Thursday, July 28, 2011

बदजुबान को छूट दी जाती है...


कहावत है कि कम बोलो अच्छा बोलो, और अगर ऐसा नहीं कर सकते हो तो चुप रहो, खामोशी में बड़ी ताकत होती है। यह अभी तक सर्वमान्य था, लेकिन अब तो वाचालों का जमाना आ गया है, जो बोलता नहीं है, वह हमेशा दु:खी रहता है और जो बोलता है, वही रेवड़ी ले जाता है। न बोलने वाले तो अपना हक भी खो देते हैं और जो बोलते हैं ,वह ही उन न बोलने वालों का हक उड़ा ले जाते हैं। अभी तक यह बातें आप समझ नहीं पाए होंगे, या फिर कयास लगाने में जुटे हैं, लेकिन अब बता दें कि यह पूरा का पूरा राजनीति के संदर्भ के साथ आम जीवन की बात को भी परदे पर बकायदा स्क्रिप्ट के जरिए उतारने की कोशिश की जा रही है। जिस तरह से प्राय: बयानों के ब्लास्ट होते हैं, उसमें कई घायल हो जाते हैं, लेकिन ये घायल जब निरुत्तर हो जाते हैं, तो जीत उसी की मानी जाती है, जिसने घायल किया हो। कांग्रेस के पास एक मदारी है, और उसका डमरू सोनिया गांधी के पास है। यह मदारी जब देखो तब ऊल-जलूल बयान दे देता है, कभी आतंकवादी तो कभी जोकर जैसे शब्दों का इस्तेमाल करता है। इस मदारी की मालकिन मैडम है, और वह इसे जहां देखो वहां पर भेज देती है। वहीं कई और भी बंदर हैं, जो डमरू नहीं दिल्ली के इशारों पर नाचते हैं, और उनसे संबंध बनाने के लिए ये न जाने क्या-क्या कर डालते हैं। इनकी हालत तो उनकी उतरैल तक पहनने की हो जाती है, मगर सार्वजनिक नहीं कर पाते हैं। कई बार तो पतलून साफ करने से भी नहीं हिचकते हैं। हां, ये लोग पब्लिक के बीच फेमस होने के चलते सभी चीजें छुपा जाते हैं। खैर... यहां सिर्फ एक ही पार्टी या एक ही व्यक्ति के पास बिच्छू नहीं है, बल्कि हर डाल पर उल्लू बैठे हैं और उनसे बचने के लिए न जाने कितने जोर लगाने पड़ते हैं। इनके बयानों को बारूद के ढेर तक ले जाने का कार्य इनका पिछलग्गू बना मीडिया करता है। वह बार-बार आग को हवा दे देता है , और विस्फोट के बाद कई बार विस्फोट करने की कोशिश करता रहता है। अब देखने की कवायद यह नहीं है कि हम क्या करते हैं, लेकिन इनकी निर्लज्जता देखकर अफसोस होता है कि क्या इस तरह के लोग भी हैं समाज में। हमने डेल्ही बेली पर राजनीति होते देखी है। वहां गालियों का विरोध किया गया था, कोई बात नहीं, ठीक है, लेकिन जब मंच से गालियां बकी जाती हैं, तो फिर वहां गरिमा नहीं खोती है। नेता अपने घर के अंधेरे को नहीं देखते हैं और दूसरे के घरों के अंधेरे पर सवाल उठाने लगते हैं। यह कोई एक पार्टी नहीं है, बल्कि हर पार्टी के पास ऐसे बिच्छू हैं और वह देर सवेर इस तरह की हरकतों को अंजाम देने से नहीं चूकते हैं। तब लगता है कि देश की राजनीति जो कभी गरिमा का पर्याय बनी रहती थी, आज न जाने कहां खो गई है, कहां गुम हो गई है। यहां भाषाई शत्रुता निभाई जा रही है, लेकिन इसे रोकने वाला कोई भी नहीं है। हर कोई जीवन को अपने तरीके से जीने की कोशिश कर रहा है, यह ठीक है, लेकिन ये लोग ऐसे हैं जो दूसरे के जीवन को भी प्रभावित करने से गुरेज नहीं करते हैं। बयानों से बखेड़ा खड़ा कर समाज में ज्वाला भड़काने की हर वो कोशिश करते हैं, जिससे की चिंगारी शोला बन जाए। कई बार ऐसा हुआ भी है, और कई बार ऐसा नहीं भी हुआ है। माना आज का युवा समझदार है, लेकिन ऐसा बहुत कम मौकों पर हुआ है। जिस तरह से हमने देखा है कि आदमी आदमी का दुश्मन है, लेकिन जिन्हें हम अपना भविष्य देते हैं, वही हमें डुबो रहे हैं। हर नेता भ्रष्टों का सरताज बनने की कोशिश कर रहा है। मुंह से आग उगलता है और तिजौरी भरता है। उनके पास सिर्फ यही काम है। तब देश का विचार आता है कि आखिर उसकी दिशा क्या है। जिस तरह से देश पर संकट है, उससे तो यही लगता है कि आखिर उसके तो उड़ने के पर इन लोगों ने पहले ही बांध दिए हैं। हम कौन सी तस्वीर पेश करना चाहते हैं, यह हम नहीं जानते। पर जिस तरह का माहौल देश में बना है, उसे देखते हुए सबसे पहले कोई ऐसा कानून बनाने की जरूरत है, जिसमें कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक इस तरह की भाषा का प्रयोग न करे। मानहानि के दावे को बढ़ाना चाहिए। माना मौलिक अधिकारों में अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता दी गई है, लेकिन यह विचार तो नहीं हो सकते हैं, और फिर विचार आप सार्वजनिक इस तरह की भड़काऊ भाषा के साथ प्रस्तुत तो नहीं कर सकते हो, क्योंकि जिस तरह से व्यवस्था के साथ नाता तोड़ा जा रहा है, वह चिंतनीय विषय है। हमारे राष्टÑपिता ने तो अंग्रेजों की लाठियां खाने के बावजूद भी कभी इस तरह से अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया। अहिंसा को हथियार मानने वाले हम कहीं अपनी सोच से परे तो नहीं हो गए हैं। हम सिर्फ बातें अहिंसा की करते हैं, लेकिन हिंसा में पूरा विश्वास करते हैं, और यह टूटे नहीं, इसके लिए कई बार प्रयास भी करते हैं। कभी-कभी हिंसा का टेÑलर भी दे देते हैं, जिससे परिस्थितियां विपरीत हो जाती हैं। खैर फिलहाल तो इन्हें नसीहत ही दी जा सकती है।

Wednesday, July 27, 2011

ब्यूटी विथ ब्रेन


ईश्वर जिसको भी देता है, उसे छप्पर फाड़कर ही देता है। यह कई मौकों पर साबित भी हुआ है और साबित होता रहेगा। एक बार फिर हम ईश्वरीय बातों से निकलकर सियासत के चक्रव्यूह में आकर बात करते हैं। वह भी भारत-पाक की सियासत के सिलसिले में, जहां कुटिलता के साथ ऊपरी दिखावा भी होना चाहिए। यहां हर एक कदम फूंक-फूंककर रखा जाना चाहिए। लंबे समय से हम अपने पड़ोसी के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहे हैं। आखिर पड़ोसी भी तो ऐसा ही है, बिना वजह हम पर हमले और विस्फोट करता रहता है। आखिर कब तक हम उससे रिश्तों की बात करेंगे, जब वह हमें खत्म करने पर ही आमादा है, तो ऐसी स्थिति में हमने भी तो हाथों में चूड़ियां नहीं डाल रखी है। माना की हम शांतिप्रिय हैं, लेकिन जब बात गर्व की है, सम्मान की हो, देश की आबू्र की हो तो फिर हम मरने से नहीं डरते। तो क्या हुआ कि हमारे बाद हमारे परिवारों को दु:ख होगा, तो क्या हुआ कि हमारे बाद उन्हें रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष करना पड़ेगा, तो क्या हुआ कि वो लोग दर-दर की ठोंकरें खाएंगे, लेकिन देश पर मर मिटने से पीछे हटने के लिए ये कारण पर्याय तो नहीं हैं। बात सियासत के शिखंडियों की, जो अपने-अपने फायदे के लिए झूले को इधर-उधर ढकेलते रहते हैं। यह तो हुई अभी तक की बातें, लेकिन पाक की सबसे लोकप्रिय विदेश मंत्री भारत में मेहमान हैं। अब उन्हें देखकर तो उनकी खूबसूरती का हर कोई कायल हो सकता है। 30-31 साल की यह महिला हिना रब्बानी...जिसे पहली बार देखो तो किसी पॉलिटिकल पार्टी की नहीं,बल्कि फिल्म की हीरोइन अधिक लगती है। वाह, खुदा भी किसी किसी पर कितना मेहरबान हो जाता है। मैडम के पास ब्यूटी की कमी नहीं है, माशाअल्लाह ब्रेन भी लाजबवा है...और तो और दौलत भी खूब है। पाक की यह विदेश मंत्री...न सिर्फ अपनी खूबसूरती से भारत को दीवाना बना गई, बल्कि पाक की ओर से उसने जो शिगूफे छोड़े, उसमें भारत उलझ कर रह गया। जब वह मिस्टर कृÞष्णा कहकर हमारे विदेशमंत्री को संबोधित कर रही थी तो फिर कृष्णा साहब के पास सिवाय मुस्कराने के और कोई चारा नहीं था। हां, कुछ लोग पहले आंक रहे थे कि इतनी कम उम्र की लड़की, और उसे इतनी बड़ी जिम्मेदारी दी गई, कहीं वह फेल न हो जाए, लेकिन जिस तरह से उसने चीजों को हैंडल किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है, और तो और उसने भारत के सामने यह विकल्प भी रख दिया कि बातचीत के अलावा कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है। लंबे समय से भारत कई बार अपनी जिदों पर अड़ जाता था। मुंबई हमले के बाद हमारे बीच काफी तनातनी थी, एक बार फिर बातचीत के जो द्वार खुले हैं, उसमें हिना पूरी तरह से भारी नजर आर्इं। हिना की बेबाकी और उनकी इंटेलिजेंसी का हर कोई कायल हो गया। उनकी बातें पाक में भी सुनाई दे रही होंगी और उन्हें भी अपनी कम उम्र की बेटी पर गर्व होगा, क्योंकि बकायदा उन्होंने दिखा दिया कि उन्हें धुप्पल या फिर सिफारिश में विदेश मंत्री का पद नहीं मिला है, बल्कि इसके लिए बकायदा उनमें कूबत है, हुनर है और इसी हुनर पर भरोसा कर के उन्हें विदेशमंत्री का पद दिया गया है। उनकी बातें सुनकर भले ही टिप्पणीकर या आलोचक उन्हें कम उम्र और अनुभवहीनता की सलाह दें, लेकिन यह उनके पर्सनल विचार होंगे और यहां जो लिख रहा हूं, वह भी मेरे पर्सनल विचार हैं, जिसमें मैंने पाया कि वास्तव में हिना ने बेहतर तरीके से नेतृत्व क्षमता दिखाई। हां, उनकी कुछ बातें अलग थीं, लेकिन नया कुछ भी नहीं निकला। इसे रुटीन मीटिंग ही कह सकते हैं, मगर इस्लामाबाद में 2012 में जो मुलाकात होगी, उसके बीच का जो समय रहेगा, वह हालात ही वहां की मीटिंग को तय करेंगे,और तभी समझ में आएगा कि आज जो मुलाकात हुई है, वह सिर्फ बातचीत की टेबल ही साबित हुई है, या फिर कुछ और। आने वाले समय में देखना होगा कि क्या हिना ने जो कहा है, उस बात पर पाक कायम रहता है, और तो और खास बात यह रहेगी कि क्या इस दौरान पाक सच्चाई और ईमादारी बरतता है, यह तो भविष्य के तीर हैं, जो पता नहीं लक्ष्य भेद पाएगा या नहीं। यह नहीं जान पाएंगे...दुनिया भी इन दोनों की बातों को टकटकी लगाए थी, क्योंकि अभी कुछ दिन पूर्व ही हिलेरी ने भारत दौरा किया था, और उनकी कुटिलता और मुस्कान के पीछे क्या छिपा है, यह समझ नहीं पाया। खैर...आने वाला समय ही बताएगा कि इन दोनों के बीच बंद कमरे में क्या हुआ और सार्वजनिक क्या हुआ...यह तो आने वाला समय ही बताएगा। फिलहाल तो जैसा बयान इन्होंने दिया है, उसे हम सच मानकर भविष्य की अटकलें लगाए रहेंगे। उम्मीदें पाले बैठे हैं, और यह उम्मीदें हकीकत से कितना वास्ता रखेंगी यह तो बात की बात ही है। हम तो सिर्फ यही कह सकते हैं कि हिना रब्बानी...कुछ-कुछ अमेरिका की हिलेरी क्लिंटन को टक्कर देंगी, क्योंकि उनकी तरह इनके पास भी ब्यूटी विथ ब्रेन है।

Tuesday, July 26, 2011

अंग्रेजों के हाथों आएंगे ताज गवाकर


धोनी ने जिस अंदाज में आगाज किया है, अब अंजाम तक वह नहीं पहुंच पा रहा है। विश्व का एकमात्र कप्तान जिसने ट्वेंटी-20 के साथ विश्वकप अपने हाथ में उठाया है, आज उसकी टीम का हालात बुरे हैं। इंग्लैंड में टीम इंडिया का प्रदर्शन लचर रहा। जिस अंदाज में हमने बल्लेबाजी की है, उससे तो लगता ही नहीं कि एक विश्व चैंपियन टीम खेल रही हो। यह वही टीम है, जो पिछले एक साल से टेस्ट क्रिकेट की बादशाहत कर रही है, लेकिन इंग्लैंड में जाते ही उसकी कमजोरियां सामने आने लगी। वह अपना बेहतर खेल नहीं दिखा पा रही है। सचिन हो या फिर लक्ष्मण...कोई भी अपने खेल के अनुरूप खेल नहीं रहा है। हां, सहवाग की कमी जरूर अखर रही है, लेकिन बाकी खिलाड़ी क्या कर रहे हैं। सिवाय राहुल द्रविड़ के कोई भी बल्लेबाज अंगे्रेजों के आगे टिक नहीं पा रहा है। आखिर विश्व चैंपियन को हो क्या गया है। माना अभी दौरा बहुत बड़ा है, और आगे मौके मिलेंगे, लेकिन भारत की हार तो तभी तय हो गई थी, जब उसने प्रैक्टिस मैच में शिकस्त झेली थी। हां, उम्मीद थी कि शायद पहले टेस्ट में बेहतर करेंगे, लेकिन एक बार फिर विदेशी पिचों की वही कहानी फिर सामने आ गई। हम घर के शेर हैं,और बाहर कचरे का ढेर हैं, कोई भी हम पर भारी पड़ जाता है। अगर हम पांचवें दिन बेहतर खेलते तो शायद मैच बचा सकते थे, हमारे पास नौ विकेट थे और कोई भी बल्लेबाज विकेट पर टिककर नहीं खेल पाया। खुद कप्तान धोनी की बल्लेबाजी पर एक प्रश्नचिह्न खड़ा हो रहा है। धोनी के धुरंधर भी धुआं हो रहे हैं और खुद माही भी अपने अंदाज में नहीं खेल पा रहे हैं। अगर धोनी की बैटिंग देखी जाए तो विश्वकप फाइनल को अगर छोड़ दिया जाए तो पिछले कई मैचों से उनका यही प्रदर्शन है। और अगर यही स्टाइल उनका खेलने का रहा तो वह दिन दूर नहीं, जब भारतीय टीम फिर से पांचवें और छठे स्थान पर आ जाएगी। इसमें कोई शक नहीं है,कि आॅस्टेÑलिया और साउथ अफ्रीका जैसी टीमों से नंबर एक का ताज छीनकर भारत ने अपने खेल की धाक पूरे क्रिकेट जगत में जमाई है, लेकिन यह धाक सिर्फ एक या दो साल की ही दिखाई दे रही है। आखिर क्यों हम दुनिया का ताज सालों साल कंगारूओं की तरह नहीं रख पा रहे हैं। अगर अंग्रेजों ने हमारा ताज छीना तो निश्चय ही भारत की एक बार फिर खिल्ली उड़ जाएगी। भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि ये वही अंग्रेज हैं, जिन्होंने भारत पर सालों राज किया है,अब उनके खेल में उनको ही हरा कर हम उनके मुंह पर तमाचा मार सकते हैं। हम उन्हें बता सकते हैं कि मेहनत अगर की जाए तो हम उन्हें उनके घर में ही मार सकते हैं। अभी हमें अपनी क्षमता के अनुसार खेलना पड़ेगा। टीम इंडिया को कुछ कड़े फैसले लेने होंंगे और खासबात यह है कि जो फीट है, वही खेले, भले ही वह कितना अच्छा गेंदबाज हो या फिर कितना ही अच्छा बल्लेबाज। पुराने प्रदर्शन या फिर कद के हिसाब से खिलाड़ी को महत्व नहीं दिया जाना चाहिए। फिलहाल तो टीम इंडिया को सरताज बनाने के लिए धोनी को एक बार फिर अपने लड़ाकों में मंत्र फूंकना पड़ेगा। अगर वो ऐसा करने में कामयाब हो गए तो फिॅर हमारा ताज सलामत रहेगा। हां, अभी इज्जत बचाने का मौका है, टीम इंडिया को कोई भी ढिलाई नहीं बरतना चाहिए, क्योंकि थोड़ी सी लापरवाही सालों की मेहनत पर पानी फेर सकती है,और अगर एक बार यह ताज हमारे पास से गया तो फिर दोबारा इसे पाने में न जाने कितने साल लग जाएंगे। अभी एक टेस्ट तो हम हार चुके हैं, जितने भी टेस्ट बचे हैं, हमें उनमें ही कमाल करना होगा। टीम इंडिया को अपनी ताकत नहीं बल्कि शक्ति के साथ खेलना होगा। हमें वह पुरानी लय वापस लानी होगी, जो हमने विश्वकप के दौरान दिखाई थी। सचिन से लेकर सारे सीनियर खिलाड़ी और युवा चेहरों को जमकर खेलना होगा। विकेट पर टिकने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दिखाना होगा। अब अगर यह करिश्मा करने में हम कामयाब हो गए तो फिर हम अंगे्रेजों को फिर उन्हीं की धरती पर धूल चटा देंगे। और वह जीत का जश्न बहुत यादगार रहेगा। अब वक्त है, रणनीति बनाने का, इंग्लैंड के गेंदबाजों का सामना करने का, उन्हें निपटाने का। इसमें धोनी की बहुत बड़ी भूमिका है, और वही रीढ़ की हड्डी हैं, वही उन्हें अपना खेल का स्तर भी सुधारना होगा, क्योेंकि वह नहीं सुधरा तो मामला थोड़ा गंभीर हो जाएगा। टीम इंडिया को कुछ बेहतर करना होगा, कुछ नए प्रयोग करने होंगे। ये धरती पुत्र धोनी...तुमसे कुछ मांग रही है, इस धरती का कर्ज तुम्हारे कंधों पर है, इसे जीतकर उतार दो। सिर्फ हम जीत मांग रहे हैं, और हमें कुछ नहीं चाहिए, बाकी हमारे दिलों के बादशाह तो आप हैं ही, और आप अगर जीतकर आए तो यह देश आपका शान से स्वागत करने को तैयार है।

Saturday, May 14, 2011

सत्ता त्याग ही नहीं बलिदान भी मांगती है...


सत्ता वह सुख है, जो सबकुछ लूट लेती है या फिर लुटा देती है। लेकिन इसका रसपान उन्हें ही नसीब हुआ है, जिन्होंने हमेशा त्याग किया और मौकों पर बलिदान दिया है। बेशक कुछ सालों के लिए उन चटोरों के भी हाथ लग जाती है, जो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं, या उन्हें मिल जाते हैं जिनकी किसमत अचानक गोता खा ले। मगर इसे संभालने की कूबत उनमें नहीं होती है। हां, यह सही है कि सत्ता हमेशा सही हाथों में नहीं रह पाई है, इससे अकसर इसका गलत इस्तेमाल ही हुआ है। वक्त के किसी भी दौर में या पड़ाव में हम पाएंगे कि जिसे भी सत्ता मिली है, उस पर हर कोई सांप की तरह कुंडली मारे नजर आया है। हर किसी ने अपने कब्जा जमाने की पूरी कोशिश की है, लेकिन यह खूबसूरत है तो कातिल भी है, और धोखा देना तो इसकी फितरत में ही है, लेकिन जब भी इसे बलिदान मिलता है, उसके पास सत्ता जरूर आती है। ठीक वही हुआ है, ममता के साथ। रेल में अपना जादू दिखाने के बाद अब उन्होंने बुद्धदेव भट्टाचार्य की दुकान को पूरी तरह से ताला लगा दिया है। लगभग दो दशक बाद यह उलटफेर करने में कामयाब हुई, लेकिन लाल किला अब पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका है। बंगाल में बहुत सारी दिक्कतें हैं, और नक्सली घटनाएं तो चरम पर हैं, कई बार तो वहां की सरकारोें की मिलीभगत भी इसमें शामिल लगती है। लेकिन कोई भी देश हो या शहर या फिर कॉलोनी या घर....हर कोई शांति से रहना चाहता है, शांति से जीना चाहता है। कोई उसकी शांति में दखल देता है तो वह एक सीमा तक सहन भी करता है, लेकिन जब सब्र का बांध आम आदमी तोड़ देता है, तो फिर बड़े से बड़े पहाड़ों को भी डोलना पड़ता है, उन्हें भी अपना कद छोटाकर जनता को आगे जाने देना पड़ता है। ममता ने लंबे समय से त्याग किया, बलिदान किया, यह वहां की जनता ने समझा और लाल किले को ढहाने में ममता को पूरा साथ मिला। नतीजा सामने है, सालों से बंगाल में वाम मोर्च का काला जादू कहीं फुर्र हो गया। वैसे भी जब रोशनी की किरण आती है तो सारे जादू जल जाते हैं, खाक हो जाते हैं। इस तरह दीदी ने वहां नई उम्मीद जगाई है, वहीं तमिलनाडु में हर कोई करुणानिधि के परिवार से पीड़ित है। इस परिवार ने पूरे तमिल राज्य की वॉट लगा रखी है। कभी बेटा, कभी बेटी तो कभी खुद पिता...घोटालों का ऐसा खेल चला कि सब कुछ गड़बड़झाला हो गया। इस कुनबे की सड़ांध से पूरे तमिल में गंध आने लगी थी, लेकिन अब कुछ बदलाव हुआ है। जयललिता की ललकार ने करुणा को हिलाया ही नहीं, बल्कि जड़ से उखाड़ फेंका है। यहां भी इस घोटालेबाज परिवार का सफाया हो गया है। इसने भी खूब भ्रष्टाचार को बढ़ाया है, हालांकि पुराने पाप और पेट कभी नहीं छुपता है, उसी तरह एक-एक कर सारी चीजें परत दर परत उखड़ती जा रही हैं। वहीं बात असम की, तो वहां पर सब सामान्य ही रहा। जिन्होंने दस सालों से सत्ता चला रखी थी, उनका कार्य काफी प्रभावशाली रहा, जिससे जनता का भरोसा उन्हेंमिला और सत्ता का स्वाद फिर उन्हीं की जुबान लेती दिखाई देगी। बात आगे की हो तो फिर पुदुचेरी में कांग्रेस का सफाया हो गया। हालांकि यहां 30 सीटें ही थीं, लेकिन कांग्रेस यहां प्रभाव डालने में पूरी तरह से असमर्थ साबित हुई, जिससे सत्ता दूसरे को मिली। इसके अलावा केरल में ओमान चांडी पर विश्वास किया है जनता में। फैसला काफी महत्वपूर्ण और पार्टियों को चेतावनी देने वाला है, क्योंकि जिस तरह से जनता बदलाव कर सत्ता से बेदखल कर देती है, उससे पार्टियों को सतर्क हो जाना चाहिए, क्योंकि अगली बारी यूपी, एमपी जैसे कई राज्यों की है, जहां पर मनमानी की जा रही है। इसमें यूपी में तो अंधा कानून है, और अपराधियों के जल्वे बरकरार है, कौन कहां, क्या गुल खिलाएगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, सत्ता की इस आंधी को हमेशा संभालना चाहिए, क्योंकि अभी नहीं संभले तो फिर समय नहीं बचेगा।

Tuesday, May 3, 2011

आतंक का अंत या विद्रोह के वार


लादेन मारा गया...लादेन मारा गया...वो खूंखार आतंकवादी मारा गया। वह अपराधी मारा गया, जिसने वर्ल्ड टेÑड सेंटर को उड़ाया था। जिसने सालों साल अमेरिका की नाक में दम कर रखा था। आज अमेरिका ने लंबी लड़ाई के बाद उसे मौत के घाट उतार दिया। अब कोई डर नहीं, क्योंकि आतंक का वह खौफनाक चेहरे को समुंदर में डुबों दिया गया। वाह...अमेरिकियों के लिए इससे बड़ा दिन और क्या हो सकता है, क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ उन चंद सौ लोगों की नहीं थी, जिनके लोग वहां मरे थे, बल्कि यह लड़ाई उन सभी लोगों की थी, जो आज तक पूरे विश्वभर में कहीं न कहीं आतंकवाद के शिकार हो चुके हैं। अमेरिका हो या फिर हिंदुस्तान। कसाब से लेकर लादेन तक। हर चेहरे में खौफ साफ नजर आता है। साथ ही दर्द भी झलकता है कि इन्होंने हमारे अपनों के खून को लहूलुहान किया है। इनके कारण न जाने कितने घरों की खुशियां छिनी हैं। न जाने कितने परिवारों के आंसू आज तक सूख नहीं पाए हैं। कितनी मांओं की आंखें अभी भी पथराई हुई हैं। दुनिया ने आतंकवाद का सिर्फ एक रंग ही देखा है। वह है लाल रंग, जिसमें सिर्फ लहू ही बरसता है। शायद आज उन परिवारों को इंसाफ मिला है, जिसकी लंबी लड़ाई में अमेरिका सालों से जूझता आ रहा है। मगर हम कितने बेबस हैं, क्योंकि हमारी आब्रू पर जिसने हमला किया है, वह अब तक जिंदा है। हमारे वो बेचारे सिपाही, जिन्होंने अपनी जानें दे दी, वो तो शहीद हो गए, लेकिन उनके आरोपियों को हम आज भी सजा नहीं दे पाएं। कितनी विडंबना है यह, कि हमारे देश में हम अपनों के ही कातिलों को सजा नहीं दिला पाए हैं। अब सवालों के घेरे और शर्म भरे चेहरे साफ दिखाई देते हैं। सीख लेनी ही है तो अमेरिका से लो, जिसने सालों बाद दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतार दिया। सालों तक कभी जमीन के गर्भ में सो गया तो कभी पहाड़ों की गुफाओं में दफन हो गया। कभी मरने की खबर आती तो कभी दहशत का वीडियो। ये सारे देखकर हर देशवासी के दिलों में उबाल आता था, और आंखों से अंगारे झलकते थे। हां, शायद हमारी जड़ों में ही दम नहीं है, या फिर सुरक्षा और सरकार दोनों की खोखली साबित हो रही हैं। जिस तरह से पूरा खेल खेला गया है, वह हमारे देश को लाचार साबित कर रहा है। देखा जाए तो हम उनकी खातिरदारी में जुटे रहते हैं, जो हमारे जान के दुश्मन रहते हैं। माफी हमारी आदत है, लेकिन यहां माफी नहीं डर दिखाई दे रहा है। डर विपक्ष में है, डर सरकार को है। समाजसेवियों के मन में है। हर कोई इस बिल्ली के गले में घंटी नहीं बांधने का साहस नहीं कर पा रहा है। खौफ भी ऐसा है कि मानों उस राग को कोई छेड़ना ही नहीं चाहता, इन्हें इनकी कुर्सियां प्यारी हैं, इसका भय है कि कहीं कुछ हो गया तो जनता भड़क जाएगी और सरकार के नीचे से कुर्सी का टेक निकल जाएगा, उस स्थिति में हम क्या करेंगे। वाकई यह बड़ा निदंनीय और चिंता का विषय है, क्योंकि जिस तरह से देश में भ्रष्टाचार का खेल खेला जा रहा है, जिस तरह से आतंकवादियों को अपना मेहमान बनाया जा रहा है, वह बहुत ही दु:ख की बात है। इन पर कौन रोक लगाएगा, कौन जनता की आवाज को देश की आवाज बनाकर इस जख्म से निजात दिलाएगा। अब तक सब खोखला साबित होता दिखाई दे रहा है। अब तक लग रहा है कि हां हम लोग बिलकुल बेफिक्र हैं, और यहां पर हर कोई बस तिजौरियां भरने में जुटा है। अब तो क्रांति का स्वर उठने दो, अब उठो...जाग जाओ, क्योंकि अभी नहीं जागे तो फिर समय नहीं मिलेगा, समय नहीं बचेगा। अब तो कुछ करना होगा, देश को बचाना होगा, क्योंकि देश में आतंकवाद कभी भीतर ही भीतर खोखला न कर दे। हमारे सामने कई तीर खड़े हैं, अगर कब हमारे दो टुकड़े करके चले जाएंगे, हम भी नहीं बता पाएंगे।

Monday, April 25, 2011

समाज की नीतियां बनाती हैं बिगाड़ती हैं

सारा खेल नीतियों का चल रहा है, अगर नीति रीति से नहीं होगी तो फिर हर चीज असफलता की कगार पर खड़ी होकर चिढ़ाएगी और हम मुंह बाए केवल देखते रहेंगे। समाज में कई विसंगतियां पैदा हो जाएंगी जो हमारे सामाजिक जीवन के साथ आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करेंगी। यह वह पतवार रहती है, जो अगर कमजोर रही तो समझ लो हमारी जीवनलीली वहीं समाप्त हो जाएगी, उस स्थिति में हमारे पास बचने के भी कोई उपाय नहीं होते हैं। जिस तरह से समाज में असुंतलन की गेंद डप्पे ले रही है, उससे यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह किस जगह जाकर रुकेगी, और यही असमंजस की स्थिति के चलते समाज से स्थायित्व गायब हो गया है। कालमॉर्क्स ने ठीक ही कहा है कि आर्थिक संरचना पर सामाजिक संरचना टिकी है, और सामाजिक संरचना तब तक बनी रहेगी, जब तक बेहतर नीतियों का निर्धारण हो सके। समाज आज दिशाहीन हो गया है और वह अंधड़ चल रहा है। कहां कुआं है और कहां फूल...इसके बारे में उसे जरा सा भी पता नहीं है। वह तो मदमस्त कहें या फिर आवारा की तरह इधर से उधर की तरह हो गया है। पूरा बवंडर हो गया है। घूम तो रहा है, लेकिन दिशा क्या होगी, इसका उसे पता तक नहीं है। ऐसे में नीतियां कमजोर बनती हैं तो प्रशासनिक तथ्य और कार्यप्रणाली को लकवा मार जाता है। वह पूरी तरह से अपंग रहती है और पानी के गद्दे या फिर हवा के गद्दे में पड़ी होकर गिड़गिड़ाती रहती है। सामाजिक नीतियों में लाचारी, बेबसी जीवन को उस खाई में पटक देती है, जहां से वापस आना आसान नहीं होता है। यह गलत समाज के सामने हो रहा है, ऐसे में समाज का फर्ज बनता है कि उसमें आगे आकर अपनी आवाज बुलंद करे, अगर आवाज बुलंद नहीं करेगी तो जीवन का अगला अध्याय आगे नहीं बढ़ सकता है। इस स्थिति में समाज का रोल बहुत बढ़ जाता है, उसे सामाजिक नीतियों में हस्तक्षेप कर उसे पुनरुत्थान के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। उसके सामने कई बार सरकारी मशीनरी आड़े आ जाती है, लेकिन उससे निजात पाने के लिए अगर कुछ करना है तो फिर आवाज में दम होना बहुत जरूरी है,अगर ऐसा नहीं हुआ तो फिर नीतियां ऐसी ही बनती जा रही हैं। सामाजिक प्रेशर अगर पड़ता है तो फिर अच्छे-अच्छे फट पड़ते हैं। इन्हें समाज के संदर्भ में कुछ नए सृजन करने होते हैं, इन्हें विकास की नई पथरीली, लेकिन न्यायपूर्ण परिभाषा लिखना होती है। आज अगर ये लोग हस्तक्षेप करते हैं तो फिर बदलाव की बयार बवंडर में तब्दील हो जाती है और अपने हक में फैसला लेकर आ जाती है। इस फैसले से समाज में सकारात्म प्रभाव पड़ता है, और तब समाज में उन्नति की वह किरण रोशनी डालने लगती है। तब समाज का बगीचा खिलने लगता है, और किरण की रोशनी से मंद मंद मुस्कराता हुआ कहता है कि हां अब हमें जिंदगी मिल गई है। शायद इससे पहले हम जी नहीं पा रहे थे। समाज का यही है ढांचा, जो अपनी बुनियाद को तलाशने में जुटा हुआ है। हां, इसके पास पैर नहीं है, लेकिन यह बौद्धिक रूप से बड़ा बलवान है और तब सारी कायापलट अकेले ही कर देता है। आज समाज को क्रांति की जरूरत नहीं है, बल्कि जागरूकता के बीज बोने की आवश्यकता है। अगर इसकी खेती को हरा-भरा नहीं किया गया तो समझ लो कई चीजों में हम पिछड़ जाएंगे। तब विकास की अविरल धारा हमसे कोसों दूर हो जाएगी। सामाजिकता को भी शर्म महसूस होने लगेगी। लगेगा कि कहीं सूरज खो गया है, समाज में काला अंधेरा काबिज हो जाएगा और हवाएं भी रुख के विपरीत बहने का इरादा जाहिर करती नजर आएंगी। इस माहौल को हमें बदलना होगा। समाज की धारा जो मैली होकर गुस्सा हो गई है और उसे राह पर लाना होगा। अगर इसमें चूक हो गई तो फिर समाज को हम कैसे जोड़ पाएंगे। अब सबकुछ जल्द करना होगा, क्योंकि न तो इंसान के पास समय है और न ही समाज के पास। हर कोई घड़ी से तेज दौड़ रहा है, और यह दौड़ कहां खत्म होगी, कोई नहीं जानता है।

Saturday, April 23, 2011

अस्तित्व के लिए संघर्ष का सिद्धांत लागू है...


जब तक कश्ती तूफानों में रहती है, हर पल उसके डूबने का संकट बना रहता है, उस वक्त जो लोग उस पर सवार रहते हैं, उनके दिलों में क्या गुजरती है, शायद इसका अंदाजा सिर्फ वो ही समझ पाते हैं। हम तो दूर से देखकर चीजों की गहराई में उतरने की कोशिश भर कर सकते हैं, लेकिन वास्तविकता और कल्पना के बीच में कई मीलों गहरी खाई होती है, कई बार यह खाई महीन हो जाती है तब फर्क करना भी मुश्किल रहता है। बेशक जब वह कश्ती तूफानों से बाहर निकल आती है और उन पर सवार लोगों को लगता है कि हां अब हमारी जिंदगी पर कोई खतरा नहीं है, उस स्थिति शायद उनसे ज्यादा ख्ुाशी और किसे मिलेगी। मौत के मुंह से बाहर आने के बाद जो जिंदगी मिलती है, वह बेहद अनमोल रहती है और उसकी कीमत सबसे महंगी रहती है। वही आज का समय है, जब जिंदगी में संघर्ष ही संघर्ष हैं। कहावत भी कुछ ऐसी ही है कि जीवन एक संघर्ष है, लेकिन आजकल तो अस्तित्व के लिए संघर्ष के सिद्धांत पर कार्य कर रही है। पल-पल भारी होता जाता है। मुश्किलों की इस घड़ी में न तो कोई साथी बचा है और न ही कोई साथ देने वाला। जीवन में न ‘अआबेबीगं’ के ही खतरे नहीं है, बल्कि और भी खतरे हैं जो हर पल धोखा देने के लिए तैनात रहते हैं। अभाव, अज्ञानता, बेकारी, बीमारी और गंदगी ही दम नहीं निकाल रहे हैं, बल्कि जीवन के पग-पग पर कांटों का जाल बना हुआ है और इस पर रीते पांव ही चलना पड़ रहा है, ऐसे में जिंदगी लहूलुहान होने से नहीं बच सकती है। तो क्या पहले से ही तेयार हो जाया जाए, मगर इसमें भी कई दोष हो सकते हैं, क्योंकि इन दोषों पर न तो हमारा अधिकार रहता है और न ही इसमें ईश्वर का हाथ होता है। समाज में हुए परिवर्तन ने उसे उस घुमावदार घर में परिवर्तित कर दिया है, जिसमें हमें रहना भी है और उसका हमें रास्ता भी मालूम नहीं है। आखिर कैसे चलेगी जिंदगी। यहां हर कोई शोषण करने से बाज नहीं आ रहा है, बाजीगरी ऐसी कि समझ ही नहीं आती है। चक्रव्यूह से निकलने में कई चालों को लगा लिया, लेकिन हर बार कुछ नहीं होता है। रुसवाई और बेबसी की जिंदगी में इतने आंसू आ चुके हैं, कि जीवन की चकरी ही घूम गई है। न तो कोई मसीहा नजर आता है और न ही कोई रास्तों का विकल्प। बस दिखाई देता है तो भरा समुंदर या फिर सूखा रेगिस्तान। अब इन दोनों के दिखते ही जिंदगी की हवाएं जालिम हो जाती हैं और रेगिस्तान में गुबार उठता है तो समुंदर में सुनामी की लहरों हिलोरे मारती हैं। हर कोई बवाल ग्रह में बलवान बनने की सोचता है, लेकिन इन लोगों को सबक सिखाने का कोई रास्ता ही नजर नहीं आता है। तब मौत ही आखिरी रास्ता दिखाई देती है, लेकिन वह भी आसान तो नहीं होती है, क्योंकि उसमें न जाने कितने जोखिम होते हैं, और अगर इन जोखिमों में जख्म लगा भी बैंठे तो भी जीवन का घाव भरता नहीं है। हाथों में अंगार लेकर चलना कहीं जिंदगी का दूसरा नाम तो नहीं है। कहीं पहाड़ों पर चढ़ना ही जिंदगी नहीं बन गया है। क्यों हम दूसरों की सताई और बनाई हुई दुनिया में कठपुली बनकर नाच रहे हैं, कहीं हमारा भी कोई अस्तित्व नजर नहीं आता है क्या। जो भी हो, सामाजिक परिवर्तनों से ऐसा भूचाल आया है कि अब धरती के साथ आसमान भी कांप रहा है। सूरज की रोशनी में सेंध हो गई और बादलों को बयार ने उड़ा दिया है। ग्रहों को ग्रहण लग गया है और इंसान इडियटों की तरह हकला रहा है। न जीने की राह दिखाई दे रही है और न ही अरमानों का आसमां। न जाने क्यों? हम जीवन की धारा में गोते लगा रहे हैं, हमें किनारा नहीं मिल रहा है। इन किनारों से क्यों जीवन गुम हो रहा है, क्यों जिंदगी भंवर में फंसी हुई नजर आ रही है। क्यों इस जीवन में जीने के लिए मोहताज होना पड़ रहा है, क्यों... शायद इन सवालों के जवाब हममें से किसी के पास नहीं है। हां, हमें जिंदगी जीने का एक्सपीरियंस बहुत हो गया है, लेकिन हमारी तरह सैकड़ों लोग हैं जो जीवन जी तो रहे हैं, पर अस्तित्व के संघर्ष वाले सिद्धांत।