Wednesday, January 20, 2010

क्या तुम मराठी हो?


हां, अगर तुम मराठी हो, तो ठीक है और अगर मराठी नहीं हो तो आपको न तो महाराष्ट में खाने का हक है न रहने का और न ही नौकरी करने का। यहां सिर्फ मराठी ही रह सकते हैं।काम कर सकते हैं। सारे सुख और सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर तुम्हें यहां रहना है तो गुलामों की तरह रहना होगा। हमारी सुनना होगी। इन ष्षर्तों को मानने के बावजूद जब हमारी इच्छा होगी, तुम्हें यहां से मारकर हम भगा देंगे और तुम हमसे पलटकर एक सवाल भी नहीं करोगे। यह है देष की हकीकत। जहां एक ओर हम विदेषों में नस्लवाद की बातें कर घंटों बरबाद कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे देष में ही क्षेत्रवाद का सांप फन फैलाए बैठा है और हम उसे ही मारने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। आॅस्टेलिया में हमारे छात्रों पर जब हमले होते हैं तो हमें बड़ी जल्द क्रोध आ जाता है। ऐसा लगता है कि सरकार हमारी नपुंसक बन गई है। हम असहाय हैं आखिर आस्टेलिया की हिम्मत कैसे हुई, हमारे बच्चों पर हमला करने की। लेकिन हर चीज को भावनाओं की बोतल से बाहर निकलकर जब देखते हैं तो मरीचिका समाप्त हो जाती है और सचाई हमारे सामने कुछ ऐसे सवाल खड़े कर देती है, जिसके जवाब हमारे पास नहीं होते हैं। अगर गौर करें तो कुछ माह पहले से आॅस्टेलिया में रह रहे भारतीयों पर हमले अधिक हो गए हैं। लेकिन यहां एक और गौर करने वाली बात ये है कि वो तो परदेष है, लेकिन मुंबई में जो हिंदी भाषियों के साथ हो रहा है वह कहां तक न्याय है, कहां तक उसे सही ठहराया जा सकता है। सरेआम राज ठाकरे और अन्य मराठियों जैसे उद्यमी लोगों को पीटते हैं। उनके रोजगार छीन लेते हैं। सरकार से इन्हें मुनाफा न देने की वकालत तक करते हैं। तो क्यों हम बेबस और लाचार हो जाते हंैं। जब हमारे बच्चे हमारे देष में ही इस तरह की घटनाओं के षिकार हो रहे हैं। वह भी अपने देषवासियों के बीच तो हम आॅस्टेलिया से क्या उम्मीद बांधें। क्योंकि जिस तरह से देष में हालात उत्पन्न हो रहे हैं। उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कुछ समय में प्रादेषिक युद्ध छिड़ जाएगा। इसमें न तो कोई हिंदुस्तानी ष्षामिल होगा और न ही कोई व्यक्ति। सभी मारकाट मचाएंगे। देष में जो थोड़ी बहुत ष्षांति है उसकी धज्जियां उड़ा डालेंगे। तो किसे दोषी ठहराया जाए, स्वयं को, राज ठाकरे को, उन हिंदी भाषियों को या फिर वहां की सरकार को। विपक्ष को। हर कोई अपराध के कठघरे में खड़ा भी होता है और नहीं भी। यह हम पर निर्भर करता है कि आखिर हम इसे किस तरह से लें। क्योंकि एक बार फिर मराठियों के ही टैक्सी वाहन बनेंगे। इस खबर ने राजनीतिज्ञों को फायदा की मलाई चटाने का मौका दे दिया है। ये लोग बड़ी ही उत्प्लावता के साथ इसे भुनाने में कूद पड़ेंगे। जबकि हालात देष के कुछ और हो गए हैं। इसे न तो ये राजनीति करने वाले सुधार पाएंगे और न ही हम जैसे अदने लोग। इसलिए इस आग को बढ़ने नहीं देना चाहिए। हमें भी आग के आसपास के कचरे को साफ करने वाली नीति को अपनाना होगा। ताकि आग अधिक न भड़क सके।

1 comment:

  1. सही लिखा है आपने. मराठी राजनीति पर एक आलेख इधर भी है -

    http://raviratlami.blogspot.com/2010/01/blog-post_25.html

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