Monday, January 31, 2011

पत्रकारिता को नया जामा पहनाओ


आजकल खबर को खबर नहीं कुछ और तरीके से प्रस्तुत करने की कोशिश की जा रही है। यह सही भी है, यहां कुछ वरिष्ठ लोगों को आपत्ति हो सकती है, वह यह भी दलील देंगे कि खबरों के साथ खिलवाड़ हो रहा है, उन्हें तथ्यपरख नहीं दिया जा रहा है, हमारे जमाने में ऐसा था, जब खबरों की सत्यता को विशेष महत्व दिया जाता था। मैं इन लोगों की बात से बिलकुल सहमत हूं, और उनकी ओर से आवाज बुलंद करते हुए कहना चाहूंगा कि किसी भी कीमत में खबरों के तथ्यों के साथ खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए। मैं ही नहीं हर कोई इस बात से सहमत है, लेकिन थोड़ा सा बदलाव जरूरी है, बदलाव इसलिए, क्योंकि जिस तरह से सामाजिक परिवर्तन हुआ है, वह चिंता का विषय नहीं तो कम से कम मंथन का विषय जरूर बन गया है। आज हमारे समाज में जो भी अखबार लेता है, उसे संपादकीय पेज से कोई मतलब नहीं है। उसे इस बात से कोई लेना-देना नहीं है कि इसमें कितने तथ्य है, इससे उसका कितना ज्ञान बढ़ेगा। हम तथ्यों का चंदन कितना ही पेश कर दें , लेकिन लोगों को तो वह माथे पर सिर्फ तिलक के बराबर ही चाहिए, लोग चाटते हैं तो सिर्फ चाश्नी। अब किसी को कोई मतलब नहीं है कि 500 शब्दों की खबर, हां लोगों को मतलब है कि कम से कम समय में एक खबर को पढ़कर सारी चीजें जान ली जाएं। आखिर ग्लैमर का जमाना है और जब तक आंखें किसी चीज को देखकर चुंधियाएं नहीं, भला वह चीज किस काम की। अब हमें वही अखबार की खबर भाएगी, जो सेक्स अपील करती होगी, या हमारे दु:ख को बयां करेगी। हां हम उसे भी पढ़ लेंगे जो हमारे काम का होगा और कुछ जानकारी दे सके। लेकिन इन सबसे अनजान खबरों के लिए पाठक कहां से लाएंगे, तब हमें सहारा लेना होता है, झूठी चमक का। उस चमक में लोगों को देखने के लिए मजबूर किया जाता है। यह चमक सीधे उनके दिमाग में घुसाई जाती है, और फिर आते हैं वो खबरें पढ़ने। आप सोच रहे होंगे कि मैं पत्रकारिता के नियमों को तोड़ रहा हूं, और ओरिजनल पत्रकार नहीं हूं। आप इसके लिए मुझे दंडित भी कर सकते हैं, लेकिन मैं वर्तमान के हालातों को देखकर बोल रहा हूं। यहां हम अगर पुरानी पद्धति की पत्रकारिता को करेंगे तो कोई हमें नहीं पहचानेगा, न तो हमारी खबर देखी जाएगी और न ही हमारा अखबार पढ़ जाएगा। इसलिए कुछ अलग करना होगा, उसे सेक्स और इंमोशन की मिठास में इतना घोलना होगा कि उसे देखते ही लोगों के मुंह से लार टपकने लगे। अब युग नहीं रहा, भारी भरकम बातों का। तभी तो अखबारों ने टिपिकल हिंदी में अंग्रेजी का समावेश कर दिया। शब्दों के उस मायाजाल से बहुत सारे अखबार बाहर निकल आए हैं, जो समय के सांचे में ढल गया, वही चल गया, बाकी तो आज भी अपने अस्तित्व की लंबी लड़ाई लड़ रहे हैं और जब तक ढर्रा नहीं बदलेंगे, यह लड़ाई खत्म नहीं होगी, और अगर खत्म हुई तो इनके अंत के साथ। जिस तरह से आप लोग देख रहे होंगे कि चैनलों ने भूत-प्रेत, ज्योतिष, भाग्य, भविष्य जैसी खबरों के लिए स्पेशल प्रोग्राम चलाए जा रहे हैं तो यह समय का बदलाव ही है, लोगों का दिल ‘द फूल’ है, और वह ‘आॅल इज वेल’ चाहता है, ऐसे में जड़ तक कोई नहीं जाएगा। इसलिए समय की धारा के विपरीत बहने का लक्ष्य आज सही नहीं है, बल्कि समय के साथ बहो और लोगों को दोस्त बना लो, तब आपकी दुकान अच्छी-खासी चल निकलेगी। यहां कुछ समाचार पत्रों और चैनलों ने यह बात जान ली है, और ये वही करने में जुटे हुए हैं। भूत-प्रेत जैसी चीजें दिखाने से भी गुरेज नहीं करते हैं। समाज यहीं देख रहा है और मजे उड़ा रहा है, उनके इस मजे में हमें भी थोड़े चटखारे ले लेने चाहिए, और पत्रकारिता को आधुनिकता का जामा पहनाकर उसे गुड लुकिंग कर देना चाहिए, अन्यथा पुराना कपड़ा देखकर हर कोई आपको छोड़ देगा। फिर आप घरों में या तो किसी कोने में पड़े रहोगे या फिर सफाई का काम करने के काम आओगे।

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