Sunday, June 13, 2010

चहारदीवारी में तो ठीक...बाहर आई तो बेहया



मेरे देश के भी क्या कहने हैं, इसकी तारीफ में जितने भी कसीदे पढ़े जाएं, उतने ही कम... मैं यहां तारीफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि उलाहना सुना रहा हूं। क्योंकि आज देश 21वीं सदी में जीने का सपना नहीं बल्कि उसमें मर मिट रहा था। वाह! रे मेरे देश...जहां औरतों को हम आधी आबादी मानते हैं, उन्हें अर्धांगिनी का दर्जा देते हैं, लेकिन बात आती है अधिकार देने की तो हमारे कदम पीछे ही हटते हैं, हम उन्हें दबाकर रखते हैं, उसे चहारदीवारी के अंदर की मानते हैं और कभी जब वह चहारदीवारी को तोड़कर कुछ आगे बढ़ने, खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करती है, तो हम उसके पांव की बेड़ियां बन जाते हैं, तब भी अगर वह उन्हें तोड़कर आगे आती है, तब हम उसे बेहया और बिगड़ी की श्रेणी में डाल देते हैं। अगर बुलंदी पर पहुंची गिनी चुनी महिलाओं को छोड़ दें तो सबके प्रति समाज में नजरिया क्या है, इससे हम पूरी तरह से वाकिफ हैं। हम सामने तो उनके उद्धार करने की बात करते हैं, लेकिन जब मौका आता है तो उनके दमन में हमारा ही हाथ सबसे आगे? आखिर क्यों? क्यों हम उसके बाहर निकलने पर मर्यादाविहिन करार दे देते हैं। कहावतें भी ऐसी गढ़ दी जाती है, नारी का चरित्र कोई नहीं समझ सकता? अरे भाई आपके चरित्र की क्या गारंटी है, हर महिला जो बंधन तोड़कर आती है, समाज में कुछ मुकाम बनाने के लिए कार्य करती है तो उसके जज्बे को तोड़ दिया जाता है। उसे निस्तेनाबूद करने की पूरी कोशिश की जाती है, और यह कोई एक व्यक्ति नहीं करता है, बल्कि हर वो मर्द करता है, जो उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा है। क्यों उनके सपनों को हम आसमान में पंखों के सहारे उड़ने नहीं देते? क्यों हम उन्हें सिर्फ चूल्हा-चौका में छौंकने के लिए ही समझते हैं, जब परमात्मा ने मानव को सबसे सुंदर कृति का दर्जा दे ही रखा है तो नारी उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है, और इस तथ्य को हम कभी अस्वीकार नहीं कर सकते हैं, मगर स्थिति बिलकुल विपरीत है, यहां तो हम उसके दमन में ही जुटे रहते हैं, आखिर क्यों, क्यों हम उसका शोषण करते हैं, वह भी तो सर्वसंपन्न है, जो भगवान ने हमें दिया है, आखिर उतना अधिकार तो उसे भी दिया है, फिर भी हम उसे परंपराओं की बेड़ियों में हम इतना जकड़ देते हैं कि उसकी जिंदगी सिसकती और तड़पती ही रहती है, इसमें तो हमारा ही दोष है। यहां देखा जाए तो हम दोहरी नीति के साथ जी रहे हैं, बातें तो सकारात्मक की जाती हैं, अमली जामा पहनाने की बारी आती है, तो बातों का बांध कहां धराशायी होकर उस समुंदर में बह जाता है कोई नहीं जानता है, तब सिर्फ समुंदर ही समुंदर दिखाई देता है। हम पूजा करते हैं नारी की, मां शक्ति, मां दुर्गा के आगे सिर झुकाते हैं, लेकिन यह सिर्फ मंदिरों तक, उसके बाद निकलते ही हम उस स्त्री को जलील करने का एक मौका भी नहीं छोड़ते हैं। कभी विचार किया है कि आखिर हमारे समाज में मंदिरों में मां का निर्माण क्यों हुआ है, इसके लिए भले ही इतिहास और पौराणिक के कई तर्क दिए जाएं, लेकिन वास्तव में इसका अर्थ यह है कि नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है और इसका सम्मान करना ही ईश्वर का सम्मान है, लेकिन हम तो उसे भोग के अलावा कुछ नहीं मानते , वह भोग भी अपनी शर्तों पर। कभी उसे भी तो उड़ने का मौका दो, समाज बुरा है, लेकिन अपनी सोच में थोड़ा फर्क लाकर तो देखो, ये बेटियां भी कल वह कर दिखाएंगी, जो आज असंभव है, और उस समय आपका सीना और सिर दोनों फक्र से दोहरे तन जाएंगे। पहला तो यह कि उसने अपनी मंजिल पाई है, दूसरी यह कि आपने उस ओस की बूंद को यूं ही जाया होने नहीं दी, उसे सुरक्षित रखा और आज वह कामयाबी की ऐसी रोशनी बिखरा रही है, जिसके आगे देखने में आंखें चुंधिया रही हैं।

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