Tuesday, June 8, 2010
ये कैसा इंसाफ?
हजारों की जान...दो साल में अदा में कर दी गई है, भोपाल गैस त्रासदी की उस भयानक रात और उसमें गई हजारों लोगों की जान का मोल महज दो साल और कुछ लाख रुपए लगाए गए हैं। वाह क्या इंसाफ है मेरे देश का। एक कहावत है जस्टिस डिले, जस्टिस डिनाय? यहां तो उसका गला ही घोंट के रख दिया गया है। न्याय का दम निकाल दिया गया है। 25 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन इससे पीड़ित आज भी मर मर के जिंदगी जी रहे हैं। उसे एमआईसी का दर्द आज भी उनके अंदर सिसकता है, उनकी रुह में सिहरन पैदा कर देता है। उस रात के बाद वह सुबह जब चारों तरफ लाशें ही लाशें नजर आ रही थीं। मंजर इतना खौफनाक और ह्दय विदारक था कि इंसान उसे देखकर ही दम तोड़ दे। जो जिस अवस्था में था उसी अवस्था में उसने दम तोड़ दिया था। 25 साल पहले हजारों लोगों का दम उसे गैस ने घोंटा था, आज न्याय ने एक बार फिर इंसाफ का गला दोबारा घोंट दिया। आखिर उन लोगोें की क्या गलती थी, उन भोपालवासियों की, या उस उड़िया बस्ती में रहने वाले लोगों की, या उस दिलीप की और पद्मिनी की, जिसकी उसी दिन शादी थी। उन्हें तो कोई फायदा नहीं हो रहा था उस यूनियन कार्बाइड से। जो लोग सोने के अंडे देने वाली इस मुर्गी को पाल रहे थे, क्या वो इसके खतरे से अनजान थे, बिलकुल नहीं, बल्कि यह पूरा हादसा लापरवाही के कारण हुआ था। जैसा की जेपियर मारो ने अपनी किताब में उस विदारक घटनाओं को बताया है, उससे तो लगता है कि इसके दोषियों को फांसी भी दे दी जाए तो कम है, लेकिन जेपियर मारो का अलग नजरिया और भावुकता हो सकती है। यहां तो सच्चाई है , जिसका दम घोंटा गया है। उस भयानक मंजर को यूं ही भुला दिया गया है। जो लोग उससे प्रभावित हुए थे, उनके बच्चे आज तक अपंग पैदा हो रहे हैं, गैस का प्रभाव उनकी पीढ़ियों के ऊपर आ गया है, शरीर में इतने रोग हो गए हैं कि जिंदगी सिसकते और रगड़ती मौत को मांग रही है, लेकिन मौत है कि आंख-मिचौली खेलने में जुटी हुई है। तो इसका दोषी कौन है, जाहिर है वही लोग, जिन्होंने इस शैतान की रचना की थी, वह भी चंद रुपयों के लिए। यहां सवाल यह है कि आखिर उस भयानक मंजर के लिए दोषियों को इतनी आसानी से कैसे छोड़ दिया गया। आखिर उनकी भूल भूलवश तो नहीं थी। एक साल पहले से ही पैसे बचाने के लालच में कंपनी में सुरक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखा दिया गया था। उस पर पूरी तरह से लापरवाही बरती जा रही थी, मगर परवाह किसी को नहीं थी। वो तीन टैंक, जिनमें जिंदा मौत दफन थी , उसे यूं ही हलके से लिया जा रहा था, आखिर टैंक साफ करने थे तो इतनी लापरवाही क्यों बरती। हालांकि उसमें भी कइयों की जान गई, लेकिन दोषी कोई नहीं मरा, जो इसका जनक था वह तो भारत के हाथ ही नहीं आया। वहीं इस पर राजनीति अभी तक खेली जा रही है। हर बार चुनाव में इसे मुद्दा बनाकर भोली-भाली जनता को बहलाया जाता है। उसके साथ यूं ही छलावा किया जाता है। अब फैसले के बाद लोगों ने जिस तरह से सीना पीट कर अपने आंसू बहाए, वह उनका 25 साल पुराना दर्द बता रहा था, जिसे वो अपनी आंखों में छिपाए बैठे थे। अब तो उनसे भी नहीं रहा गया, क्योंकि सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। इतना लंबा बनवास...उसके बाद भी न्याय नहीं मिला। आखिर दोषी तो अर्जुन सिंह भी थे, जो इस मौत के कारखाने से पूरी तरह से वाकिफ थे, बावजूद वे इन सबको भुला बैठे थे। आखिर इन सब चीजों में दोष किसका है। यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां न्याय नहीं मिलता, बल्कि यहां गरीब हमेशा पिसता है, और पैसा हमेशा उस पर राज करता है । तो यहां का हिसाब यह है कि यहां अगर पैसा है तो जीने का अधिकार है, अन्यथा जिंदगी जहन्नुम है, और न तो कानून आपको न्याय दे पाएगा और न ही यह सरकार। इस जहरीले सफर का जहरीला इंसाफ देखकर तो लगता है कि आखिर इस देश की न्यायव्यवस्था सिर्फ अमीरों के लिए ही है।
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