Monday, May 10, 2010

लुटिया भी डिबोई और लाज भी


भारतीय शेर, एक बार फिर देश को शर्मशार कर बैठे हैं...तोड़ आए सौ करोड़ भारतीयों की उम्मीदों को, जख्म दे दिया उनके जज्बे को, तो आखिर क्यों हम इन्हें अपने दिलों के शहंशाह बनाएं। हर बार, बार-बार इन्होंने देश को हार का गम दिया है। पूरी शिद्दत से भारतीयों ने इन्हें मान दिय, सम्मान दिया और शोहरत भी दी, बदले में क्या मांगा, सिर्फ इनसे एक कप.. मगर ये भी न ला सके, चलो वैसा खेलते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था, लेकिन इन्होंने तो हार का ऐसा जख्म दिया है जो अगले कई दिनों तक हरा रहने वाला है। टीम ने हर उस मौके पर भारतीयों के दिल तोड़े हैं, जहां से इनसे उम्मीदों का बांध बनाया गया था। टीम का कोई भी खिलाड़ी न तो चैंपियनों की तरह खेला और न ही उसने दिखाया कि वो खेलने आए हैं। हर किसी के कंधे हर समय झुके नजर आए...कप्तान से लेकर खिलाड़ी तक ऐसा लग रहा था कि इंडीज सिर्फ औपचारिकता निभाने गए हो, न तो कोई प्रोफेनलिज्म और न ही कोई डेडिकेशन... तो क्या मतलब ऐसे खेल का और खिलाड़ियों का... अगर उस एक पारी रैना शतक न मारते तो शायद सुपर-8 के पहले ही भारत का पत्ता साफ हो चुका होता। सवाल यहां हार-जीत का नहीं है, क्योंकि यह तो खेल का अंग है, बल्कि सवाल यह है कि आखिर हम चूक क्यों जाते हैं। हमारे पास दुनिया की सबसे अच्छी फैसेलिटीज हैं , इसके बावजूद हमारे खिलाड़ियों में वह दम दिखाई नहीं देता, जो बाहरी खिलाड़ियों में है। यहां गलती बोर्ड की भी है, इस बार जितने भी खिलाड़ी मैच खेलने गए थे, उनमें से एक के फॉर्म भी ठीक नहीं थे, बावजूद इनका सिलेक्शन सिर्फ इसलिए किया गया, क्योंकि इन्होंने पहले अच्छा प्रदर्शन किया था। यह पैमाना नहीं होता है, क्योंकि जीत के लिए आपको उस मौके पर बेहतर खेल दिखाना होता है और अगर वहां चूके तो आप मैच गवां बैठेंगे। इस बार यही हुआ, जिस युवराज ने 6 छक्के एक ओवर में ही जड़े थे, वह कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उसमें वो आग बची है, पूरी तरह से थका-हारा नजर आ रहा था। जहिर खान ने तो हद ही कर दी, स्ट्राइक बॉलर का तमगा तो लिए हैं, लेकिन दो ओवर फेंकने के बाद इनका दम निकल जाता है , और दो मैच अगर इन्हें एक साथ खिला दिया जाए तो अगले मैच में इन्हें रेस्ट चाहिए। इसी तरह बाकी टीमों के भी हाल हैं, न तो क्रिकेट में हार की कहानी को बदला जा रहा है और न ही उस मैच में बेहतर प्रदर्शन हो रहा है जिसमें करो और मरो की स्थिति होती है। वहां आकर तो हम मर ही जाते हैं। यह तो हो गई पुरानी कहानी, अगला मैच भले ही जीतकर भारत यह दिखाना चाहे कि हम तुक्के में हार गए, मगर यहां तो हम बाहर हो चुके हैं और इसकी सजा इन खिलाड़ियों को अवश्य ही मिलनी चाहिए, फिर चाहे हमें इसकी कोई भी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। अगर आप खेल नहीं सकते तो आपको बाहर बैठना ही होगा, इसके सिवाय और कोई पैमाना लागू नहीं होना चाहिए। यहां के अध्याय का अंत यहीं हो जाना चाहिए और भारतीय बोर्ड को अगले नौ महीने बाद होने वाले विश्वकप के लिए खिलाड़ियों का चयन करना शुरू कर देना चाहिए, क्योंकि यह विश्वविजेता और सबसे सम्माननीय कप इस बार भारत में ही होने वाला है और अगर यहां से तैयारी का तूफान सशक्त नहीं किया गया तो हम यहां भी फिसड्डी ही रह जाएंगे, इसलिए जल्द से जल्द विश्वकप के लिए बेहतर खिलाड़ियों का चयन किया जाना चाहिए। भले ही खिलाड़ी ऐसे न हो जो कागज पर शेर हो, उनके पीछे लंबा-चौड़ा रिकॉर्ड हो, लेकिन उनमें जीतने की ललक हो, उनकी ललकार ऐसी हो कि विरोधियों के हौसले पस्त हो जाए, उनके आगे खेलने में इन्हें साहस जुटाना पड़े। हां यह करने में कुछ कठोर निर्णय जरूर लेने होंगे , हो सकता है कि इसका विरोध भी हो और जिन्हें हम सिलेक्ट करें तो टीम हार भी जाए, मगर खिलाड़ी वही हों जो चैंपियनों की तरह खेलना जानते हो?

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