Saturday, April 23, 2011

अस्तित्व के लिए संघर्ष का सिद्धांत लागू है...


जब तक कश्ती तूफानों में रहती है, हर पल उसके डूबने का संकट बना रहता है, उस वक्त जो लोग उस पर सवार रहते हैं, उनके दिलों में क्या गुजरती है, शायद इसका अंदाजा सिर्फ वो ही समझ पाते हैं। हम तो दूर से देखकर चीजों की गहराई में उतरने की कोशिश भर कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता और कल्पना के बीच में कई मीलों गहरी खाई होती है, कई बार यह खाई महीन हो जाती है तब फर्क करना भी मुश्किल रहता है। बेशक जब वह कश्ती तूफानों से बाहर निकल आती है और उन पर सवार लोगों को लगता है कि हां अब हमारी जिंदगी पर कोई खतरा नहीं है, उस स्थिति शायद उनसे ज्यादा ख्ुाशी और किसे मिलेगी। मौत के मुंह से बाहर आने के बाद जो जिंदगी मिलती है, वह बेहद अनमोल रहती है और उसकी कीमत सबसे महंगी रहती है। वही आज का समय है, जब जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष हैं। कहावत भी कुछ ऐसी ही है कि जीवन एक संघर्ष है, लेकिन आजकल तो अस्तित्व के लिए संघर्ष के सिद्धांत पर कार्य कर रही है। पल-पल भारी होता जाता है। मुश्किलों की इस घड़ी में न तो कोई साथी बचा है और न ही कोई साथ देने वाला। जीवन में न ‘अआबेबीगं’ के ही खतरे नहीं है, बल्कि और भी खतरे हैं जो हर पल धोखा देने के लिए तैनात रहते हैं। अभाव, अज्ञानता, बेकारी, बीमारी और गंदगी ही दम नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि जीवन के पग-पग पर कांटों का जाल बना हुआ है और इस पर रीते पांव ही चलना पड़ रहा है, ऐसे में जिंदगी लहूलुहान होने से नहीं बच सकती है। तो क्या पहले से ही तेयार हो जाया जाए, मगर इसमें भी कई दोष हो सकते हैं, क्योंकि इन दोषों पर न तो हमारा अधिकार रहता है और न ही इसमें ईश्वर का हाथ होता है। समाज में हुए परिवर्तन ने उसे उस घुमावदार घर में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें हमें रहना भी है और उसका हमें रास्ता भी मालूम नहीं है। आखिर कैसे चलेगी जिंदगी। यहां हर कोई शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है, बाजीगरी ऐसी कि समझ ही नहीं आती है। चक्रव्यूह से निकलने में कई चालों को लगा लिया, लेकिन हर बार कुछ नहीं होता है। रुसवाई और बेबसी की जिंदगी में इतने आंसू आ चुके हैं, कि जीवन की चकरी ही घूम गई है। न तो कोई मसीहा नजर आता है और न ही कोई रास्तों का विकल्प। बस दिखाई देता है तो भरा समुंदर या फिर सूखा रेगिस्तान। अब इन दोनों के दिखते ही जिंदगी की हवाएं जालिम हो जाती हैं और रेगिस्तान में गुबार उठता है तो समुंदर में सुनामी की लहरों हिलोरे मारती हैं। हर कोई बवाल ग्रह में बलवान बनने की सोचता है, लेकिन इन लोगों को सबक सिखाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता है। तब मौत ही आखिरी रास्ता दिखाई देती है, लेकिन वह भी आसान तो नहीं होती है, क्योंकि उसमें न जाने कितने जोखिम होते हैं, और अगर इन जोखिमों में जख्म लगा भी बैंठे तो भी जीवन का घाव भरता नहीं है। हाथों में अंगार लेकर चलना कहीं जिंदगी का दूसरा नाम तो नहीं है। कहीं पहाड़ों पर चढ़ना ही जिंदगी नहीं बन गया है। क्यों हम दूसरों की सताई और बनाई हुई दुनिया में कठपुली बनकर नाच रहे हैं, कहीं हमारा भी कोई अस्तित्व नजर नहीं आता है क्या। जो भी हो, सामाजिक परिवर्तनों से ऐसा भूचाल आया है कि अब धरती के साथ आसमान भी कांप रहा है। सूरज की रोशनी में सेंध हो गई और बादलों को बयार ने उड़ा दिया है। ग्रहों को ग्रहण लग गया है और इंसान इडियटों की तरह हकला रहा है। न जीने की राह दिखाई दे रही है और न ही अरमानों का आसमां। न जाने क्यों? हम जीवन की धारा में गोते लगा रहे हैं, हमें किनारा नहीं मिल रहा है। इन किनारों से क्यों जीवन गुम हो रहा है, क्यों जिंदगी भंवर में फंसी हुई नजर आ रही है। क्यों इस जीवन में जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है, क्यों... शायद इन सवालों के जवाब हममें से किसी के पास नहीं है। हां, हमें जिंदगी जीने का एक्सपीरियंस बहुत हो गया है, लेकिन हमारी तरह सैकड़ों लोग हैं जो जीवन जी तो रहे हैं, पर अस्तित्व के संघर्ष वाले सिद्धांत।

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