Sunday, July 18, 2010
आंखें भर आईं
वह मासूम सा चेहरा, जिसमें ईश्वर की पाकीजगी थी, वह जो सदा खिलखिलाता था। चिड़ियों के पंख लगाकर सदा आसमान की ओर उड़ना चाहता था। हर किसी को खुशी बांटती चलती थी वह। वह ओस की बूंद की तरह थी, लेकिन उसका हौसला आसमान की तरह विराट था। सृजन उसका कार्य था, चेहरा देखते ही लोग गमों को भुला देते थे, लोग उसके कायल थे। हर कोई उससे प्यार करता था, बेटी जो थी वह। जमाने की करवट न तो 20 वीं सदी की थी और न ही 21वीं सदी की। यह युग था 25वीं सदी का। यहां उसका सम्मान किया जा रहा था। न तो उसे गर्भ में मारने की कोशिश की गई और न ही स्कूल जाने से रोका गया। बचपन में उसके कंधों पर दूसरे भाई को खिलाने का बोझ भी डाला नहीं गया। वह उसकी मर्जी से उन्मुक्त गगन की सैर कर सकती थी, भाई की तरह खेल सकती थी, न उसे मां का डर था और न ही उसे पापा का खौफ। बड़ी होकर जब वह ससुराल जाएगी तो उसे दूसरों के घर जाकर चूल्हा-चौका करना होगा, जी नहीं! इसलिए उसे काम करने और खाना बनाने की भी कोई चिंता नहीं थी। वह तो खूब पढ़ रही थी, हर कोई उसे फरिश्ता और देवी का अवतार मानने लगा था। पुरुष से लेकर परिवार कोई भी पग-पग पर चुनौती बनकर नहीं खड़ा था। यहां न तो उसके साथ कभी कोई छेड़छाड़ करता और न ही उसे डराने या धमकाने की कोशिश करता। परंपराओं की बेड़ियां कभी उसकी राह का रोड़ा नहीं बनी, कभी उसे लड़की होने का दु:ख नहीं दिया गया, बल्कि उसे इस बात का गर्व दिलाया गया कि तुम नारी हो, शक्ति हो, किसी की बेटी हो, किसी की बहू बनोगी, किसी की पत्नी बनोगी और किसी की मां बनोगी। संसार तुम्हारे सृजन से ही आगे बढ़ेगा और तुम ही इस धरा की देवी हो। वाह वह बेटी भी कितनी खुश थी जो अपनी दादी से हमेशा सुनती थी कि उनके समय में औरतों पर कितने जुल्म होते थे, वहां बेचारी वह जिंदा पूरी जिंदगी अगर जी जाएं तो ही आश्चर्य होता था। आज हालात और परिस्थितियां दोनों अनुकूल नहीं है, इसके बावजूद सब लोग जी रहे हैं, मगर स्त्रियों के रूप में यह पूरी तरह हाल बदल गए हंै, अब उनके पैदा होने पर न तो परिवार को दु:ख होता है और न ही उस बेटी को। आज वह बेटी 25 साल की हो गई है और उसने अपने लिए एक योग्य जीवनसाथी भी चुना है, वह उसके साथ अपनी जिंदगी के ख्वाब सजाए बैठी है, अब न तो दहेज का कोई रोड़ा होगा और न ही कोई सामाजिक बेड़िया होंगी। उसकी शादी हो चुकी है, और वह भी मां का सुख पाना चाहती है, लेकिन उसकी पहली ख्वाहिश एक बेटा न होकर बेटी की मां बनना है, क्योंकि वह स्वच्छंदता की वह उड़ान देख चुकी थी, जो उसने स्वयं उड़ी थी। हालात बदल गए थे, अब यहां बेटियां ईश्वर का वरदान माने जाने लगा था। सब कुछ अच्छा था। मगर रुकिए... यह एक महज कोरी कल्पना है, जो अभी पूरी होती नजर नहीं आती, यह 21वीं सदी है, यहां बेटियों का हाल आज भी वही पुराना है, वह परेशान है, वह बेबस है, वह लाचार है, क्या कभी उसके हालात बदल पाएंगे। हर कदम पर मिलने वाली चुनौती कभी समाप्त हो पाएगी। शायद वह कल्पना ख्वाब ही बनकर रहेगी, क्योंकि इसके लिए कोई भी ठोस जमीन तैयार नहीं दिखाई दे रही है, हर तरफ उसके लिए दलदल ही दलदल है और इस स्थिति से निपटने में उसे हम अक्षम कर दे देते हैं, इस परेशानी से कैसे निजात् मिलेगी, शायद कोई नहीं जानता है। हम क्यों नहीं उबर पा रहे हैं अपनी उसी ढकियानूसी मानसिकता से, जो सदियों पहले से चली आ रही है, उसमें ही हम अपनी आगे की जिंदगी को बिताना चाहते हैं, यह समस्या है हमारी, यह हमारी लाचारी है और अगर उस बेटी को आज देखा जाए तो आंखें भर आती हैं, क्योंकि उसके इन हालातों के जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम हैं।
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shandaar bhai chhaa gaye .........
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