Monday, December 27, 2010

मौत की ‘गुजारिश’


गुजारिश देखने से पहले तक मैं आत्महत्या या इच्छामृत्यु को बहुत ही बकवास या कहें कि कमजोर लोगों का हथियार समझता था। शायद आज भी समझता हूं, लेकिन अब थोड़ा सा फर्क आ गया है। इस महीन अंतर को कैसे दूर करें, यह तो साफ है, लेकिन सवाल यह भी है कि क्या मौत की गुजारिश सार्थक चीज है या फिर यह भी पाप की श्रेणी में ही आता है। जिस तरह फिल्म ‘क्योंकि’ में हमने देखा सलमान की तकलीफ जेकी से सहन नहीं होती है, इसलिए वह उसे मार देता है। इस सब्जेक्ट पर कई फिल्में बनी हैं। हाल में बनी ‘गुजारिश’ ने मौत की इस गुजारिश पर एक नई बहस छेड़ दी है। क्या तकलीफ में रह रहे लोगों को इच्छामृत्यु दे देनी चाहिए, या फिर यह कत्ल की श्रेणी में आता है। यह कानून तो अभी तक तय नहीं कर पाया है, और न ही कोई डॉक्टर अपने मरीज के साथ भी ऐसा करने की हिम्मत रखता है। मगर इसका सॉल्यूशन क्या? हमारे धर्मों की बात की जाए तो यहां पर लिखा है कि जो भी तकलीफ में हो, उसकी मदद की जानी चाहिए। मदद की सीमारेखा भी है क्या? अगर कोई मरीज इतनी तकलीफ में है कि उससे जीवन जीते ही नहीं बन रहा है तो फिर क्या उसे यूथेनेशिया दे देना चाहिए। कानून इसकी आज्ञा नहीं देता है। अब उन लोगों को क्या ऐसे ही तकलीफ में डाल दिया जाए, जो एक बार मरने की बजाय पल-पल मरते हैं। उन्हें यूं ही तड़पने के लिए छोड़ दिया जाए। मानवता तो यह करने नहीं देती, लेकिन मानवता की बात की जाए तो वह इसकी इजाजत भी नहीं देती है कि उसे मौत दी जाए। तो फिर इस समस्या का हल क्या? फिल्म गुजारिश में बहुत ही बेहतर तरीके से इस बहस को छेड़ा गया है, जिसमें सफल नायक बाद में इच्छामृत्यु मांगता है, लेकिन कानून उसकी मदद नहीं करता। हालांकि नायिका ने यह साहस भरा कार्य जरूर यिका है, अपने ही सुहाग को उजाड़ा उसने, लेकिन उसे इसका मलाल नहीं रहता है, क्योंकि वह उसके चौदह साल की तड़प को मिटाती है। उसे मुक्ति देती है। यह भी तो नेक काम है। सवाल जीने मरने का नहीं है, इच्छामृत्यु को शामिल किया जाना चाहिए, क्योंकि बीमारी या हादसे पर किसी का वश नहीं होता है। जब डॉक्टर भी लाचार हो जाते हैं तो मरीज के पास सिवाय तड़पने और कराहने के और कुछ नहीं बचता। उस समय उसके जीवन में सिफ अंधेरा ही अंधेरा रहता है। उसे न तो कोई रोशनी दे सकता है, और न ही कोई चमत्कार जैसी चीज होती है। जीवन उसका बच भी जाए तो वह किसी काम का नहीं होता है, क्योंकि वह पूरी तरह से अपंग या नाकाबिल हो चुका होता है। ऐसे में अगर इस दर्द को कम करने के लिए वह इच्छा जताए तो उसकी इस मंशा या गुजारिश पर विचार जरूर किया जाना चाहिए। सालों तड़पने की बजाय वह सिर्फ कुछ घंटे ही तड़पे और फिर उसे इस मोहजाल और मृत्युजाल से छुटकारा मिल जाए। उस मरीज के लिए भी कितना सुखद छण रहेगा, क्योंकि उसे जीवनमुक्ति मिल जाएगी। इस चक्रव्यूह का हल अभी निकलता नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन समाज के सामने यह नई बहस पर हर कोई मंथन कर रहा है और आखिर निर्णय क्या हो ? इस बहस में शामिल हो गए हैं। निश्चय ही इस पर बहस होनी चाहिए, और इसके परिणाम तक भी आना जरूरी है, क्योंकि किसी के कष्टों का निवारण होगा तो एक तरह से यह समाजसेवा ही तो हुई, लेकिन इस ‘गुजारिश’ को अभी कई पेंच हैं।

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