Thursday, December 17, 2009

नया साल, बुरा हाल


दिसंबर की ष्षुरुआत से ही नए साल का इंतजार हो रहा है। लोगों ने अपने प्लान बना लिए हैं। कइयों ने इंजाॅयमेंट के तरीके देख लिए हैं तो कई इसे बनाने में अब भी जुटे हैं। कुछ ने नए संकल्प भी ले लिए हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए बड़ी ही षिद्दत के साथ भिड़ भी गए हैं। मगर नए साल का बुरा हाल अभी से नजर आ रहा है। देष में अब भी सारी परेषानियां बीमारियों के रूप में नजर आ रही हैं। हर कोई लूट-घसूट में लगा है। कहीं रिष्तों को ताक पर रखा जा रहा है तो कहीं इन्हें तार-तार किया जा रहा है। दुष्मन के साथ दोस्त भी दगाबाज हो गए हैं। भ्रष्टाचार की श्रंखलाएं चालू हो गई हैं। विकास की लीलाएं दिखाई जा रही हैं, मगर कृत्य अपराधियों के हो रहे हैं। हर तरफ वादों पर वार किए जा रहे हंै। देष की स्थिति उस मछली की तरह हो गई है, जिसका ताल जहरीला हो गया है। अब अगर अंदर रहती है तो जहर वाला पानी उसकी जान ले लेगा और बाहर निकलने की कोषिष करती है तो अपने आप मौत अपने आगोष में ले लेगी। देष अपराध की चादर में लिपटा हुआ है, अपराधियों से जगह और जमीन पटी पड़ी है। झूठ का साया हर जगह विद्यमान है। गैरत मर गई है, सचाई को कहीं दफना दिया गया है। इंसानियत का गला घोंट दिया गया है। दुर्दषा दुर्दांत हो गई है, विकास की वैतरणी तो भंवर में फंसी हुई है, जिसे कोई सहारा पार नहीं लगा सकता है। हर तरफ ज्वालामुखी और आतंक फैल गया है, न तो कोई आदर्ष है और न ही कोई सिद्धांत। अफसरषाही पूरी तरह से अपने पैर जमा चुकी है, जो लोगों पर मठ्ठई का हथौड़ा चला रही है। आतंक ने अपनी जड़े काफी अंदर तक मजबूत कर ली है। अमेरिका ने जिस तरह से अपने आतंक पर काबू पा लिया है, हम आज तक उस दर्द से कराह रहे हैं। इसके नाम पर लाखों रुपए बर्बाद किए जा रहे हैं, न तो कोई प्लान है इसके लिए और न ही नीति। सरकार भी बड़ी-बड़ी बैठकें कर लोगोें को फुसला लेती है। विपक्ष को टरका देती है और विरोधियों को बहला देती है। समस्या वहीं की वहीं और क्या पता साल के पहले दिन ही यह अपना स्वरूप या कहें कि रौद्र रूप दिखा दे। जिसका हमारे पास कोई जवाब नहीं होगा। सिवाय सरकारी जवाब कि हम कार्रवाई कर रहे हैं, जांच हो रही है, जो भी दोषी होगा, उसे बख्षा नहीं जाएगा। आखिर कब तक यह रवैया चलेगा। बहुत कुछ होता है तो हमारी लाचारी और व्यवस्था की कमजोरी को पाकिस्तान के सिर मढ़ दिया जाता है। पूरे आरोप उस पर चले जाते हैं। देष की जनता कोे उसके विरुद्ध आतंकित और इतना भड़का दिया जाता है कि देष का बच्चा भी पाक को मारने के लिए बंदूक ताने खड़ा रहता है। हम क्या कर रहे हैं। माना की पाक इस तरह की करतूतों को अंजाम देता है, लेकिन उन्हंे रोकने के लिए हमारे जो प्रयास हो रहे हैं वो कहां हैं। आखिर जिस सुरक्षा व्यवस्था पर हम लाखों, करोड़ों रुपए बर्बाद कर रहे हैं, उसमें पाकिस्तान हर बार सेंध लगा देता है। यह पाकिस्तान का दुसाहस नहीं उसकी ताकत का पैगाम है, जिसके आगे हम लोग नतमस्तक हैं। एक अरब की आबादी से अधिक हैं, हम। ऐसे में क्या हमारी सुरक्षा उन मुट्ठीभर लोगों के हाथों में हैं जो हमेषा छिपते फिरते हैं। जिनके पास न तो रहने के ठिकाने हैं और न ही ठीक से खाने को। ये हमेषा गुफाओं में घुसे रहते हैं, ऐसे लोग हमारी सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करते हैं तो यह हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। साथ ही षर्म की बात यह है कि हमारी इतनी बड़ी सुरक्षा व्यवस्था इन चंद लोगों के सामने भीख मांगते नजर आती है। आखिर क्या कारण हैं कि हम इनके आगे लाचार हैं। वहीं सुरक्षा की अगली कड़ी पर आए तो हमने इतना भ्रष्टाचार का कीचड़ जमा कर लिया है कि वह अब हमारी ही जिंदगी लीलने में लग गया है। वहीं नक्सलवाद की समस्या ने सिर उठा लिया है, इसके बावजूद हम षांत अवस्था में हैं, क्योंकि जिनके हाथों में व्यवस्था है उन्हें न तो कोई परेषानी हो रही है और न ही नक्सलवाद उनके सामने मौत बनकर खड़ा है। इसलिए इसके सुधार का बीड़ा नहीं उठाया जा रहा है। जिस दिन यह सामने से आकर किसी वीआईपी और वीवीआई के घर में दस्तक देगा, तब जाकर इस पर गहन विचार किया जाएगा। क्षेत्रियता का फन फुफकार मार रहा है, लेकिन हमारा ध्यान सिर्फ सत्ता के गठजोड़ और उसका गणित बिठाने में लगा है। तो इसके लिए किसे दोष दिया जाए। ये तो हैं मुख्य समस्याएं, जिनसे हमें सीधे काल मिलता है। ये समस्याएं तो जानलेवा हैं, लेकिन सेकंडरी समस्याएं भी हमारे देष में इतनी हेैं, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। तो उन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है, कोई नहीं जानता है। जिस तरह से भुखमरी, गरीबी, कैंसर, एड््स, ह्दयरोग, निरक्षरता, अपराध। ऐसी सैकड़ों समस्याएं हैं। इन पर कैसे अंकुष लग सकता है। और अगर इतनी समस्याआंे से ग्रसित है यह देष तो विकास की सरपट दौड़ कैसे दौड़ सकता है, क्योंकि यहां तो उसे चलने में ही मवाद बह रहा है, दौड़ने में तो जान निकल जाएगी। जब तक इन पर काबू नहीं पा पाएंगे, हम न तो सुरक्षित हो पाएंगे और न ही विकसित। यही ढर्रा चलता जाएगा। सरकारें बदलेंगी, लोग बदलेंगे, लेकिन व्यवस्थाएं यहीं रहेंगी। हर कोई अपना हित साधकर यहां से निकल जाएगा। देष उसी हाल में कराहता रहेगा और एक दिन तड़प-तड़पकर जान दे देगा।

No comments:

Post a Comment