Saturday, May 15, 2010
अफगान में लड़ाई कहीं विध्वंसक न हो जाए
युद्ध कभी शांति नहीं देते हैं, हां भले ही कुछ पल के लिए मदहोश और दंभ से भर दें, लेकिन अंत में इसका सार यही निकलता है कि हर चीज ध्वस्त हो जाती है। अफगान में जो लड़ाई 2001 से चल रही है, उसके परिणाम तक वह पहुंच जाए, इसके सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं, मगर जो नीतियां विश्वपटल पर खेली जा रही हैं, या दिखाई जा रही हैं, वे कहीं से भी सार्थक सिद्ध होती नजर नहीं आ रही हैं। जिस तरह से यह लंबी लड़ाई सिर्फ इसलिए लड़ी जा रही है कि यहां यदि अमन और चैन हो गया और अल कायदा का सफाया हो गया, मगर यह मृगमरिचिका जैसा ख्वाब है, जो पूरा होता बिलकुल भी नजर नहीं आ रहा है। यहां अगर गौर करें तो अफगानिस्तान में अमेरिका ने लाखों की संख्या में अपने सैनिकों को मौत के मुंह में झोक दिया है, तो इसका जिम्मेदार कौन है, यह तो अलकायदा के नखरे और उसके वर्चस्व से भी ज्यादा है , क्योंकि अलकायदा भले ही इतना नुकसान नहीं पहुंचाता, जितना इनके सैनिकों को यहां रखने से हो रहा है। यह लंबी लड़ाई अभी सालों साल जारी रहने वाली दिखाई दे रही है, वहीं वहां के राष्ट्रपति तक ने कह दिया है कि हमें अमेरिकी सैनिकों की आवश्यकता है। तो क्या इसे शांति के लिए सात्विक परिणाम माने जाएंगे। यह सच है कि दुर्दांत ताकतों को मिटाने के लिए इस तरह किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा, मगर इस तरह से...क्या होगा अगर अमेरिका इराक की तरह अफगानिस्तान में भी अपना परचम लहरा देगा, तो सबकुछ माकूल हो जाएगा। इसकी कोई गारंटी नहीं है , यहां तो सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
अमेरिका के सबसे पॉपुलर बराक ओबामा की अफगान नीति पर भी अभी तक सवालियां निशान खड़े हैं, उन्होंने ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सके कि सबकुछ आत्मनियंत्रण में है, शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके बराक ने जब कहा था कि अफगान में अगले तीन सालों तक रहकर वहां से अलकायदा का सफाया कर देंगे तो उनके बयान के बाद उनके पुरस्कार के लिए चयनकर्ताओं पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो रहा है। इस पूरे घटते घटनाक्रम में तालिबान एक ऐसा अज्ञात और दुर्दांत शत्रु के रूप में सामने आया है, जो कभी भी परिस्तियों और नीतियों को तोड़कर एक नए महायुद्ध को जन्म दे सकता है। इसका नजारा उसने 2008 में पेश भी कर दिया था जब पाक पर सीधे चढ़ाई के लिए भी वह तैयार हो गया था। सवाल यहां यही है कि न तो अलकायदा खत्म हो रहा है और न ही अमेरिकी सैनिकों का अफगान वनवास समाप्त हो रहा है। हर चीज समय के साथ सुलझती नहीं, बल्कि सुलगती जा रही है। यहां पर पड़ोसी देश भारत, चीन भी अपने देश के विकास के अलावा कुछ और चीजों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते हैं और ये दोनों रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था, वाली मुद्रा में आ चुके हंै, हालांकि बयानों के कुकुरमुत्तों का साथ ये भी देर-सवेर दे ही देते हैं, लेकिन परिस्थितियां अभी भी विपरीत करने का इनका मन नहीं है, क्योंकि अमेरिका के विरुद्ध न तो इनमें बोलने का साहस है और न ही ये बोलना चाहते हैं। इस तरह पूरे घटनाक्रम पर इनका उदासीन रवैया ही है, मतलब अमेरिका अफगानिस्तान में चाहे एक हजार सैनिक भेज दे चाहे एक करोड़, मगर इन्हें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। यह पूरा का पैरा चक्र काम कर रहा है, मगर परिणाम अभी भी दिखते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगले दस साल यह युद्ध और खींचा जाए तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है... क्योंकि यहां रोम नहीं, पूरा विश्व ही जल रहा है....
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