Wednesday, May 5, 2010

रईसजादे हो तो क्या, रेप करोगे


पैसा दंभ को न जाने कहां पहुंचा देता है, बुद्धि भ्रष्ट कर देता है और दिमाग का संतुलन बिगाड़ देता है, उस स्थिति में इंसान-इंसान नहीं रहता, बल्कि हैवानियत की हद को पार कर जाता है, उस स्थिति में उस दानव की सोच शून्य हो जाती है। तब शुरू होता है, आदमी का जानवर बनना, लेकिन यह स्थिति दोनों पर लागू होती है, पहली वो जिसमें व्यक्ति दंभित होता है और दूसरा कुंठित। दोनों ही स्थितियों में एक चीज जो प्रमुख होती है वह आदमी का मानसिक दिवालियापन। अगर देखें तो देश में बलाकत्कार के सैकड़ों मामले आते हैं, नारी की स्वतंत्रता का हमेशा दमन करने के लिए भेड़िए बैठे रहते हैं। मगर यहां बात पैसों वालों की हो तो उन्हें ऐसा लगता है, मानों स्त्रियों पर जुल्म करना उनके शरीर को चीर फाड़ कर क्षत विक्षत करना उनकी विरासत है, उन्हें उनके बलात्कार का अधिकार है। हालांकि हमारे देश में सदियों से महिलाओं पर कहर बरसाया गया है, कभी उसने विरोध किया तो कभी वह विरोध भी नहीं कर पाई, उस युग में राजाओं की जब मर्जी और जिसके साथ मर्जी होती थी, वे संबंध बना लेते थे, उनके पास हजारों रानियां होती थी, वहां इश्क और मोहब्बत जैसी कोई चीज नहीं होती थी, बल्कि मानसिक कुंठा होती थी, जो पैसों के जहाज के नीचे दबाया जाता था। राजाओं का युग खत्म हुआ तो बारी आई जमींदारों की, उन्होंने भी अपनी मर्जी और पैसे के दम पर महिलाओं के शरीर के साथ मर्जीनुसार खेल खेले, वहां भी नारी के नूर को अपमानित किया गया, मगर आवाज नहीं उठी, उसका कारण यह है कि आदमी की आवाज से अधिक मोल पैसे का था...है और रहेगा...। उस जमाने में तो शिक्षा के प्रति इतनी जाग्रत नहीं थी, इसलिए कहा जा सकता है कि आदमी की सोच को इंसान नहीं बनाया जा सकता है। मगर वर्तमान में जो स्थिति हो गई है, वह काफी भयानक है, यहां तो धन और बल का संगम बन गया है, जिनके पास है, उसे तो ऐसा लगता है मानों महिलाओं के साथ रेप करने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है। कई मामलों में महिलाओं का रोज कहीं न कहीं बलात्कार किया जाता है, कहीं वे विरोध करने के बाद दम तोड़ती हैं तो कहीं पहले भी तोड़ देती हैें। मगर इन रईसजादों को क्या कहेंगे, क्योंकि बापों की दौलत से ये दुनिया पर हुक्म चलाना चाहते हैं, इन्हें लगता है कि इनके बाप की दौलत के आगे किसी की ईज्जत जैसी कोई चीज नहीं है, इस सोच की बदौलत ये अपराध की पराकाष्ठा तक निकल जाते हैं, स्त्रियों का सम्मान जैसी कोई चीज तो इन्हें आती ही नहीं, जिस कोख से पैदा हुए, उसे अपमानित करने का एक भी मौका ये रईसजादे छोड़ते नहीं। तो इन्हें कैसे रोका जाए, इसके लिए सामाजिक चेतना की आवश्यकता तो है ही, साथ ही सरकार को भी नियमों को कड़ा कर जल्द फैसले लेने होंगे। संतोष मट्टू हो या जेसिका लाल हत्याकांड, या फिर आरुषि हर केस में महिला को सालों साल न्याय के लिए तड़पना पड़ा है, उसे न्याय के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। यह तो उनके परिवार वालों का साहस और धैर्य ही था, जो उन्हें इंसाफ मिल सका, लेकिन न जाने ऐसी कितनी ही जेसिका और आरुषि को इन रईसजादों के आगे दम तोड़ना पड़ता होगा। उस स्थिति पर रोक कैसे लगाई जाए, सरकार को अपने नियमों में बदलाव कर सजा का प्रावधान शीघ्र और कड़ा करना होगा, उस स्थिति में इनके अंदर कुछ दहशत अवश्य आएगी, अन्यथा जब से स्त्री ने जन्म लिया है, उसे आमदी ने खिलौना बनाया है और बनाते रहेगा।

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