Monday, December 14, 2009

वतन में आने के जतन

अगर पेड़ से उसकी जड़ों को काट दिया जाएगा, तो न तो ज्यादा दिनों तक पेड़ जीवित रह पाएगा और न ही जड़े अपना अस्तित्व रख पाएंगी। दोनों एक दूसरे के लिए कड़ी का काम करती हैं। इसलिए इन्हें दूर नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार मां से बिछुड़ कर उसका बेटा, भाई से भाई। हर जगह खून तो उबाल लेता ही है। और वह अपने को देखकर तड़प भी उठता है। यहां न तो कोई बाजार होता है और न ही कोई बनावटीपन। सब एक वृक्ष की जड़ों की तरह जमीन के भीतर जुड़े हुए रहते हैं। इसी प्रकार वतन से दूर हुए लोग कुछ आपसी जरूरतों के चलते दूर तो हो जाते हैं, लेकिन अपने दिल को यहीं छोड़ देते हैं जो रह रहकर उसे भारत की याद दिलाता रहता है। देष-विदेष में भारत के ढाई करोड़ लोग रहते हैं, लेकिन इनके सीने में कहीं न कहीं भारतीय जज्बात उमड़ते हैं, दिलों में धड़कन भी भारतीय रहती है। हालांकि आपाधापी में ये स्वयं को भूल जाते हैं, लेकिन जब भी अकेले में स्वयं को खोजने की कोषिष करते हैं, इन्हें इनका अस्तित्व भारत से ही जुड़ा मिलता है। यह प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। व आसमान की बुलंदी पर भी पहुंच जाए, या भारत से सैकड़ों मिल दूर सात समुंदर पार हो, जब भी उसका मन उदास होता है, उसे अपना वतन ही याद आता है। वतन की चमक न तन से जाती है और न ही मन से। आज भले ही हम अपनों से दूर चले आए हों अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए, लेकिन जब भी सिसकन उठती है, उसी भारत की ही उठती है। यहां का हर पल, हर मौसम और त्योहार हमारे दिलों में सैकड़ों गुबार उठाता है। मन करता है कहीं से कोई ष्षक्ति मिल जाए और भारत होकर आ जाउूं। यह कोई एक नहीं, बल्कि हर हिंदुस्तानी दिल कहता है।
तो जब ये दिल हिंदुस्तानी है और हिंदुस्तान के लिए, अपनों के लिए तड़पता है तो हम क्यों उसे छोड़कर चले जाते हैं। इसके पीछे ज्यादा गहराई नहीं है, लेकिन कई बार हमारे हालात हमें मजबूर कर देते हैं कि हम बाहर जाकर कुछ करें, हमारी जिंदगी जहन्नुम बनी रहती है, उससे निजात पाने के लिए इस तरह के कदम उठाए जाते हैं। सैकड़ों लोग हालात के मारे और वक्त के हारे रहते हैं जो दूर देष जाने का कदम उठाते हैं। जो मर्जी से जाते हैं उनका तो ठीक, लेकिन जिन्हें हालातों के चलते अपने मुल्क से अलविदा कहना होता है, निष्चय ही वो बहुत ही दुःखद होता है। उनके जिस्म एक मुल्क में जान दूसरे मुल्क में रहते हैं। विभाजन के दर्द को देखें तो ऐसे कई परिवार मिल जाएंगे, जिन्हें कब्र नसीब हो गई, लेकिन परिवार से मिलने का मौका नहीं मिल सका। इस दर्द को वो भगवान और अल्लाह के पास लेकर चले गए। कई बार तो हालात यहां तक हो गए कि उनकी अर्थी को कांधा किसी बाहर वाले ने दिया और कब्र को किसी और ने दफनाया। यह है विभाजन का दर्द, अपनों से बिछड़ने का गम। विभाजन की यह त्रासदी और और मर्जी से दूर जाने में दर्द में भले ही अंतर आ जाता है, लेकिन वतन में आने और यहां रहने की तड़प में हर दिल मचलता है। तो हम क्यों अपने दिल की क्यों नहीं सुनते हैं, तोड़ सारे बंधन, छोड़ दो सारे माया-मोह। और आ जाओ अपनी जमीं पर, अपने वतन पर। क्योंकि यह देष हमारा है और यहां की माटी हमें कर्ज उतारने के लिए पुकार रही है।

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