Tuesday, March 30, 2010

... तो क्यों चाटता है गंदगी


अगर दुनिया में मजबूरियां न हो तो जीवन कितना सुखी हो जाएगा। फिर न तो कोई परेषानी आएगी और न ही कोई दुख। हर कोई हर चीज से तृप्त। हर कोई बराबरी की समतल की जमीन पर खड़ा होकर या तो आकाष की ओर निहार रहा होगा या फिर षिखर पर एक साथ बैठ कर गहराई पर चटखारे उड़ा रहा होगा। दोनों चीजें तभी संभव होती, जब मजबूरियां न होती। मगर दुुनिया बनाने वाले के मन में क्या समाया और उसने मजबूरियां बना दी। हालातों के टूटे लोग न जाने क्या क्या करने के लिए आज तैयार हैं। कोई इन मजबूरियांे के चक्कर में कातिल बन गया तो कोई वैष्या और कोई उनका दलाल।
यहां प्रष्न उठता है कि आखिर उन महिलाओं को क्या आवष्यकता हेाती है जो अपना जिस्म बेचकर वैष्यावृत्ति करती हैं, तो इस सवाल का जवाब किसी भी तरह से पेचीदा नहीं है, क्योंकि यहां हालात और समय इतना बेबस कर देता है कि उसे यह कयामत भरा कदम उठाना ही पड़ता है। कोई अपनी मर्जी से अपने जिस्म को भेड़ियों से नुचवाता नहीं है, यह तो मजबूरी ही रहती है कि किसी ऐसे जालिमों को अपना खूबसूरत जिस्म दे दिया जाता है जो जानवर से भी बद्तर तरह से उसे नोंचते हैं। कुछ इसी तरह से चलता है यह पूरा कार्य। उन महिलाओं को हालांकि वैष्या की संज्ञा जरूर दे दी जाती है, लेकिन वो तो अपना पेट पालने के लिए यह कार्य करती है और वे किसी को बुलाती तो नहीं है, इसलिए समाज को कलंकित और बिगाड़ने की जिम्मेदारी हमेषा उन पर ही क्यों लाद दी जाती है। वो तो इस समाज में एक तरह से उन अपराधियों को जुर्म करने से बचाती हैं, जो हवस की अंधी आग में न जाने कितनी मासुमों को मौत के घाट तक उतार देते हैं। इसलिए इन्हें तो समाज सेवकों से भी उूपर की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। समाज में इन लोगों का आना पूरी तरह से प्रतिबंधिति है, इन्हें वैष्याओं की संज्ञा दी जाती है, मगर इनके पास जो मर्द जाते हैं, उन्हें क्या कहेंगे। बल्कि ये तो भलाई ही करती हैं। हालांकि यहां इनकी मजबूरी रहती है, पर जो हवस मिटाने जाते हैं, उनकी तो कोई मजबूरी नहीं होती है। इन्हें पेट के लिए अपने ष्षरीर के टुकड़े करवाने पड़ते हैं, तो भला इस कलियुग में इनसे महान कौन हो सकता है, जो अपना पेट पालने के लिए दूसरों को खुषी देती हैं। यही इनका जीवन है, जिसे समाज गंदगी कहता है, मगर इसी गंदगी को वही चाटता भी है।

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