Monday, March 14, 2011

स्वच्छ समाज का ‘विकलांग’ ‘विकास ’


हम कह रहे हैं कि हम निर्माण में लगे हैं, कल पूरी तस्वीर बदल जाएगी, यह इतनी सुहानी होगी कि चंद साल पहले अगर कोई यहां नहीं था तो उसे पूरा भारत ही बदला नजर आएगा। अगर वह बाहर रहता है तो यहां आकर पहचान नहीं पाएगा कि यह वही भारत है, जिसे वह छोड़कर गया था। विकास की हवा में हम स्वयं भी बहे जा रहे हैं, लेकिन यह क्या। सिक्के का जो रूप हमें दिखाया जा रहा है, वह तो नकली है, उस पर तनिक गड़ाकर निगाह डाली तो सारी परते अपने आप उधड़ती चली जा रही हैं। नकली विकास को विकलांग कर देश को खोखला करने की साजिश चारों ओर हो रही है। हर कोई इसके ताबूत में तेजाबी कील ठोंकने में लगा है। समस्या और हालात बदतर नहीं दुर्दांत हो गए हैं। बेशकीमती जमीन से लेकर आसमान में तनी अट्टालिकाएं पूरी तरह से लाशों पर बनाई गई हैं। आदमी आदमी का खून करने में कोई संकोच नहीं करता है, वह हाड़ मांस का पुतला अब व्यर्थहीन हो चला है। चमकीली रेत हमारे पैरों तले लगाई थी और उसे हम मजबूत आधार समझ कर बेफिक्री से खड़े हो गए थे, लेकिन यहां तो हालात ही बदले दिखाई दे रहे हैं। पूरा का पूरा संसार की सड़ने की कगार पर आ गया है। जिस भी कांड में देखा या तो क्राइम का स्तर बढ़ गया है, या फिर भ्रष्टाचार का तेल डालकर उसे जला दिया गया है। अब पूड़ी बनाते समय अगर भ्रष्टाचार का तेल डाला है तो उससे पेट तो खराब होगा ही। हां, कुछ लोगों के हाजमें जरूर बेहतर हो सकते हैं , लेकिन सभी इसी श्रेणी में आएं यह तो नहीं हो सकता है। हर किसी का इतना स्ट्रांग पाचनतंत्र तो नहीं होता है न। आपने भी बिलकुल ही सही सीखा है, क्योंकि यहां अरमानों को पंख लगाकर लोग आग पर चढ़ा देते हैं। चपरासी से लेकर मदरासी तक हर कोई अपने भाग्य से अधिक भ्रष्टाचार मचाए है। मगर हम आज तक समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर हमारी समस्या क्या है। हम किस मानस चिंतन में डूबे हैं। कौन सी परवाह हमें भीतर ही भीतर चबाए जा रही है। यह कैसा चक्रव्यूह है, जिसमें हमें कोई राह नजर नहीं आ रही है। इस मकड़जाल के लिए अब कौन सा स्पाइडरमैन आएगा जो हमें निजात दिलाएगा। नागराज और धु्रव जैसी शक्ति तो नहीं है हमारे पास। और तो और ये तो काल्पनिक पात्र हैं, और हकीकत में तो विश्वास और अपना धैर्य ही साथ देता है,बाकी तो सब बेवफा हो जाते हैं। जिंदगी मुश्किल हालातों से गुजर क्यों रही है। लोग दाने-दाने के लिए मोहताज क्यों हो रहे हैं। हम इतने गरीब भी तो नहीं है और हमारे यहां कई तो इतने मालामाल हो गए हैं कि वो दूसरों का भी खाना खाने में जुटे हैं। सच बताएं तो सब अस्त-व्यस्त चल रहा है। यहां सुनियोजित कुछ भी नहीं है। विकास तो हो रहा है, लेकिन विकलांग तरीके से । अब वह सीधा खड़ा हो भी नहीं सकता है, क्योंकि इसकी बुनियाद ही खोखली कर दी गई है। हर कोई अपने-अपने तरीके से जीवन की पटरी पर गाड़ियां धकेल रहा है। अब तो पटरी भी साथ छोड़ रही है, जिससे उस पर भी चलने में डर लग रहा है। जिंदगी की कोई दशा और दिशा नजर नहीं आ रही है, क्योंकि यहां सब सर्परूप में बैठकर चुपके से डस रहे हैं। बहुरूपिए हो गए हैं, इसलिए ये नजर भी तो नहीं आते हैं। महंगाई पर महाभारत करने लगते हैं, लेकिन खुद के गिलेबां में झांक कर नहीं देखते हैं कि उसमें कितने सर्प लिपटे हुए हैं। हर तरफ अंधेरगर्दी हो रही है, लेकिन ये तो सावन के अंधों की तरह बातें करते हैं, जैसे इनका घर हरा था तो दुनिया जग हरा है। हर तरह बेचैनी और बेबसी ही जान पड़ रही है और यह एक दिन जान जरूर ले लेगी। इस पर किसी का वश नहीं चलेगा। इसलिए इसकी तैयारी जल्द से जल्द कर लेना चाहिए, अगर ऐसा नहीं किया तो निश्चय ही हम परेशानी की उस खाई में चले जाएंगे, जहां से जीवनभर नहीं निकल पाएंगे। मौका है संभल जाओ भाई, नहीं तो फिर बचने का कोई मौका हाथ नहीं आएगा।

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