Monday, April 25, 2011

समाज की नीतियां बनाती हैं बिगाड़ती हैं

सारा खेल नीतियों का चल रहा है, अगर नीति रीति से नहीं होगी तो फिर हर चीज असफलता की कगार पर खड़ी होकर चिढ़ाएगी और हम मुंह बाए केवल देखते रहेंगे। समाज में कई विसंगतियां पैदा हो जाएंगी जो हमारे सामाजिक जीवन के साथ आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करेंगी। यह वह पतवार रहती है, जो अगर कमजोर रही तो समझ लो हमारी जीवनलीली वहीं समाप्त हो जाएगी, उस स्थिति में हमारे पास बचने के भी कोई उपाय नहीं होते हैं। जिस तरह से समाज में असुंतलन की गेंद डप्पे ले रही है, उससे यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह किस जगह जाकर रुकेगी, और यही असमंजस की स्थिति के चलते समाज से स्थायित्व गायब हो गया है। कालमॉर्क्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संरचना पर सामाजिक संरचना टिकी है, और सामाजिक संरचना तब तक बनी रहेगी, जब तक बेहतर नीतियों का निर्धारण हो सके। समाज आज दिशाहीन हो गया है और वह अंधड़ चल रहा है। कहां कुआं है और कहां फूल...इसके बारे में उसे जरा सा भी पता नहीं है। वह तो मदमस्त कहें या फिर आवारा की तरह इधर से उधर की तरह हो गया है। पूरा बवंडर हो गया है। घूम तो रहा है, लेकिन दिशा क्या होगी, इसका उसे पता तक नहीं है। ऐसे में नीतियां कमजोर बनती हैं तो प्रशासनिक तथ्य और कार्यप्रणाली को लकवा मार जाता है। वह पूरी तरह से अपंग रहती है और पानी के गद्दे या फिर हवा के गद्दे में पड़ी होकर गिड़गिड़ाती रहती है। सामाजिक नीतियों में लाचारी, बेबसी जीवन को उस खाई में पटक देती है, जहां से वापस आना आसान नहीं होता है। यह गलत समाज के सामने हो रहा है, ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि उसमें आगे आकर अपनी आवाज बुलंद करे, अगर आवाज बुलंद नहीं करेगी तो जीवन का अगला अध्याय आगे नहीं बढ़ सकता है। इस स्थिति में समाज का रोल बहुत बढ़ जाता है, उसे सामाजिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उसे पुनरुत्थान के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। उसके सामने कई बार सरकारी मशीनरी आड़े आ जाती है, लेकिन उससे निजात पाने के लिए अगर कुछ करना है तो फिर आवाज में दम होना बहुत जरूरी है,अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर नीतियां ऐसी ही बनती जा रही हैं। सामाजिक प्रेशर अगर पड़ता है तो फिर अच्छे-अच्छे फट पड़ते हैं। इन्हें समाज के संदर्भ में कुछ नए सृजन करने होते हैं, इन्हें विकास की नई पथरीली, लेकिन न्यायपूर्ण परिभाषा लिखना होती है। आज अगर ये लोग हस्तक्षेप करते हैं तो फिर बदलाव की बयार बवंडर में तब्दील हो जाती है और अपने हक में फैसला लेकर आ जाती है। इस फैसले से समाज में सकारात्म प्रभाव पड़ता है, और तब समाज में उन्नति की वह किरण रोशनी डालने लगती है। तब समाज का बगीचा खिलने लगता है, और किरण की रोशनी से मंद मंद मुस्कराता हुआ कहता है कि हां अब हमें जिंदगी मिल गई है। शायद इससे पहले हम जी नहीं पा रहे थे। समाज का यही है ढांचा, जो अपनी बुनियाद को तलाशने में जुटा हुआ है। हां, इसके पास पैर नहीं है, लेकिन यह बौद्धिक रूप से बड़ा बलवान है और तब सारी कायापलट अकेले ही कर देता है। आज समाज को क्रांति की जरूरत नहीं है, बल्कि जागरूकता के बीज बोने की आवश्यकता है। अगर इसकी खेती को हरा-भरा नहीं किया गया तो समझ लो कई चीजों में हम पिछड़ जाएंगे। तब विकास की अविरल धारा हमसे कोसों दूर हो जाएगी। सामाजिकता को भी शर्म महसूस होने लगेगी। लगेगा कि कहीं सूरज खो गया है, समाज में काला अंधेरा काबिज हो जाएगा और हवाएं भी रुख के विपरीत बहने का इरादा जाहिर करती नजर आएंगी। इस माहौल को हमें बदलना होगा। समाज की धारा जो मैली होकर गुस्सा हो गई है और उसे राह पर लाना होगा। अगर इसमें चूक हो गई तो फिर समाज को हम कैसे जोड़ पाएंगे। अब सबकुछ जल्द करना होगा, क्योंकि न तो इंसान के पास समय है और न ही समाज के पास। हर कोई घड़ी से तेज दौड़ रहा है, और यह दौड़ कहां खत्म होगी, कोई नहीं जानता है।

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