीजा सामने है, सालों से बंगाल में वाम मोर्च का काला जादू कहीं फुर्र हो गया। वैसे भी जब रोशनी की किरण आती है तो सारे जादू जल जाते हैं, खाक हो जाते हैं। इस तरह दीदी ने वहां नई उम्मीद जगाई है, वहीं तमिलनाडु में हर कोई करुणानिधि के परिवार से पीड़ित है। इस परिवार ने पूरे तमिल राज्य की वॉट लगा रखी है। कभी बेटा, कभी बेटी तो कभी खुद पिता...घोटालों का ऐसा खेल चला कि सब कुछ गड़बड़झाला हो गया। इस कुनबे की सड़ांध से पूरे तमिल में गंध आने लगी थी, लेकिन अब कुछ बदलाव हुआ है। जयललिता की ललकार ने करुणा को हिलाया ही नहीं, बल्कि जड़ से उखाड़ फेंका है। यहां भी इस घोटालेबाज परिवार का सफाया हो गया है। इसने भी खूब भ्रष्टाचार को बढ़ाया है, हालांकि पुराने पाप और पेट कभी नहीं छुपता है, उसी तरह एक-एक कर सारी चीजें परत दर परत उखड़ती जा रही हैं। वहीं बात असम की, तो वहां पर सब सामान्य ही रहा। जिन्होंने दस सालों से सत्ता चला रखी थी, उनका कार्य काफी प्रभावशाली रहा, जिससे जनता का भरोसा उन्हेंमिला और सत्ता का स्वाद फिर उन्हीं की जुबान लेती दिखाई देगी। बात आगे की हो तो फिर पुदुचेरी में कांग्रेस का सफाया हो गया। हालांकि यहां 30 सीटें ही थीं, लेकिन कांग्रेस यहां प्रभाव डालने में पूरी तरह से असमर्थ साबित हुई, जिससे सत्ता दूसरे को मिली। इसके अलावा केरल में ओमान चांडी पर विश्वास किया है जनता में। फैसला काफी महत्वपूर्ण और पार्टियों को चेतावनी देने वाला है, क्योंकि जिस तरह से जनता बदलाव कर सत्ता से बेदखल कर देती है, उससे पार्टियों को सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि अगली बारी यूपी, एमपी जैसे कई राज्यों की है, जहां पर मनमानी की जा रही है। इसमें यूपी में तो अंधा कानून है, और अपराधियों के जल्वे बरकरार है, कौन कहां, क्या गुल खिलाएगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, सत्ता की इस आंधी को हमेशा संभालना चाहिए, क्योंकि अभी नहीं संभले तो फिर समय नहीं बचेगा।

Tuesday, May 3, 2011

आतंक का अंत या विद्रोह के वार


लादेन मारा गया...लादेन मारा गया...वो खूंखार आतंकवादी मारा गया। वह अपराधी मारा गया, जिसने वर्ल्ड टेÑड सेंटर को उड़ाया था। जिसने सालों साल अमेरिका की नाक में दम कर रखा था। आज अमेरिका ने लंबी लड़ाई के बाद उसे मौत के घाट उतार दिया। अब कोई डर नहीं, क्योंकि आतंक का वह खौफनाक चेहरे को समुंदर में डुबों दिया गया। वाह...अमेरिकियों के लिए इससे बड़ा दिन और क्या हो सकता है, क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ उन चंद सौ लोगों की नहीं थी, जिनके लोग वहां मरे थे, बल्कि यह लड़ाई उन सभी लोगों की थी, जो आज तक पूरे विश्वभर में कहीं न कहीं आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं। अमेरिका हो या फिर हिंदुस्तान। कसाब से लेकर लादेन तक। हर चेहरे में खौफ साफ नजर आता है। साथ ही दर्द भी झलकता है कि इन्होंने हमारे अपनों के खून को लहूलुहान किया है। इनके कारण न जाने कितने घरों की खुशियां छिनी हैं। न जाने कितने परिवारों के आंसू आज तक सूख नहीं पाए हैं। कितनी मांओं की आंखें अभी भी पथराई हुई हैं। दुनिया ने आतंकवाद का सिर्फ एक रंग ही देखा है। वह है लाल रंग, जिसमें सिर्फ लहू ही बरसता है। शायद आज उन परिवारों को इंसाफ मिला है, जिसकी लंबी लड़ाई में अमेरिका सालों से जूझता आ रहा है। मगर हम कितने बेबस हैं, क्योंकि हमारी आब्रू पर जिसने हमला किया है, वह अब तक जिंदा है। हमारे वो बेचारे सिपाही, जिन्होंने अपनी जानें दे दी, वो तो शहीद हो गए, लेकिन उनके आरोपियों को हम आज भी सजा नहीं दे पाएं। कितनी विडंबना है यह, कि हमारे देश में हम अपनों के ही कातिलों को सजा नहीं दिला पाए हैं। अब सवालों के घेरे और शर्म भरे चेहरे साफ दिखाई देते हैं। सीख लेनी ही है तो अमेरिका से लो, जिसने सालों बाद दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतार दिया। सालों तक कभी जमीन के गर्भ में सो गया तो कभी पहाड़ों की गुफाओं में दफन हो गया। कभी मरने की खबर आती तो कभी दहशत का वीडियो। ये सारे देखकर हर देशवासी के दिलों में उबाल आता था, और आंखों से अंगारे झलकते थे। हां, शायद हमारी जड़ों में ही दम नहीं है, या फिर सुरक्षा और सरकार दोनों की खोखली साबित हो रही हैं। जिस तरह से पूरा खेल खेला गया है, वह हमारे देश को लाचार साबित कर रहा है। देखा जाए तो हम उनकी खातिरदारी में जुटे रहते हैं, जो हमारे जान के दुश्मन रहते हैं। माफी हमारी आदत है, लेकिन यहां माफी नहीं डर दिखाई दे रहा है। डर विपक्ष में है, डर सरकार को है। समाजसेवियों के मन में है। हर कोई इस बिल्ली के गले में घंटी नहीं बांधने का साहस नहीं कर पा रहा है। खौफ भी ऐसा है कि मानों उस राग को कोई छेड़ना ही नहीं चाहता, इन्हें इनकी कुर्सियां प्यारी हैं, इसका भय है कि कहीं कुछ हो गया तो जनता भड़क जाएगी और सरकार के नीचे से कुर्सी का टेक निकल जाएगा, उस स्थिति में हम क्या करेंगे। वाकई यह बड़ा निदंनीय और चिंता का विषय है, क्योंकि जिस तरह से देश में भ्रष्टाचार का खेल खेला जा रहा है, जिस तरह से आतंकवादियों को अपना मेहमान बनाया जा रहा है, वह बहुत ही दु:ख की बात है। इन पर कौन रोक लगाएगा, कौन जनता की आवाज को देश की आवाज बनाकर इस जख्म से निजात दिलाएगा। अब तक सब खोखला साबित होता दिखाई दे रहा है। अब तक लग रहा है कि हां हम लोग बिलकुल बेफिक्र हैं, और यहां पर हर कोई बस तिजौरियां भरने में जुटा है। अब तो क्रांति का स्वर उठने दो, अब उठो...जाग जाओ, क्योंकि अभी नहीं जागे तो फिर समय नहीं मिलेगा, समय नहीं बचेगा। अब तो कुछ करना होगा, देश को बचाना होगा, क्योंकि देश में आतंकवाद कभी भीतर ही भीतर खोखला न कर दे। हमारे सामने कई तीर खड़े हैं, अगर कब हमारे दो टुकड़े करके चले जाएंगे, हम भी नहीं बता पाएंगे।

Monday, April 25, 2011

समाज की नीतियां बनाती हैं बिगाड़ती हैं

सारा खेल नीतियों का चल रहा है, अगर नीति रीति से नहीं होगी तो फिर हर चीज असफलता की कगार पर खड़ी होकर चिढ़ाएगी और हम मुंह बाए केवल देखते रहेंगे। समाज में कई विसंगतियां पैदा हो जाएंगी जो हमारे सामाजिक जीवन के साथ आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करेंगी। यह वह पतवार रहती है, जो अगर कमजोर रही तो समझ लो हमारी जीवनलीली वहीं समाप्त हो जाएगी, उस स्थिति में हमारे पास बचने के भी कोई उपाय नहीं होते हैं। जिस तरह से समाज में असुंतलन की गेंद डप्पे ले रही है, उससे यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह किस जगह जाकर रुकेगी, और यही असमंजस की स्थिति के चलते समाज से स्थायित्व गायब हो गया है। कालमॉर्क्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संरचना पर सामाजिक संरचना टिकी है, और सामाजिक संरचना तब तक बनी रहेगी, जब तक बेहतर नीतियों का निर्धारण हो सके। समाज आज दिशाहीन हो गया है और वह अंधड़ चल रहा है। कहां कुआं है और कहां फूल...इसके बारे में उसे जरा सा भी पता नहीं है। वह तो मदमस्त कहें या फिर आवारा की तरह इधर से उधर की तरह हो गया है। पूरा बवंडर हो गया है। घूम तो रहा है, लेकिन दिशा क्या होगी, इसका उसे पता तक नहीं है। ऐसे में नीतियां कमजोर बनती हैं तो प्रशासनिक तथ्य और कार्यप्रणाली को लकवा मार जाता है। वह पूरी तरह से अपंग रहती है और पानी के गद्दे या फिर हवा के गद्दे में पड़ी होकर गिड़गिड़ाती रहती है। सामाजिक नीतियों में लाचारी, बेबसी जीवन को उस खाई में पटक देती है, जहां से वापस आना आसान नहीं होता है। यह गलत समाज के सामने हो रहा है, ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि उसमें आगे आकर अपनी आवाज बुलंद करे, अगर आवाज बुलंद नहीं करेगी तो जीवन का अगला अध्याय आगे नहीं बढ़ सकता है। इस स्थिति में समाज का रोल बहुत बढ़ जाता है, उसे सामाजिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उसे पुनरुत्थान के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। उसके सामने कई बार सरकारी मशीनरी आड़े आ जाती है, लेकिन उससे निजात पाने के लिए अगर कुछ करना है तो फिर आवाज में दम होना बहुत जरूरी है,अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर नीतियां ऐसी ही बनती जा रही हैं। सामाजिक प्रेशर अगर पड़ता है तो फिर अच्छे-अच्छे फट पड़ते हैं। इन्हें समाज के संदर्भ में कुछ नए सृजन करने होते हैं, इन्हें विकास की नई पथरीली, लेकिन न्यायपूर्ण परिभाषा लिखना होती है। आज अगर ये लोग हस्तक्षेप करते हैं तो फिर बदलाव की बयार बवंडर में तब्दील हो जाती है और अपने हक में फैसला लेकर आ जाती है। इस फैसले से समाज में सकारात्म प्रभाव पड़ता है, और तब समाज में उन्नति की वह किरण रोशनी डालने लगती है। तब समाज का बगीचा खिलने लगता है, और किरण की रोशनी से मंद मंद मुस्कराता हुआ कहता है कि हां अब हमें जिंदगी मिल गई है। शायद इससे पहले हम जी नहीं पा रहे थे। समाज का यही है ढांचा, जो अपनी बुनियाद को तलाशने में जुटा हुआ है। हां, इसके पास पैर नहीं है, लेकिन यह बौद्धिक रूप से बड़ा बलवान है और तब सारी कायापलट अकेले ही कर देता है। आज समाज को क्रांति की जरूरत नहीं है, बल्कि जागरूकता के बीज बोने की आवश्यकता है। अगर इसकी खेती को हरा-भरा नहीं किया गया तो समझ लो कई चीजों में हम पिछड़ जाएंगे। तब विकास की अविरल धारा हमसे कोसों दूर हो जाएगी। सामाजिकता को भी शर्म महसूस होने लगेगी। लगेगा कि कहीं सूरज खो गया है, समाज में काला अंधेरा काबिज हो जाएगा और हवाएं भी रुख के विपरीत बहने का इरादा जाहिर करती नजर आएंगी। इस माहौल को हमें बदलना होगा। समाज की धारा जो मैली होकर गुस्सा हो गई है और उसे राह पर लाना होगा। अगर इसमें चूक हो गई तो फिर समाज को हम कैसे जोड़ पाएंगे। अब सबकुछ जल्द करना होगा, क्योंकि न तो इंसान के पास समय है और न ही समाज के पास। हर कोई घड़ी से तेज दौड़ रहा है, और यह दौड़ कहां खत्म होगी, कोई नहीं जानता है।

Saturday, April 23, 2011

अस्तित्व के लिए संघर्ष का सिद्धांत लागू है...


जब तक कश्ती तूफानों में रहती है, हर पल उसके डूबने का संकट बना रहता है, उस वक्त जो लोग उस पर सवार रहते हैं, उनके दिलों में क्या गुजरती है, शायद इसका अंदाजा सिर्फ वो ही समझ पाते हैं। हम तो दूर से देखकर चीजों की गहराई में उतरने की कोशिश भर कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता और कल्पना के बीच में कई मीलों गहरी खाई होती है, कई बार यह खाई महीन हो जाती है तब फर्क करना भी मुश्किल रहता है। बेशक जब वह कश्ती तूफानों से बाहर निकल आती है और उन पर सवार लोगों को लगता है कि हां अब हमारी जिंदगी पर कोई खतरा नहीं है, उस स्थिति शायद उनसे ज्यादा ख्ुाशी और किसे मिलेगी। मौत के मुंह से बाहर आने के बाद जो जिंदगी मिलती है, वह बेहद अनमोल रहती है और उसकी कीमत सबसे महंगी रहती है। वही आज का समय है, जब जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष हैं। कहावत भी कुछ ऐसी ही है कि जीवन एक संघर्ष है, लेकिन आजकल तो अस्तित्व के लिए संघर्ष के सिद्धांत पर कार्य कर रही है। पल-पल भारी होता जाता है। मुश्किलों की इस घड़ी में न तो कोई साथी बचा है और न ही कोई साथ देने वाला। जीवन में न ‘अआबेबीगं’ के ही खतरे नहीं है, बल्कि और भी खतरे हैं जो हर पल धोखा देने के लिए तैनात रहते हैं। अभाव, अज्ञानता, बेकारी, बीमारी और गंदगी ही दम नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि जीवन के पग-पग पर कांटों का जाल बना हुआ है और इस पर रीते पांव ही चलना पड़ रहा है, ऐसे में जिंदगी लहूलुहान होने से नहीं बच सकती है। तो क्या पहले से ही तेयार हो जाया जाए, मगर इसमें भी कई दोष हो सकते हैं, क्योंकि इन दोषों पर न तो हमारा अधिकार रहता है और न ही इसमें ईश्वर का हाथ होता है। समाज में हुए परिवर्तन ने उसे उस घुमावदार घर में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें हमें रहना भी है और उसका हमें रास्ता भी मालूम नहीं है। आखिर कैसे चलेगी जिंदगी। यहां हर कोई शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है, बाजीगरी ऐसी कि समझ ही नहीं आती है। चक्रव्यूह से निकलने में कई चालों को लगा लिया, लेकिन हर बार कुछ नहीं होता है। रुसवाई और बेबसी की जिंदगी में इतने आंसू आ चुके हैं, कि जीवन की चकरी ही घूम गई है। न तो कोई मसीहा नजर आता है और न ही कोई रास्तों का विकल्प। बस दिखाई देता है तो भरा समुंदर या फिर सूखा रेगिस्तान। अब इन दोनों के दिखते ही जिंदगी की हवाएं जालिम हो जाती हैं और रेगिस्तान में गुबार उठता है तो समुंदर में सुनामी की लहरों हिलोरे मारती हैं। हर कोई बवाल ग्रह में बलवान बनने की सोचता है, लेकिन इन लोगों को सबक सिखाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता है। तब मौत ही आखिरी रास्ता दिखाई देती है, लेकिन वह भी आसान तो नहीं होती है, क्योंकि उसमें न जाने कितने जोखिम होते हैं, और अगर इन जोखिमों में जख्म लगा भी बैंठे तो भी जीवन का घाव भरता नहीं है। हाथों में अंगार लेकर चलना कहीं जिंदगी का दूसरा नाम तो नहीं है। कहीं पहाड़ों पर चढ़ना ही जिंदगी नहीं बन गया है। क्यों हम दूसरों की सताई और बनाई हुई दुनिया में कठपुली बनकर नाच रहे हैं, कहीं हमारा भी कोई अस्तित्व नजर नहीं आता है क्या। जो भी हो, सामाजिक परिवर्तनों से ऐसा भूचाल आया है कि अब धरती के साथ आसमान भी कांप रहा है। सूरज की रोशनी में सेंध हो गई और बादलों को बयार ने उड़ा दिया है। ग्रहों को ग्रहण लग गया है और इंसान इडियटों की तरह हकला रहा है। न जीने की राह दिखाई दे रही है और न ही अरमानों का आसमां। न जाने क्यों? हम जीवन की धारा में गोते लगा रहे हैं, हमें किनारा नहीं मिल रहा है। इन किनारों से क्यों जीवन गुम हो रहा है, क्यों जिंदगी भंवर में फंसी हुई नजर आ रही है। क्यों इस जीवन में जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है, क्यों... शायद इन सवालों के जवाब हममें से किसी के पास नहीं है। हां, हमें जिंदगी जीने का एक्सपीरियंस बहुत हो गया है, लेकिन हमारी तरह सैकड़ों लोग हैं जो जीवन जी तो रहे हैं, पर अस्तित्व के संघर्ष वाले सिद्धांत।

Wednesday, April 20, 2011

कहीं भूख दम न निकाल दे


जीवन की नैया तभी चल सकती है, जब उसमें भरपूर ताकत हो। जब तक इंसान को खाना मिलता रहेगा, वह एनर्जी के साथ जीता रहेगा, अगर जीवन से खाने को गायब कर दिया जाए तो फिर समझ लो कि उसे मौत आ जाएगी। हां यह सच है कि देर सवेर कुछ देश में ऐसे महापुरुष भी हैं, जो बिना खाए पिए सालों तक रह सके हैं,। मगर हमारे समाज में उपवास को एक बड़ा केंद्र माना गया है। हम शुरू से ही खाना बचाने की ओर लगे रहे, लेकिन हमारे प्रयास आज तक सार्थक नहीं हो सके हैं। हम देख रहे हैं कि किस तरह से देश में खाने की बर्बादी हो रही है। हमारे गरीब समाज में दो जून की रोटी के लिए न जाने कितने प्रयास करने होते हैं, लेकिन वह नसीब नहीं होती है। कई बार तो हाल यह हो जाते हैं कि रोटी नहीं मिलने पर मौत को गले लगाना पड़ता है। रोटी, कपड़ा और मकान की यह कहानी सदियों से चली आ रही है और हम हमेशा उसके लिए तरसते जा रहे हैं। देखा जाए तो समाज में दो तरह के बैलेंस हो गए हैं। पहला तो यह कि हमारा एक वर्ग ऐसा है जो सामान्य खाना खाता है, और बहुत कम बर्बादी करता है, लेकिन दूसरा वर्ग ऐसा है, जिसके पास इतना खाना है कि वह जितना खाता नहीं है, उससे ज्यादा बर्बाद करता है। वहीं तीसरा वर्ग है गरीब। जो खाने के लिए पल-पल तड़पता है। यह खाई देश को बहुत भारी पड़ रही है। एक वर्ग जो बहुत अमीर है, उसके पास इतना खाना और पैसा है कि वह देश को खरीद ले, लेकिन वह पूरी तरह से बर्बादी में जुटा हुआ है। वहीं दूसरा वर्ग बेचारा बेचारगी में जीने के लिए मजबूर है। अगर उन लोगों से खाना बचाने की बात कही जाए तो वो हंसते हैं, और उनका जवाब रहता है कि हमने कमाया है, हम हर चीज के लिए पैसा दे रहे हैं। वो लोगों का गुरुर देखकर ऐसा लगता है कि जैसे ये लोग अहसान कर रहे हैं, और इनके आगे किसी को जीवन जीने का अधिकार ही नहीं है। मगर देश का दम तो निकल ही रहा है, उसमें उसका तो कोई दोष नहीं है। जिस तरह से हम लोग खाद्यान की बर्बादी कर रहे हैं, वह हमारे देश की तरक्की को गर्त में लग जा रहा है। देखने में यह भी आया है कि कुछ गद्दार खाद्यान को दबाकर बैठ जाते हैं, जिससे पूरा मामला ही गड़बड़ा जाता है। और कहीं तो सरकार की शेखी और लापरवाही के चलते करोड़ों टन अनाज सड़ जाता है। तो कहीं न कहीं इस पूरी व्यवस्था के लिए सरकार से लेकर आम आदमी तक दोषी है, लेकिन जब उसे कठघरे में खड़ा करो तो हर कोई अपना दामन साफ बताता है। हर कोई समस्या को एक दूसरे पर ढोलने का प्रयास ही नहीं करता, बल्कि यह बताता भी है कि दोष तुम्हारा है, हम तो साफ सुथरे हैं। वाह...समस्या है कि मानती नहीं और हम हैं कि दामन को अलग ही रख रहे हैं। देश की तस्वीर कब बदलेगी, कब हालात हमारे मनमाफिक होंगे। अगर खाद्यान नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारे पास पैसे तो होंगे, लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं होगा। देश में धरती जिस तरह से कम हो रही है, वह देश के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरी करती जा रही है, मगर जो सरकार के नुमाइंदे बनते हैं, उन्हें इससे क्या मतलब। वो तो अपनी तिजौरियां भरना चाहते हैं, क्योंकि वो भी जानते हैं कि अगली बार सरकार में मौका नहीं मिलेगा, जितना लूटना हो लूट लो। लूट मची है लूट लो...और देश का बंटाढार हो रहा है। अनाज पैदा कम हो रहा है, और जो हो रहा है वह आम नागरिकों को मिल नहीं रहा है। गरीब भूख से मौत को गले लगा रहा है और सरकारें अनाज को सड़ाने में लगी हैं। क्या हालात हैं देश के, शायद सोचनी ही कहें जाएंगे। मगर इतना तो तय है कि अगर जल्द कुछ क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया गया तो फिर हमारी बर्बादी के जिम्मेदार हम स्वयं ही होंगे। तब विदेशियों से खाद्यान लेना पड़ेगा, उस स्थिति में हमारा पैसा विदेश जाएगा और हम कर्ज के बोझ तले दब जाएंगे। वाह...कहीं ऐसा भी देखा है या सुना है कि बर्बाद होने के लिए कोई और नहीं, बल्कि हम ही जिम्मेदार होंगे। खैर यह तो आई गई बात हो सकती है, पर देश को भूखा मरने से बचा लो।

Tuesday, April 19, 2011

हौसलों की सच्ची उड़ान


जब जिंदगी हमें रोकती है, बरगलाती है, और हमसे इंतजा कर कहती है कि आप अब भी सक्षम हैं, लेकिन हम उस पर यकीन नहीं करते हैं। हमें तो लगता है कि हम चुक चुके हैं, और यह हमारे वश की बात नहीं है। अब हमसे नहीं होगा, क्योंकि जिस तरह से हम जीवन को जीते आए हैं, उससे तो यह कार्य असंभव ही जान पड़ता है, लेकिन जीवन में असंभव जैसा कोई शब्द नहीं होता है। यह बात भले ही काल्पनिक और बनी गढ़ी लगे, लेकिन जब उन लोगों को देखता हूं, जिन्होंने अपने हौसले से दुनिया को अपनी राय बदलने पर मजबूर कर दिया है, उसे देखकर तो आप भी जो लकीर की फकीर लेकर बैठे हैं, उसे मिटाने के लिए बेबस हो जाएंगे। कई लोग होते ही हैं इसलिए, जो इतिहास को ऐसा लिख दें कि आने वाली पीढ़ी उनसे पे्ररणा लेती रहे। जिस तरह से हम विश्वास नहीं कर पाते हैं, जब वे वह करके दिखा दे तो फिर हमें भी लगता है कि हम भी कुछ कर सकते हैं। जीवन में मैं भी समझता हूं कि हर चीज की एक उम्र होती है, लेकिन प्रतिभा उम्र की मोहताज नहीं होती है और वह जहां भी होगी, अपनी धाक जमाने के लिए खड़ी ही रहती है। हां यह हो सकता है कि लोग उसे नजरंदाज कर दें, मगर ज्यादा दिनों तक उसे नहीं कर सकते हैं, क्योंकि उसके सामने ठहरना ही मुश्किल हो जाता है और अंत में लोगों को हार माननी ही पड़ती है। यह कहानी आपको भी एकदम अविश्वसनीय लगेगी, लेकिन यह पूर्णत: सत्य है। आपको रग्बी खेलना है, और उसमें हाथ से अधिक पांवों का इस्तेमाल रहता है। शायद फुटबाल में रोनाल्डो और बैकहम इतने बड़े शिखर पर क्यों खड़े हैं , उसका राज ही यही है कि उनकी मजबूत टांगे। मगर फुटबॉल का यह खिलाड़ी...नाम है बॉबी मार्टिन। इसके पैर नहीं हैं, बचपन से ही, लेकिन यह रग्बी टीम का सदस्य है और पूरे मैदान में दौड़ भी लगाता है। टीम को जीत दिलाने में इसकी बड़ी भूमिका रहती है। कई बार इसके दम पर ही जीत मिलती है। यह अपंग है, फिर भी रग्बी टीम का सदस्य है। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि कोई ऐसा कर सकता है। वह कहता है कि मेरे पांवों की शक्ति मेरी बाजुओं में आ गई है, उसकी गर्लफ्रेंड भी है, वह भी 25। उसके एक बेटा और बीवी भी है। शानदार... मैं आपको बता रहा हूं तो आपको यह पूरा वाकिया किसी कल्पना लोक की तरह लग रहा है, क्योंकि यह वहीं संभव हो सकता है, मगर यह एक हकीकत है और यह बता रही है कि दुनिया में कुछ भी संभव नहीं है। हम सबकुछ हासिल कर सकते हैं, बस माद्दा चाहिए। अगर वह नहीं है तो फिर जीवन नर्क है, क्योंकि जो सपने देखता है, वही उसे पूरा करता है। हां, मैं भी जागती आंखों से सपने देखने का शौकीन हूं और उसे पूरा करने का दम भी भरता हूं। बस अब तैयारी शुरू करनी होगी, क्योंकि यह 24 घंटे सिर्फ मेरे हैं और इसमें मैं मेरे लिए ही जिऊंगा, किसी और के लिए नहीं। बस अब सारी तैयारियां शुरू करनी होंगी। सबकुछ अपने अनुसार लाना होगा। मैं भी हौसलों को इतना ऊंचा उठा दूंगा कि वहां से आकाश छू लूं। शायद इसमें कई रोड़े आएंगे, कभी-कभी लगेगा कि यह असंभव है, लेकिन कोई बात नहीं है, क्योंकि जब तक बाधाओं का बवंडर नहीं आएगा, हम तूफानों से खेलना कहां सीखेंगे। आगे मैं जीवन में क्या होने वाला है, यह शायद मैं भी नहीं जानता हूं, मगर इतना तो पता है कि अब मैं मेरी किसमत खुद ही लिखने जा रहा हूं। शायद कुछ गलत भी हो सकता है, लेकिन जीवन में उस मोड़ पर जाकर मुझे कभी पछतावा नहीं होगा, जब मैं कहूंगा कि यार मैं वह कर लेता तो बेहतर होता। इस शब्द को कभी आने नहीं दूंगा। मेहनत करने से हर चीज मिल जाती है, ऐसे मैंने सुना ही नहीं है,बल्कि इसे सच करके दिखाऊंगा, क्योंकि अब मैंने जीवन जीना सीख लिया है, अपने सपने को पर लगा दिए हैं, और तपती धूप हो या तूफानी ठंडी। नहीं रुकूंगा, हर पल जीत के लिए ही खेलूंगा, क्योंकि यह जिंदगी मिले न मिले, अगली बार कुछ हो न हो, इस बार ही सारे सपने पूरे करना चाहता हूं और पूरा करूंगा।

Saturday, April 16, 2011

नायक है बिनायक



नायकों की परीक्षा बड़ी कठिन होती है, क्योंकि वो इसमें पार हो जाते हैं। जिसमें जितनी क्षमता होती है, उसे उससे अधिक कष्ट वाला कार्य मिलता है। आसान जिंदगी भी कोई जिंदगी है भला। बाधाओं का बवंडर जब तक जिंदगी के जख्मों पर ज्यादती करके न जाए, तब तक जिंदगी में मजा भी तो नहीं आता है। इनके जीवन में हर बार चुनौतियों की चट्टान खड़ी रहती है, लेकिन ये भी हैं कि अहिंसा की आसंदी से सरल विचारों के गोते की कल्पना करते रहते हैं। हां कई बार इनका साहस और आत्मबल अंबर को भी झुकने पर मजबूर कर देता है। ऐसे ही तो होते हैं नायक, जो पथरीले रास्तों को चुनते हैं। आवारा बादलों की तरह होते हैं और उल्टी धाराओं को चीरकर आगे बढ़ते हैं। वहीं सिकंदर कहलाते हैं। ये जीवन में खाने-पीने या धन की लालसा में नहीं जीवन नहीं गुजारते, बल्कि यह तो समंदर पर कब्जा करने की सोचते हैं। तूफानों की दिशाएं बदलने का माद्दा रखते हैं। पहाड़ से नदियां निकालने का जोश इनके पास होता है। धैर्य का वह समुंदर इनके पास होता है, जिसमें कितने भी कष्ट के तूफान आ जाएं, उन्हें ये आसानी से झेल लेते हैं। अंदर ही अंदर दफन कर देते हैं। यही है, इनका नायकत्व, और दुनिया के सामने एक ऐसा आदर्श प्रस्तुत करते हैं, जो इन्हें नायक कहती है। ये लोग हीरो होते हैं और कुछ विशेषताएं इनमें जन्मजात भी होती हैं, जो ईश्वर से मिली सौगात के रूप में मिलती है। कहते हैं शेर का बच्चा शेर ही होता है और सियार के बच्चे को शेर बनाने में समय ही गंवा सकते हो, क्योंकि ऐसा संभव नहीं होता है। जब दुनिया को कब्जे में करना है तो दुनिया को सिकंदर चाहिए, न कि कोई बहुरूपिया, जो डींगे तो खूब मारता हो, लेकिन उसकी बातें बिलकुल किंकर्त्तव्यविमूढ़ हों। नायकों का यह बिनायक...अब दुनिया को अपनी नई दास्तांन से बदलने की कोशिश कर रहा है। वह बता रहा है कि दुनिया में विलास ही सब चीज नहीं होती, बल्कि देश प्रेम भी कुछ होता है, लेकिन जो देश प्रेम दिखाता है, उसे ही दुनियावाले पहले पत्थर मारते हैं, और जब वह लहूलुहान होकर इस दुनिया को अलविदा कह देता है तो उसे पूजते हैं। यही है हमारे समाज का परिदृश्य। जिस तरह से बिनायक सेन ने देश के सामने उदाहरण दिया है, वह काबिले तारीफ तो है ही, साथ ही उन भ्रष्ट नेताओं के मुंह पर एक तमाचा भी है, जो यह बता रहा है कि सुधर जाओ, कम से कम देश की जनता से तो गद्दारी मत करो। जिस तरह से नेतागण देश के साथ भ्रष्टाचार का अन्याय करने में जुटे हैं, वह किसी गद्दारी से कम नहीं है। हद तो यह हो गई, जब उस इंसान ने जिसने अपनी जिंदगी धूप में तपा दी, जो चाहता तो अपनी डिग्री के दम पर ऐसी रूम में बैठता और करोड़ों रुपए काटता, लेकिन उसने तूफानी रास्ता चुना। उसने एक प्रयास किया, जिसमें उन लोगों के लिए कार्य किया, जिसमें सिवाय बेबसी लाचारी के अलावा कुछ और था तो सिर्फ यह कि गोलियां। वो लोग कोई और बात नहीं सुनते थे, सरकार ने उनके खिलाफ जो भी किया, वह किसी दुश्मन से कम नहीं है। आज उसे राजद्रोह का खिताब मिल गया। 2007 से उसे जेल में बंद कर दिया, लेकिन कहते हैं कि समुंदर और सुनामी को आप अधिक देर तक बंद करके नहीं रख सकते हो, क्योंकि ये अपना रास्ता खुद ही तय कर लेते हैं। इन्हें किसी की परवाह नहीं होती, क्योंकि लोग इनकी परवाह करने आते हैं। नायकों की तरह इन्होंने हाथ में झोला लिया और निकल पड़े उन लोगों के लिए, जो बहुत ही पिछड़े थे। अपने जीवन के कई साल इन्होंने उसी गर्दा में गुजार दिए। शायद यह त्याग गांधी से कम नहीं है। हां, इनका रास्ता जरूर अलग था, लेकिन इरादे बिलकुल नेक थे। मगर इरादों की चमक किसी ने नहीं देखी और सरकार ने इन्हें अपराधी करार दे दिया। पर कब तक... जब विद्रोह की ज्वाला मुखर हुई तो फिर सभी को झुकना ही था। और सभी ने घुटने टेके। अब नए युग की इबारत लिखी जा रही है, एक नई सोच की बाली आ चुकी है, बस पकना बाकी है, जैसे ही यह पकी, निश्चय ही स्वाद बेहतर आएगा।

Thursday, April 14, 2011

संविधान है या गरीब की जोरू

देश में आजकल हर कोई अपने आपको ज्ञानी-ध्यानी मान रहा है, इसमें कोई बुरी बात नहीं है। हमारे संविधान ने हर किसी को बराबर सोचने और समझने का अधिकार दिया है, लेकिन जब हम इसका माखौल उड़ाकर उस मौलिक कर्त्तव्य की धज्जियां उड़ाने से गुरेज नहीं करते हैं, जो हमें संविधान ने हथियार के रूप में दी है, तब लगता है कि हम कहीं उस बुद्धू की तरह कार्य कर रहे हैं, जो जिस डाल पर बैठा था, उसे ही काट रहा था । बचपन में इस कहानी ने भले ही हमें ज्यादा न बताया हो, लेकिन इतना तो बता ही दिया ही दिया था कि जो हमारा सहारा होता है, कम से कम उसे तो कोई नुकसान हमारे द्वारा नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। तब से हम इस बात को पूरी ईमानदारी के साथ फॉलों करते आए हैं। मगर आज देश के जो हालात हैं, वह देखकर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी जैसी बू आ रही है, महक को पूरी तरह से खून से लाल कर दिया है, और उसमें जलने जैसे कोई गंध है। बेशक यह भोपाल त्रासदी जैसी कोई घटना नहीं है, लेकिन इतना तो सही में जान पड़ता है कि अब हम उस मुहाने पर खड़े हैं, जहां पर इस तरह की बातें बारूद के पास तिली जलाने जैसा साबित हो सकता है। क्या हम उस संविधान के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं। कोई भी ऐरा-गेरा नत्थू खेरा आता है, कुछ बातें बोलकर यह कह जाता है कि अब समय आ गया है परिवर्तन का। परिवर्तन की हवा को हमें महसूस करना होगा। हमें अपने बदलते परिवेश के अनुसार अपने संविधान में कुछ बदलाव करने होंगे। ठीक बात है। इस पक्ष के लिए शायद दबे और प्रखर स्वर में यही बात कहेगा कि हां कुछ बदलाव तो जरूरी है, क्योंकि जब इसका निर्माण हुआ था, तब का दौर कुछ अलग था। आज का दौर कुछ अलग है। बदलते दौरों में हमें इसे बदलते परिवेश के पहिए में लाना होगा। अन्यथा कुछ तकलीफें तो जरूर पैदा होंगी। इस बात में कोई दो राय नहीं है, लेकिन अब यह कि आगे क्या? आप सभी ने एक बात सुनी होगी कि बिल्ली के गले में घंटी बांधने की सलाह एक चूहे ने दे दी थी। सारे चूहों ने मिलकर उसमें हामी भरी। सभी ने निश्चय कर लिया कि यदि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए तो फिर हमें डर नहीं रहेगा, जैसे ही वह आएगी हम लोग समझ जाएंगे और फिर या तो भाग लेंगे या फिर छुप जाएंगे। उन्होंने हल तो खोज लिया था, लेकिन उनके सामने भी वही समस्या अपना विकराल मुंह लेकर खड़ी हो गई। वह समस्या थी कि आखिर कौन उसके गले में घंटी बांधने का साहस भरा कार्य करेगा। सभी चूहे एक दूसरे की ओर देखने लगे। तब कोई यह जोखिमपूर्ण कार्य करने के लिए राजी नहीं हुआ। बस यही स्थिति है देश में, जहां बातें और ज्ञान झाड़ने वाले तो सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में मिल जाएंगे, लेकिन संविधान में बदलाव को अंजाम कौन देगा। और फिर 121 करोड़ की आबादी वाले देश में, जहां बात-बात पर विवाद हो जाते हैं, मामला गंभीर न हो, फिर भी तलवारें खिंच जाती हैं, आगजनी हो जाती है। शोर-शराबा और तोड़फोड़ हो जाती है...वहां कौन नए संविधान को मानेगा। भई इतने लोगों को कैसे संतुष्ट किया जा सकता है। निश्चय जो बनाएगा उसे भीमराव आंबेडकर का दर्जा नहीं मिल पाएगा। उल्टा होगा यह कि वह खलनायक की भूमिका में आ जाएगा। इसलिए देश में हीरो बनने की चाह रखने वाले खलनायक की भूमिका कौन करेगा। कौन अपने आपको जोखिम में डालेगा। आप सोचिए फिर जनलोकपाल जैसे सिर्फ एक बिल के खाका को तैयार होने में 42 साल लग गए, समझ लो एक जिंदगी के तरुणाई साल पूरे निकल गए, वहीं उतने बड़े संविधान में लगने में तो सदियां भी लग सकती हैं। और इसमें जो लोग गठित किए जाएंगे, वे सदियां तो जी नहीं पाएंगे। इसलिए युग भी लग सकते हैं। सचमुच बाबा साहब कितने जीनियस थे, जिन्होंने डेढ़ साल में ही इतने बड़े संविधान की रचना कर डाली। अब तो ऐसा असंभव है।

Saturday, April 9, 2011

सिर्फ खुशी का उल्लास हो

जब खुशी की उस बगिया में मुहब्बत का गुल खिलता है तो पूरा गुलशन उस खुशबू से महकता भी है और हंसी से चहकता भी है। हर तरफ गलियां गुलजार हो जाती हैं, तब लगता है कि कहीं तो खुशी का मौसम आया है, और उस मौसम में हम और आप दोनों ही मिल जाएंगे। फिर एक नया अगाज होगा, एक नया विश्वास होगा। जीवन की नई डगर को हम जी लेंगे, हम एक नए अवतार को अपने दिल में उतार लेंगे। हां, कुछ पैमाने जरूर होते हैं, इस जहां में, लेकिन इन्हें तो हम ही बनाते हैं और उन्हें तोड़ते भी हैं। गुजर जाते हैं कई पल, जब उनसे दूरियां हमारी होती हैं, हम उनके आसपास अंधेरों की खाक छानते रहते हैं, कई बार लगता है कि बस आगे कोई डगर नहीं है, लेकिन उस एक पल का ही इंतजार रहता है, बस उस पल को हमें जीना होता है। इस भ्रम के मायाजाल को जैसे ही हम तोड़ते हैं, सब कुछ हमारे अनुसार ही हो जाता है, तब लगता है कि परिवर्तन की जो बयार हमने जी है, उसमें हमें एक और सीधी रेखा दिखाई दी है। हम लोगोें से कई बार कुछ कहते हैं, पर वो अनसूना कर देते हैं, क्योंकि उन्हें भी तो हमारी ललकार नहीं पता होती है। वो चढ़ते सूरज को सलाम ठोंकते हैं और उतरते सूरज को ना-नुकूर करते हैं, उसे हमेशा तन्हाई ही मिलती है, क्योंकि वहां पर खुशी या उल्लास का कोई भी ऐसा तिनका नहीं होता है, जिस पर पर एक नया आदर्श प्रस्तुत कर सकें। इस स्केल का निर्धारण हमें ही करना है, क्योंकि कोई दूसरा यहां से आता-जाता नहीं है, तब दुनिया को बदलने की एक नई सड़क हम सभी के पास रहेगी। बस जीवन को अपरिहार्य मत होने दो, क्योंकि यहां तुम चूके तो फिर आगे कोई मौका नहीं मिलने वाली है। सड़कों की बनावट तो सीधी है, लेकिन वह समतल नहीं है, उस पर कई उतार भी हैं और चढ़ाव भी। बीच-बीच में कई बड़े गड्ढे भी हैं, और इन पर चलने का साहस जुटाना होगा, क्योंकि यहां अपने आप गाड़ी नहीं चलती। खैर जो हुआ, उसे किसमत के माथे पर छोड़ा नहीं जा सकता है, क्योंकि शिखर की ताजगी हमेशा महसूस होती है, लेकिन जब वहां से पतन का मार्ग दिखाई देता है, तो दिल टूट जाता है।

Tuesday, April 5, 2011

रेड सिग्नल है राडिया


बड़े-बड़े जब गेम करते हैं , तो वह खेल लंबा ही रहता है, यहां साधारण लोगों का कोई काम नहीं होता है, बल्कि यहां सब वीआईपी रहते हैं। जिनकी कॉलर सफेद दिखती है, लेकिन काली होती है। रेड राडिया और टाइट टाटा में कुछ ऐसा ही हुआ। सभी को लड़कियां देने वाली राडिया बड़ी मालकिन है,और उसके हाथ में बड़ा से बड़ा औद्योगिक घराना है। इन्होंने फोन पर ही सारी सेटिंग करवाकर देश के साथ धोखा किया है। इसने वो कृत्य कर डाले जो एक आम महिला के वश की बात नहीं है। हां, यह पत्रकारों की लॉबी से लेकर बड़े-बड़े नेताओं तक को अपने अंडर में रख रही थी। कहते हैं कि जब महिला अपनी वाली पर आ जाती है तो उससे बड़ा कोई नहीं रहता है। वैसे भी सब पर भारी एक नारी। यहां नारी की महिमा के माध्यम से राडिया का गुणगान करने की कोई मंशा नहीं है, लेकिन उसने जो चक्रव्यूह रच रखा था, वह काफी सशक्त था। हर कोई उसमें कहीं सिर से फंसा था तो कोई पांव से। हां कुछ लोग दूर थे, लेकिन उसके आभामंडल से वो हिल भी नहीं पा रहे थे। मजबूत इरादों वाली राडिया ने रेड कर दिया था, इससे टाटा जैसे टाइट हो गए थे। हालांकि चीजें अपने अनुसार नहीं बदलती है, उन्हें बदलना पड़ता है, और जब तक प्रयास नहीं करेंगे तब तक तो पत्ता भी नहीं हिलता है, हां बस यहां हवा का दम दिखाई देता है, जो कभी तो महसूस भी नहीं होती है, और कभी तो प्रचंड रूप लेकर पहाड़ों तक को उड़ा देती है। मसला यही है कि दाल में नमक के बराबर चीजें अच्छी दिखाई देती हैं, इसके आगे अगर कुछ होता है तो वह नमक दाल को बर्बाद कर देता है और फिर उस खाने को फेंकना पड़ता है, यह बात अलग है कि भूख से बड़ा स्वाद न हो तो हम फिर वह भी खा जाते हैं, क्योंकि जीने के लिए स्वाद काम नहीं आता, बल्कि पेट भरना जरूरी होता है। किसी फिल्म में था कि जब तक जीवन का मोह रखोगे लोग डराएंगे, और जिस दिन मोह तोड़ दोगे, दुनिया तुम्हारी उस्तादी के पैमाने मानेगी। ठीक यही हो रहा था मुंबई-दिल्ली की इन ख्वाबों वाली नगरियों में। यहां बड़े-बड़े दिग्गज दागदार हैं। दुर्दशा दुर्दांत हो गई है, लेकिन इनका दिमाग हर चीज को मात दे देता है, ये गोरे चिट्ठे दिखते हैं, खूबसूरत कपड़े पहनते हैं, खुशबू शानदार आती है, लेकिन दिमाग में सड़ा हुआ सामान रहता है, भ्रष्टाचार के ये परवाने हर किसी को जलाने के लिए तैयार रहते हैें। उन लोगों का भी सौदा करने से नहीं चूकते हैं, जो इनके यार थे। यहां तक की अपनों की कब्र खोदने में भी इन्हें किसी तरह का कोई परहेज नहीं होता है। अंदर से बाहर और बाहर से अंदर तक बहुत चीजें बदल जाती हैं, लेकिन इन बदलावों को हम कई और तरीकों से भी जी सकते हैं। उन्हें नया मुकाम दे सकते हैं, लेकिन यहां तो कोई और नहीं हमारे दिलों में ही साजिश का तूफान पल रहा है, कोई इसे हवा दे दे तो यह आग के शोलों की तरह भड़क जाएगा और देश को नया आम और खास दिला जाएगा। हम यहां बैठे किन-किन चीजों में अपना वक्त निकालते हैं, वहां लोगों के पास वक्त ही नहीं होता है। इस सोच में हम कई बार अपने घंटों बर्बाद कर देते हैं, लेकिन सवाल यह है कि आखिर राडिया ने क्या गुल खिलाए और खिलाए कि सभी मोहित हो गए। मोहन मंत्र में फंसे लोगों को अपने ओहदों की भी शर्म नहीं है, बस ये लोग उसके मायाजाल में अटक गए और आ गए वहीं, जहां से जुर्म का नाम शुरू होता है। खैर यह कोई नई बात नहीं है...क्योंकि जिंदगी अपने आप नहीं जी जाती है, इसके लिए कुछ और करना पड़ता है, सवालों को नए जवाब की तलाश कभी-कभी खुद भी करनी होती है। तब कई बार बाधाएं पहाड़ों से ऊंची हो जाती हैं, लेकिन उन पर पार पाना भी आना चाहिए। नहीं तो फिर ये मुश्किलों का जखीरा खड़ा हो जाता है, और उससे निपटना आसान नहीं होता है। इसलिए राडिया को रेड समझो आसान नहीं है वह...उधर रेड सिग्नल है, और उसमें से निकलना हमेशा जोखिम भरा ही रहता है।

Monday, April 4, 2011

सफलता सारे पाप धो देती है...


जब असफलता के काले बादल मंडराते हैं तो अपनों का भी साथ छूट जाता है। जो हमारे प्रिय रहते हैं, जो सबसे नजदीक रहते हैें, वे ही दूरियां रचाते दिखते हैं। न कोई भगवान साथ देता है और न ही किसमत हम पर मेहरबान होती है। हर तरफ कांटों का मैदान होता है और हमें उसे नंगे पांव ही पार करना होता है, फिर चाहे रास्ते में हमारे पांव कितने ही लहूलुहान क्यों न हो जाए। इससे किसी को कोई मतलब नहीं होता है। जिंदगी की यह बेरुखी इसी तरह चलती रहती है। मौसम की यह बेवफाई हालातों के साथ अदला-बदली करती रहती है। जब जीवन में तूफान आता है, तो सदा मधुर आवाज देने वाला पपीहा भी कहीं छुप जाता है, और सनसनाती आवाजें आती हैं, जो हमें डराती हैं। यह क्रम लगातार जारी रहता है। खैर...यह हमारा अपना बनाया हुआ रेखाचित्र होता है, जो हमारे कृत्यों से बुनियाद पाता है। लेकिन हम देखते हैं, कभी-कभी भाग्य का खेल भी बहुत बड़ा हो जाता है, और हम भले ही कितने बलवान क्यों न हो, लेकिन भाग्य से लड़ नहीं सकते हैं। हमेशा से कहा जाता है कि कर्म बड़ा होता है, बिलकुल वह होता है, लेकिन उसमें अगर भाग्य का धोखा शामिल हो जाए तो सफलता का प्रतिशत कुछ कम हो जाता है, हां मिलेगी जरूर यह तय रहता है। मगर आधुनिक परिदृश्य में हमने पाया है कि इस तरह से जो भी चलता है, उसके जीवन में बाधाओं के ब्रेकर जरूर आते हैं, और उन्हें कितनी भी सावधानी से पार करो, लचक तो जरूर आती है। इसलिए यह हमारे आत्मबल पर निर्भर करता है कि हम उसे कितना आसान बनाते हैं। खैर यह चीजें उतनी आधुनिक नहीं है, जो लिबाज पहने दिखाई देती है, हां मगर इतना तो तय है कि लोग चढ़ते सूरज को सलाम ठोंकना पसंद करते हैं और डूबते को लात मार देते हैं। यही सत्य है और यही सार्वभौमिक नियम है। हम आदित्य काल से यही देखते हैं कि सफलता हर पाप को धो देती है, कभी-कभी लोग आपके विपरीत कार्य करते हैं, आप जो सोचते हैं, वह हो नहीं पाता है, और असफलता का ग्रह आपको ग्रहण कर लेता है, फिर क्या...चीजें यूं ही सपाट होती जाती हैं। लेकिन आपका तुरुप का इक्का भी फेल हो जाता है, तो आवाजें उठने लगती हैं, आपको गलत साबित करने के लिए हर वो कार्य किया जाता है, जिसमें चाटुकारिता से लेकर विद्रोह का विध्वंसक रूप भी शामिल होता है। मगर सफलता की एक किरण लंबे अंधेरे को कहीं फुर्र कर देती है। वह उसे यूं भगा देती है, जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो। सफलता और असफलता के इस पैमाने को हम अपने ऊपर कभी लागू नहीं कर सकते हैं, और न ही चीजें हमारी मर्जी से प्रबलता की ओर जाती हैं, यह तो सिर्फ भाग्यचक्र में कर्मचक्र का खेल हो जाता है, उसमें तप कर कुंदन बनने की यह गाथा होती है, मगर तब हम मुश्किल हालातों से गुजरते हैं और फिर एक नए मुकाम को व्यवसाय के रूप में अपना लिया जाता है। हम यहां देखते हैं कि व्यक्तित्व कितना भी पराक्रमी हो, लेकिन व्यवस्थित जब तक नहीं होगा, तब तक हम अपने वर्चस्व को यूं ही हटा नहीं पाएंगे। इसलिए व्यवस्थाओं और हालातों का बहाना हम नहीं बना सकते हैं, क्योंकि तब इनके आगे भी कुछ समुंदर की लहरें हमारा पीछा करते चली आती हैं। जब तक हम इनमें गोते लगाकर तैरना नहीं सीखेंगे यह हमें डराती-धमकाती रहेंगी। अब तक जो हुआ सो हुआ, अब मौका है कुछ अलग करने का, कुछ नया करने का। यहां कई चीजें हमारे अनुुरूप नहीं हो पाती हैं और हम उनके तराजु पर खरे नहीं होते हैं, इसके बावजूद हम लहरों से लड़ने का जज्बा रखेंगे तो ही इस वैतरणी से पार हो पाएंगे, वरना यह शांत दिखाई देने वाली सरिता कब हमारी कब्रगाह बन जाएगी, इसका अंदाजा खुद हम भी नहीं लगा पाएंगे। इसलिए फौरन तैयार हो जाओ, अपने अनुसार सभी चीजों को ढाल लो, क्योंकि ऐसा करने में अगर तुम सफल हो गए, तो फिर कोई डर नहीं, कोई मुश्किल नहीं। अब आसमान और धरती तुम्हारी है, जो चाहे वो करो, जितनी मर्जी हो उछलो-कूदो और अपने अनुसार जियो जिंदगी।

Saturday, March 26, 2011

कौन ‘शा हीद’ होगा जंग में


हां, अब एक बार फिर खून उबाल मारेगा। मैदान पर सांसें ऊपर-नीचे होंगी। एक-एक रन पर मरने-मिटने की बारी आएगी, हर खिलाड़ी अपनी जान लगा देगा, लड़ा देगा। हर चौके पर खुशी और मायूसी आएगी, हर विकेट पर तालियां और गालियां मिलेंगी। हजारों लोगों की आवाज मन में डर पैदा कर देगी। एक अच्छी चीज शाबासी तो दूसरी गाली देगी। यह क्रिकेट रहेगा, लेकिन किसी जंग से कम नहीं होगा। हर कोई इसमें बारूद उगलेगा, हर कोई अपनी गेंदों से फायर करेगा, हर कोई अपना इमान दिखाएगा, और हर कोई अपना 100 प्रतिशत देगा। धोनी के धुरंधर धधकेंगे तो शाहिद की सेना सनकेगी। हर कोई एक दूसरे को देखकर अंगार उगलेगा। हर कोई जीत के इरादे से ही नहीं, उसे मुट्ठी में करने के लिए उतरेगा। यहां क्रिकेट जरूर होगा, पर जंग की तरह। टीमें अपने-अपने अस्तित्व को बचाएंगी और दूसरों के कॅरियर को ग्रहण लगाएंगी। हर तरफ मारकाट जैसा रहेगा। नसों में खून दुगुनी रफ्तार से दौड़ेगा। आंखें सामने वाले को खाने दौड़ेंगे, गेंदों में बम भरे जाएंगे, और बल्लों से तोपे चलाई जाएगी। हर कोई क्रिकेट की इस जंग का हीरों कहलाएगा। हां कुछ शहीद भी हो जाएंगे, जिनके नाम से मिलता है, वो ही शहीद होंगे। कइयों का तो कॅरियर ही दांव पर आ गया है। हर कोई अपने तरकश के तीरों के सभी बाण यहां अजमा लेगा। कुछ तो ऐसे भी हैं, जो जीने मरने का गम छोड़कर इस महाकुंभ की जंग में अपनी सबसे तेज गेंदों का इस्तेमाल करेंगे। यहां हर वो बात होगी, जो अभी तक दूसरे मैचों में हमें देखने को नहीं मिली है। हमें मैदान पर हरी घास जरूर दिखेगी, लेकिन वह बारूदी ढेर रहेगा। यहां हाथ जरूर मिलाए जाएंगे, लेकिन वहीं पर हाथ तोड़ने के इरादे होंगे। खेल की भावना तो यहां ताक पर रख दी जाएगी। हर कोई सभ्य दिखेगा, लेकिन जोश दोगुना रहेगा। जुनून का हर लम्हा, और इसके साक्षी रहेंगे हम और आप। खिलाड़ियों से लेकर मैदानी दर्शकों का खून भी उबाल लेगा। फिर दोनों देशों की आवाम भी भला पीछे कहां रह सकती है, वह भी तो इसकी भागीदारी में अपनी आहुति देने के लिए बेकरार है। वह भी तो अंगारों की सेज पर चलकर अपना लोहा मनवाने की सोचेगी। हां, यह क्रिकेट की सबसे बड़ी जंग होगी। क्योंकि यहां भारत-पाक भिड़ेगा, या कहें कि लड़ेगा। दोनों ने जमकर तैयारियां कर ली हैं। सभी तीर कमान पर चढ़ गए हैं, बस संहर करना बाकी है, जो उस दिन पूरी शिद्दत से खेला मैच वही जीतेगा। या यह भी हो सकता है कि कोई एक खिलाड़ी इतना तेज या अपनी प्रतिभा से कई गुना आगे जाकर खेल जाए तो फिर दूसरी टीम को कोई नहीं बचा सकता है। यहां देखने वाली बात होगी कि मोहाली के इस ‘महाभारत’ में अर्जुन कौन बनता है। हां अभी तक तो सचिन तेंदुलकर ही सबसे भारी नजर आ रहा है और शाहिद के रणबाकुरों ने उनके लिए चक्रव्यूह भी तैयार कर लिया है, लेकिन अर्जुन अभिमन्यु तो नहीं है, जो इस चक्रव्यूह में फंस जाए। वह तो अपने स्टाइल से ही रहेगा और हर विरोधी को धूल चटाएगा। हमेशा की तरह। अब हाईवोल्टेज में अपनी बिजली और रफ्तार दिखाने के लिए बेताब है। सभी को बस इंतजार है तो उस दिन का, जिस दिन यह जंग होगी। हां, 6 घंटे की इस जंग में मरेगा तो कोई नहीं, लेकिन करोड़ों लोगों के दिल जरूर टूटेंगा। क्योंकि यह खेल नहीं जंग है, परंपराओं की, भावनाओं की, प्रतिद्वंद्विता की और प्रतिस्पर्धा की। यह दिखाने की जंग है कि हम बाप हैं और तुम बेटों हो, और उसी की तरह हमारा सदा आदर किया करो, जब भी ज्यादा उड़ने की कोशिश करोगे तो तुम्हारे पर कतर दिए जाएंगे। यहां हर कोई खौफजदा भी है और बेखौफ उड़ान भी भर रहा है। जगह तय हो गई है, दिन तय हो गया है, समय तय हो गया है... बस इंतजार है तो उस पल के आने का, जब यह जंग शुरू होगी। उस सिक्के का जो आसमान में उछलते ही, तीर और तलवारों से बात होने लगेगी। अब मजा आएगा...यह कहें कि क्रिकेट का असली खुमार चढ़ा है।

Wednesday, March 23, 2011

विकीलिक्स से ‘मन’ में घबराहट


जिस तरह से देश में राजनीतिक भूचाल आया हुआ है, वह हमारे नजरिए को प्रदर्शित करता है। वह यह दर्शाता है कि हम कितने कमजोर, लाचार हैं, जो शंकाओं को भी मान बैठते हैं और उस पर ही अपने निर्णय ले लेते हैं। जिस तरह से हमारे निर्णय और विश्वास के बीच एक धोखा दिखाई दे रहा है, वह हमारी सोच के आधार और बुनियाद को प्रदर्शित करता है। आज हम जिस तरह से विकीलीक्स के मामले में अपनी कार्यप्रणाली दिखा रहे हैं, वह हमें कमजोर साबित करता है। सालों पहले हम पर अंग्रेजों ने हुकूमत की, यह गुलामी की जंजीरें तोड़ने में हमें 200 साल लग गए। हमारे पास तब भी पर्याप्त साधन थे, हम चाहते तो पहली बार में ही उन्हें बाहर निकाल फेंकते, लेकिन हमने विश्वास और नजरिए के रिक्त स्थान को इतना खाली कर दिया, कि उसे भरने में 200 साल लग गए। हम बार-बार आपसी संकट में ही फंस जाते हैं। विवादों की डोर ऐसी शुरू होती है, कि वह हमें ही उलझाकर एक चक्रव्यूह में फांस लेती है। यह फांस हमें चुभती तो है, लेकिन हम यह दिखा देते हैं कि हम कर्ण की तरह सहनशील हैं, और क्षत्रिय धर्म की भांति हम इसे सह लेंगे। जीवन रफ्तार में यूं ही गाड़ी चलती रहती है। और उसे कोई भी आकर धका देता है। कोई भी हमारे बारे में कुछ कह देता है, और हम ही उसे मान लेते हैं। तब हम अपने मन की भी नहीं सुनते हैं। हम दिमाग से काफी बलिष्ठ हैं, और अगर किसी ने हमारे भीतर शंका का बीज डाल दिया तो हम उसमें ही घुलते रहते हैं। यह हमेशा से होता आया है। हम हमेशा परेशान रहें। दूसरों पर हम खुद से ज्यादा यकीन करते हैं। आखिर हम क्यों? अपने ही कूपमंडकत्व में रहते हैं। विकीलिक्स जैसी वेबसाइट की बुनियाद क्या है, और वह जो खुलासे कर रही है, आखिर उस पर कितना यकीन किया जाए, यह भी एक सवाल है। क्या हम इतने कमजोर हैं कि कोई भी बाहरी हम पर आरोप लगाकर चला जाए और हम उसे यकीन के तराजु पर तौले बिना ही उस पर अपना फैसला सुना दें। जिस तरह से देश में राजनीतिक भूचाल मचा हुआ है, वह हमारे नेताओं की दिमागी सोच पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है। वह यह भी सवाल उठाता है कि हम क्यों उस विकीलिक्स की बात पर यकीन करने में जुटे हुए हैं। हमारे देश में हालत यह आ गई है कि अगर कुछ और हो जाए तो सरकार भी गिर जाए, लेकिन फिलहाल ऐसा होता नजर नहीं आता है। मगर यह तो सही है कि न तो हमारा विपक्ष दोषमुक्त दिखाई दे रहा है और न ही पक्ष की यलगार में वो प्रचंडता बची है, जिससे यह कहा जा सके कि देश सुरक्षित दस्तानों में है। यहां तो लग रह है कि कब कौन सा विकेट गिर जाए, कहा नहीं जा सकता है। जिस तरह से यहां पर देश की बुनियाद को खोखला दिखाया जा रहा है, वह यह जताता है कि हम कितने कमजोर और मानसिक रूप से बीमार हैं। गैर हमें कुछ भी कह दें, हम उन पर यकीन कर बैठते हैं, अपनी मुहब्बत को उनके भड़काने पर जला देते हैं। बस यही चल रहा है देश में। पूरा विपक्ष विकीलिक्स के खुलासे के बाद से उबाल खा रहा है, हालत यह हो गई है कि देश के ‘मन’ को घबराहट हो रही है, और वो इस घबराहट को सफाई के रूप में पेश भी कर रहे हैं। इस संकट का कोई इलाज नहीं है, क्योंकि इसी फूट और राज की राजनीति में हम 200 साल उलझे रहे, और अब हमारे यहां जो राजनीतिक संकट या कहें कि सुनामी दिखाई दे रही है, वह विकीलिक्स की लाई हुई है। यह देश के माथे पर किसी कलंक से कम नहीं है, और हमारे नेता इस कलंक को धोने की बजाए उसका धब्बा गहरा और बड़ा करने की जीतोड़ मेहनत में जुटे हैं। अब दोषी किसे ठहराया जाए, क्योंकि यहां तो हमाम में सभी निर्वस्त्र हैं, और फिर इस स्थिति में किसी पर भी अंगुली नहीं उठाई जा सकती है, क्योंकि हाल वही हो जाएगा कि एक अंगुली उठेगी तो तीन तीन तुम्हें ही उलाहना देंगी।

Tuesday, March 22, 2011

जब भ्रष्टाचार से मुलाकात हुई


हर देश में धन का बंटाढार किया जा रहा है, हर कोई अपनी अल्हड़ता में ही जी रहा है। क्रिकेट के मैदान से लेकर ऐसी कमरों तक हर जगह पैसों का बवंडर खड़ा कर लिया गया है। जिस तरह से आज देश में धन के ये कुबेर जो देश को बर्बाद कर उसका पैसा हजम करके बैठ गए हैं, वह कहीं न कहीं देश की बुनियाद को खोखला कर रहे हैं। आज जिस तरह से हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार आ गया है, उससे डर लगने लगा। यहां हर कोई परेशान है, लेकिन वह रात मुझे याद है, यह कल ही की तो है...जिसमें किसी ने मुझसे पूछ ही लिया कि तुम क्या कर रहे हैं । हां वह स्वप्न था, लेकिन काफी खौफनाक था। इसमें यह दिखाया गया है कि भ्रष्टाचार से कैसे निपटा जाए। इस भ्रष्टाचार पर कैसे नियंत्रण करा जाए। वह हमें भूत जैसा दिखाई दिया। मैं पहले तो डर गया, लेकिन फिर सोचा चलो इससे मुकाबला करके देख लिया जाए। लेकिन वहां भी हमसे नहीं रहा गया। क्योंकि मैंने जो देखा, शायद कोई और भी देखता तो वह दंग रह जाता। हां, मैं बिलकुल सही कह रहा हूं, क्योंकि उसने जो कहा वही सही है, वह भ्रष्टाचार था, जो मुझसे मिला था। मैंने उससे काफी इंतजा कि थी कि वह मुझसे मिले, आखिर वह मुझसे मिला। वह काले कलर का था। उसके दो चेहरे नजर आ रहे थे, एक सफेद कपड़े वाला था, दूसरा काले कपड़े वाला। उसकी नाक तीखी थी, और पैरों में बड़े-बड़े जूते पहन रखे थे उसने। उसकी शक्ल और बनावट देखकर मैं घबरा गया। मैं उससे डर गया। मुझे समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं... लेकिन तभी उसने मुझसे बात करना शुरू कर दी। उसने मुझे कहा कि मैं तुमसे ही मिलने आया हूं, मैं भ्रष्टाचार हूं। तो फिर मैंने पूछा कि तुम तो काफी खौफनाक हो। हां, मैं सुंदर भी हूं, लेकिन उसके लिए मुझे पलटना होगा। तब मैंने उससे पूछा कि आज आपने हमारे देश को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। हर किसी को आपने अपना गुलाम बना रखा है। हर कोई भ्रष्टाचार के कारनामे को अंजाम देने में लगा है। मैं देश का भला चाहता हूं, पर आप हमारी आंखों के सामने हमारे देश को खराब कर रहे हैं। भ्रष्टाचार थोड़ी देर तक सोचता रहा। वह बोला, आपने मुझे मारने के लिए कई दिखावे किए हैं, कभी अपने दिलों में झांक कर देखो, मैं वहां आ चुका हूं। वहां से जब तक नहीं हटाओेगे, मैं नहीं हट सकता हूं। तभी वह बोल पड़ा, क्यों मुझे मारने का प्रयास कर रहे हो, मैंने उसे कहा कि आखिर तुम चले क्यों नहीं जाते, उसने कहा कि मैं तो चला जाऊंगा, लेकिन लोग मुझे फिर से बुला लेंगे। तब मैंने उससे पूछा कि तुम हमेशा के लिए कैसे जाओगे, तो वह बोला अब बहुत देर हो चुकी है, मुझे हमेशा के लिए कोई नहीं भगा सकता है। तभी मैंने फिर सवाल दाग दिया, और उससे कहा कि तुम्हें सिंगापुर से तो निकाला गया है, हां उसने जवाब दिया। मैं वहां से आ गया, मगर यह भारत है, और यहां पर मेरे कई दोस्त हैं। जैसे लालच, विश्वासघात, झूठ यह सभी मिलकर मुझे बल प्रदान करते हैं। इनका भी राशन पानी मेरे कारण ही चलता है। इसलिए यहां से जाना संभव नहीं है। लेकिन मैंने उसे गुर्राते हुए कहा तो मैं तुम्हें यहां से कहीं दूर पहुंचा दूंगा , मैं तुम्हारा वध कर दूंगा। तो उसने जवाब दिया कि मेरे सामने आते ही तुम्हारा मन मुझसे प्रभावित हो जाएगा और तुम भी मेरे गुलाम हो जाओगे। मैंने उसे मुंहतोड़ जवाब दिया और कहा कि मैं ऐसा नहीं हूं। मैंने उस पर पत्थर फेंक दिया, पत्थर उसे लगा और लोहे से लोहा टकराने जैसी आवाज आई। इस पर वह खूब हंसा और बोला कि यह कोई नई बात नहीं है। कई लोग मुझ पर पत्थर मार रहे हैं, लेकिन मैं नहीं जाऊंगा, क्योंकि पत्थर मारने वाले मुट्ठीभर भी नहीं हैं और मेरे गुलाम करोड़ों में हैं। मुझे यहां अच्छा रिस्पॉस मिला है और मैं कतई नहीं इसे भुला सकता हूं। अब तो आप चाहे जो कर लो, मैंने तो इसे ही अपना घर मान लिया है। तभी वह कहीं ओझल हो गया, और मेरी नींद भी खुल गई। दिनभर मैं उसी के बारे में सोचता रहा, फिर मुझे पता चला कि शायद हम भ्रष्टाचार से अब नहीं निपट सकते हैं, क्योंकि यह हमारे भीतर आ गया है।

Monday, March 21, 2011

जख्मी शेरों पर कसो नकेल


वही 28 साल से एक सवाल जो हमारे दिलों को हर बेचैन कर देता है। हम हर बार जीतने का ख्वाब संजोते हैं और यह चकनाचूर हो जाता है। क्या इस बार हम विश्वकप जीतेंगे। शायद दिल बोले हां, लेकिन दिमाग बोले नहीं। क्योंकि जिस तरह से आंकड़े और टीम का प्रदर्शन दिखाई दे रहा है, वह कहीं से भी यह अहसास नहीं दिला रहा है कि हम जीतेंगे। हमारे हौसले बड़े हैं, इरादों में भी जान है, लेकिन प्रदर्शन में हम उस लायक दिखाई नहीं दे रहे हैं कि कंगारूओं का गुरूर नीचा कर सकें। जिस तरह से वो दिखाई देते हैं, उन्हें देखते ही हमारे हौसले पस्त हो जाते हैं। खास बात यह है कि कंगारू इस समय जख्मी शेर हैं और इनसे बचना बड़ा मुश्किल है। हां यह अलग बात है कि हमने उन्हें प्रैक्टिस मैच में हरा दिया था, लेकिन वह प्रैक्टिस था, इसलिए कुछ कहा नहीं जा सकता है। इस बार तो माहौल ही कुछ अलग सा दिखाई दे रहा है। जिस तरह से टीम इंडिया का प्रदर्शन है, उससे तो उसे क्वार्टर फाइनल में आने तक के लाले पड़ गए। गेंदबाज साथ नहीं दे रहे हैं। पिछले बल्लेबाज ताश के पत्तों की तरह हो गए हैं, जब देखो ढह जाते हैं। टीम इंडिया की टेल इतनी बुरी तो कभी न थी। इस समय हमें डर भी लग रहा है, क्योंकि हमारे सामने कोई ऐसी-वैसी टीम नहीं है। खुद कंगारू हैं, और उनसे निपटना, मतलब विश्वकप जीतने जैसा है। अगर उन्हें हमने हरा दिया तो हमारे काफी चांस बढ़ जाएंगे। हां टक्कर तो हर टीम के साथ अब जोरदार होगी, और यहां पर एक भी गलती के लिए कोई माफी भी नहीं होगी। धोनी को पूरा देश माफ नहीं करेगा, अगर उन्होंने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया तो देश के दिलों में सुनामी भी आ सकती है, जिस दिन भारत यदि हार गया तो फिर उस दिन पूरा देश दु:ख और गुस्से से लबालब होगा और यह सैलाब जाने कहां फूटेगा। शायद इसके बाद हमें आशाा भी छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि जिस तरह से पिछले दो साल से नंबर वन का खिताब हमने ले रखा है, वह भी हमसे छिन जाएगा। आज हौसलों को उड़ान भरने देना है। वह छह घंटे 100 ओवर हमें ऐसे खेलना है, जो हमने आज तक नहीं खेला है। पूरे तन मन से। पूरे जुनून से। अगर हम डर के खेलेंगे तो वहीं हार जाएंगे, क्योंकि इस बात को कंगारू भी बेहतरी से जानते हैं और वो किसी भी तरह का कोई रिस्क नहीं लेना चाहेंगे। उनसे जीतना बहुत मुश्किल है, हमने उम्मीद भी नहीं की थी कि उनसे भिड़ना पड़ेगा, लेकिन अब वह आखिरी विकल्प जब आ ही गया है तो फिर डरना किस बात का। खेलो जी जान से, फिर मैदान में जो अच्छा खेलेगा उसी की तो जीत होती है, यह बात पाकिस्तान ने हमें सिखा दी है। उसने आॅस्टेÑलिया को बुरी तरह से परास्त किया है, और न्यूजीलैंड से बेशर्मी से हारा भी है। हां उन्होंने गलतियों से सीखा है, हमें भी सीखना होगा। वो लोग हम पर स्पीड अटैक करेंगे, जिसे हमें पूरी शिद्दत से न सिर्फ झेलना होगा, बल्कि मुंह तोड़ जवाब भी देना होगा। हां हमने अफ्रीका के अटैक को ध्वस्त कर दिया था, यहां भी हमें कुछ ऐसा ही करना होगा। हमारे सामने ब्रेट ली, शेन टॉट और मिचेल जानसन की तिकड़ी रहेगी। हमें इनसे पार पाना होगा, क्योेंकि यही उनकी धार है। ऐसे में सचिन को अपना बेस्ट देना होगा और आज तक उन्होंने जो नहीं किया है, उसे दिखाना होगा। सहवाग और सचिन पर अतिरिक्त जिम्मेदारी बढ़ जाती है, इसके अलावा टीम का हर मेंबर अगर अपना सर्वश्रेष्ठ देगा तो निश्चय ही हम जीत की इबारत लिखने में समर्थ हो जाएंगे। और हम उनसे 2003 के विश्वकप की दो हारों का बदला भी ले लेंगे, जिसमें उन्होंने हमें धूल चटाई थी। उस हार का बदला भी ले लेंगे जो हमें 1999 में उनसे मिली थी। शायद हर हार का बदला लेने का समय आ गया है, अगर हम उन पर विजय पाते हैैं तो हम आधा रास्ता तय कर लेंगे। इसके बाद दो कठिनाइयां हमारे सामने रहेंगी। खास बात यह रहेगी कि आखिरी मैच भारत की सरजमीं पर खेलना है, हमें वहां सर्वश्रेष्ठ दिखाना है, इसलिए हर कीमत पर जीतना है,क्योंकि यह हारे तो जग हारे, यह जीते तो जग जीते।

Thursday, March 17, 2011

इडियट बॉक्स बांट रहा श्रद्धा


श्रद्धा का सैलाब उमड़ता है, और इस बंट रही श्रद्धा को पाने के लिए हर कोई बेकरार है। इडियट बॉक्स काफी सक्रिय हो गया है, इस श्रद्धा को बांटने में। वह कोई भी ऐसा मौका नहीं छोड़ रहा है, जिसमें कहीं न कहीं से धर्म और रहस्यों का मायाजाल बुना जा रहा है। हर तरफ बेवकूफ बॉक्स छाया रहता है, इसकी ‘शिकार’ कहना चाहिए कि वहीं लोग बने हैं, जो अपना पूरा समय घर में ही बिताते हैं, हां कुछ और हैं जो मजबूरी में देख लेते हैं। आज हर चैनल खबरों की सटिकता को भूल गया है और टीआरपी के पीछे कटार लेकर दौड़ रहा है। उसके दूसरे हाथ में कटार के साथ लॉलीपाप भी है, जो लोगों को भ्रामकता से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। यह पूरा रचा बसा मायाजाल या कहें कि किसी चक्रव्यूह से कम दिखाई नहीं दे रहा है। सभी टीवी चैनलों में भविष्य सुनाया जा रहा है। यह भविष्य सत्यता की लकीर को कितना छू लेता है और उससे कितना पीछे रह जाता है, इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं है, हां लेकिन भविष्य तो सुनना ही है। सदियों से हमारे इस मन को लोगों ने भावुकता के नाम पर ठगा है। वह हमें आए दिन बेवकूफ बना देते हैं,मूर्खता के उस लेवल तक पहुंचा देते हैं ,जहां से हम अच्छे बुरे की पहचान को ही मिटाने की कोशिश में जुटे रहते हैं। आज तक हो या फिर कोई और चैनल। हर किसी के पास दिन में एक ऐसी स्टोरी है, जिसमें भूतों का साया कहीं न कहीं से नजर आ ही जाता है। हां, पहले कुछ सीरियल जरूर बनते थे, लेकिन उनमें पूरी तरह से काल्पनिकता रहती थी, लेकिन यहां तो कुछ और ही दिखाई दे रहा है। अब हालात बदल गए हैं, या कहा जाए तो न्यूज पर काफी भरोसा रहता है, उनसे यह अपेक्षा लोगों को रहती है कि जैसा है, यह वैसा ही दिखा रहे हैं। क्योंकि खबरपालिका बहुत विश्वसनीय रही है। मगर उसे कुंद करके उस पर लोगों को छलने वाला माल परोसा जा रहा है। दर्शक भी जाने कौन सा आनंद या फिर कौन से भविष्य के लिए इन्हें देखने में हिचक तक नहीं ले रहे हैं। आज अगर चैनलों के पास भूतों के कार्यक्रम हैं तो बाबाओं की दुकानें भी काफी चमकी हैं। जिनके पास अनुभव की बाल्टी के साथ डिग्री का तराजु है, और इन सबके अलावा अगर वो थोड़े चेहरे मोहरे में भी दिख जाते हैं तो फिर बात बन गई। जीवन की नैया पार हो गई समझ लो। उन्हें टीवी चैनल फौरन ले लेते हैं और इस तरह लोगों को भविष्य का फैसला और उनकी समस्याओं को हल करने का दावा ठोंकते हुए पूरी शिद्दत से ठगने में लग जाते हैं। आज अगर देखा जाए तो जिस तरह से राशि बताई जाती है, लोगों को समस्या निवारण यंत्र बताए जाते हैं...उसमें कितनी सच्चाई है, यह खुद वो ही जानते हैं। जनता तो हर चीज पर भरोसा कर के धोखा खा रही है, लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि उन्हें तो टीआरपी मिल ही रही है। और फिर इसके लिए कोई गाइड लाइन या फिर सेंसर तो नहीं है, जो इन्हें रोक सकें। सदियों से हमारे देश में यह मान्यता है कि भविष्य का फैसला ज्योतिष में होता है, और हर कोई अपने भविष्य को वर्तमान में जानना चाहता है, बस यही चाहत उन्हें इस तरह से मूर्ख बनाने में कामयाब रहती है। यहां गौर और करना होगा कि इस तरह से देश की जनता को कब तक मूर्ख बनाया जाएगा। चंद बाबा सीधे-सीधे लूट रहे हैं, और उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है। मीडिया पूरी तरह से जनता को ठगकर अपनी दुकानदारी चला रहा है और पैसे बना रहा है। इन तरह की घटनाओं या कहें कि विपदाओं पर रोक लगानी चाहिए। इन्हें किसी न किसी तरीके से ब्रेक करना होगा। क्योंकि भविष्य की चाह में और श्रद्धा की आड़ में लोग करोड़ों रुपए कमा रहे हैं और लोग बर्बाद हो रहे हैं। इन सब पर नकेल कसना होगी, तभी स्वच्छ समाज के इन लुटेरों को नकाबपोश किया जजा सकेगा।

Tuesday, March 15, 2011

ऐ खुदा तू बता मैं क्या करूं


सचिन रमेश तेंदुलकर...यह एक ऐसा नाम है, जो आज कोई नहीं भूल सकता है। इस खिलाड़ी और समर्पण के आगे कोई दूसरा नहीं दिखाई देता है। पिछले 21 सालों से भारत की सेवा कर रहा है, हर परिस्थिति में इसने बेखौफ खेला है, टीम को जिताने की जीतोड़ कोशिश की है, लेकिन साथी खिलाड़ी इसे हमेशा धोखा दे गए। 1996 के विश्वकप में सचिन की बल्लेबाजी देखते ही बनती थी। अपनी टीम को इस जांबाज नाबाद बल्लेबाज ने सेमीफाइनल तक का सफर तय करवाया था। उस दिन उसने सेमीफाइनल भी लगभग पार करवा दिया था, लेकिन इसके आउट होने के बाद सभी ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गए। वह पुरानी पीढ़ी थी, शायद उस समय सचिन ने सोचा होगा कि मेरी तपस्या में कोई कमी थी, इसलिए यह विश्वकप हम हार गए। बात आई 1999 की, उस समय इसे निचले क्रम पर उतार दिया गया, टीम के हित के लिए इसने अपना हित नहीं देखा और वहां भी टीम को जिताने का भरसक प्रयास किया। शायद उनके मध्यक्रम में आने के चलते ही टीम इंडिया का हाल बुरा हो गया था और सचिन भी अपनी प्रतिभा के अनुरूप बल्लेबाजी नहीं कर पाए थे। इसके बाद आया 2003 का विश्वकप। सभी ने सोचा कि इस बार कुछ करिश्मा जरूर होगा। हां हो रहा था करिश्मा, लेकिन पूरे समय सचिन ही मैदान में डटे थे। अपनी मनपसंद जगह पर खेल रहे सचिन ने सर्वाधिक रन बनाए। भारत को लीग मैचों से लेकर फाइनल तक का सफर तय करवा दिया। उस दिन गेंदबाजों ने ऐसा धोखा दिया कि बस...टीम पहले ही ओवर से हार गई। उस एक मैच में सचिन का बल्ला खामोश हो गया, या कहें कि अपने गेंदबाजों ने हार की जो इबारत लिखवा दी थी, उसे बदलने में सचिन ने अपना बलिदान दे दिया और चार रनों पर ही आउट हो गए। वक्त बदला हालात बदले और फिर आया 2007 का विश्वकप। जी हां...एक बार फिर टीम को धार और मजबूती देने के लिए उनसे कुर्बानी मांगी गई। उन्हें ओपनर की बजाय मध्यक्रम में खिलाने पर मजबूर किया गया, तब भी यह बल्लेबाज तैयार हो गया और अपनी टीम के लिए वह मध्यक्रम में खेला। हालात यह हो गए कि टीम इंडिया सुपर 8 में भी दाखिला नहीं ले पाई। वक्त की करवट ने सचिन के अंदर की कसक को जिंदा रखा। उम्र उनका साथ छोड़ रही है, लेकिन उनके हौसलों में आज भी वही दम है। और इसी दम की खातिर उन्होंने यह विश्वकप खेलने का फैसला लिया। फिर क्या था, सचिन तेंदुलकर अब 2011 के विश्वकप में खेल रहे हैं। अपनी पसंद की जगह पर। कहें तो यहां पर सबसे सुनहरा मौका है, 1996 और 2003 की तरह। सचिन पहले ही मैच से रंग में दिखे हैं। और उन्होंने फिर अपने हौसले और इरादे जता दिए हैं। टीम के युवाओं का वह कमिटमेंट नहीं है, जो सचिन रमेश तेंदुलकर का दिखाई दे रहा है। पूरी पारियों में एक भी खराब शॉर्ट नहीं खेल रहे हैं। इंग्लैंड के खिलाफ उन्होंने हमें बेहतर शुरुआत दी। आंकड़ा 300 के पार पहुंच गया, लेकिन हमारे गेले गेंदबाज वह आंकड़ा भी नहीं बचा पाए और हमें टाई के दर्द को सहना पड़ा, जबकि इतने बड़े स्कोर पर जीत तय मान ली जाती है। खैर हार नहीं मिली तो हमने उस दर्द का सह लिया। एक बार फिर बड़ा मैच...साउथ अफ्रीका के साथ। वीरू के साथ मिलकर 2011 विश्वकप की सबसे धमाकेदार शुरुआत। लग रहा था कि आज अफ्रीकी गेंदबाजों का सामना शेरों से हुआ है। एक समय 400 के पार का आंकड़ा दिखाई दे रहा था। सचिन आउट क्या हुए, पूरी टीम बह गई। सिकंदर को जिस तरह मालूम नहीं था कि खुशी आकर चली जाएगी, ठीक वही टीम के साथ हुआ, इस बार फिर कोई खिलाड़ी साथ न दे सका। कप्तान से लेकर दूसरे नए खिलाड़ियों तक में कोई भी ऐसा बल्लेबाज नहीं दिखा, जिसने सचिन के अरमान को अर्श देने की कोशिश की हो। यहां तो सब ताश के पत्तों की तरह ढेर हो गए। अफ्रीकी गेंदबाजों ने चुनचुन कर गोली मारी। फिर भी 296 का स्कोर बोर्ड पर टंगा था और अच्छी नहीं तो मध्यम गेंदबाजी से भी यह मैच जीता जा सकता था, लेकिन कुछ नहीं हुआ। हम मैच हार गए। एक बार फिर अधूरे ख्वाब के साथ। टीम का कोई खिलाड़ी सचिन जैसा नहीं खेल रहा है। इन्हें अगर खेलते नहीं आता है तो बाहर कर देना चाहिए। क्योंकि यह सचिन ही नहीं भारत की जनता के साथ भी छल के समान है। क्योंकि इन खिलाड़ियों को सम्मान के साथ प्यार और पैसा दोनों दिया जा रहा है, फिर इनके बल्ले और गेंदों में वह धार और जज्बा क्यों नहीं दिखाई दे रहा है। और अगर नहीं खेल सकते तो सभी को सन्यास दे देना चाहिए।

Monday, March 14, 2011

स्वच्छ समाज का ‘विकलांग’ ‘विकास ’


हम कह रहे हैं कि हम निर्माण में लगे हैं, कल पूरी तस्वीर बदल जाएगी, यह इतनी सुहानी होगी कि चंद साल पहले अगर कोई यहां नहीं था तो उसे पूरा भारत ही बदला नजर आएगा। अगर वह बाहर रहता है तो यहां आकर पहचान नहीं पाएगा कि यह वही भारत है, जिसे वह छोड़कर गया था। विकास की हवा में हम स्वयं भी बहे जा रहे हैं, लेकिन यह क्या। सिक्के का जो रूप हमें दिखाया जा रहा है, वह तो नकली है, उस पर तनिक गड़ाकर निगाह डाली तो सारी परते अपने आप उधड़ती चली जा रही हैं। नकली विकास को विकलांग कर देश को खोखला करने की साजिश चारों ओर हो रही है। हर कोई इसके ताबूत में तेजाबी कील ठोंकने में लगा है। समस्या और हालात बदतर नहीं दुर्दांत हो गए हैं। बेशकीमती जमीन से लेकर आसमान में तनी अट्टालिकाएं पूरी तरह से लाशों पर बनाई गई हैं। आदमी आदमी का खून करने में कोई संकोच नहीं करता है, वह हाड़ मांस का पुतला अब व्यर्थहीन हो चला है। चमकीली रेत हमारे पैरों तले लगाई थी और उसे हम मजबूत आधार समझ कर बेफिक्री से खड़े हो गए थे, लेकिन यहां तो हालात ही बदले दिखाई दे रहे हैं। पूरा का पूरा संसार की सड़ने की कगार पर आ गया है। जिस भी कांड में देखा या तो क्राइम का स्तर बढ़ गया है, या फिर भ्रष्टाचार का तेल डालकर उसे जला दिया गया है। अब पूड़ी बनाते समय अगर भ्रष्टाचार का तेल डाला है तो उससे पेट तो खराब होगा ही। हां, कुछ लोगों के हाजमें जरूर बेहतर हो सकते हैं , लेकिन सभी इसी श्रेणी में आएं यह तो नहीं हो सकता है। हर किसी का इतना स्ट्रांग पाचनतंत्र तो नहीं होता है न। आपने भी बिलकुल ही सही सीखा है, क्योंकि यहां अरमानों को पंख लगाकर लोग आग पर चढ़ा देते हैं। चपरासी से लेकर मदरासी तक हर कोई अपने भाग्य से अधिक भ्रष्टाचार मचाए है। मगर हम आज तक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर हमारी समस्या क्या है। हम किस मानस चिंतन में डूबे हैं। कौन सी परवाह हमें भीतर ही भीतर चबाए जा रही है। यह कैसा चक्रव्यूह है, जिसमें हमें कोई राह नजर नहीं आ रही है। इस मकड़जाल के लिए अब कौन सा स्पाइडरमैन आएगा जो हमें निजात दिलाएगा। नागराज और धु्रव जैसी शक्ति तो नहीं है हमारे पास। और तो और ये तो काल्पनिक पात्र हैं, और हकीकत में तो विश्वास और अपना धैर्य ही साथ देता है,बाकी तो सब बेवफा हो जाते हैं। जिंदगी मुश्किल हालातों से गुजर क्यों रही है। लोग दाने-दाने के लिए मोहताज क्यों हो रहे हैं। हम इतने गरीब भी तो नहीं है और हमारे यहां कई तो इतने मालामाल हो गए हैं कि वो दूसरों का भी खाना खाने में जुटे हैं। सच बताएं तो सब अस्त-व्यस्त चल रहा है। यहां सुनियोजित कुछ भी नहीं है। विकास तो हो रहा है, लेकिन विकलांग तरीके से । अब वह सीधा खड़ा हो भी नहीं सकता है, क्योंकि इसकी बुनियाद ही खोखली कर दी गई है। हर कोई अपने-अपने तरीके से जीवन की पटरी पर गाड़ियां धकेल रहा है। अब तो पटरी भी साथ छोड़ रही है, जिससे उस पर भी चलने में डर लग रहा है। जिंदगी की कोई दशा और दिशा नजर नहीं आ रही है, क्योंकि यहां सब सर्परूप में बैठकर चुपके से डस रहे हैं। बहुरूपिए हो गए हैं, इसलिए ये नजर भी तो नहीं आते हैं। महंगाई पर महाभारत करने लगते हैं, लेकिन खुद के गिलेबां में झांक कर नहीं देखते हैं कि उसमें कितने सर्प लिपटे हुए हैं। हर तरफ अंधेरगर्दी हो रही है, लेकिन ये तो सावन के अंधों की तरह बातें करते हैं, जैसे इनका घर हरा था तो दुनिया जग हरा है। हर तरह बेचैनी और बेबसी ही जान पड़ रही है और यह एक दिन जान जरूर ले लेगी। इस पर किसी का वश नहीं चलेगा। इसलिए इसकी तैयारी जल्द से जल्द कर लेना चाहिए, अगर ऐसा नहीं किया तो निश्चय ही हम परेशानी की उस खाई में चले जाएंगे, जहां से जीवनभर नहीं निकल पाएंगे। मौका है संभल जाओ भाई, नहीं तो फिर बचने का कोई मौका हाथ नहीं आएगा।

Sunday, March 13, 2011

धोनी ने डुबो दी लुटिया


हमें हमारी बल्लेबाजी पर पूरा भरोसा है, साथ में यह संशय भी रहता है कि धोनी की यह बिग्रेड ताश के पत्तों की तरह कब ढेर हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। टीम में एक से एक दिग्गज हैं, इसके बावजूद हम हार जाते हैं। हां पहले ताकत की बात कर लेते हैं तो सचिन और सहवाग की तूफानी शुरुआत देखकर दक्षिण अफ्रीका जापान के जलजले सा महसूस कर रहा था। वह सोच रहे थे कि आखिर जब स्टेन का वार और मोर्केल की रफ्तार नहीं चली तो फिर टीम इंडिया को कैसे रोका जाए। चार सौ का आंकड़ा स्मिथ की आंखों में भी तैर रहा था। उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि आखिर मैच में वापस आया कैसे जाए। टीम में वीरू के आउट होने के बाद रनों की रफ्तार में अंकुश जरूर लगा, लेकिन सचिन और गंभीर ने बकायदा अपनी पारियों को बड़े स्कोर में तब्दील किया। बात यहां तक थी, जब तक सबकुछ अच्छा चल रहा था। सचिन का सैकड़ा पूरा हुआ। इसके दो ओवर बाद सचिन का विकेट चला गया। अब क्या था, टीम इंडिया लगता है कि आज चार सौ के मूड में ही नजर आ रही थी। हर किसी को सिर्फ बाउंड्री ही दिखाई दी। तो क्या था बल्ले खूब धड़ल्ले से चलाने लगे। पहले गंभीर गए, इसके बाद तो तू चल मैं आया। 27 रन पर नौ विकेट हो गए। एक समय चार सौ का आंकड़ा अब 300 भी नहीं पहुंच पाया। यहीं से शुरू हुई धोनी की गलती। यह जिम्मेदारी धोनी की भी तो बनती थी, उन्होंने तो बल्ले से जौहर दिखाना छोड़ ही दिया है और कप्तानी में ही मशगूल हो गए हैं। धोनी साहब यह मत भूलो कि सौरव दादा भी जब प्रदर्शन नहीं कर पाए थे तो उन्हें बाहर कर दिया गया था, जबकि उनका रिकॉर्ड आप से काफी बेहतर था। अब बोर्ड पर 290 का लक्ष्य। शायद यह लक्ष्य काफी बड़ा होता है, लेकिन गलती करने वाले हमारे धोनी थकेले कंधों पर बंदूक रखकर विश्वकप का सपना संजोए बैठे हैं। हां इन्हें विश्वकप मिले तो ठीक नहीं, तो इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि इनके घर तो धन से यूं ही भर जाएंगे, लेकिन उन सौ करोड़ लोगों का क्या है, जिन्होंने इन्हें अपने सिर का ताज बनाया है। अब महाशय धोनी का इसमें तर्क होता है कि आखिर लोग क्यों देखते हैं क्रिकेट, हम तो खेल की तरह खेलते हैं और इसमें हार जीत लगी रहती है। तो भाई धोनी आपको हमारी एक नसीहत मान लेनी चाहिए कि अगर आप का रवैया यह है और जनता के अरमानों की फिक्र नहीं है तो आप सन्यास ले लीजिए, क्योंकि जो खेल के लिए इस तरह की भावना रखते हैं, उस तरह के कप्तान की इंडिया को जरूरत नहीं है, और यह आपकी बपौती नहीं है, जो आप इसमें अपनी पसंद न पसंद जताएंगे। यह सार्वजनिक खेल है और इसमें हमारी सौ करोड़ जनता इन्वॉल्व है। अगर आप जीत नहीं सकते तो बाहर बैठिए, और भी हैं दीवाने जो यहां मिटने के लिए तैयार हैं। आप अगर विश्वकप का ताज नहीं दिला पाए तो आपको मक्खी की तरह हम खुद भी निकाल सकते हैं। वहीं गलतियों के बादशाह हमारे धोनी भूल ही जाते हैं कि वो कप्तान हैं और गेंदबाजों से उनका संपर्क नेटवर्क की तरह टूट जाता है। किसी भी गेंदबाज को गेंद थमा देते हैं, ऐसे समय में जरा ध्यान रखा कीजिए और जो हमें जिताए उसे गेंद दिया करो। भाई साहब नेहरा ने पूरे मैच में तीर नहीं मारा था और आपने उन्हें ही निशाना साधने के लिए दे दिया। ऐसे में चूक तो उनसे भी हुई और आपसे भी। आगे की कठिन लड़ाई अभी बाकी है और अब आपके पास पछताने का विकल्प और मौका नहीं रहेगा। हां अगर ऐसे में भी टीम इंडिया को आप फाइनल तक नहीं ले गए तो फिर आवाम आपको बख्शेगी नहीं। इसलिए भारत की आवाज सुन लो और कोई कड़ा निर्णय जरूर लो, क्योंकि यह नहीं किया तो फिर 28 सालों का यह सूखा कभी समाप्त नहीं होगा। हम कभी ताज नहीं जीत पाएंगे। अब आपके दस्तानों में गेंद है, उसे जिम्मेदार को ही दिया करो, क्योंकि आप जीतो या हारो आपकी फीस पूरी मिलती है और आप तो दिनभर मैच खेलते हो, इसलिए कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन हम इंडियन दर्शकों का तो दिल टूट जाता है और कभी-कभी रुठ भी जाता है, इसलिए अगर जीत दिलाओगे तो बादशाह कहलाओगे, नहीं तो धोनी कोई नाम था, यह भुलाने में हमें ज्यादा दिन नहीं लगेंगे।

Wednesday, March 9, 2011

हर तरफ गुंडाराज


देश किस ओर करवट ले रहा है, लोगों में इतना खौफ कहां से आ गया है, इतना क्रोध क्यों किया जा रहा है। सुबह खुशी से निकलते हैं, लेकिन वापस घर नहीं आ पाते हैं। कभी अस्पताल नसीब हो जाता है, तो कभी श्मशान। न जिंदगी का भरोसा, न मौत का। कब, क्या, कहां, कैसे और आखिर क्यों? कुछ भी हो जाता है, लोग समझ ही नहीं पाते हैं, इससे पहले ही घटना को अंजाम दे दिया जाता है। न कानून का भय, न भगवान का भरोसा। लोग आतंकित हो गए हैं। डर यह भी सता रहा है कि आखिर जिंदगी को कैसे जिया जाए। क्योंकि यहां तो पल-पल में गोलियां चलती हैं, पल-पल में तलावरें निकल जाती हैं। अपराधियों के हौसले बुलंद हैं, और पुलिस की धार कुंद पड़ी हैं। पर्दे के पीछे राजनीतिज्ञों का इनसे बेजोड़ गठजोड़ हैं, जिससे यहां अपराध पल रहा है। समाज बुरी तरह पतन की ओर जा रहा है, लेकिन समझाए कौन, बहलाए कौन। जिस तरह से सामाज में नए-नए घटनाक्रम आ रहे हैं, वह काफी दर्दनाक हैं, दिल को दहला देते हैं। दिल्ली हो या नोएडा, मुंबई हो या मप्र, या फिर बिहार... हर जगह अपराध को संबल दिया जा रहा है। शांति कहीं खो सी गई है। अपराधियों का वर्चस्व है। हालत दयनीय नहीं दर्दनाक और खौफनाक हो गई है। लोगों का जीवन दुश्वार हो गया है, बापू के अंहिसा पर चलने का मन किसी का नहीं हो रहा है, क्योंकि आज तो चैन से जीने ही नहीं दिया जा रहा है। परिस्थितियां बिलकुल विपरीत हैं, न कोई बचाव का ठिया है और न ही कोई सेफ जगह। जिसे देखो गुस्से में लाल पीला नजर आ रहा है, जिसके पास पैसा और ताकत है, वह आज शहंशाह है और बाकी सब फिसड्डी। अन्य तो ऐसे जी रहे हैं, मानों जीवन ही न हो। मर-मर कर तड़प-तड़पकर सिसक-सिसककर जिंदगी घिसट रही है। न तो जान का भरोसा सुरक्षा व्यवस्था दिला रही है और न ही सरकार को इससे कोई सरोकार है। दौलत में हर कोई अंधा हो चुका है और अपराधियों का चहुंओर राज है। जिंदगी विरानी हो गई है, ऐसे में अब लोगों के दिमाग पर विपरीत असर पड़ने लगा है। अब कोई अपने घरों में डॉक्टर या इंजीनियर बनाने की नहीं सोच रहा है, बल्कि वो लोग अपने बेटों को गुंडा बना देते हैं, ताकि समाज में उन्हें जीने का हक मिल सके। हालत बदतर हो गई, और मंथन करें तो कई चीजें दु:ख देने वाली हो गई हैं । जिस तरह से महिला दिवस पर एक लड़की को सरेआम गोली मारकर अपराधी भाग गया, वह दिल्ली पुलिस के साथ पूरे देश के लिए शर्म की बात है। वहीं नोएडा में अगले ही दिन पति-पत्नी स्कूटर पर जा रहे थे,मामूली रूप से किसी से विवाद हो गया और उन्होंने गोली मार दी। आखिर क्यों इतना गुस्सा हो गया है कि बात-बात में गोलियां निकल आती हैं। चल जाती है और जान चली जाती है। दोष किसका उस मां का, जिसने उसे जन्म दिया, या उस पुलिस व्यवस्था का जो उसे रोक नहीं पा रही है। या फिर उस सरकार का जिसने उसे रोजगार नहीं दिया, या फिर उन नेताओं का जो अपने हित साधने के लिए उन्हें मोहरा बना देते हैं। दोषी सभी हैं और सभी ने अपने फर्ज को नहीं निभाया है। नतीजा सबके सामने आ जाता है, हर घर में से एक गुंडा पैदा हो जाता है। क्यों ? सवाल बहुत हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुलिस क्या कर रही है, क्यों आसानी से हथियार उपलब्ध हो जाते हैं, वहीं से रोकना शुरू कर देना चाहिए। गुंडों को यूं ही क्यों छोड़ दिया जाता है, अगर उन पर सख्वत कार्रवाई की जाए तो यह नौबत ही न आए। आज समाज में गुंडाराज फैल गया है और अगर इसे कम नहीं किया गया तो कल इसकी पौध बढ़ जाएगी। हर घर से एक गुंडा निकलेगा और फिर यहां मचेगी मार-काट। खून बहेगा, खुद का भी और दूसरों का भी। सभ्य समाज का पतन हो जाएगा और धरती पर पानी की जगह लहू बहेगा। अभी भी समय है, इन दरिंदों को हवालात में पहुंचाकर सख्त सजा दी जानी चाहिए, अगर ऐसा करने में कामयाब हो गए तो कुछ हद तक हम इस पर बांध लगा पाएंगे। वरना सैलाब आएगा और सब कुछ बहाकर ले जाएगा।

Tuesday, March 8, 2011

छू रही हैं बुलंदियां


कौन कहता है कि आसमान में सुराग नहीं होता, आज बेटियां आसमान की सैर कर रही हैं। दुनिया को दम दिखाने में लगी हैं। विश्व में महिलाएं प्रबलता से अपना वर्चस्व दिखा रही हैं। भारत में कहा जाता था कि यहां पर औरतों पर जुल्म होता है, हां होता था, लेकिन अब स्थिति बदली है। इसके पीछे कहीं न कहीं हमारी बदलती सोच का परिणाम है। आज हर तरफ बदलाव की बयार बह रही है और इसमें मानसिकता का कोई राहु-केतु फटक भी नहीं पा रहा है। जिस तरह से अरमानों को अहसास मिल रहा है, महिलाओं को संबल दिया जा रहा है, उससे वो हर क्षेत्र में जीजान से जुटी हुई हैं। यह सही है कि पुरुष के बराबर अभी नहीं आ पाई हैं, लेकिन उनसे कम भी नहीं है। कई जगहों पर हमने देखा है कि वो पुरुषों का नेतृत्व कर रही हैं, लेकिन कहीं स्थिति स्याह भी है। और यहां को देखकर एक बार फिर पुन: विचार करने का मन हो रहा है। परिणाम बदल रहे हैं, हालातों में परिवर्तन हो रहा है, अब बेटियां घर से निकलकर रास्ता बताने लगी हैं, उन्होंने विश्वास जताया है, हां समाज के कुछ नकचढ़े लोग उन्हें ऐसा करने पर बुराई देते हैं, लेकिन वह मुंहतोड़ जवाब देने के लिए पूरी तरह से तैयार है। हर वो काम जो देश के विकास में सहायक है, वहां वह अपने जौहर दिखाने में जुटी है। खेल के मैदान से लेकर सरहद तक वह प्राणप्रिय बनकर देश पर कुर्बान हो रही है। हवा में तैर भी रही है और लोगों को सिखा भी रही है। जननी भी है और शक्ति भी। वाह नारी ने आदर्श की क्या मिसाल पेश की है, समाज में कुंठित लोग भी उसकी तरफ खड़े दिखाई दे रहे हैं। प्रभावहीन नारी प्रभावशील हो गई है, ओस की बूंद कहलाने वाली फौलादी इरादे वाली बन गई है, कभी समाज में उसे छेड़ते थे, आज भी वह घटना हो जाती है, लेकिन कई मौकों पर जब वह भरपूर जवाब देती है तो अच्छा लगता है। हम भी दूसरे देशों की तरह हो गए हैं, जहां महिलाएं अपना मुकाम पा रही हैं। उन्हें सम्मान मिल रहा है। उन्हें आदर की दृष्टि से देखा जा रहा है। उनकी उपस्थिति को अब नजरंदाज नहीं किया जा सकता है। साथ ही बड़ी बात यह है कि वह अब फर्राटेदार अंग्रेजी भी बोल रही है और लोगों को सिखा रही है। उसकी तारीफ करते हमारा मन नहीं थकता। बॉलीवुड से लेकर हॉलीवुड हर कोई उसके बिना कुंद दिखाई देता है। जहां वह नहीं है, वहां वीरानी दिखाई देती है। हां कुछ लोगों ने बिकाऊ जरूर बना रखा है, लेकिन उसकी हैसियत बहुत बड़ी हो गई है। आज उसे मनाने के लिए सैकड़ों लोग मिन्नतें करते हैं। बदलाव की यह बयार और प्रमुख हो सकती है, जब शिक्षा को अधिक बल दिया जाए। अगर अनपढ़ता का बादल हम शिक्षा की हवा से उड़ा दें तो बेटियां ससुराल में असहाय नहीं होंगी। उन्हें दहेज के लिए जलना नहीं होगा। उन्हें मरना नहीं होगा। शराबी और अय्याश पति के जुल्मों का शिकार नहीं होना होगा। वह उसे उसके कारनामों के लिए सबक सिखा देती है। वाह रे...महिला तुझे सलाम। आज महिलाएं देश को संभाल रही हैं। उन्होंने हर ओर अपना प्रभुत्व दिखाया है। मौका परस्त नहीं है वह, लेकिन मौके को भुनाना भी सीख चुकी है। अब उसे कोई चिंता नहीं, क्योंकि बेटी अब होशियार बन गई है, उसे बचाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकती है। हां, अभी भी कुछ तबका है, जहां बेटियों की हालत गंभीर है, जहां महिलाओं का अपमान किया जाता है। बस वहां सुधरने की जरूरत है, अगर वहां हमने सफलता हासिल कर ली तो हमारा देश भी गौरवान्वित हो जाएगा। हमें नाज है अपने देश की महिलाओं पर, जो दूसरों को परास्त कर देती हैं। हर तरफ वो अपना जलवा दिखा रही हैं, और विरोधी लोग जो पहले उनकी निंदा करने में जुटे रहते थे, आज वे ही खुले दिल से तारीफ कर रहे हैं। यही है हमारे बदलते भारत की तस्वीर, जो कई रंगों से सुसज्जित नजर आ रही है।

Sunday, March 6, 2011

परीक्षा का प्रेशर फट न पड़े


परीक्षाओं की गरमी मौसम में भी नजर आ रही है। धूप जिस तरह से मार्च में तपने लगी है, उससे दिन बेगाने से हो गए हैं। आलस्य ने ऐसा दामन पकड़ा है कि कुछ करने का मन ही नहीं हो रहा है। ऊपर से परीक्षा का प्रेशर हॉर्न दिमाग को संतुलित ही नहीं होने दे रहा है। पढ़ाई का डर, साल भर मेहनत की, लेकिन अभी मन बैठा जा रहा है कि कहीं वो तो न आ जाए जो हमने कहीं याद ही नहीं किया हो। कोर्स से बाहर का आ गया तब क्या होगा। रातों की नींद उड़ी हुई है, पढ़ते-पढ़ते टेबल पर गिर पड़ रहे हैं, कमबख्त तीन-तीन घंटे पढ़ाई की टेबल पर बिता देते हैं, बाद में ऐसा लगता है कि कुछ भी याद नहीं किया। न जाने क्या हो रहा है, नींद में ऐसा लग रहा है मानों हम पेपर दे रहे हैं और पेपर में कोई भी सवाल नहीं आ रहा है। गणित से लेकर इंग्लिश सभी ने डराना शुरू कर दिया है। टीचर्स का रोल खत्म हो गया है, मम्मी-पापा पढ़ने के लिए बोल रहे हैं। रातों में दोस्तों से पूछ रहे हैं कि यार तूने वह चेप्टर खत्म कर लिया है, जब वह हां कह देता है तो मन की शंकाएं और बढ़ जाती है, लगता है कि हम ही पीछे हैं, बाकी सब तो बाजी मैदान में मारने के लिए तैयार हैं। आखिर करें तो क्या करें। ऊपर से बीमारी ने हमारा दम निकाल दिया है। बार-बार सिर दु:ख रहा है, बुखार हो रहा है। पढ़ते नहीं बन रहा है, करें तो क्या करें। जीवन में उदासी छा रही है। पेपरों का यह भूत तो लगता है कि दम ही निकाल देगा। एक-एक दिन भारी पड़ रहा है, दिल कहता है कि जल्द से जल्द पेपर हो जाए, भले ही रिजल्ट जो भी हो, लेकिन इतना मन तो नहीं घबराएगा। हमारा तो जीवन ही बेकार हो गया है, पूरे साल पहले पढ़ाई करो, फिर परीक्षा के प्रेशर को हैंडल करो, दिमाग कुकर की तरह सीटी मारने लगता है, कहीं प्रेशर नहीं रिलीज हुआ तो हम फट न जाएं। सभी अखबार और टीवी वाले मानसिक रूप से प्रबल रहने की सलाह दे रहे हैं, जो देना काफी आसान है, वह भी जानते हैं कि परीक्षा में पास होना काफी कठिन है। मन में चिड़चिड़ापन हो रहा है, सब कुछ बेगाना सा हो गया है। हम तो मजबूर भी लग रहे हैं और मजदूर भी। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि भाड़ में जाए यह परीक्षा, हम तो नहीं पढ़ेंगे। पर पापा-मम्मी को देखकर लगता है कि कितनी मुश्किलों से वो हमारी फीस भरते हैं। आज तो कुछ करना ही होगा। कुछ अलग नया, ताकि जीवन बढ़िया हो जाए। वरना आज अगर परीक्षा से डर गए तो जीवन में कई बड़ी परीक्षाएं आएंगी, क्या तब भी हम ऐसे ही हमारे पैर खींच लेंगे, अपना मुंह चुरा लेंगे। आज की इस परीक्षा में पास होना ही है। हां यह सही है कि दबाव खूब है, परीक्षा का भी और आसपास का भी। क्योंकि लोग इसके परिणाम पर ही हमारा आकलन करेंगे। फिर चाहे हमने सालभर कितनी ही मेहनत क्यों न की हो, अगर इसमें असफलता हाथ लगती है तो लोग उसे इसी नजरिए से देखेंगे। उन्हें लगेगा कि हम मानसिक रूप से कमजोर हैं। और परीक्षा में पास नहीं हुए। हां तब हम उनके सामने आंख नहीं मिला पाएंगे, वह भी इसलिए कि हम परीक्षा के अंतिम क्षणों में बेहतर परिणाम नहीं दे पाए। यह यही नजारा है और यही जिंदगी है, जिसमें हम फेल हो जाते हैं। परीक्षा का दबाव हमें हैंडल करना ही होगा, साथ ही इन विपरीत परिस्थितियों में हमें ‘दबंग’ बनकर निकलना होगा, ताकि कोई यह न कह सके कि यह वहीं है जो हार गया। हार पर हंगामा होता है, लेकिन इस समय उन्हें भी ध्यान रखना होगा जो हार जाएं, क्योंकि यह हार आखिरी हार नहीं है। इसके बाद भी कई मौके आएंगे। आखिर जिंदगी को समाप्त करने का कोई मतलब नहीं है। इसलिए अगर पेपर बिगड़ भी जाए तो चिंता की कोई बात नहीं है। जीवन जियो, जिंदादिल तरीके से, क्योंकि यह बेहतर है। यहां आत्महत्या या कोई दूसरा कार्य करने की जरूरत नहीं है। अब बस इस परीक्षा के प्रेशर को आसानी से हैंडल करो, फिर छुट्टियों को जमकर इंजॉय करो, जिंदगी तुम्हारी है, इसे पूरा जियो।

Saturday, March 5, 2011

‘चाणक्य’ था अर्जुन


अर्जुन सिंह सालों तक...कांगे्रस के थिंक टैंक माने जाते थे। जब से उन्होंने कांग्रेस को ज्वाइन किया, उसके बाद से उस अर्जुन ने कभी पलट कर नहीं देखा। इंदिरा गांधी फिर राजीव गांधी....और अंत में सोनिया के खासम खास में रहे हैं। हालांकि आखिरी दौर में इस अर्जुन को थोड़ा नजरंदाज किया गया, लेकिन अर्जुन कांग्रेस के लिए किसी चाणक्य से कम नहीं था। किसी भी मुद्दे पर हो, वह बेबाक था, सालों कांग्रेस की वफादारी की, कभी उस पर संकट नहीं आने दिया। कांग्रेस की बड़ी-बड़ी मुश्किलों को उसने आसानी से हल कर दिया। अर्जुन की तरकश में हर समस्या का बाण था, कई बार उन्होंने सत्ता के ताबूत में कील ठोंक दी थी, विरोधी तो अर्जुन के सामने आने से कतराते थे। सही मायने में कांग्रेस का यह चाणक्य था। अपनी बुद्धि से विरोधियों के हौसले पस्त कर देता था। हां गांधी कुनबे ने उसे काफी मान दिया था और हर बार वो उसकी टीम का हिस्सा रहे थे। उनके जीवनकाल का सबसे बड़ा कलंक अगर कुछ है तो भोपाल त्रासदी, क्योंकि उसके छींटे अर्जुन सिंह की कमीज पर हमेशा नजर आए। लोगों ने उन्हें हमेशा दोषी ठहराया है। हां, उन्होंने हमेशा कोशिश की कि इससे वो पाक साफ साबित रहे हैं, लेकिन हालातों ने उन्हें छुटकारा नहीं लेने दिया। जवान अर्जुन से अधिक बुजुर्ग अर्जुन काफी खूंखार थे, उस समय इनकी बुद्धि और चातुर्यता का हर कोई कायल था। कांग्रेस में कई बड़े फैसले इन्होंने ही सुझाए, और इनके बिना कोई बड़ा निर्णय तक नहीं लिया जाता था। वारेन एंडरसन, राजीव गांधी और अर्जुन सिंह की तिकड़ी विवादों में आई थी, लेकिन उसे भी इस अर्जुन ने पार लगा ही दिया। अंतिम समय में कुनबे के मोह ने इसकी वफादारी में कुछ घोट दिखाई थी, मगर इसका भी तो दोष नहीं था, क्योंकि कांग्रेस ने भी इससे मुंह मोड़ना शुरू कर लिया था। आज अर्जुन हमारे पास नहीं हैं, कांग्रेस के लिए यह एक बड़ी क्षति है, वह भी लगभग दो सालों से, क्योंकि अर्जुन सिंह से उनका नाता दो सालों से छूटा हुआ है। इतिहास भले ही अर्जुन को भोपाल कलंक के रूप में याद करे, लेकिन इन्होंने हर बार विरोधियों को धूल चटाई। जैसा नाम वैसा ही काम था। ठीक अर्जुन की तरह। हर तरकश में इतने तीर की विरोधी को हार माननी ही पड़ती थी। कई बार इनके साथ कुछ गलत जरूर हुआ, लेकिन इन्होंने हर बार उसे ठीक कर लिया। उस दौर में लोग सोचते थे आखिर एक इंसान में इतनी चाणक्यता कैसे हो सकती थी। उनके इसी बुद्धिबल के कारण उन्हें चाणक्य माना जाता था। आज वह हमारे बीच में नहीं हैं, यह एक युगपुरुष की कमी की तरह हमें खलेगा। सालों तक उनकी जगह भरना मुश्किल रहेगी, यह कमी कांग्रेस को खल भी रही है, जिस तरह मप्र में सालों राज करने वाली कांग्रेस पिछले दस सालों से यहां पर पैर नहीं जमा पा रही है। वह अर्जुन के कारण ही है। दिग्गी को जो मैदान मिला था, वह अर्जुन का तैयार किया हुआ ही था। इसलिए उन्होंने भी दस साल तक यहां राज किया। इसके बाद से जो सूपड़ा साफ हुआ, वह आज तक दम नहीं भर पाया है। जिस तरह से यहां पर कांग्रेस के हालात हैं, उसे देखकर तो यही लग रहा है कि अगले दस सालों तक कांग्रेस यहां नहीं आ सकती है। क्योंकि अब अर्जुन...नहीं रहा, और इनकी जगह कोई ले नहीं सकता। यह दुनिया का अटल सत्य है कि जो आया है वह जाएगा, और एक न एक दिन उसकी जगह भी भर जाएगी, लेकिन उसके लिए समय कितना लगता है, यह निश्चित नहीं है। इसलिए अर्जुन का जाना मप्र से कांग्रेस का गढ़ ही उखड़ जाना है, यह तो तभी हो गया था जब कांग्रेस ने उनसे बेरुखी दिखा दी थी। इसलिए उनका मन भी राजनीति में नहीं लगता था, क्योंकि उम्र के साथ हालात बदल गए थे, अब वे अर्जुन तो थे, लेकिन चाणक्य नहीं थे, और फिर लंबी पारी खेलने के लिए उनके पास समय भी नहीं था। इसलिए उन्होंने किनारा कर लिया था। उम्र और बीमारी उन पर हावी हो गई थी और अंतत: वो विलीन हो गए। लेकिन वह अर्जुन हमेशा उनके चाहने वालों के साथ विरोधियों के बीच में कायम रहेगा।