Thursday, May 6, 2010

क्या फिर कोई कसाब नहीं आएगा!


आतंक के उस चेहरे को सामने देखकर हर किसी के मन आग की ज्वालाएं भड़क उठती हैं, उसे देखकर लगता है कि यह वही आतंकवादी है, जो दूर दुश्मन देश से आया था। हाथों में नंगी मौत लेकर लोगों को मौत के घाट उतार रहा था। इसके लिए मानवता जैसी कोई चीज नहीं है। इंसानियत से इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं... दु:ख, दया और मुहब्बत जैसे शब्दों से उसका कोई नाता नहीं था, वह तो बस एक चीज ही जानता था वह है नफ्रत की आग में झुलसाकर लोगों को मौत के घाट उतारना। मगर इसमें भी वह अपने परायों को भलिभांति पहचानता था। तभी तो उसने भारत की तरफ मुंह उठाकर बारूद उठाया, तो इसमें उसके बहकने का क्या सवाल, वह इतना तो मासूम नहीं था, लेकिन उस दुर्दांत इंसान के पीछे भी तो एक कसाब रहता है, क्या था वह कसाब, एक दिन का कसाब, जो सिर्फ रोना जानता था, दो माह का कसाब, जिसे भूख लगने पर सिवाय मां की ओर देखकर रोने के अलावा और कुछ नहीं आता था। छह माह का कसाब, जो मां का आंचल देखकर रोना बंद कर देता था। छह साल का कसाब, जो गांव में मेला लगने पर अपने अब्बू से जलेबियों और खिलौनों के लिए अड़ जाता था। वह कसाब, जिसे दोस्त खेल में हरा देते थे तो वह मां के पल्लू में घुसकर रोने लगता था, तब मां उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती थी अजमल तू तो मेरा राजा बेटा है, इस छोटी सी हार पर रोते नहीं है...छह साल का अजमल 10 साल का हुआ तो उसने गांव के लड़कों के साथ खेलना सीखा, दोस्तों के साथ बाहर घूमना सीखा, किसी दिन गांव की तलैया में वह नहा रहा था तो अम्मी ने खूब चिल्लाया, उन्होंने कहा कहीं डूब जाता तो हमारा क्या होता। मां का सीधा-साधा बेटा था अजमल। 12 साल की उम्र में वह अब्बू से कुछ पैसे मांगकर दोस्तों के साथ घूमने जो निकल गया, वहां से अम्मी के लिए एक साड़ी भी लाया। 12 साल का वह बेटा अपनी मां से बहुत प्यार जो करता था। मां भी उसे बिना खाना खाए घर से जाने नहीं देती थी। क्योंकि दिनभर अजमल के पास सिवाय दोस्तों के साथ खेलने के अलावा कुछ नहीं होता था। उस परिवार का यह राजा बेटा अब 17 सालों का हो चुका था, अम्मी हमेशा मस्जिद पर ले जाती थी और कहती थी अल्लाह मेरे बेटे पर अपना करम बनाए रखना। अजमल भी मां की बात मानकर मजार पर फूल चढ़ा देता था। कितनी मासूमियत थी, उसके चेहरे में, कितना भोला था। लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसकी मुलाकात एक कैंप से हो गई, फिर क्या था, मासूम चेहरे वाला वह अजमल...कसाब बन गया। हैवानियत उसके चेहरे पर आ गई । दुष्टों ने उसे ऐसी तालिम दे दी कि वह जिंदा मौत बन गया। और जो मौत बन जाता है उसमें सोचने समझने की शक्ति नहीं रहती है। अपनी अम्मी और अब्बू का लाड़ला अजमल अब कसाब बन चुका था उसके हाथों में खिलौने की जगह जिंदा बारूद और राइफलें आ गई थीं। फिर चालू हुआ मिशन...भारत का्रे तबाह करने का...फिर उस रात वह दरिंदा बनकर आया और न जाने कितने लोगों को मौत दे दी। उस से अजमल की यह दास्तां, जो उसे एक छह माह के अजमल से मौत का जिंदा पुतले के रूप में तब्दील हो गया। उसके जीवन के यह पहलू भले ही अनछुए हो, लेकिन संगत ने उस अच्छे बेटे को खंूखार बना दिया। यहां भारत ने उसे फांसी की सजा सुनाई है, उसकी यह कहानी सुनाकर किसी भी तरह की सहानुभूति पाने की कोई कोशिश नहीं है, लेकिन मां के पल्लू से लिपटकर रोने वाला वह कसाब को आज फांसी भी दे दें तो इसकी क्या गारंटी है कि कल कोई कसाब हमारे देश पर फिर हमला करने नहीं आएगा। यहां उसकी फांसी में सजा को कम करने के लिए भी कोई अपील या कोई मांग नहीं है, बल्कि उसके जीवन का यह दूसरा पहलू भी समाज के सामने आना चाहिए। आखिर वह भी तो एक मासूम बेटा था, उस अम्मी का, जिसने कभी नहीं सोचा था कि उसका अजमल कभी किसी को मौत देगा, जो भूखा होने पर रो देता था, आज वह मासूम अजमल कहां गया किसी को नहीं पता, तो क्या...अजमल की फांसी के बाद हर चीज सही हो जाएगी...यह एक बड़ा प्रश्न है जो सदा मुंह उठाए खड़ा रहेगा। क्योंकि हर समस्या का हल फांसी नहीं है, इसके अलावा भी कोई बीच का रास्ता निकाला जा सकता था, जो दूसरों के लिए सबक भी होता, और अगली बार कोई कसाब बनने से पहले दस बार सोचता...।

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