Sunday, April 11, 2010
...तो क्यों मौत स्वीकारते हैं
ईश्वर की सबसे खूबसूरत कृति है मानव, आखिर इस सत्य से हम हमेशा से ज्ञात रहे हैं। हमने स्वयं की जिंदगी पर हमेशा गर्व करना सीखा है, दूसरों ने भी हमें आशावान बनने की सलाह दी है, हर तरफ खुशियों भरा संसार है, फिर दु:ख की ऐसी कौन सी आग होती है, जिसमें हम जीवन को जिंदा जलाने के लिए तत्पर हो जाते हैं। आखिर वह कौन सी मजबूरी हो जाती है, जो इंसान को खुद का कातिल बनाने से भी नहीं हिचकिचाती। अगर मनोस्थिति पर गौर करें तो पहली नजर में सिर्फ यही सवाल गूंजता है कि अपनी जान के दुश्मन केवल वे ही लोग होते हैं जो या तो सनकी हो या फिर दिमाग से थोड़े फिरे। जिन्हें जिंदगी से कोई प्यार नहीं, लेकिन मन तो तब क्षुब्ध हो जाता है, जब समाज के वे लोग जो समझदारों की श्रेणी में आते हैं, वो अपनी जिंदगी की ज्योत को जलने नहीं देते। आखिर समाज का यह कौन सा रूप है, जिस पर हम विजय नहीं कर पा रहे हैं। जिंदगी को यूं ही जाया किया जा रहा है, लोगों की मानसिक स्थिति इतनी दुर्बल हो गई है कि वे जरा सी बात पर जिंदगी गंवाने से भी नहीं हिचकिचाते हैं। एक समय खबरें आती थी कि पूरे परिवार ने एक साथ आत्महत्या की, तब उनकी मजबूरी यह होती थी कि वो जीवन जीने में असमर्थ थे। वे इतने गरीब थे कि जीवन समाप्त करना ही उनका छुटकारा था, मगर जब यह बीमारी उस वर्ग तक आ गई, जिसके पास दौलत भी है और शौहरत भी है, तो वह क्यों मौत को गले लगा लेती हैं। यह सवाल पुलिस से लेकर परिजन और डॉक्टरों के सामने एक चुनौती बनकर खड़ा हुआ है और वे इससे बचने के कोई व्यापक रिजल्ट नहीं निकाल पा रहे हैं। यहां मकसद यह नहीं है कि कितने लोगों ने फांसी लगाई या फिर आत्महत्या की, बल्कि उद्देश्य यह है कि जीवन के इस अनमोल मोती को यूं ही क्यों फेंका जा रहा है। जब कुदरत ने इतनी प्यारी जिंदगी दी है तो उसे हंसते हुए क्यों न गुजारी जाए। यह माना कि हर किसी की जिंदगी में जहां खुशियां हैं तो गम भी साए की तरह मौजूद रहते हैं, तो फिर जब खुशियों को हम हंसते हुए स्वीकारते हैं तो आखिर गमों को क्यों गले नहीं लगाते। यह भी तो प्रकृति के जीवन का एक हिस्सा है। जरा आंख बंद कर एक बार उस नजरिए से इस संसार को देखने की कोशिश तो करो, दुनिया हसीन बन जाएगी। फिर न तो कोई मुश्किल आएगी और न ही कोई परेशानी। तब आपको जिंदगी से प्यार हो जाएगा और दूसरों को भी प्यार करना सिखा देंगे। यह जीवन जीने का ढंग होना चाहिए। समाज को एक सकारात्मक ऊर्जा की आवश्यकता है, जिसमें हर कोई इस जीवन को बेहतरी के साथ जिए। तो क्यों न आज हम एक बार इस जिंदगी को कुदरत का तोहफा मानकर उसे अलग दिशा देनी चाहिए। समाज के सामने आई इस सबसे बड़ी बीमारी को जल्द से जल्द दूर करने के लिए सामूहिक रूप से प्रयास किए जाने चाहिए। साथ ही यहां परिवार की भूमिका सबसे अधिक और महत्वपूर्ण है, सामूहिक और संयुक्त परिवार को आपसी संवेदना का ताना-बाना कुछ इस तरह से बुनना होगा कि संबंधों का सुरक्षा कवच जीवन लीला समाप्ति के विचार को कभी जीतने न दे।
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