Thursday, August 19, 2010

भ्रांतियों का भ्रम घुप अंधेरा



यहां नदी है, नहीं यहां तो जमीन है, अरे नहीं जमीन जैसी कोई चीज ही नहीं है..., दूसरी ओर यहां खाई है, नहीं यह तो कुआं ही है, अच्छा मरीचिका...बिलकुल नहीं वहां तो पानी है ही...दिमाग वह शक्ति हो जो आसमां से जमीन तक का सफर तय करवाता है। जब यह दिल्लगी करना बंद कर दें तो समझ लो कुछ गलत होने वाला है और इसने क्रोध बाण चलाए तो फिर इसके आगे कर्ण का न तो कवच-कुंडल काम आएगा और न ही हनुमान का वज्र शरीर। विचारों की वल्गाएं यहीं से आसमां में गोते लगाती हैं, फिर तय होता है कि यह आसमां से समुंदर की गहराई को नापेंगी या फिर आसमान की हवा में ही भटकती रह जाएंगी। जिंदगी का पैमाना भी यही है और इसकी प्रायिकता भी। मगर दिमाग अगर एक बार कोई धारणा बना लेता है तो फिर वह रात को दिन भी कह सकता है और दिन को रात...इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है। जिस पर यह मेहरबान होता है उसकी जिंदगी जानशीं हो जाती है और जिसके साथ इसकी लड़ाई हो जाती है, वह रणभूमि तो क्या गृहभूमि में भी धूल चांट लेता है। आक्रामकता आक्रांत को जन्म देती है, भय को देती है और जहां डर होता है, वहां जीत तो हो ही नहीं सकती। या ये कहें कि यह राम है तो वह रहीम। एक बारगी राम और रहीम तो गले मिल सकते हैं, लेकिन इन दोनों में कुछ भी संभव नहीं होता है। समाज जिन बेड़ियों में जकड़ा है, उसका बहुत पुराना और एकमात्र कारण यही है, बहुत हद तक देखा गया है, कि हम परंपराओं की पतंगे उड़ाया करते हैं, लेकिन इसमें कब कोई सियासत का कट मारकर हमें काट जाता है, हम नहीं जान पाते हैं। उस स्थिति में हमारे पास सिवाय पछतावे के और कुछ भी नहीं होता है। बड़ी भयानक स्थिति होती है वह जहां जिंदगी के सामने कई सुरंगनुमा रास्ते हों और उनके आगे अंधेरा छाया हो। यह विश्वास जरूर जगाया जा सकता है कि हर रात के बाद सुबह होती है और एक सूरज आता है, जो हमारी जिंदगी को दोबारा रोशन कर देता है, मगर इस बात को हम बार-बार क्यों भूल जाते हैं कि जब वह सूरज आता है तो वक्त और हालात दोनों बदल चुके होते हैं, हर गम से हमें ही समझौते की लाठी पकड़कर उसकी पूजा करनी होती है। यहां न तो आपका कोई हमदर्द होता है और न ही हितैषी। मगर हम आधी जिंदगी तो बिना डर के डर में काट देते हैं, जो असल जिंदगी या असल मायने में होता ही नहीं है, भले ही माउंटेन डियू का एड है कि डर के आगे जीत है, लेकिन किसी भी चीज के लिए जिद का होना तो जरूरी है, यही जिद आपकी मंजिल तय करती है, लेकिन यहां तो हम भ्रांतियों के भ्रम में ऐसे उलझे हैं कि उसके आगे हमें सिवाय अंधेरे के और कुछ नजर नहीं आता है। मजबूरी या तो हमारे परिवेश की रहती है या फिर हमारे संकल्प और साहस की। आत्मविश्वास हमारा इतना कमजोर रहता है कि वह कभी साहस का हाथ पकड़कर खड़े होने की कोशिश भी करता है तो गिर पड़ता है, यह कमियां हैं हमारी और समाज की। जब तक भ्रांतियों की बेड़ियों को हम तिलांजलि नहीं देंगे, हमारा कल्याण नहीं हो सकता। इस डर को जीतना ही होगा, वरना यह एक दिन हमें चबा जाएगा और हमारी जिंदगी को तबाह कर देगा। पहला काम यही करें कि हम भ्रांतियों पर विजय प्राप्त करें, अगर ऐसा करने में कामयाब हो गए तो समझ लो कामयाबी इस्तेकबाल करने खुद आएगी। अब तो इन भ्रांतियों पर वज्रपात करना ही होगा, क्योंकि यही से हमें विजयपथ पर विजयरथ की लंबी रेस लगानी है।

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