Wednesday, April 20, 2011

कहीं भूख दम न निकाल दे


जीवन की नैया तभी चल सकती है, जब उसमें भरपूर ताकत हो। जब तक इंसान को खाना मिलता रहेगा, वह एनर्जी के साथ जीता रहेगा, अगर जीवन से खाने को गायब कर दिया जाए तो फिर समझ लो कि उसे मौत आ जाएगी। हां यह सच है कि देर सवेर कुछ देश में ऐसे महापुरुष भी हैं, जो बिना खाए पिए सालों तक रह सके हैं,। मगर हमारे समाज में उपवास को एक बड़ा केंद्र माना गया है। हम शुरू से ही खाना बचाने की ओर लगे रहे, लेकिन हमारे प्रयास आज तक सार्थक नहीं हो सके हैं। हम देख रहे हैं कि किस तरह से देश में खाने की बर्बादी हो रही है। हमारे गरीब समाज में दो जून की रोटी के लिए न जाने कितने प्रयास करने होते हैं, लेकिन वह नसीब नहीं होती है। कई बार तो हाल यह हो जाते हैं कि रोटी नहीं मिलने पर मौत को गले लगाना पड़ता है। रोटी, कपड़ा और मकान की यह कहानी सदियों से चली आ रही है और हम हमेशा उसके लिए तरसते जा रहे हैं। देखा जाए तो समाज में दो तरह के बैलेंस हो गए हैं। पहला तो यह कि हमारा एक वर्ग ऐसा है जो सामान्य खाना खाता है, और बहुत कम बर्बादी करता है, लेकिन दूसरा वर्ग ऐसा है, जिसके पास इतना खाना है कि वह जितना खाता नहीं है, उससे ज्यादा बर्बाद करता है। वहीं तीसरा वर्ग है गरीब। जो खाने के लिए पल-पल तड़पता है। यह खाई देश को बहुत भारी पड़ रही है। एक वर्ग जो बहुत अमीर है, उसके पास इतना खाना और पैसा है कि वह देश को खरीद ले, लेकिन वह पूरी तरह से बर्बादी में जुटा हुआ है। वहीं दूसरा वर्ग बेचारा बेचारगी में जीने के लिए मजबूर है। अगर उन लोगों से खाना बचाने की बात कही जाए तो वो हंसते हैं, और उनका जवाब रहता है कि हमने कमाया है, हम हर चीज के लिए पैसा दे रहे हैं। वो लोगों का गुरुर देखकर ऐसा लगता है कि जैसे ये लोग अहसान कर रहे हैं, और इनके आगे किसी को जीवन जीने का अधिकार ही नहीं है। मगर देश का दम तो निकल ही रहा है, उसमें उसका तो कोई दोष नहीं है। जिस तरह से हम लोग खाद्यान की बर्बादी कर रहे हैं, वह हमारे देश की तरक्की को गर्त में लग जा रहा है। देखने में यह भी आया है कि कुछ गद्दार खाद्यान को दबाकर बैठ जाते हैं, जिससे पूरा मामला ही गड़बड़ा जाता है। और कहीं तो सरकार की शेखी और लापरवाही के चलते करोड़ों टन अनाज सड़ जाता है। तो कहीं न कहीं इस पूरी व्यवस्था के लिए सरकार से लेकर आम आदमी तक दोषी है, लेकिन जब उसे कठघरे में खड़ा करो तो हर कोई अपना दामन साफ बताता है। हर कोई समस्या को एक दूसरे पर ढोलने का प्रयास ही नहीं करता, बल्कि यह बताता भी है कि दोष तुम्हारा है, हम तो साफ सुथरे हैं। वाह...समस्या है कि मानती नहीं और हम हैं कि दामन को अलग ही रख रहे हैं। देश की तस्वीर कब बदलेगी, कब हालात हमारे मनमाफिक होंगे। अगर खाद्यान नहीं बचाया गया तो वह दिन दूर नहीं, जब हमारे पास पैसे तो होंगे, लेकिन खाने के लिए कुछ नहीं होगा। देश में धरती जिस तरह से कम हो रही है, वह देश के माथे पर चिंता की लकीरों को गहरी करती जा रही है, मगर जो सरकार के नुमाइंदे बनते हैं, उन्हें इससे क्या मतलब। वो तो अपनी तिजौरियां भरना चाहते हैं, क्योंकि वो भी जानते हैं कि अगली बार सरकार में मौका नहीं मिलेगा, जितना लूटना हो लूट लो। लूट मची है लूट लो...और देश का बंटाढार हो रहा है। अनाज पैदा कम हो रहा है, और जो हो रहा है वह आम नागरिकों को मिल नहीं रहा है। गरीब भूख से मौत को गले लगा रहा है और सरकारें अनाज को सड़ाने में लगी हैं। क्या हालात हैं देश के, शायद सोचनी ही कहें जाएंगे। मगर इतना तो तय है कि अगर जल्द कुछ क्रांतिकारी कदम नहीं उठाया गया तो फिर हमारी बर्बादी के जिम्मेदार हम स्वयं ही होंगे। तब विदेशियों से खाद्यान लेना पड़ेगा, उस स्थिति में हमारा पैसा विदेश जाएगा और हम कर्ज के बोझ तले दब जाएंगे। वाह...कहीं ऐसा भी देखा है या सुना है कि बर्बाद होने के लिए कोई और नहीं, बल्कि हम ही जिम्मेदार होंगे। खैर यह तो आई गई बात हो सकती है, पर देश को भूखा मरने से बचा लो।

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