Monday, January 31, 2011

पत्रकारिता को नया जामा पहनाओ


आजकल खबर को खबर नहीं कुछ और तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है। यह सही भी है, यहां कुछ वरिष्ठ लोगों को आपत्ति हो सकती है, वह यह भी दलील देंगे कि खबरों के साथ खिलवाड़ हो रहा है, उन्हें तथ्यपरख नहीं दिया जा रहा है, हमारे जमाने में ऐसा था, जब खबरों की सत्यता को विशेष महत्व दिया जाता था। मैं इन लोगों की बात से बिलकुल सहमत हूं, और उनकी ओर से आवाज बुलंद करते हुए कहना चाहूंगा कि किसी भी कीमत में खबरों के तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। मैं ही नहीं हर कोई इस बात से सहमत है, लेकिन थोड़ा सा बदलाव जरूरी है, बदलाव इसलिए, क्योंकि जिस तरह से सामाजिक परिवर्तन हुआ है, वह चिंता का विषय नहीं तो कम से कम मंथन का विषय जरूर बन गया है। आज हमारे समाज में जो भी अखबार लेता है, उसे संपादकीय पेज से कोई मतलब नहीं है। उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि इसमें कितने तथ्य है, इससे उसका कितना ज्ञान बढ़ेगा। हम तथ्यों का चंदन कितना ही पेश कर दें , लेकिन लोगों को तो वह माथे पर सिर्फ तिलक के बराबर ही चाहिए, लोग चाटते हैं तो सिर्फ चाश्नी। अब किसी को कोई मतलब नहीं है कि 500 शब्दों की खबर, हां लोगों को मतलब है कि कम से कम समय में एक खबर को पढ़कर सारी चीजें जान ली जाएं। आखिर ग्लैमर का जमाना है और जब तक आंखें किसी चीज को देखकर चुंधियाएं नहीं, भला वह चीज किस काम की। अब हमें वही अखबार की खबर भाएगी, जो सेक्स अपील करती होगी, या हमारे दु:ख को बयां करेगी। हां हम उसे भी पढ़ लेंगे जो हमारे काम का होगा और कुछ जानकारी दे सके। लेकिन इन सबसे अनजान खबरों के लिए पाठक कहां से लाएंगे, तब हमें सहारा लेना होता है, झूठी चमक का। उस चमक में लोगों को देखने के लिए मजबूर किया जाता है। यह चमक सीधे उनके दिमाग में घुसाई जाती है, और फिर आते हैं वो खबरें पढ़ने। आप सोच रहे होंगे कि मैं पत्रकारिता के नियमों को तोड़ रहा हूं, और ओरिजनल पत्रकार नहीं हूं। आप इसके लिए मुझे दंडित भी कर सकते हैं, लेकिन मैं वर्तमान के हालातों को देखकर बोल रहा हूं। यहां हम अगर पुरानी पद्धति की पत्रकारिता को करेंगे तो कोई हमें नहीं पहचानेगा, न तो हमारी खबर देखी जाएगी और न ही हमारा अखबार पढ़ जाएगा। इसलिए कुछ अलग करना होगा, उसे सेक्स और इंमोशन की मिठास में इतना घोलना होगा कि उसे देखते ही लोगों के मुंह से लार टपकने लगे। अब युग नहीं रहा, भारी भरकम बातों का। तभी तो अखबारों ने टिपिकल हिंदी में अंग्रेजी का समावेश कर दिया। शब्दों के उस मायाजाल से बहुत सारे अखबार बाहर निकल आए हैं, जो समय के सांचे में ढल गया, वही चल गया, बाकी तो आज भी अपने अस्तित्व की लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं और जब तक ढर्रा नहीं बदलेंगे, यह लड़ाई खत्म नहीं होगी, और अगर खत्म हुई तो इनके अंत के साथ। जिस तरह से आप लोग देख रहे होंगे कि चैनलों ने भूत-प्रेत, ज्योतिष, भाग्य, भविष्य जैसी खबरों के लिए स्पेशल प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं तो यह समय का बदलाव ही है, लोगों का दिल ‘द फूल’ है, और वह ‘आॅल इज वेल’ चाहता है, ऐसे में जड़ तक कोई नहीं जाएगा। इसलिए समय की धारा के विपरीत बहने का लक्ष्य आज सही नहीं है, बल्कि समय के साथ बहो और लोगों को दोस्त बना लो, तब आपकी दुकान अच्छी-खासी चल निकलेगी। यहां कुछ समाचार पत्रों और चैनलों ने यह बात जान ली है, और ये वही करने में जुटे हुए हैं। भूत-प्रेत जैसी चीजें दिखाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। समाज यहीं देख रहा है और मजे उड़ा रहा है, उनके इस मजे में हमें भी थोड़े चटखारे ले लेने चाहिए, और पत्रकारिता को आधुनिकता का जामा पहनाकर उसे गुड लुकिंग कर देना चाहिए, अन्यथा पुराना कपड़ा देखकर हर कोई आपको छोड़ देगा। फिर आप घरों में या तो किसी कोने में पड़े रहोगे या फिर सफाई का काम करने के काम आओगे।

Sunday, January 30, 2011

हे राम! देश को बचाओ


गांधी ने आखिरी समय में कहा था हे राम...शायद उनके जाते ही देश की हालत यह हो गई है। देखा जाए तो इस देश में कुछ भी अच्छा नहीं चल रहा है। भ्रष्टाचार का भूत सता रहा है, इसमें खास लोग शामिल हैं। वहीं महंगाई देश में चरम पर है। बड़े नेता देश को अंधेरी गर्त में डाल रहे हैं। देखा जाए तो हर कोई नेता अपनी अपनी तिजौरियां भरने में जुटा हुआ है। वहीं मीडिया, न्यायपालिका और संसद। हर कोई भ्रष्टाचार की गाड़ी पर सवार है, ऐसे में देश कहां जाएगा। कोई जानता नहीं, और किसी को पता भी नहीं, क्योंकि यहां तो सभी अपनी-अपनी ओर जुटे हुए हैं। इनका कोई मालिक नहीं है, क्योंकि यह देश तो अनाथ हो गया है। कांग्रेस भ्रष्टाचार से उबर नहीं पा रही है, वहीं भाजपा अपने तरीके से उठने की कोशिश कर रही है, लेकिन उसका उठना, राजनीतिक खिचड़ी नजर आ रहा है। जिस तरह से तिरंगा पर देश में तकरार हुई है, उससे तो यही लगता है कि किसी तरह वह अपनी खुन्नस निकालने में जुटी हुई है। वहीं संसद के दोनों सदनों में इस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई, वजह था विपक्ष की पार्टी ने विरोध जताया था। यह देश के लिए किसी काले दिन से कम नहीं था, क्योंकि ऐसा पहली बार हुआ था जब संसद में इतना विरोध हुआ है कि हर कोई उसे कलंक मान बैठा है, लेकिन इसकी किसी को परवाह तक नहीं है। यहां तो खास लोग कई खेल में जुटे हुए हैं। और इस खेल पर सिर्फ चिल्लाचोट होती है, इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया जाता है। नेताओं ने तो देश को अपनी रखैल बना लिया है, जब चाहे तब वो इसकी आबरू से खेलते हैं। प्रशासन पूरी तरह से नाकाम है, गांधी जी आज ही के दिन इस दुनिया से गए थे, वह तो महापुरुष थे, लेकिन आज देश को देखकर वो बहुत ही दुखी होंगे, शायद उनकी आत्मा दर्द से कराह रही होगी। क्योंकि जिस देश की कल्पना उन्होंने की थी, वह कल्पना में ही रह गया और देश के दुष्टों ने उसे हकीकत में इतना खराब बना दिया है कि वो अब रो रहे होंगे। बापू को गोली लगी थी तो सारा देश रो रहा था, लेकिन आज उनकी आत्मा रो रही है। करेंसी से लेकर, विदेशों में काला धन। हे राम कितना भ्रष्टाचार कोई नहीं समझ पा रहा है कि आखिर इसका कारण क्या है। बयार पूरी तरह से पलटी हुई है और लोग अब किसी विशेष दूत की ओर देख रहे हैं, लेकिन करिश्मा बार-बार नहीं होता है, क्योंकि अब वह हालात नहीं है। देश पूरी तरह से भ्रष्टाचार की खाई में पड़ा हुआ है, और वहां से उसे कोई खींच कर नहीं ला सकता है। दुनिया ने कई करवटें बदली हैं, लेकिन हम विकास और तरक्की का फटा ढोल पीटते हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही है। बापू ने कहा था कि इस देश में सभी को बराबरी का अधिकार मिले, लेकिन यह उलटा ही हो गया, कुछ लोग तो इतनी आगे चले गए हैं कि उन्हें पीछे वाले अपराधी लगते हैं। बापू ने यह भी कहा था कि गरीब का हाथ सदा थाम कर रखो, लेकिन गरीब को तो अंधेरे कोने में सजा भुगतने के लिए ही डाल दिया गया है। बापू ने यह भी कहा था कि किसान की तरक्की के बिना देश की तरक्की नहीं हो सकती है, लेकिन हुआ बिलकुल विपरीत। आज न तो किसान की सुध है और न ही गरीब की। सफेद कालरों ने मिलकर देश को काला कर दिया है और कालिख पोती जा रही है गरीब के सिर। कभी-कभी इस देश में आम आदमी का दम घुट जाता है, लगता है कि क्या सोचा था और क्या हो गया। देश को दर्द दिया जा रहा है, और दर्द पर मरहम लगाने की जगह उसे खरोंचा जा रहा है। हवाएं भी बदल रही हैं, लेकिन देश दलदल में फंसा लग रहा है और इससे बचने के लिए कोई नई डगर ही लानी होगी। कुछ विद्रोही और क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे, तभी यह बेपटरी देश पटरी पर आ सकेगा, अन्यथा देश को बचाएगा कौन?

Saturday, January 29, 2011

पैसा, प्रसिद्धि और प्यार


आज का युवा रिस्क लेने से नहीं घबराता है, यह हर वो काम करता है, जिसमें रिस्क होता है। पैसा, प्रसिद्धि और प्यार की इस पतवार को खेंपने के लिए हर युवा दिन-रात मेहनत करने में जुटा है, इस बीच वह यह भी नहीं देखता है कि जीवन उसका कैसा चल रहा है। लेकिन उसके अनुसार यह सारी चीजें भी तो जरूरी हैं। कोई गलत नहीं है, लेकिन जीवन का सबसे बड़ा सच और सुख यही है कि पैसा, प्रसिद्धि और प्यार जिसके पास है, वही खुशहाल है, इन तीनों चीजों में एक की भी कमी आती है तो समझ लो दुख की शुरुआत हो जाती है। इन तीनों चीजों के साथ एक समझदारी का रुख हो जाए तो सारी परिस्थितियां अपने आप क्लियर हो जाएंगी। आज पैमाने बदल गए हैं, हर चीजें व्यवस्थाओं को जड़ से मिटाने वाली चीजें अपने आप बदल जाती हैं। जिस तरह से जीवन में बदलाव की बयार उठी है, और उसकी रफ्तार भी काफी तेज है, उसे बदलने का जज्बा हर युवा के मन में उठता है, वह चाहता है कि बुजुर्ग की उम्र में नहीं बल्कि कम उम्र में ही इतना कमा ले कि बाकी जिंदगी उसे कमाने की जरूरत न पड़े। आज जिस तरह से आदमी बदल रहा है, वह देखते ही देखते उम्र के पड़ावों से होकर गुजर रहा है। हर कोई पैसे के पीछे भाग रहा है, लेकिन हमारे हाथों की लकीरें हमारा ही साथ नहीं निभा रही हैं। हम ही न जाने क्यों? खुद पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। यह तीनों बेवफा हो गई हैं, वह इसलिए कि इन्होंने कभी किसी से इश्क में साथ नहीं निभाया है। हां, जिस पर इनका दिल आ गया, समझ लो वह दिलदार हो गया। आखिरी तक उसे फिर कोई नहीं हरा सकता है, लेकिन जिन से यह रुठ गई तो फिर वह कंगालपति ही रहेगा, साथ ही न जाने और कितनी समस्याओं से ग्रसित हो जाएगा। व्यक्तियों ने न जाने कितने बदलावों को मुकाम दिया है। हम भी रुठे, लेकिन जमाने ने हमें नाम दिया है। जब तक हम इन तीन चीजों को हासिल नहीं कर पाते हैं , चैन से नहीं बैठते हैं। सारा खेल इन्हीें का है, जिसके पास यह हैं, वह धनवान और बाकी सब कंगाल। तय हमें करना है, यह निर्णय हमें लेना है कि आखिर हम क्या चाहते हैं और क्या करते हैं। जीवन वह कश्ती है, जिसमें न जाने कितने तूफान आते हैं, और पल-पल लगता है कि बस मौत से मुलाकात होने वाली है। फिर तभी एक फरिश्ता बनकर कोई आता है, और उस मुलाकात को पीछे धकेल देता है। सदियों से यही क्रम चलता जा रहा है और हम इसमें मूकदर्शकों की भांति नजर आ रहे हैं। तो दोष किसका कहेंगे। उन युवाओं का, जो पैसा, प्रसिद्धि और प्यार के पीछे अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं, या फिर उन भ्रष्ट लोगों का, जो देश का बंटाढार करने में जुटे हुए हैं। आखिर पहली नजर में देखा जाए तो किसी का भी दोष नहीं कहलाएगा। क्योंकि सबको अपने जीवन की चाहत के अनुसार जीने और हासिल करने का पूरा अधिकार है। हां इनमें कई बार मूल्यों का पतन हो जाता है, लेकिन सामाजिक सरोकर तभी अच्छा लगता है, जब पेट में भोजन हो। अगर भूखा पेट रहता है तो फिर न पैसा अच्छा लगता है, न प्रसिद्धि और न ही प्यार। हां इन्हें पाने के बाद पेट तो अपने आप ही भर जाता है। असली शांति किसमें है, कई महापुरुषों ने संतोष, किसी ने वैराग्य और न जाने कितने तरीके बताएं, लेकिन जो सत्यम शिवम सुंदरम की तरह बिलकुल सत्य है, वह यह कि इंसान तभी सुखी रह सकता है जब उसके पास पैसा, प्रसिद्धि और प्यार हो। यह आदमी को 95 प्रतिशत सुखी बना देते हैं। हां, इसके बाद कुछ चीजें और हों, लेकिन वह तो व्यक्ति पर निर्भर करती हैं, क्योंकि हमारे देखने में आया है कि हम भी उतने ही बेताबी वाले होते हैं, जितनी की चीजें हमारे सामने आती हैं। हम अपने आदर्शों का गला घोंटकर उन्हेें अपने सुखों को पाने की लालसा रखते हैं। तो हम महत्वकांक्षी कहलाते हैं, लेकिन ठीक तो यही है, वह यह कि हमें अपने तरीके से जीना चाहिए। हमें बातों को नजरंदाज नहीं करना चाहिए। बस जिंदगी एक रेस है और इसमें अपने अनुसार ही दौड़ेंंगे, लेकिन जब रेस के हिसाब से दौड़ेंगे और सभी को हराएंगे तो उस जीत का जश्न ही कुछ और होता है।

Thursday, January 27, 2011

इंसाफ को हारने मत दो


देश में जो मकड़जाल फैला है, उससे निपटने के लिए न जाने कितने तरीके अपनाने पड़ते हैं। ऐसे में आम आदमी का तो जीना ही दुश्वार रहता है। आज हमारे समाज में कई खोखले नेता हैं, और यह सिस्टम पूरी तरह से भ्रष्टाचार में लिप्त हो गया है। ऐसे में आम आदमी को इंसाफ कई बार नहीं मिलता है, आवाज बुलंद भी करो तो उसे दबा दी जाती है। जब तक ईश्वर और हौसला रहता है, तब तक हमारे देश में कई असंभव चीजों को भी संभव बना दिया जाता है, लेकिन पैसा हर चीज की चाबी बन गई है। देखा जाए तो हमारे देश में संतोष मट्टू हत्याकांड हो, या फिर नोएडा में नर कंकाल वाली घटना। जेसिका लाल हत्याकांड इन सबमें ही जीत पाया है,सिर्फ जेसिका को ही न्याय मिल पाया है। जब जेसिका मरी तो वह दूसरा जन्म नहीं ले पाई, वह इसलिए नहीं ले पाई, क्योंकि उसे अपने कातिलों को सजा दिलानी थी। इस खूबसूरत लड़की की जान उस अय्याश और गुस्सैल मनु शर्मा ने की थी। मगर उसकी आत्मा ने चीख -चीख कर कई बार कहा यह कातिल है, फिर भी सिस्टम सोया हुआ था। लेकिन पूरे देश ने जब एक स्वर में शंखनाद किया तो फिर क्या था, बड़े लोगों को भी झुकना पड़ा और जेसिका को इंसाफ मिल गया। यह मीडिया और समाजसेवियों के साथ जनता का सड़क पर आना था। इन सबके प्र्रयास के बाद ही उसे इंसाफ मिल पाया, वह भी आठ सालों बाद। हां शायद जस्टिस में डिले हुआ, लेकिन अंतत: इंसाफ मिल गया। इस दौरान जेसिका के परिवार पर क्या गुजरा, यह कोई नहीं समझ सकता है, लेकिन इतना तो तय है कि जो जेसिका के साथ हुआ था, वह हम में से किसी के भी साथ हो सकता है, और क्या हम उतना लड़ पाएंगे। सवाल कई हैं, लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं है, क्योंकि हर कोई अपनी कॉलर घुमा लेता है और कहता है यह हमारा मामला नहीं है। यह तो सिर्फ जेसिका का या संतोष मट्टू का मामला है। या फिर उन परिवारों का है, जिन्हें मोनिंदर अपने घर में नर कंकाल बनाकर गाड़ देता था। ऐसे ही न जाने कितने लोग हैं, जिन्हें आज तक इंसाफ नहीं मिला है। और आज भी वो इंसाफ के लिए भटक रहे हैं, कब उन्हें मिलेगा यह हममें से कोई नहीं जानता है। बस हम घर में बैठकर सही और गलत पर बहस करते हैं। हमारे समाजसेवी जो टीवी चैनलों पर आ जाते हैं और वहीं अपनी आक्रोशता जताते दिखाई देते हैं, जबकि आज जरूरत है सामने आने की। जमीन पर हंगामा मचाने की, जब तक हम इसके लिए जमीन तैयार नहीं करेंगे, यहां पर कार्य नहीं करेंगे तब तक किसी को इंसाफ नहीं मिलेगा। जिस तरह से अंग्रेजों के बनाए सिस्टम पर हम कार्य कर रहे हैं, वह आज भी हमें गुलामी का अहसास दिला रहा है। हमें लगता है कि हां हम उनके निर्देशों का पालन कर रहे हैं, 200 सालों की गुलामी का असर 50-60 सालों में कैसे जा सकता है। हमारे पूर्वज गुलाम थे और हमने जन्म तो ले लिया, लेकिन उस मानसिकता को त्याग भी नहीं पाए हैं। ऊपर से यह बड़ा सवाल है कि आखिर उन चीजों को बदलेगा कौन? आज हमारे यहां सांस लेने पर भी कई बार बखेड़ा खड़ा हो जाता है, तो फिर नियमों और कानून में बदलाव किया जाएगा तो सबकी आंखें तेज होंगी। हो सकता है विरोध विकृत होकर विद्रोह न बन जाए। इसलिए इस पागल सांड पर कोई नकेल कसने का रिस्क नहीं ले सकता है। इसलिए जो चल रहा है, उसे चलने दो , बात हमारी नहीं है, यह तो किसी दूसरे की है। उन सबके बीच में हम इस अहसास को भूल ही जाते हैं कि हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है। हम तो बस अपने हित में जीते-मरते हैं। समाज में क्या हो रहा है, इससे कोई लेना देना नहीं है। एक बार अपने जमीर को जगाकर, किसी अन्याय के खिलाफ कोई मार्च तो निकाल कर देखो। हां यह हो सकता है कि तुम इस मार्च में चार या पांच हो, लेकिन पहला कदम तो बढ़ाओ, देखना लोग अपने आप आपके साथ हो जाएंगे। हर कोई आपका साथ देगा। यहां तो पेट्रोल में भी अपने आप आग नहीं लगती है, उसे भी चिंगारी दिखानी पड़ती है, इस समाज में सब सोसुप्त अवस्था में हैं, इन्हें नींद से जगाना होगा, अगर इसमें हम कामयाब हो गए तो फिर हर कोई जाग उठेगा, फिर किसी के साथ कोई अन्याय नहीं होगा।

Saturday, January 22, 2011

बूढ़े दिल का जवान इश्क


हर दिल जो प्यार करेगा, यह एक सार्वभौमिक सत्य के तराजु पर खरा उतरता है, हां समाज के कुछ अपवादों को छोड़ दें तो। यहां इश्क तो पहला ही माना जाता है, लेकिन आज कल इस इश्क के मायने काफी बदल चुके हैं। यह 17-18 साल का वह प्यार नहीं रहा, जिसमें लड़के-लड़की अपने माता-पिता से छुप-छुप कर अपने प्रेमी से मिलते हैं। उस समय हर किसी का डर, घर से लेकर बाहर तक। वादा भी होता है शादी का, कभी-कभी कुछ साहस करके भाग भी जाते हैं और कुछ आत्महत्या भी कर लेते हैं। उस समय निश्छल प्रेम होता है, इसके अलावा और कोई भी बात नहीं सोची जाती है, लेकिन आज-कल की लव स्टोरी में काफी परिवर्तन हो गया है। अब इसमें न तो उम्र की सीमा रह गई है, और न ही कोई निश्छल प्रेम जैसी बात। तभी तो निशब्द जैसी फिल्म में अपनी बेटी की दोस्त से इश्क फरमाता पिता दिखाया गया है। यह एक कहानी नहीं है, बल्कि ऐसी सैकड़ों कहानियां हैं जो हकीकत से रूबरू हुई हैं। अगर हम देखें तो वो अमीर लोग जिन्होंने सबकुछ हासिल कर लिया है, एक मुकाम पर जाकर उन्हें ऐसी बंदी से इश्क हो जाता है जो उससे आधी से भी कम उम्र की रहती है, या कहें कि महज 20-21 साल की। तो आम इंसान इसे क्या कहेगा, वह तो अय्याशी का नाम दे देगा, लेकिन कुछ चीजें होती हैं जो इस अहसास को मरने नहीं देती हैं, और जिंदगी में एक रुमानियत कायम रखती हैं। हमारे सामने कई उदाहरण भी हैं, और कई समाज के डर से छिपे हुए हैं। राजा-महाराजाओं की बात कुछ और थी, लेकिन आज कल समाज इसे स्वीकृति नहीं देता है। अब तो हमउम्र के बाद अगर इश्क फरमाया जाता है,तो उसे कुछ और नाम दे दिया जाता है। अगर मनोवैज्ञानिक रूप देखा जाए तो न सिर्फ यह भाव बूढ़े मर्दों में होता है, बल्कि हसीन कलियों में भी उस पके हुए फूल से इश्क लड़ाने का मन करता है, हां इसके पीछे जहां कच्छी कलियों को पैसा, ग्लैमर और स्टेटस भाता है, वहीं पके हुए फूलों को अपनी जवानी का अहसास रहता है। उन्हें लगता है कि जिंदगी अभी जवान है, क्योंकि उनके पास एक जवान साथी है। हां हमारे देश में इस तरह का जो भी कुछ हो रहा है, वह सामने नहीं होता है और प्यार पनपता है तो बंद कमरे में। सार्वजनिक स्वीकार करने का साहस न तो लड़की उठा पाती है, और न ही वह बूढ़ा दिल, जिसके बच्चे ही उसके प्यार की उम्र के होते हैं। जबकि विदेशों में इस तरह का कल्चर अब सामान्य आ गया है, वहां पर प्यार होता है तो उसे बकायदा स्वीकार कर लिया जाता है, और इससे किसी को कोई समस्या नहीं होती है, क्योंकि वो लोग अपनी-अपनी जिंदगी खुद जीने में विश्वास रखते हैं, फैसलों पर दूसरों की मुहर का इंतजार नहीं करते, जबकि हमारे यहां कहानी बिलकुल विपरीत है। इन सबमें सबसे अधिक वो ही लोगों के इस तरह के संबंध बनते हैं जो बेहद अमीर होते हैं और उन्हें पैसे कमाने का कोई डर नहीं होता है, जबकि उन्हें प्रेम की आड़ में जिस्म की आग बुझाने की ख्वाहिश होती है। इन्हीं लोगों में हैं सरकोजी , बर्लुस्कोनी, पुतिन और न जाने कितने लोग। यहां गलत कहने का अभिप्राय बिलकुल भी नहीं है, लेकिन इन लोगों के रिश्तों में गर्माहट कितनी रहती है, यह वे स्वयं ही जानते हैं, इन लोगों के रिलेशन में न तो सच्चाई की महक होती है और न ही भरोसा। हां हर जगह त्रिकोण नजर आता है, यह त्रिकोड़ रहता है इनका मिला-जुला। इसमें दो कोने तो इन लोगों के होते हैं, लेकिन दोनों का एक-एक कोना किसी दूसरे से जुड़ा रहता है। यह इनके जीवन की सच्चाई है, जिससे ये लोग कई बार अनजान भी रहते हैं और कई बार जानते हुए भी अनजान बने रहते हैं। यही है इनकी जिंदगी जो सालों से चलती आ रही है और आने वाले सालों में चलती रहेगी। जीवन इनका यही रहेगा, जिसमें बूढ़े फूल को इश्क कच्ची कली से होता रहेगा और वह कली भी अपनी सुरक्षा के लिए उस फूल के आगोश में आने से गुरेज नहीं करेगी। यह सदियों से हो रहा है और हमेशा चलता रहेगा, इसमें बुराई भी नजर नहीं आती है, क्योंकि दोनों पक्षों की हां के बाद ही इसे अंजाम दिया जाता है।

Monday, January 17, 2011

बिग बॉस में क्या-क्या


बिग बॉस ने सारी हदें पार कर दी हैं...एक के बाद एक जो खुलासे हो रहे हैं, वह बता रहा है कि कैमरे के आगे अर्ध्द नंगा नाच नाचा गया है और इसके पीछे पूरा खुला नाच हुआ है। किसके बीच में क्या संबंध थे, यह धीरे-धीरे खुलकर सामने आ रहे हैं, हालांकि इनके कोई फुटेज नहीं है, इसलिए इसके बारे में किसी भी बात को कपोल कल्पना का नाम दिया जा सकता है। लेकिन जिस तरह से यहां घटनाएं हुई हैं, वह दिखाता है कि यहां पर जानबूझकर सारी चीजों को किया गया। यहां सेक्स तो भरपूर हुआ। सभी ने अपनी-अपनी प्रेमिकाओं और उसके अलावा बदल-बदलकर सेक्स किया। अगर हम बिग बॉस 4 की ही बात करें तो इसमें हम वीना मलिक और अश्मित को निर्दोष नहीं कहेंगे। क्योंकि इन्होंने तो कैमरे पर ही हद कर दी, जिस तरह से सरेआम वीना मलिक इतरा रही थी, सेक्स की अपील दिखा रही थी, वह उसकी मानसिकता और उसके कृत्यों को पूरी तरह से दर्शा रही है। अब भले ही यह कितनी सफाई पेश कर रही है, सारे संबंधों से इनकार कर रही हो, लेकिन सच्चाई हर कोई जानता है। अश्मित तो मर्द हैं, लेकिन वह भी कुछ सफाई देते दिखाई दे रही है, लेकिन उनकी मुस्कान हर चीज को बता रही है। यहां श्वेता और समीर के बीच में भी कुछ खिचड़ी जरूर पकी है, हालांकि वह दिखाई नहीं गई, पर श्वेता समीर भी इस रंग में अपराधियों की कगार में हैं, हां इन्होंने इन सब चीजों का प्रोपोगेंडा नहीं किया। इसके पहले वाले में राहुल महाजन ने कई लड़कियों के साथ सेक्स को अंजाम दिया था। यह एक बंद घर की कहानी होती है, और जब सामने अपोजिट सेक्स, वह भी बेहद खूबसूरत रहता है तो हर दिल की धड़कनें तो बढ़ ही जाती हैं। ठीक यही वहां भी हुआ है। बिग बॉस के घर में कई लोगों ने अपनी सेक्स की चाहत को पूरा किया है, चूंकि हम इतने अभी खुले विचारों वाले नहीं हुए हैं कि इन चीजों को माइंड न करें, इसलिए विरोध से बचने के लिए हमें बचाया गया है। अर्थात् वो फुटेज गुप्त रखे गए हैं। इसके अलावा भी कई प्रोग्राम्स ऐसे हुए हैं, जिनमें सेक्स पूरी तरह से चला है, और इसी के बल पर वह हिट भी हुआ है। अब मनाही करें तो वह उनकी लाइफ के हिसाब से ठीक है, और हमें इसे तूल देने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि यह तो प्राकृतिक चीज है और ईश्वर ने दो दिलों के मेल को उनकी आत्मा के मेल से जायज ठहराया है। आज से पहले हम इतिहास का आईना उठाकर देखते हैं तो उनके हमारे पूर्वजों की सेक्सी तस्वीर दिखाई देती है, जिन्होंने कई औरतों के साथ सेक्स किया है। राजा-महाराजाओं ने तो अपनी कनीजों के साथ वह भी अनगिनत बार, अनगिनत के साथ। यह आज भी हो रहा है, कल भी होगा और जब तक यह पृथ्वी है, तब तक चलता रहेगा। हां इसका सार्वजनिक नांच गलत है, क्योंकि यह हमारी पीढ़ी को भ्रमित कर देता है। उसके कोमल मानस पर विपरीत चीजें शुरू से ही हावी हो जाती हैं। एक उम्र के बाद अगर चीजों को दिखाया जाए तो वह सही है। बस लब्बोलुआब यही है कि जो भी हो मर्यादा में हो, हदें पार न की जाएं। क्योंकि जब हदें पार होती हैं तो विकृतियां उत्पन्न होती हैं, और यह विकृतियां समाज में खिन्नता लाती हैं, उनके आदर्शों को उछाल देती हैं। तब एक स्वच्छ समाज के निर्माण में काफी परेशानी होती है। इसलिए बिग बॉस हो या फिर चाहे दूसरा कोई डेली सोप। इन्हें एक गाइडलाइन के अनुसार ही काम करना चाहिए, क्योंकि सीमाएं नियमों को बांधे रखती हैं और जब इन्हें तोड़ा जाता है तो वहां तबाही आती है, बस यह तबाही का स्तर कैसा रहता है यह परिस्थितियोंं पर निर्भर करता है।

Sunday, January 16, 2011

शीला-मुन्नी से आगे जीनत


बॉलीवुड और ग्लैमर की जुगलबंदी शुरू से ही है। इसके बिना बॉलीवुड कुंवारा ही माना जाएगा, इसकी मांग तभी सजेगी, जब इसमें ग्लैमर का तड़का लगेगा। हां यह बात अलग है कि समय के साथ कई चीजों में परिवर्तन आया है और इस परिवर्तन में मायने बदल गए हैं। पारदर्शी झिल्ली समय के साथ पतली होती गई, और यह महीन होती जा रही है। आर-पार का खेल साफ-साफ नजर आ रहा है। देखा जाए तो इस हमाम में सारी चीजें एक जैसी हैं। बॉलीवुड ने इसे एक असरदारक खुराक दी जा रही है, जो दर्शकों को पिलाई जा रही है। अगर देखें तो जिस तरह से हमने शुरुआती काल में देखा और अब देख रहे हैं, तो इसमें काफी परिवर्तन हुए हैं, लेकिन इस गुलशन में कई गुलजारों ने ऐसी मह0क छोड़ी है, कि वह हीरे की तरह दमक रही है। शीला की जवानी और मुन्नी जो बदनाम होने का दावा कर रही है, उससे पहले भी कई दावेदार हो चुकी हैं। 70-80 या उससे पहले की दशक की बात करें तो मधुबाला की बेला में सब लोग कायल थे। हर कोई मधुबन की तरह मोहित थे, उसकी एक मुस्कान पर हर कोई नया बखेड़ा खड़ा कर सकता था। फिर नई करवटें आई और राज कपूर एक नई सोच लेकर आए। उन्होंने उनके काल से 50 साल आगे की फिल्में बनाकर लोगों को एक नया नजरिया दिया। लोग सिनेमा को पसंद करने लगे। इस दौर में नरगिस जहां लोगों को भार्इं, वहीं जीना तमान ने सत्यम शिवम सुंदरम में जो जिस्म दिखाया, वास्तव में वह जिस्म आज तक दर्शकों के जेहन में उतरा हुआ। उन्होंने शीला और मुन्नी से भी कम कपड़े पहने थे और उससे भी बेहतर रुमानियत पैदा कर रही थीं। आज भी जब उनका ख्याल मन में आ जाता है, तो न मुन्नी अच्छी लगती है और न ही शीला। हां इन्होंने मेकअप की चादर अधिक ओढ़ ली है, इसलिए गोरापन और चमकदार अधिक दिखाई दी, लेकिन जीना में अधिक जान थी, लोगों के होश उड़ाने वाली थी जीना। हां अब शीला बेधड़क अपनी जवानी का बखान कर रही है और मुन्नी बदनामी का ठिकरा दे रही है। इस हाड़ दिखाने और जिस्म से लोगों को बहलाने-फुसलाने का यह जो एक नया चश्मा तैयार किया गया है। इसमें बॉलीवुड को दिखाया जाता है, वह भी अंधेरे कमरे में। हां कैटरीना बेहद खूबसूरत लड़की हैं, लेकिन भारतीयता की झलक उनमें थोड़ी कम ही दिखाई देती है, लेकिन हमें तो गोरी चमड़ी से प्यार है और इसी प्यार को इकरार में बदलना भी आता है। इसलिए शायद हमें मुन्नी की आवाज अच्छी लगी, उसके लटके भी अच्छे लगे, लेकिन जब शीला ने जवानी का राग अलापा तो हम भी मर्द हैं का नारा लगाने लगे। यह सालों और सदियों का सवाल नहीं है, सवाल यह है कि आखिर इस तड़के को जो रूप दिया गया है, उस अंजाम तक यह पहुंचा नहीं है। अगर शीला और मुन्नी ही हर चीज होती तो इनसे भी नीचे नंगाई पर उतर चुकी हैं हमारी बालाएं। ये खूबसूरत बलाओं से कुछ नहीं होता, जब तक ठोस आधार न हो, कहानी शानदार न हो, तभी तो इस शीला और मुन्नी से ज्यादा थ्री इडियट्स के चर्चे रहते हैं। वह लोगों को पसंद भी आती है। कारवां यूं ही चलता रहता है, और हमें नए अवतारों को धारण करवा दिया जाता है। बस यह निर्भर हम पर करता है कि हमारे सामने जो परोसा गया है, उसमें से हम क्या लेते हैं, क्योंकि यहां कई ऐसी चीजें हमारे सामने पेश कर दी जाती हैं, जो दिखने में तो बेदह खूबसूरत रहती हैं, खुशबू भी उनकी अच्छी रहती है, लेकिन स्वाद के तराजू पर आकर इनका वजन कम हो जाता है। इसलिए भड़काऊ देकर चर्चा अधिक हो जाते हैं, यह थोड़ी गलतफहमी हो सकती है, मगर ठोस, ठोस ही होता है और उसका रूप ही झनकार रहती है।

Monday, January 10, 2011

कृषि, किसान और कर्ज


किसान का जीवन ही मजबूरियों का नाम है, जब वह पैदा हुआ था तो शायद उसकी कुंडली में पहला अभिशाप किसान के बेटे के रूप में जन्म लेना था और दूसरा यह कि वह बड़ा होकर स्वयं किसान। गांधी जी ने कहा था कि देश में किसान का उद्धार हुए बिना देश का विकास नहीं हो सकता है, लेकिन जिस तरह से देश का बंटाढार हुआ है, उसमें किसानों की हालत बहुत गंभीर हो गई है। लगातार ये किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, इन्हें अपनी जान गंवानी पड़ रही है, लेकिन सभी खामोश बैठे हैं, ये बेचारे अपने पैदा होने पर ही अफसोस करते हैं, दूसरों का पेट भरने वाले ये किसान खुद का और अपने बच्चों का पेट नहीं भर पाते हैं। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, धूप में पसीना भी टपकाते हैं और खून भी जलाते हैं। सर्दी में रातभर पाला में पानी लगाते रहते हैं, इसके बावजूद उनकी मजदूरी में मजबूरी दे दी जाती है। आज से दो साल पहले की बात है, एक गांव था धनिया। यह यूपी में आता है, यहां के रामप्रसाद के पास लगभग 1 बीघा खेती है। घर में बूढ़े माता-पिता और दो बच्चे थे। इनकी पूरी जिम्मेदारी रामप्रसाद पर थी। वह दिनरात मेहनत करता है, ताकि अपने घर वालों को शिकायत का कोई भी मौका न दे। इसके बावजूद कई बार वह उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता है। इस बार सर्दी का मौसम था और उसकी फसल पर पर शीत ने सितम ढा दिया था। पूरी फसल बर्बाद हो गई थी। घर में खाने के लाले पड़ गए थे। बेचारा रामप्रसाद फूट-फूटकर रो रहा था और अपने जन्म को कोस रहा था। आखिर वह करे तो क्या करे, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। तब उसे लगा कि इस खेत को बेचकर दूसरा धंधा कर लिया जाए, लेकिन यह बहुत ही जोखिम भरा काम था, क्योंकि जीवन भर किसानी करने के अलावा उसे और कुछ भी नहीं आता था। यह दर्द भी उसे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। मुश्किल थी उस किसान के पास कि आखिर वह इस फसल के नुकसान की भरपाई कैसे करे? सवालों का घेरा उसे घेरते जा रहा था और जवाब में उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं तैयार हो रहा था। लगभग चार घंटे वह अपने खेत पर बैठा रहा था। रात की ठंड अपना जलवा लगातार दिखा रही थी, लेकिन उसे तो अंदर से दर्द था, अब उस दर्द से जूझते-जूझते उसे रात के तीन बज गए थे, जिसका उसे होश ही नहीं था। अब तक ठंड से देह अकड़ गई। सोचते-सोचते सुबह हो गई थी और सूरज ने अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा दी थी, लेकिन वह सोचता ही रहा, जाने क्या सोच रहा था। लगभग दोपहर की बारह बज गए थे। उसके न आने पर उसकी पत्नी जानकी आई और उसने उन्हें जगाया, लेकिन वो आवाज नहीं सुन रहे थे। उसे जोर से उसे झंकझोरा तो वो गिर गए। यह देख जानकी चिल्लाई। उसकी चीख सुनकर आसपास के लोग आ गए। अब रामप्रसाद नहीं उठा। कैसे उठता, क्योंकि अब तो वह बहुत दूर जा चुका था। इतनी दूर, जहां से कभी कोई वापस नहीं आता है। अब तो रामप्रसाद के परिवार पर मानो गाज ही गिर गई थी। उसकी पत्नी अकेली थी। गरीबी में और गरीबी, ऊपर से एक ही कमाने वाला भी अपने पीछे कई रिश्तों को छोड़कर चला गया था। उस परिवार के चारों लोगों ने चार महीने तो संघर्ष किया...जब सब्र का बांध टूट गया तो एक दिन सभी ने आत्महत्या कर ली। यह है रामप्रसाद के दर्द की दास्तान। यह किसी एक किसान की कहानी नहीं है, बल्कि देश में हर साल न जाने कितने हजार किसान जान दे रहे हैं, लेकिन उनकी जानों से किसी को कोई मतलब नहीं। सरकार तो अपने ही आंकड़ों को गिनाने में उलझी हुई है, उसे कुछ परवाह नहीं। आखिर कब थमेगा इन अन्नदाताओं की मौत का सिलसिला। और अगर नहीं थमा तो इस देश से किसान विलुप्त हो जाएंगे। हर कोई शहरों की ओर आ जाएगा, फिर हमारे पास पैसा तो होगा, लेकिन खाने को अनाज नहीं। रहने को घर तो होगा, लेकिन रोटियां नहीं। इस कल्पना को करने से भी डर लगता है। सरकार को इस ओर प्रमुखता से ध्यान देना चाहिए, क्योंकि उसकी उदासीनता ही हमारे किसानों की जान ले रही है। माना कुछ मामलों में किसान गलत हो सकते हैं, लेकिन उनकी इतनी बड़ी सोच नहीं है और उन्हें उस दरिद्रता के जीवन से बाहर निकालने का फर्ज सरकार का है। एक बार फिर गांधीजी के वाक्यों का अनुसरण करने की आवश्यकता है।

Sunday, January 9, 2011

तो मैदान पर कैसे दिखेगी दादागिरी


ओल्ड इज गोल्ड...का फंडा इस बार फेल हो रहा है। इस बार पुरानों पर भरोसा नहीं जताया जा रहा है, यह उस टीस की तरह है, जो यह बताती है कि एक समय जिसके लिए दुनिया मरती थी, आज उसे नजरंदाज कर दिया गया है। आज उसे तवज्जो नहीं दिया जा रहा है। एक समय वह था, जब पिच पर लारा का बल्ला दम भरता था तो हर कोई उनकी यादों में समा जाता था। उनके शॉट का न सिर्फ उनका देश ही वाह करता था, बल्कि जो भी क्रिकेट की दुनिया को जानता है, वह इस कैरीबियाई कोहिनूर को पहचानता था, इसकी कीमत हर कोई मानता था। लेकिन आज उसके बल्ले की आग को कोई नहीं देख रहा है, माना कि उस दौर की तरह उसमें अब वह चपलता नहीं रह गई है, लेकिन है तो वह ब्रायन चार्ल्स लारा। जिसकी बैटिंग का हर कोई कायल है, भले ही वह आग न बची हो, लेकिन आईपीएल में जिस तरह से उनका अपमान हुआ है, वह यह बताता है कि यह दुनिया तब तक आपको पूछती है, जब तक आपका बल्ला चलता है, तब तक हर कोई आपको चाहता है। जिस दिन इस बल्ले ने धोखा दिया तो समझ लो इस चमकीली दुनिया से आपको निकाल कर बाहर फेंक दिया जाएगा। ठीक ऐसा ही हुआ है हमारे पूर्व भारतीय कप्तान के साथ। सौरभ गांगुली...बंगाल टाइगर के नाम से इस खिलाड़ी को पूरे देश ने अपने सिर पर बैठाया। हर मां का सपना था कि उसका बेटा हो तो गांगुली जैसा। और फिर वो बालकनी से शर्ट का लहराना...टीम इंडिया को विश्वकप के फाइनल तक पहुंचाना और भी कई यादगार बातें जो सौरभ के साथ जुड़ी हैं। विकेट पर भले ही ये धीमें थे, लेकिन इनके छक्कों का कोई जोड़ नहीं था। जब 99 के विश्वकप में इन्होंने दो गेंदों को नदी में पहुंचाया तो आज भी उसे यादकर हर कोई उनका चहेता बन जाता है, लेकिन आज उनसे कम टैलेंटेड खिलाड़ियों को भावदेकर खरीदा जा रहा है, लेकिन गांगुली को दरकिनार कर दिया गया है। आॅफ साइड के इस भगवान को कौन नहीं जानता, जब यह शॉट खेलता था तो टीम के साथ पूरा भारत तालियों से गूंजता था। आज वो तालियां कहां चली गई, किस गुमनामी में खो गया है यह सितारा। आज चढ़ते सूरज को सलाम ठोंका जा रहा है और डूबते हुए को साइड कर दिया जाता है, नए खिलाड़ियों को ले रहे हैं, लेकिन क्रिकेट में अपने नायाब टैलेंट और अदम्य खेल को दिखाने वाले सौरभ गांगुली को खरीदार ही नहीं मिल रहे हैं, अगर देखा जाए तो पिछले आईपीएल में कोलकाता नाइट राइडर्स की ओर से सबसे ज्यादा रन भी उन्होंने ही बनाए थे। मगर उन्हें इस बार नहीं लिया गया है, यह कोलकाता के लिए भी घातक है, क्योंकि इस बार उनकी टीम को वह फैन फॉलोविंग नहीं मिली जो पहले मिल रही थी। हां शाहरुख कुछ दर्शकों को तो ले आएंगे, लेकिन जो दादा के दीवाने थे वो तो इनसे नाराज ही हो जाएंगे। और यह हमारा दावा है कि जिस टीम ने दादा को लिया, वो ख्ूाब कमाएगी। और तो और उनके प्रदर्शन पर भी अंगुली नहीं उठानी चाहिए, क्योंकि पिछली बार उन्होंने एक ही ओवर में कई छक्के लगाए थे। आज सचिन और शेनवार्न खेल सकते हैं तो फिर हमारे दादा क्यों नहीं। और जब दादा खेलेंगे तो उनके दीवाने उनके साथ चले आएंगे। बस बहुत हुआ, अब तो इस महान खिलाड़ी का अपमान मत करो, यह वही दादा हैं जो पिच पर अपनी दादागिरी के लिए जाने जाते हैं आज उन्हें इस हाल में मत छोड़ो, और रही नए क्रिकेटरों की बात तो आज उनका बल्ला चल रहा है तो सभी उनके दीवाने हैं, लेकिन जैसे ही बल्ला खामोश हुआ, लोग भी भुला देंगे।

Wednesday, January 5, 2011

हंगामा करना ही इनकी आदत है


हंगामा करना हमारी आदत नहीं है, बस तस्वीर बदलनी चाहिए....इस वाक्य को बीजेपी ने तार-तार करना ही अपना ध्येय बना लिया। सालों से घाटी सुलग रही है, यहां चिंगारी शोला बन जाती है और फिर ज्वालामुखी में तब्दील हो जाती है, सुकून से रहना और शांति जैसे शब्द तो यहां बेमानी ही नजर आ आते हैं। पिछले तीन-चार माह से घाटी शांत है, लेकिन यह तूफान का कोई संकेत हो सकती है। यह तो संंशय पर है, लेकिन सवाल यह है कि आखिर बीजेपी हर जगह खलनायक की भूमिका क्यों अदा करना चाहती है। वह देश की हिमायती बनने का ढोंग रचती है और अपने कार्यों से देश को परेशान करने का ठेका ले लिया है। जिस तरह से यह बार-बार कोई न कोई हंगामा खड़ा कर हिंदुत्व का ढोल पीट-पीटकर मुसलमानों की भावनाओं को भड़काती है, यह तरीका ही नाजायज है। देश में अंगार लगाकर उसे कई बार इसने जलाया है। फिर चाहे वह बाबरी कांड हो या फिर गोधरा। हर बार लहू बहाने में बीजेपी ही शामिल हुआ है, उस पर ही दाग आए हैं। आखिर बार-बार इस तरह फंसना, कहीं न कहीं यह जरूर जताता है कि हां यह भी जुड़े हुए हैं, अमन का चोला ओढ़कर देश में खलनायकों की भूमिका अदा कर रहे हैं। यह तो बाद की बातें हो गई, नई इबारत लिखने की कोशिश फिर की जा रही है, यह है घाटी में अशांति लाकर। इस जन्नत में जब कुछ सुकून है तो बीजेपी वहां पर तिरंगा का तांडव क्यों मचाना चाहती है। आखिर वहां झंडा फहराने का ऐसा कौन सा तुक बनता है, जो देश के लिए बेहद जरूरी हो गया है, बीजेपी की साजिश एक बार फिर गंभीर दिखाई दे रही है, यह वह उलझनों को बढ़ाना चाहती है। वहां की भावनाओं को तिरंगा के माध्यम से हवा देना चाहती है, और फिर से वहां थमी आग को हवा देना चाहते हैं। क्यों? तिरंगे के रंग में लहू के रंग को शामिल करने की कोशिश की जा रही है, यह देश है हमारा, और इसमें बीजेपी की भी जिम्मेदारी है कि वह देश में शांति और अमन पर आंच न आने दे, लेकिन माचिस लाकर वह चिंगारी खुद ही फैलाती है, हर बार देश में जब भी कोई जला है तो उसमें राजनीति की तोप से ही बारूद निकला है और इस बारूद से कई हताहत हुए हैं, फिर इस बारूद ने यह नहीं देखा है कि वह हिंदू है कि मुसलमान। हर कोई इसमें पिसा है तो फिर क्यों यह नापाक कोशिश की जा रही है। षड्यंत्र तो दुश्मन करते हैं, लेकिन बीजेपी ऐसा करने का मन क्यों बना रही है, यह समझ से बिलकुल परे है, देश में हिंदुत्व का डंका पीटने वाली यह पार्टी युवाओं को दिग्भ्रमित करने में पूरी तरह से जुटी हुई है। उनके मासूम सीनों में आग लगा रही है और इस आग से अपनी सत्ता के कांटों को जलाने की कोशिश में जुटी हुई है। आखिर नेतृत्व नहीं मिला तो देश को बर्बाद तो मत करो, यह विकास करे यह भारत में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति की न सिर्फ जिम्मेदारी है, बल्कि उसका कर्त्तव्य भी है और बीजेपी को इसे नहीं भूलना चाहिए। घाटी जैसी संवेदनशील जगहों पर इस तरह के ऐलान निश्चय ही देशद्रोह की श्रेणी में आना चाहिए, क्योंकि यहां पर तिनका भी उछलता है तो आग बनने में समय नहीं लगाता है, और यह तो सीधे-सीधे माचिस जलाकर सूखे पत्तों पर फेंकने का दुसाहस कर रहे हैं। इसके लिए इन्हें बख्शा नहीं जाना चाहिए।

Tuesday, January 4, 2011

फिर शिकायत मत करना


सफलता दुश्मन भी होती है , क्योंकि कई बार यह ऐसे जख्म दे जाती है, जो जीवन भर नहीं भरता। हम सभी सफलता के लिए प्रयास करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जो जीते ही सफलता के लिए। यह सफलता लुभावनी भी होती है और डरावनी भी। हां, जो इसके पास नहीं है उसे वह बहुत भाती है, इसके लिए वह दिनरात प्रयास ही करता रहता है, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं, जो इस तक पहुंच जाते हैं और जब इस पर रहते हैं तो गर्व की अकड़ आ जाती है, कई बार नहीं भी आती है, लेकिन शिखर के ताज को बनाए रखना बहुत ही मुश्किल होता है, हमारे सिद्धातों की कई बार बलि भी चढ़ानी पड़ती है, लेकिन बहुत हुआ, बस अब तो हम इससे कतराते नहीं। तूफान बहुत है सफलता और शिखर की राह में, अगर इनसे लड़ना नहीं जानते तो समझो यह तुम्हें उस अंधेरे घेरे में पहुंचा देंगे, जहां से तुम कभी वापस नहीं आ पाओगे। दुनिया बदल रही है, ऐसे में आपको जीवन को अलग अंदाज से जीना पड़ेगा, जीवनी हमारी भी है, मगर हम हौसलों की उड़ान भरने में कभी पीछे नहीं हटेंगे। सीखना ही शिखर की सरताजगी तो सचिन से सीखनी होगी। वह तो सालों से नाबाद खड़ा हुआ है और आज तक कोई भी तीस मार खान अब तक नहीं पहुंच पाया है, आखिर तीस मार खां भी कई हुए, लेकिन जाबाज वहीं होता है जो सल्तनों के पीछे नहीं दौड़ता, बल्कि जीवन के कई पहलुओं को अंधकार से निकाल ेता है। आज की दुनिया में कई चक्र हैं और आदमी इन्हीं में फंसा रहता है, अब हमें कुछ करना है, नया अहसास दिलाना है,क्योंकि यह हमने नहीं किया तो जीवन निकल जाएगा, और अंत में लगेगा कि कुछ किया ही नहीं। जब सफलताएं परियों की कहानी नहीं होती, यह तो मक्कारों का कहना है कि हम असफल हैं, क्योंकि इन्होंने जीवन में तैरने के लिए कभी छलांग ही नहीं लगाई। पानी के इस पार से ही वो कहते रहे, जब तक हम तैरना नहीं सीख जाते, पानी में नहीं उतरेंगे और अंत में सबसे शिकायत करते नजर आए कि हम नहीं सीख पाए। यह तो कोई बात नहीं है, बात यह है कि गुमान करने की, जब तक हम दुनिया को बदलने का जज्बा नहीं रखेंगे तब तक हमारी इंसानियत की फितरत में कई धोखे दामन को पकड़े बैठे रहेंगे, बस करना यह है कि इन धोखों से हमें बचना होगा, हम तो हवाओं पर कप्तानी करने का साहस रखते हैं, उन्हें अपने इशारों पर घुमाने का हौसला भी पालते हैं, और यह हमारी कोई खुशफहमी नहीं है, बल्कि हमारे इरादों में वह फौलाद है जो दूसरी चट्टानों को उखाड़ देता है। हम बम हैं और बारूद बनकर भटकते रहते हैं। इसलिए सफलता से हमें बहुत मुहब्बत है, उसकी आशिकी हमें बहुत प्यार दिखाती है। दुनियादारी बहुत अलग चीजें हैं, लेकिन जीना जिंदगी का नाम है और इस जिंदगी कई परवानों को प्रखार कर देती है। आखिर दुनिया को हम हिमालय की तरह दिखाई दें, हम अपनों को अहंकारिता का एक नया पैगाम न दें, बल्कि जीवन में कई फितरती बातों को नजरंदाज कर दें। संभव असंभव के इस भंवर में हम क्या अपना कोई वजूद ढूंढ़ रहे हैं या फिर अपनी नई आवारगी को अंजाम दे रहे हैं। हमारा तो यही कहना है कि यहां कुछ भी असंभव नहीं है, यहां जो भी सामने है मैदान में आ जाओ, जिसमें दम है मैदान में दिखा दो, पूरा जग सामने पड़ा है, जीत लो इस जग को, क्योंकि जब तक तुम्हारे प्रयासों में पूरी शुद्धता नहीं होगी, वो सफलता से दिल्लगी नहीं कर पाएंगे। यह बहुत ही सुंदर है, इसके साथ रहोगे तो दुनिया तुम्हें पूछेगी, लोग तुम्हें जानेंगे। अब कम्प्लेन मत करो, क्योंकि यह ठीक नहीं है, बस कार्य करो, जीवन का लक्ष्य बनाकर।

Monday, January 3, 2011

छुपकर शादी का लड्डू खाया


कहते हैं मुहब्बत को कितना ही छुपाओ, लेकिन गालों का रंग ही मुहब्बत की दास्तां बयां कर देता है। क्योंकि यह रुमानी होता है और दिल की धड़कन के साथ ही शुरू हो जाता है। आशिकी की आवारगी में कई पेंच हो जाते हैं, और यह जीवन में कई बाधाएं खड़ी कर देती है। मुहब्बत तो छुपाना पड़ता है, क्योंकि इसमें कई पहरेदार खड़े रहते हैं और इनसे निपटने के लिए न जाने कितने दर्द सहने पड़ते हैं, इसके बावजूद इनका सितम कम नहीं होता है। यह सितमगर हैं और हर पल दर्द से बेहाल करते रहते हैं। जी जान से देखो तो दिल का मामला है, इस दिल में कई सुराग होते हैं, इन सुरागों पर कोई भी परख ढंककर रखो, यह सब बेकार सिद्ध हो जाते हैं। लेकिन शादी तो खुला एहसास है, इसके लिए तो कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन आज सेलिब्रिटी अपनी शादी को रहस्य बनाकर रखते हैं। न जाने क्यों? शादी को इस तरह से रखा जाता है, देखा जाए तो आज शादी को एक नए खेल के रूप में देखा जा रहा है, उसका माखौल उड़ाया जा रहा है। एक समय था जब शादी को सबसे पवित्र रिश्ता माना जाता था, आज उसकी मर्यादाओं को तार-तार कर दिया गया है। जिस तरह से सेलिना ने अपनी शादी छुपाई है, लगता है उन्होंने कोई पाप कर दिया है। पुण्य को पाप का नाम क्यों दिया जा रहा है, क्यों अपनी सुंदर जिंदगी को लोगों से छुपाया जाता है, इसके पीछे भी कई कारण है, इन कारणों में प्रमुख है पैसा। फिल्मी हस्तियां अध्कितर विदेशों में ब्याह रचाती हैं, उन्हें इससे दो फायदे होते हैं, एक तो इंडियन मीडिया उन्हें परेशान नहीं करता है, वही दूसरा यह कि बाहरी पुरुष अमीर बहुत होते हैं और उन्हें किसी भी बंधन में नहीं बांधते हैं, जबकि देश में अगर शादी की जाती है तो यहां पर उन्हें कई बंधनों का पालन करना पड़ता है, भले ही वो कितने ही आधुनिक क्यों न हो? मगर उन्हें परंपराओं को निभाना होता है। एक और कारण यह है कि जब कभी रिश्तों में दूरियां बनाने की बात आती है तो बाहरी पुरुषों से आसानी से निजात मिल जाती है और फिर वो जीवन में कभी भी नहीं झांकते हैं, और न ही कोई रोड़ा बनते हैं, जबकि हिंदुस्तान में रिश्ते अपनी गर्माहट ठंड में भी नहीं छोड़ते हैं, वह किसी न किसी मोड़ पर सामने आ ही जाते हैं। हिंदुस्तानी दिलों का यह विदेशी प्यार ही है जो उन्हें सीमा पार पार करवा देता है। हमारे यहां से कई लोगों ने परदेश में प्रेम किया है, हालांकि इनमें से कामयाबी की डगर पर कितने आज भी बैलेंस तरीके से चल रहे हैं, यह तो अंगुलियों पर ही गिने जा सकते हैं। इश्क तो न चेहरा देखता है, और न ही मोहरा, उसे पैसों का कोई लोभ नहीं होता है, बस वह तो उस पल धड़क उठता है और उस धड़कन में कई चीजें सामने आ जाती हैं, फिर दिल कहता है कि हां यही है मेरा अपना। बस इसके बाद जो भी बाधा इसके रास्ते में आती है, वह उसे दूर कर देता है, उससे टकरा जाता है। सालों से यह क्रम चला आ रहा है। मगर आज मुहब्बत के मायने ही बदल गए हैं, अब तो धड़कने भी पैसों की खनक सुनकर ही धड़कना शुरू करती है। इन्हें प्यार पर सवाल करना आ गया है, और प्यार में पैतरें चलना भी। जहां पैसों की चादर जितनी लंबी हो चली, मुहब्बत की गाड़ी भी उधर ही दौड़ पड़ी। जीवनचक्र इसी में समा गया है, और इसमें ही बंध गया है। मुहब्बत की इस पारदर्शी झिल्ली में कुछ छेद हो गए हैं और वहीं से लालच भितरघात करने में लगा हुआ है। यह हम पर निर्भर करता है कि इससे बचा कैसे जाए। और अपनी मुहब्बत को पाक साफ रखा जाए।