Monday, May 24, 2010
कैसे कहें कि मन मोहा?
पिछले पांच सालों के कार्यकाल के दौरान उन्होंने मन मोह लिया था। जनता का विश्वास हासिल कर लिया था। लोगों को लगा कि अब उन्हें ऐसी सरकार मिल गई है जो भ्रष्टाचार, लालफीताशाही जैसी कुरीतियों का अंत कर देगी। हर चीज बदल देगी, लोगों को विकास का नया पाठ मिलेगा, तरक्की के द्वार खिलेंगे, इस उम्मीद की नई सुबह के साथ पांच सालों बाद जब पुन: चुनाव आए तो पूरे दिल से पार्टी को मत मिले, लोगों ने दिल खोलकर उम्मीद बांधकर, स्थायित्व के नाप सरकार को मत दिए। विरोधियों ने कई आरोपों के भेदी बाण फेंके, लेकिन लोगों ने बहकावे को छोड़कर सारी चीजों को नजरंदाज कर दिया। उनकी बात पर ध्यान न देकर उन्होंने मनमोहन और सोनिया पर विश्वास जताया, और दोबारा सत्ता की चाबी उन पर डाल दी।
इस बार पुन: सत्ता दी थी तो उम्मीदें भी दो गुनी थी, लगा था कि जो पिछले 55 से 60 सालों में नहीं हुआ है, वो इस बार होगा, पार्टी विकास की ऐसी धारा बहाएगी कि सबकुछ गंगा में डुबकी लगाने की तरह पवित्र हो जाएगा। मगर सालभर के कार्यकाल में मन को मोहा नहीं गया और मनमोहन सरकार ने निराश ही किया है। न तो महंगाई के मुंह पर ताला जड़ा गया है और न ही भ्रष्टाचार के परखच्चे उड़ाए गए हैं। पार्टी अपने ही कूपमंडकत्व में गुम हो गई है। इनके ही सिकंदरों ने इनके विश्वास पर चोट पहुंचाई है। एक साल में ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ, जिस पर गर्व किया जा सके। वहीं देश की उन युवा उम्मीदों को भी झटका लगा है, जिसने भरोसा कर इन्हें जीत की राह दिखाई थी। अब तो मन बैठने लगा है, क्योंकि विकास की वह रफ्तार नहीं पकड़ी जा सकी है, जिसकी उम्मीद की गई थी। हालांकि इसके पीछे राजनीति का गंदा चरित्र भी कहीं न कहीं दोषी जरूर है, और इस पूरी प्रक्रिया में उसे भुला नहीं सकते हैं। सोनिया से भी देश ने काफी कुछ उम्मीदें पाल रखी थी, लेकिन उन्हें भी धक्का ही लगा है। मनमोहनजी ने सोमवार को देश के बुद्धिजीवियों के साथ रूबरू हुए, इस दौरान हालांकि उन्होंने सध के जवाब दिए, लेकिन कहीं न कही वे नुमाइंदे ही नजर आए और पूरे समय वे हर सवाल के जवाब में बेबाकी से राय नहीं रख पाए। जब उनसे पूछा गया कि आपने रिटायर्मेंट के बारे में सोचा कभी? तो उनका जवाब भी हंसी के समान ही था। इसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था, अफजल गुरु पर सॉफ्ट सरकार का तमगा, भारत-पाक रिश्ते सहित कई सवालों पर वे असहज ही दिखे, लेकिन उनकी तारीफ फिर भी की जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने जनता के सामने आने का साहस तो दिखाया, सवालों का जवाब देना मुनासिब तो समझा, अन्यथा कई नेता और मंत्री तो ऐसे हैं, जो एक बार कुर्सी का पद पाते ही जनता को अलगे पांच सालों के लिए भूल जाते हैं। अब यहां से मनमोहन की तारीफ भी की जाए, लेकिन काम ने सब कुछ बिगाड़ डाला है। सरकार ने एक साल में कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिस पर गर्व किया जाए, इसलिए सरकार के लिए संकट का समय है, संकट सरकार के जाने का नहीं, बल्कि जनता के विश्वास का, उसकी उम्मीदों का...अब काम करना होगा, अगले चार सालों में दिखाना होगा कि जनता ने जिस विश्वास से उनका दामन थामा था, वह वास्तव में उस पर खरे उतरेंगे...।
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