Thursday, April 14, 2011

संविधान है या गरीब की जोरू

देश में आजकल हर कोई अपने आपको ज्ञानी-ध्यानी मान रहा है, इसमें कोई बुरी बात नहीं है। हमारे संविधान ने हर किसी को बराबर सोचने और समझने का अधिकार दिया है, लेकिन जब हम इसका माखौल उड़ाकर उस मौलिक कर्त्तव्य की धज्जियां उड़ाने से गुरेज नहीं करते हैं, जो हमें संविधान ने हथियार के रूप में दी है, तब लगता है कि हम कहीं उस बुद्धू की तरह कार्य कर रहे हैं, जो जिस डाल पर बैठा था, उसे ही काट रहा था । बचपन में इस कहानी ने भले ही हमें ज्यादा न बताया हो, लेकिन इतना तो बता ही दिया ही दिया था कि जो हमारा सहारा होता है, कम से कम उसे तो कोई नुकसान हमारे द्वारा नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। तब से हम इस बात को पूरी ईमानदारी के साथ फॉलों करते आए हैं। मगर आज देश के जो हालात हैं, वह देखकर लगता है कि कहीं कोई अनहोनी जैसी बू आ रही है, महक को पूरी तरह से खून से लाल कर दिया है, और उसमें जलने जैसे कोई गंध है। बेशक यह भोपाल त्रासदी जैसी कोई घटना नहीं है, लेकिन इतना तो सही में जान पड़ता है कि अब हम उस मुहाने पर खड़े हैं, जहां पर इस तरह की बातें बारूद के पास तिली जलाने जैसा साबित हो सकता है। क्या हम उस संविधान के साथ अन्याय नहीं कर रहे हैं। कोई भी ऐरा-गेरा नत्थू खेरा आता है, कुछ बातें बोलकर यह कह जाता है कि अब समय आ गया है परिवर्तन का। परिवर्तन की हवा को हमें महसूस करना होगा। हमें अपने बदलते परिवेश के अनुसार अपने संविधान में कुछ बदलाव करने होंगे। ठीक बात है। इस पक्ष के लिए शायद दबे और प्रखर स्वर में यही बात कहेगा कि हां कुछ बदलाव तो जरूरी है, क्योंकि जब इसका निर्माण हुआ था, तब का दौर कुछ अलग था। आज का दौर कुछ अलग है। बदलते दौरों में हमें इसे बदलते परिवेश के पहिए में लाना होगा। अन्यथा कुछ तकलीफें तो जरूर पैदा होंगी। इस बात में कोई दो राय नहीं है, लेकिन अब यह कि आगे क्या? आप सभी ने एक बात सुनी होगी कि बिल्ली के गले में घंटी बांधने की सलाह एक चूहे ने दे दी थी। सारे चूहों ने मिलकर उसमें हामी भरी। सभी ने निश्चय कर लिया कि यदि बिल्ली के गले में घंटी बांध दी जाए तो फिर हमें डर नहीं रहेगा, जैसे ही वह आएगी हम लोग समझ जाएंगे और फिर या तो भाग लेंगे या फिर छुप जाएंगे। उन्होंने हल तो खोज लिया था, लेकिन उनके सामने भी वही समस्या अपना विकराल मुंह लेकर खड़ी हो गई। वह समस्या थी कि आखिर कौन उसके गले में घंटी बांधने का साहस भरा कार्य करेगा। सभी चूहे एक दूसरे की ओर देखने लगे। तब कोई यह जोखिमपूर्ण कार्य करने के लिए राजी नहीं हुआ। बस यही स्थिति है देश में, जहां बातें और ज्ञान झाड़ने वाले तो सैकड़ों नहीं हजारों की संख्या में मिल जाएंगे, लेकिन संविधान में बदलाव को अंजाम कौन देगा। और फिर 121 करोड़ की आबादी वाले देश में, जहां बात-बात पर विवाद हो जाते हैं, मामला गंभीर न हो, फिर भी तलवारें खिंच जाती हैं, आगजनी हो जाती है। शोर-शराबा और तोड़फोड़ हो जाती है...वहां कौन नए संविधान को मानेगा। भई इतने लोगों को कैसे संतुष्ट किया जा सकता है। निश्चय जो बनाएगा उसे भीमराव आंबेडकर का दर्जा नहीं मिल पाएगा। उल्टा होगा यह कि वह खलनायक की भूमिका में आ जाएगा। इसलिए देश में हीरो बनने की चाह रखने वाले खलनायक की भूमिका कौन करेगा। कौन अपने आपको जोखिम में डालेगा। आप सोचिए फिर जनलोकपाल जैसे सिर्फ एक बिल के खाका को तैयार होने में 42 साल लग गए, समझ लो एक जिंदगी के तरुणाई साल पूरे निकल गए, वहीं उतने बड़े संविधान में लगने में तो सदियां भी लग सकती हैं। और इसमें जो लोग गठित किए जाएंगे, वे सदियां तो जी नहीं पाएंगे। इसलिए युग भी लग सकते हैं। सचमुच बाबा साहब कितने जीनियस थे, जिन्होंने डेढ़ साल में ही इतने बड़े संविधान की रचना कर डाली। अब तो ऐसा असंभव है।

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