Sunday, February 7, 2010
इश्कियां
प्यार, इश्क और मुहब्बत जज्बातों की वह धारा जो बह जाए तो बड़े-बड़े बांधों को तोड़ देती है और रुक जाए तो दर्द का वह तूफान लाती है जो सबकुछ उजाड़कर रख देती है। यह दिल से निकला वह लम्हा है, जो जीवन का सबसे प्यारा बन जाता है। यह नली से बूंद-बूंद बहकर अपनी राह बना लेता है। इसके परवाने भी कुछ कम नहीं होते, इश्क जब इबादत बन जाता है, तो इसमें जोर किसी का नहीं चलता है, लेकिन यह सुराही की तरह होता है, जिसका नीर पीकर कंठ को जो सुकून मिलता है। इसकी आग में बड़े-बड़े जले हैं , तड़पे हैं और तड़प-तड़प कर गुबा-ओ-गर्द में भी खाक हुए हैं। हर वक्त और वजूद को तलाशते इस इश्के के सैकड़ों दुश्मन इस जमाने को मिले हैं, हर मौके पर इसके दुश्मनों से इसके तरफदारों को लोहा लेना पड़ा है। कई बार लोहा पिघला भी है, आशिकों ने जानें भी गवाई हैं, मुहब्बत में तबाह भी हुए और मुहब्बत में तबाह भी किया। सिलसिले दर सिलसिले यह चलता रहा। आशिकी के इस रोग में कुछ प्रेम अमर हो गए और कुछ को शहादत मिली तो जालिम कुछ की किस्मत तो इतनी बेदर्द निकली की उन्हें इस जमाने ने गौर भी नहीं फरमाया। इतिहास के पन्नों को जब उधेड़ा जाता है तो इसमें से सिर्फ मुहब्बत ही जीवित निकलती है। बाकी सब मुर्दों की भांति पड़े हैं। आखिर क्यों इस ढाई अक्षर के दुश्मन पूरी दुनिया हो जाती है, किसी का इश्क उसके मुकाम तक पहुंचने में क्यों अड़चनें खड़ी कर दी जाती हैं। मगर दुनिया को अपनी ठोकर पर रखने वाले ये दीवानें अपनी दीवानगी के दामन पर कभी दाग नहीं लगने देते हैं। उम्र कोई भी हो, बंधन बंध गया तो इसमें फिर परवाह नहीं की जाती है। तो क्या बुरा हुआ किसी ने इश्क की ओढ़नी ओढ़ ली है, तो फिर मौसम की परवाह किसे, जो होगा देखा जाएगा, लेकिन इस ओढ़नी की लाज जरूर रखी जाएगी। प्यार के इस मौसम में हमें भी मुहब्बत की नई इबारत जरूर लगनी चाहिए। अगर दुनिया में आए हैं तो कुछ ऐसा किया जाए ताकि मुहब्बत भी हम पर मुहब्बत करे, तो फिर इस जिंदगी में जीने का मजा आएगा। हम दूसरों की उड़ानों को अपने पंखों से न टटोले, बल्कि खुद के पंखों को इस इश्क के आकाश में सैर करने दें, तो देखों एक बार उस इश्कियां आकाश की सैर करके, जिदंगी में कुछ नया मिलेगा। अगर न मिला तो क्या हुआ, कम से कम इश्क में तबाह तो हो ही जाएंगे।
Thursday, February 4, 2010
दहशत के ढेर पर बैठा शहर
वाह रे ष्षहर और यहां के हालात। देखकर कभी-कभी आष्चर्य होता है, लेकिन इस आष्चर्य के बाद मन सहम उठता है। यहां यह नहीं पता कि बिना आहट किए कोई दबे पांव कब आ जाए। वह हमें मारकर बिना आवाज किए न जाने कहां खो जाए। इसके बाद न कोई लकीर पीटने वाला और न ही उस बदमाष को पकड़ने वाला। ष्षहर को इन घटनाओं ने खौफजदा कर दिया है। हालात बद्दतर हो गए हैं। पुलिस पूरी तरह से नाकाम हो गई है। जिस गुंडे की जो मर्जी होती है, वह वहीं करता है। सरेआम बैंक डकैती डालता है, और पुलिस की नाक के नीचे से गायब हो जाता है। वहीं संतोष दुबे, खान हत्याकांड, मासूम अरमान की हत्या जैसे जघन्य अपराधों को अंजाम दे दिया जाता है। मगर इस पर न तो सरकार को कोई चिंता है और न ही इंदौर की पुलिस को। उन्हें तो उनकी सैलेरी मिल ही रही है। उनके घर में आग थोड़ी न लगी है। गंुंडे तो ष्दूसरों के घरों में आग लगा रहे हैं। दूसरों के चिरागों को बुझा रहे हैं। तो इन्हें इससे क्या लेना देना। मगर स्थिति बहुत ही विकट हो गई है।
अगर पुलिसियां नीतियों पर गौर करें तो इन आठ से दस माह में बहुत से परिवर्तन किए गए। कहीं एसएसपी सिस्टम लागू किया गया तो कहीं ष्षहर को दो एसपी दिए गए। इसके अलावा भी पुलिस को कई संसाधन मौजूद कराए गए। लेकिन हालात वहीं के वहीं है। ष्षहर में क्राइम तेजी से बढ़ रहा है। यहां न तो किसी गुंडे को कोई खौफ है और न ही किसी अपराधी को पुलिस का डर। गुंडाराज और जंगलराज की तरह उत्पाद मचाया जा रहा है। सरेआम गुंडों की डोली आती है, गोली मारती है और निकल जाती है। इसे क्या कहेंगे। न तो आसपास के लोगों को पता चलता है और न ही पुलिस पकड़ पाती है। उनके निकलने के बाद रास्तों में डंडा पीटती है, जैसे वो पकड़ा जाएंगे। इस तरह की अराजकता मची हुई है, लेकिन देखने वाला कोई भी नहीं है। हर कोई अपने-अपने घर को बचाने की तुकतान में जुटा हुआ है। ष्जिन हाथों में ष्षहर की सुरक्षा है, वो नपुंसक की भांति नजर इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि वो अपनी कार्रवाई में सफल नहीं हो पा रहे हैं। अपराधी दहाड़ता हुआ आता है, अपने षिकार पर हमला बोलता है, उसे निस्तेनाबूद कर पुनः अपनी मांद में चला जाता है। पुलिस हाथ मलती रहती है। अगर यही चलता रहा तो इंदौर बहुत जल्द यूपी और बिहार बन जाएगा। जहां ष्षाम होते ही लगा इस डर से घर में घुस जाएंगे कि कही कोई गोली उनके सीने को न छलनी कर दे, भले ही उन्होंने कोई किसी से कोई बात न कही हो। इस पर से इस समाज को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। क्योंकि महज पांच से दस गुंडे आते हैं और गोलियों से भ्ूानकर फिर निकल जाते हैं। किसी में हिम्मत तक नहीं होती है कि आखिर उसका रास्ता हरक सकें। यही है इंदौर की हालत। जहां कोई भी बड़ा अधिकारी आकर सिर्फ उपदेष दे देता है। जबकि जमीन पर उतरकर कार्य नहीं कर पाता है। कोई कोषिष भी करता है तो उसे करने नहीं दिया जाता है। तो क्या हम यह मान लें कि ष्षहर अब अपराध की चपेट में आ गया है। लेकिन हम तो उम्मीद का दामन अब भी नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि रात भले ही लंबी हो सकती है, लेकिन सुबह आने वाला सूरज उस रात को खत्म जरूर कर देगा। बस उसी सूरज का इंतजार है जो इंदौर से इस अंधेरे को खत्म कर दे। इसमें हमारे समाज को भी थोड़ी जागरूकता जरूर दिखानी चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि कहीं भी कोई अपराधी मिले तो उसे पुलिस के हवाले जरूर करे, क्यांेकि आज किसी और का घर है, हो सकता है कल अगला घर आपका हो।
अगर पुलिसियां नीतियों पर गौर करें तो इन आठ से दस माह में बहुत से परिवर्तन किए गए। कहीं एसएसपी सिस्टम लागू किया गया तो कहीं ष्षहर को दो एसपी दिए गए। इसके अलावा भी पुलिस को कई संसाधन मौजूद कराए गए। लेकिन हालात वहीं के वहीं है। ष्षहर में क्राइम तेजी से बढ़ रहा है। यहां न तो किसी गुंडे को कोई खौफ है और न ही किसी अपराधी को पुलिस का डर। गुंडाराज और जंगलराज की तरह उत्पाद मचाया जा रहा है। सरेआम गुंडों की डोली आती है, गोली मारती है और निकल जाती है। इसे क्या कहेंगे। न तो आसपास के लोगों को पता चलता है और न ही पुलिस पकड़ पाती है। उनके निकलने के बाद रास्तों में डंडा पीटती है, जैसे वो पकड़ा जाएंगे। इस तरह की अराजकता मची हुई है, लेकिन देखने वाला कोई भी नहीं है। हर कोई अपने-अपने घर को बचाने की तुकतान में जुटा हुआ है। ष्जिन हाथों में ष्षहर की सुरक्षा है, वो नपुंसक की भांति नजर इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि वो अपनी कार्रवाई में सफल नहीं हो पा रहे हैं। अपराधी दहाड़ता हुआ आता है, अपने षिकार पर हमला बोलता है, उसे निस्तेनाबूद कर पुनः अपनी मांद में चला जाता है। पुलिस हाथ मलती रहती है। अगर यही चलता रहा तो इंदौर बहुत जल्द यूपी और बिहार बन जाएगा। जहां ष्षाम होते ही लगा इस डर से घर में घुस जाएंगे कि कही कोई गोली उनके सीने को न छलनी कर दे, भले ही उन्होंने कोई किसी से कोई बात न कही हो। इस पर से इस समाज को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। क्योंकि महज पांच से दस गुंडे आते हैं और गोलियों से भ्ूानकर फिर निकल जाते हैं। किसी में हिम्मत तक नहीं होती है कि आखिर उसका रास्ता हरक सकें। यही है इंदौर की हालत। जहां कोई भी बड़ा अधिकारी आकर सिर्फ उपदेष दे देता है। जबकि जमीन पर उतरकर कार्य नहीं कर पाता है। कोई कोषिष भी करता है तो उसे करने नहीं दिया जाता है। तो क्या हम यह मान लें कि ष्षहर अब अपराध की चपेट में आ गया है। लेकिन हम तो उम्मीद का दामन अब भी नहीं छोड़ेंगे, क्योंकि रात भले ही लंबी हो सकती है, लेकिन सुबह आने वाला सूरज उस रात को खत्म जरूर कर देगा। बस उसी सूरज का इंतजार है जो इंदौर से इस अंधेरे को खत्म कर दे। इसमें हमारे समाज को भी थोड़ी जागरूकता जरूर दिखानी चाहिए और प्रयत्न करना चाहिए कि कहीं भी कोई अपराधी मिले तो उसे पुलिस के हवाले जरूर करे, क्यांेकि आज किसी और का घर है, हो सकता है कल अगला घर आपका हो।
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