
किसान का जीवन ही मजबूरियों का नाम है, जब वह पैदा हुआ था तो शायद उसकी कुंडली में पहला अभिशाप किसान के बेटे के रूप में जन्म लेना था और दूसरा यह कि वह बड़ा होकर स्वयं किसान। गांधी जी ने कहा था कि देश में किसान का उद्धार हुए बिना देश का विकास नहीं हो सकता है, लेकिन जिस तरह से देश का बंटाढार हुआ है, उसमें किसानों की हालत बहुत गंभीर हो गई है। लगातार ये किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, इन्हें अपनी जान गंवानी पड़ रही है, लेकिन सभी खामोश बैठे हैं, ये बेचारे अपने पैदा होने पर ही अफसोस करते हैं, दूसरों का पेट भरने वाले ये किसान खुद का और अपने बच्चों का पेट नहीं भर पाते हैं। दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करते हैं, धूप में पसीना भी टपकाते हैं और खून भी जलाते हैं। सर्दी में रातभर पाला में पानी लगाते रहते हैं, इसके बावजूद उनकी मजदूरी में मजबूरी दे दी जाती है। आज से दो साल पहले की बात है, एक गांव था धनिया। यह यूपी में आता है, यहां के रामप्रसाद के पास लगभग 1 बीघा खेती है। घर में बूढ़े माता-पिता और दो बच्चे थे। इनकी पूरी जिम्मेदारी रामप्रसाद पर थी। वह दिनरात मेहनत करता है, ताकि अपने घर वालों को शिकायत का कोई भी मौका न दे। इसके बावजूद कई बार वह उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता है। इस बार सर्दी का मौसम था और उसकी फसल पर पर शीत ने सितम ढा दिया था। पूरी फसल बर्बाद हो गई थी। घर में खाने के लाले पड़ गए थे। बेचारा रामप्रसाद फूट-फूटकर रो रहा था और अपने जन्म को कोस रहा था। आखिर वह करे तो क्या करे, उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। तब उसे लगा कि इस खेत को बेचकर दूसरा धंधा कर लिया जाए, लेकिन यह बहुत ही जोखिम भरा काम था, क्योंकि जीवन भर किसानी करने के अलावा उसे और कुछ भी नहीं आता था। यह दर्द भी उसे भीतर ही भीतर खाए जा रहा था। मुश्किल थी उस किसान के पास कि आखिर वह इस फसल के नुकसान की भरपाई कैसे करे? सवालों का घेरा उसे घेरते जा रहा था और जवाब में उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं तैयार हो रहा था। लगभग चार घंटे वह अपने खेत पर बैठा रहा था। रात की ठंड अपना जलवा लगातार दिखा रही थी, लेकिन उसे तो अंदर से दर्द था, अब उस दर्द से जूझते-जूझते उसे रात के तीन बज गए थे, जिसका उसे होश ही नहीं था। अब तक ठंड से देह अकड़ गई। सोचते-सोचते सुबह हो गई थी और सूरज ने अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा दी थी, लेकिन वह सोचता ही रहा, जाने क्या सोच रहा था। लगभग दोपहर की बारह बज गए थे। उसके न आने पर उसकी पत्नी जानकी आई और उसने उन्हें जगाया, लेकिन वो आवाज नहीं सुन रहे थे। उसे जोर से उसे झंकझोरा तो वो गिर गए। यह देख जानकी चिल्लाई। उसकी चीख सुनकर आसपास के लोग आ गए। अब रामप्रसाद नहीं उठा। कैसे उठता, क्योंकि अब तो वह बहुत दूर जा चुका था। इतनी दूर, जहां से कभी कोई वापस नहीं आता है। अब तो रामप्रसाद के परिवार पर मानो गाज ही गिर गई थी। उसकी पत्नी अकेली थी। गरीबी में और गरीबी, ऊपर से एक ही कमाने वाला भी अपने पीछे कई रिश्तों को छोड़कर चला गया था। उस परिवार के चारों लोगों ने चार महीने तो संघर्ष किया...जब सब्र का बांध टूट गया तो एक दिन सभी ने आत्महत्या कर ली। यह है रामप्रसाद के दर्द की दास्तान। यह किसी एक किसान की कहानी नहीं है, बल्कि देश में हर साल न जाने कितने हजार किसान जान दे रहे हैं, लेकिन उनकी जानों से किसी को कोई मतलब नहीं। सरकार तो अपने ही आंकड़ों को गिनाने में उलझी हुई है, उसे कुछ परवाह नहीं। आखिर कब थमेगा इन अन्नदाताओं की मौत का सिलसिला। और अगर नहीं थमा तो इस देश से किसान विलुप्त हो जाएंगे। हर कोई शहरों की ओर आ जाएगा, फिर हमारे पास पैसा तो होगा, लेकिन खाने को अनाज नहीं। रहने को घर तो होगा, लेकिन रोटियां नहीं। इस कल्पना को करने से भी डर लगता है। सरकार को इस ओर प्रमुखता से ध्यान देना चाहिए, क्योंकि उसकी उदासीनता ही हमारे किसानों की जान ले रही है। माना कुछ मामलों में किसान गलत हो सकते हैं, लेकिन उनकी इतनी बड़ी सोच नहीं है और उन्हें उस दरिद्रता के जीवन से बाहर निकालने का फर्ज सरकार का है। एक बार फिर गांधीजी के वाक्यों का अनुसरण करने की आवश्यकता है।
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