Sunday, February 27, 2011

...और कितना बेचोगे


यहां बहुत बड़ा मार्केट है, जो दिखता है वही बिकता है, बाजार खुला है बस बेचना आना चाहिए, और न जाने कितने फंडे हैं हमारे इस देश में। हमें पूरी तरह से बिकाऊ ही करार दे दिया गया है। जिस देश में आदर्शों की पूजा की जाती थी, जहां सिद्धांत ही सरताज रहते थे, आज वहां संवेदानाओं को कोई जगह नहीं दी जा रही है। हमें खिलौना मान लिया गया है, मार्केट में जिसके पास बुद्धि का बल है , और वह बल चतुरता में तब्दील होकर लोगों को शेंडी लगाने में पीछे नहीं देखा जा रहा है। हर कोई हर किसी को ठगने में लगा हुआ है। न तो किसी के पास दिल है और न ही संवेदना। एक समय हम दया और क्षमा करने वाले को भगवान का दर्जा दे देते थे, लेकिन आज यह भी दिखावा बन गया है। हर तरफ एक मायाजाल क्रिएट कर दिया गया है और इस चक्रव्यूह के लिए लंबी रचना रखी गई है। हर किसी को इस मायावी जाल में जकड़ने की तैयारी की गई है, बेचारे बेसुधों के साथ अन्याय किया जा रहा है, जो चतुर है, वह मालामाल है और जो सीधा है वह लुट रह है। कोई लुटा रहा है, लेकिन वह लूट भी रहा है। लुटने लुटाने का यह क्रम जारी है। देश का बंटाढार किया जा रहा है, सच्चाई का गला घोंटा जा रहा है, अन्यायों के हौसले बुलंद हैं, आम आमदी का जीना मुश्किल हो गया है, लेकिन इसकी परवाह किसको है। यहां तो हर कोई अपना घड़ा ही भरने में जुटा हैं, तिजौरियां लबालब हो गई हैं, इसके बावजूद जीवन का संघर्ष करने में आम आदमी जुटा है। वह पल-पल मर रहा है, मगर न तो सरकारी तंत्र इसकी फिक्र में कुछ कर रहा है और न ही नेता इनकी सुध ले रहे हैं। लगातार यही हो रहा है, देश बर्बाद हो रहा है, समाज भ्रष्ट हो गया है, नैतिकता जैसी कोई चीज नहीं रह गई है। अपराधों का वर्चस्व हो गया है। हर तरफ विपरीत बयार का बवंडर सा आया दिखाई दे रहा है और इसमें हर कुछ बहत, उखड़ता नजर आ रहा है। जिंदगी का संघर्ष समाप्त होते दिख रहा है, लोग जिंदगी को दगा दे रहे हैं, आखिर कारण बहुत हैं, लेकिन बस्ती में अभी पहला कारण है जान को बचाना। जिंदगी मोहताज हो रही है, फिर भी जीना तो पड़ेगा, चाहे वह तड़प-तड़प कर ही क्यों न। उम्मीदों को परवान नहीं मिल रहा है, हताशा के अंधेरे ने सभी को घेर रखा है, काली घटाएं डराने में कोई भी समय नहीं छोड़ रहीं हैं, बादल गरज-गरज कर गुर्रा रहे हैं। सूरज आग बबूला हो रहा है, हवाएं साजिश कर रही हैं। फिर भी जीवन में बहुत दर्द उमड़ रहे हैं और इन्हें हराना मुश्किल हो रहा है। तब कहीं दूर से आवाज आती है, यह इतनी खौफनाक है, इसे सुनकर होश उड़ जा रह हैं। मौका गंवाना मुश्किल हो रहा है। लेकिन मौका भी अगल-अलग ही है, क्योंकि यहां से जीवन में नया दस्तूर आ रहा है, यह भी बेहद मुश्किल हो गया है। आखिर कैसे जिया जाए, क्योंकि जीवन में सरकारों ने इतने अड़ंगे पैदा कर दिए हैं कि उबर पाना ही मुश्किल हो रहा है, बस आदमी सुकून ढूंढ़ रहा है, लेकिन वह सुकून उसे नसीब ही नहीं है, क्योंकि पल-पल में तो पतवारें खड़ी हैं और इनसे निपट पाना बहुत मुश्किल हो गया है। इन सब बातों में एक चीज यह भी है कि क्यों न जिंदगी को भागती टेÑन ही समझ कर जिया जाए, उसमें कितनी ही बाधाएं क्यों न आएं, बस जिते रहो जिंदगी। अगर यही फलसफां रखा जाएं तो फिर आम आदमी का जीवन में शांति का नया आयाम दिया जाए। इन लोगों ने तो लूट के कई फॉर्मूले बनाएं हैं, लूट के समीकरण भी तैयार हैं और धोखे के रैपर भी। एक कदम भी गलत रखा तो जीवन में अनहोनी हो जाएगी, और यह अनहोनी जीवनभर के लिए दुखी कर देगी। इसलिए बचो, और संभलो, सतर्क रहो, क्योेंकि यह नहीं किया तो यहां पर सभी मगरमच्छ बैठे हैं, और ये मगरमच्छ तुम्हें किसी भी पल खा जाएंगे, इनसे बचने के लिए अपने पास हथियार रखो, जैसे ही मुंह फांडेÞ, डाल दो हथियार और फाड़ दो मुंह। तब ही जीने को मिलेगा।

Friday, February 18, 2011

सात खून माफ!


इंसान का सबसे बड़ा गहना क्षमा माना गया है, लेकिन वह किन हालातों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाए। शहर से लेकर गांव तक और गांव से लेकर देश तक हर कोई हत्यारा है। फिर चाहे वह मनुष्य का खून कर रहा हो या फिर न्याय का। ईमानदारी का सत्यता का। खूनी तो हर कोई है। फिर चाहे वह मठाधीश हो या फिर कोई बड़ा अधिकारी। संत हो या महात्मा। अगर गौर किया जाए तो जीवन में महात्मा जी भी नहीं चूके होंगे ‘सात खून’ करने से। लेकिन उनके पुण्यों का घड़ा इतना था कि उसने सात खून माफ करवा दिए। एक कहावत है कि डायन भी सात घर छोड़ देती है, या कहें कि उसे इन सात कर्मों को माफी मिल जाती है। तो क्या मौजूद स्थिति में हर कोई डायन है, जिसे सात खून की माफी मिल रही है। सात खून...अगर यह परिस्थिति विशेष हुए तो अलग बात है, लेकिन जान-बूझकर तो एक भी क्षमा के काबिल नहीं हैं। फिर हम तो कोई महात्मा नहीं है, या फिर हम कोई उपदेशक भी नहीं है। हम जनता है, और सात वादें भी हमारे अगर पूरे नहीं किए तो हम माफ नहीं करेंगे। सात अजूबे भी हैं, सात फेरे भी हैं, सात से सजी है दुनिया है, और सात में ही अंबर है। यहां भी सातवां घोड़ा है, सूरज का। तो दुनिया में हर चीज सात के आसपास ही घूमती है। सवाल यह नहीं है, जो दिखाई दे रहा है, पर्दे के पीछे की कहानी कुछ और ही बयां कर रही है, वह कहानी है कि आखिर किसी को कहां तक माफी दी जाए। अगर यह माफी का पैमाना तय कर दिया जाए...मगर ऐसा हो नहीं सकता। जी हां...अगर हमें जरा सी ठोकर भी लग जाती है तो हम उस पत्थर को उखाड़ने की कोशिश कर डालते हैं, हमें इतना गुस्सा आ जाता है कि हम किसी को कुछ भी नहीं समझते हैं। अब इसका क्या मोल? क्योंकि जब हमारे सामने कोई बलवान आ जाता है, तो हमें अपना गुस्सा पीना पड़ता है। सारे समाज की जड़ ही है गुस्सा। इसका अंत करना जरूरी हो जाता है, अगर समाज में हर कोई माफ करने की नीति पर चले तो कहीं न कहीं इन फसादों का जन्म ही न हो, लेकिन कुछ मौकों पर गुस्सा भी जायज होता है, लेकिन इतना भी मत करो कि उसकी गिरफ्त में ही आ जाओ। देखा जाए तो हम गुस्से को पाल नहीं पाते हैं, क्योंकि उस समय तक ही गुस्सा रहता है अगर इसके बाद हम कुछ करने की कोशिश करते हैं तो चीजों में बदलाव शुरू हो जाता है। दुनिया में कई लोगों ने ऐसी मिसालें पेश की हैं कि हम खुद भी हैरत में पड़ जाएंगे, लेकिन उनका भी हश्र क्या होता है, शायद वो ही जानें। पर हम तो माफी, क्षमा और गुस्सा के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं। रास्तें हमारे सामने कई हैं, लेकिन माकूल और अनुकूल रास्ता कौन सा है यह हम नहीं जान पा रहे हैं। जब हम यूं ही जिंदगी का अरमान पालते हैं तो यह गुस्सा, क्रोध जैसी चीजें हमारे साथ आ जाती हैं। जीवन का यह चक्र चक्रव्यूह बनकर आ जाता है। उसके लिए फिर अर्जुन ही तोड़ सकता है, मगर अर्जुन तो व्यस्त है, वह कुछ और करने में लगा हुआ है। उसकी मजबूरी यह है कि वह यहां नहीं आ सकता है। फिर क्या उसका बेटा अभिमन्यु इसे तोड़ेगा, मगर अभिमन्यु तोड़ेगा तो उसे अपनी जान गंवानी पड़ सकती है। इसलिए उसे खतरे में डालना ठीक नहीं है। तो क्या यह चक्रव्यूह अभेद है, और कोई योद्धा अब इसे नहीं तोड़ पाएगा। क्रोध का यह चक्रव्यूह अब सदा रहेगा, क्योंकि क्षमा में वह शक्ति नहीं रह गई है कि वह इसे माफ कर दे। इसलिए यह तो सालों-साल रहने वाला है। अब सात खून पर माफी नहीं मिलेगी, बल्कि सजा का प्रावधान है, क्योंकि पहली गलती तो माफ हो जाती है, लेकिन सातवीं गलती माफ तो भगवान भी नहीं करेंगे ,फिर यह तो हमारी न्याय व्यवस्था और समाज है। यहां पर गलती कि है तो प्राश्चित नहीं, बल्कि सजा का प्रावधान है और वह सजा आपको दी जाएगी। फिर न तो कोई पछतावा चलेगा और न ही कोई बहाने की लाठी।

Wednesday, February 16, 2011

मनमोहन चलाओ सुदर्शन


कहते हैं कि खामोशी वह अस्त्र होती है जो वाचालों को ऐसा जवाब दे जाती है, जिसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते। कई बार विवादों पर विजय पाने का ब्रह्मस्त्र भी बन जाती है, लेकिन इसकी भी अति मुश्किल में डाल सकती है। पूरे देश में आफतों का दौर चल रहा है। आडंबर और बयानों की इस सरजमीं पर वाचालों ने हंगामा खड़ा कर दिया है। ऐसे में हम आम आदमी के दिल से भी ‘मन’ के लिए गुस्सा छूट रहा है। न तो पीएम साहब अपनी चुप्पी तोड़ रहे हैं और न ही भ्रष्टाचार पर कोई नकेल कसने में सक्षम हो रहा है। देखा जाए तो देश बुरी तरह रसातल में चला गया है और इस समय किसी संजीवनी की जरूरत है। अब सवाल यह उठता है कि जो काम अर्जुन के लिए कृष्ण ने किया, राम के लिए हनुमान ने किया...आज ‘मन’ के लिए कौन करेगा। कौन देश की सत्ता को बचाएगा, क्योंकि यहां तो सभी धृतराष्ट्रों की तरह ही नहीं सकुनी की तरह आंखें जमाए बैठे हैं। जैसे ही मौका मिलता है बस खड़े हो जाते हैं अपना पक्ष रखने। चौसर बिछाने में। देश और समाज की तो किसी को परवाह ही नहीं। हमारे दिल में टीस उठती है, ऐसी ही टीस हर हिंदुस्तानी युवा के मन में उठ रही है। वह भीतर ही भीतर जल रहा है। उसका गुस्सा पार्टियों के लिए हो गया है। वह पार्टियों से ऊब चुका है, क्योंकि वह समझदार है और इनकी बातों के चक्रव्यूह में नहीं फंसता है। वह इनसे आगे की सोचता है, वह अपने कॅरियर के बारे में बातें पसंद करता है और अगर देश में विकास की बात नहीं हो तो यह दु:खी भी होता है और अपना गुस्सा जताने में भी पीछे नहीं हटता है। अब देश को जरूरत है किसी पार्टी की नहीं, बल्कि एक ऐसे युवा संगठन की, जो देश को नए आयाम दे सके। उसमें कोई राजनीति न हो, सिर्फ देश के विकास की बात हो। फिर इन पार्टियों को धूल चटाई जा सकती है। भ्रष्टाचार के नियम कड़े हों, जमीर को जगाएं, इसके बाद मतों का उपयोग करें। देश बुरी तरह संक्रमित हो गया है। पहले कलमाणी की बीमारी फिर ‘राजा’ नामक हैजे ने तो देश को गरीब ही बना दिया है। ये ऐसे कैंसर हैं, जिनका इलाज ही नहीं है। इन पर कोई भी बाउंसर फेंकने वाला नहीं है और अगर कोई फेंकता है तो एंपायर चीटिंग कर उसे ‘नो’ बॉल करार दे देता है। समस्या इनकी फिर से लाइलाज हो जाती है। देश के इन गद्दारों को न तो सजा हो पाती है और न ही सामाजिक बहिष्कार। ऊपर से ये अपनी मनमानी को पूरी तरह से अंजाम दे रहे हैं और ‘मन’ की तो कोई सुन भी नहीं रहा है। सोनिया ने भी बेदाग छवि वाले एक पुतले को बैठा दिया है। मैडमजी भी समझदार थीं, क्योंकि उन्होंने एक ऐसा कवच बैठा रखा है, जिस पर कितने भी वार करो, वह अपनी खामोशी से सब सह लेता है और बात को ‘समय’ के इस अस्त्र में बहा देता है, समय अपने आप सारे जख्मों में मरहम लगा देता है। हां कई बार घाव जरूर रह जाते हैं, लेकिन इनमें दर्द नहीं रहता है और दर्द नहीं होता है तो फिर जख्म का महत्व भी इतना नहीं रहता। आज नई ऊर्जा की आवश्यकता है, देश की वल्गाओं को थामने के लिए कोई ‘कृष्ण’ चाहिए। हां कृष्ण भी मनमोहन थे, लेकिन वो हर बार खामोशी से जवाब नहीं देते थे, बल्कि सोलह कलाओ में निपुण थे। आज तक ऐसा चतुर और कलाओं में पारंगत कोई भी भगवान और मनमोही नहीं आया। वह छलिया था, और धर्मवेद भी। आज कौरवों का राज चल रहा है, मनमोहन आप भी तो कोई महाभारत का परिपाठ याद करो और फिर कुरूक्षेत्र में अर्जुन (राहुल) को उतारकर उसका सारथी बन जाओ, फिर देखो भ्रष्टाचार के इस महाभयानक ‘रावण’ पर विजय मिल जाएगी। बस एक दमदार प्रयास करो, क्योंकि जब तक वह नहीं होगा, कुछ नहीं होगा। आखिर इसमें रिस्क है, लेकिन प्रयास करना ही तो प्रकृति का नियम है और यह हमारे पूर्वजों से सीखने को मिला है। आज इस देश को एक नई ऊर्जा और एक नई क्रांति की जरूरत है। उसे जगा दो, अन्यथा देश बर्बादी की डगर पर खड़ा हुआ है।

Tuesday, February 15, 2011

जेपीसी पर कोहराम क्यों



यह बूढेÞ भारत का लड़खड़ाता लोकतंत्र है, जो आज चलने में तकलीफ महसूस कर रहा है। हम भले ही इसे युवाओं का भारत कह रहे हो, लेकिन प्लास्टिक सर्जरी कराने से कोई युवा नहीं बन जाता है, क्योंकि देश में लोकतंत्र को जिस तरह से शर्मसार किया जा रहा है, वह देश के माथे पर कलंक दिख रहा है। जो कल नहीं हुआ, वह आज हो रहा है, और जो आज नहीं हो रहा है, वह कल होगा। यही परिवर्तन है, लेकिन यह तब अच्छा लगता है जब यह अच्छे से बुरे की ओर जाए, लेकिन यहां तो हवाएं विपरीत धारा में बहती नजर आ रही हैं। देश में भ्रष्टाचार का भूत बलवान हो गया है, लेकिन यह क्या, हम उस पर मंथन करने के बजाय उसे और ताकतवर करने में जुटे हैं। उसे मारने की जगह उससे मुंह छिपा रहे हैं। देश में टूजी स्पेक्ट्रम का जिन्न बोतल से क्या निकला, विपक्षी पार्टियों ने तो समझा मानों सत्ता का द्वार ही मिल गया हो। उन्होंने महंगाई और जनता का भला छोड़कर इस मुद्दे को भुनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। जोर शोर से चिल्लाए, दम खम दिखाने की भी कोशिश की। देश के लोकतंत्र को सत्ता के स्वाद के लिए बार-बार पीटने की कोशिश की गई, उन्हें गिराने का प्रयास हुआ। यहां तक कि पत्थर भी मारे...। बेहद शर्मनाक। बात यहीं तक नहीं बनी तो इसके आगे भी चले गए। कहते हैं कि कितनी भी लड़ाई हो जाए, अगर बात बंद नहीं होगी तो हल जरूर निकल आएगा, लेकिन यहां तो बिलकुल उल्टा हुआ। संसद के इतिहास में जो आज तक नहीं हुआ था, उस काले दिन को अमर बना दिया गया। एक पूरा सत्र बिना बातचीत के निकल गया। आखिर क्यों? क्या इसके लिए सत्ता पक्ष जिम्मेदार है, या फिर वो चंद नेता, जो सत्ता के लिए अपनी मां-बहन तक को गिरवी रखने से गुरेज नहीं करते हैं। वो तो सत्ता को रखैल मानकर उसे अपना बनाने की कोशिश में एक पल भी गंवाना नहीं चाहते हैं। आखिर विपक्ष जेपीसी की मांग क्यों कर रहा है, जबकि इतिहास पर नजर दौड़ाए तो चार बार इसका इस्तेमाल हो सका है। इन चारों बार इसने कोई ऐसा महानकाम नहीं किया है, जिससे इस पर गर्व किया जा सके। और फिर ऐसा परिणाम भी नहीं दिया है कि इसे लागू कर दिया जाए। विपक्ष तो इसके लिए ऐसा अड़ गया था मानो भ्रष्टाचार को खत्म करने का यही रास्ता है। उसने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पूरे सत्र को लहूलुहान कर दिया। इससे पहले 1987 (बोफोर्स), 1992 (प्रतिभूति घोटाला...हर्षद मेहता कांड ) , (2001 शेयर घोटाला) 2003 (शीतलपेय घोटाला )...। इन चारों में जेपीसी का गठन किया गया, लेकिन चारों में कोई रिजल्ट नहीं आया। और देखा जाए तो जेपीसी का मुख्य उद्देश्य होता है संसदीय आचार संहिता, और नीतिगत मसलों पर विश्लेषण करना है। मगर यहां तो आपराधिक मामला है। इन सबके बावजूद बहुत विपक्ष तो अपनी दादागिरी कहें या हठ पर जुटा है और यह हठ उसका टूटता नजर नहीं आ रहा है। अब अगला सत्र आने वाला है और इस सत्र में क्या होगा, इसका कोई अंत नजर नहीं आ रहा है। मगर यह जो भी ड्रामा हुआ है, उसके लिए जनता न तो पक्ष को माफ करेगी और न ही विपक्ष को। भ्रष्टाचार पर भले ही माफ कर देगी, लेकिन बीजेपी का हठ कहीं उसे भारी न पड़ जाए और सत्ता का स्वाद कहीं और दूर न खिसक जाए। हालांकि यह भारत है, और यहां जनता सारी चीजों को बहुत जल्दी भूल जाती है, लेकिन यह खामोश रहती है और वक्त आने पर अपना फैसला पूरी शिद्दत के साथ सुनाती है। आने वाला समय क्या होगा यह कोई नहीं जानता, लेकिन यह ऐसा दाग है, जिसका ठिकरा यूपीए से अधिक बीजेपी पर मढ़ा जाएगा। साथ ही उतनी ही दोषी कहलाएंगी मीरा कुमार। सिर्फ पद पर बैठने से कुछ नहीं होता है, कुछ करके भी दिखाना होगा, और अगर नहीं दिखा सकते तो पद छोड़ दो। तुम्हारे लिए जनता का नुकसान नहीं होना चाहिए। इस महाभारत का अंत देखने लायक होगा।

Thursday, February 3, 2011

जब कांबली रो पड़े


साल 1996...मैच विश्वकप सेमिफाइनल...भिडंÞत भारत और श्रीलंका...स्थान इडग गार्डन...., दर्शक 20 हजार से ऊपर..., पूरा मैदान खचाखच भरा था। एक गेंद पर आह निकल रही थी तो अगले ही पल वाह भी निकलती। पूरा देश सांसें रोककर इस मैच को देख रहा था। एक पल के लिए भी कोई इसे चूकना नहीं चाह रहा था। जमीं अपनी थी तो अपने चांस ज्यादा थे, इसलिए भारत ने गेंदबाजी की और बल्लेबाजी का निमंत्रण लंकाई शेरों को दिया। मैच की पहली ही गेंद से लग गया कि टीम इंडिया 1983 का कारनामा दोहरा देगी। यह मैच जीतकर हम फाइनल में आ जाएंगे। सभी के हौसले बुलंद थे, क्योंकि पिछला मैच हमने पाकिस्तान से जीता था, जो शानदार फॉर्म में था। हमारी गेंदबाजी विलक्षण तो नहीं थी, लेकिन हां हमारी जमीं पर हमें हराना बहुत ही मुश्किल था। मैच का पहला ओवर जवागल श्रीनाथ ने किया। पिछले मैच में ज्यादा प्रभावी नजर नहीं आए श्रीनाथ आज तो कुछ अलग करने के ही मूड में नजर आ रहे थे। सामने ओपनर के रूप में थे हार्ड हिटर जयसूर्या और कालू वितरणा। जिनकी जोड़ी से पूरे विश्व के गेंदबाज खौफ खा रहे थे। वह दो साल इनकी बुलंदी के थे और उस समय दुनिया का हर गेंदबाज इनसे बहुत डरता था। विश्वकप में सूर्या तो पूरे शवाब में थे। जिधर मार देते, बस चौके छक्कों की बरसात हो जाती। पहली गेंद को उन्होंने सिंगल लेकर टरका दिया। हर गेंद के साथ भारतीयों की सांसें ऊपर नीचे हो रही थीं। दिल धड़क रहे थे, लेकिन डर भी लगा था कि कहीं कोई अनहोनी न हो जाए, लेकिन सभी को टीम पर भरोसा भी था कि हम जीत का जश्न जरूर मनाएंगे और फाइनल के ताज तक पहुंचेंगे। पहली गेंद खेलकर जयसूर्या नॉनस्ट्राइक पर गए। इसके बाद कालू वितरणा जो पहली ही गेंद पर मारने के मूड से उतरे थे। उनके सामने श्रीनाथ अपनी दूसरी गेंद लेकर आए। उन्होंने अपना रुख स्पष्ट कर दिया। और गेंद के आते ही जोरदार शॉट खेला। गेंद बाउंड्री पर जा ही रही थी कि तभी गेंद के नीचे मांजरेकर नजर आ गए और उन्होंने उन्हें लपक लिया। फिर क्या था, पूरा देश एक साथ झूम उठा। क्रिकेट में विकेट, वह भी श्रीलंका में...क्या बात है, हर खिलाड़ी झूम रहा था। कालू वितरणा दूसरी ही गेंद पर चलते बने। भारतीयों की उम्मीद बंधने लगी। अगली गेंद पर नए बल्लेबाज आए और उन्होंने सिंगल निकालकर दे दिया। स्ट्राइक थी विश्वकप के सबसे धाकड़ बल्लेबाज के पास। जयसूर्या को चौथी गेंद डाली और उन्होंने आगे बढ़कर घुमा दिया, लेकिन यह क्या? वेनकटेश प्रसाद ने कैच थाम लिया। टैÑजडी। श्रीलंकाई खिलाड़ी पूरी तरह से सन्न रह गए। पूरा स्टेडियम झूम रहा था। चार बाल में दो विकेट और दो रन। पूरे टूर्नामेंट में श्रीलंका के साथ ऐसा नहीं हुआ था। अब क्या था। बस समझो कि भारत को जीत ही दिखने लगी। भारतीयों के हौसले बुलंद हो गए। अब जिम्मेदारी दूसरे बल्लेबाजों की थी। टीम से उम्मीद की जा रही थी कि वह 200 या 225 का स्कोर किसी तरह खड़ा करे, लेकिन डिसिल्वा और कुछ अन्य बल्लेबाजोें के छुटपुट प्रयास से टीम का स्कोर 252 पहुंच गया। खैर भारतीय इतने निराश नहीं हुए, क्योंकि यह इतना मुश्किल लक्ष्य नहीं था। अब बारी भारत की थी। उसकी पारी का अगाज करने आए सचिन तेंदुलकर और नवजोत सिंह सिद्धू। पहले ओवर में ही सचिन ने एक बाउंड्री जड़ दी, लेकिन अगले ओवर में सिद्धू आउट हो गए। उनके आउट होते ही भारतीयों को झटका। लेकिन यह तो क्रिकेट है, और इसमें विकेट तो गिरना ही थे। अब सचिन और मांजरेकर ने खेलना चालू किया। फिर क्या था मैदान पर सचिन आला रे कि गूंज हो रही थी। हर क्षेत्र में चौकों की झड़ियां लगा दी। 90 से अधिक रन बना डाले दोनों ने मिलकर। और जीत दस्ताने में नजर आ रही थी। तभी सूर्या गेंदबाजी करने आए। और उन्होंने सचिन को रनआउट कर दिया। भारत को सबसे बड़ा झटका। इसके बाद तो पूरी टीम पवेलियन में जा बैठी। आठ विकेट हो चुके थे, दूसरे एंड में विनोद कामली थे। तब भारतीय दर्शक आग बबूला हो गए। उन्होंने मैदान में बॉटलें फेंकना चालू कर दी। तब श्रीलंका को जीत दे दी गई, यह जीत जाते देख विनोद कामली के आंसू निकल आए, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि शायद मैं मैच जिता दूं। मगर हाथ में आई जीत भारत से फिसल गई। वह जख्म आज तक नहीं भुलाया है। और शायद भारतीय क्रिकेटर उस मैच को कभी नहीं भूल पाएंगे, जिसमें बल्लेबाजों ने संघर्ष ही नहीं किया।

Wednesday, February 2, 2011

सपनों की हसीन दुनिया


सपने से हसीन इस दुनिया में कुछ भी नहीं होता है। जिस तरह बंद मुट्ठी लाख की, खुल जाए तो खाक की, उसी तरह जब आंखों में कोई सपना तैर रहा होता है, तो मन काबू में नहीं होता है। दिल दीवाना हो जाता है, और हर वो चीज हमारी हो जाती है, जिसे हम पाना चाहते हैं। हसीन सपना का सौदा इतना सुंदर होता है जैसे हमारी सारी आरजू पूरी हो गई हो। पर जब सपने टूटते हैं, तो और भी ज्यादा दर्द होता है, तब इस दर्द को हम चाहकर भी छुपा नहीं पाते हैं। यह सपना हर किसी के पास होता है। हां, इन्हीं सपनों ने कई बार बड़े-बड़े तूफानों को जर्रे में सपेट दिया है, उन्हें जार-जार कर दिया है और कई बार यही जर्रा तूफान बनकर जिंदगी को उड़ा ले गया। सपनों की इस मरीचिका में रेतीली जमीन ही हाथ आती है, बाकी सबकुछ मिथ्या हो जाता है। अब सपनों का क्या है, कभी-कभी तो यह अभिमान बन जाते हैं, तो कभी-कभी मान को भी मिटा देते हैं। अपने सपने से मशहूर मुंगेरी लाल बदनामों की श्रेणी में हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ सपना ही अच्छा लगता था और वो चलते-चलते सपनों में खो जाते थे। सोच को उन्होंने सपनों का आकार दे दिया था। हाय, वह भी कितना प्यारा चरित्र है, जो हमारी यादों में हमेशा के लिए बस गया। हां यह अलग बात है कि उसके कार्य विपरीत थे, लेकिन इतना तो तय है कि वह सीधे तरीके से जीवन नहीं जीता था और बंद आंखों के सपनों का वह सौदागर नहीं था। हां हम भी सपनों से प्यार करते हैं, क्योंकि इन पर सिर्फ हमारा ही राज चलता है। कई बार अंगड़ाई में लिया सपना, बलखाई कमर जैसा लगता है, तब दिल टकराकर लंगड़ा हो जाता है, ठीक वैसा ही, जैसा दिल बच्चा होता है। वह कितनी भी उम्र पार कर ले, उसे धड़कना, वह भी हसीन चीजों को देखकर नहीं भुलाता है। इन सपनों का क्या कहना, जब ये आते हैं तो दिल बाग-बाग हो जाता है। खुशनसीब होता है ये जहां जिसे सपनों की सौगात मिलती है, और कभी-कभी तो दरख्तों की तरह ये बेवफा हो जाते हैं, दिन-दिन भर नींद को दुहाई देते रहते हैं कि काश कोई प्यारा सपना आ जाए। यह सपना भी डंक मारता रहता है। इसलिए कहें कि सपने महबूबा की तरह होते हैं, जो सिर्फ सताती ही रहती है। यह उससे भी आगे चले जाते हैं, और सुखद को दु:खद में बर्बाद कर देते हंै। जीवन बड़ा कठिन है, और अगर तुम्हारे साथ जिंदगी में सपनों का समागम न हो तो, यह जिंदगी बहुत खर्चीली और खुरदुरी लगने लगती है, तब यह आशिकी के गालों की तरह नहीं, बसके पैरों के तलवों की तरह हो जाती है। जो ठंड में खूब खरकते हैं। इस मौसम में हसीन जिंदगी को अगर जीना है तो सपनों से दोस्ती कर लो, नींद को अपने हक में कर लो, तब देखा जीवन कितना जबरदस्त हो जाएगा। इसमें बचकाना कुछ भी हो, लेकिन चटखारे आ जाएंगे। बस यही तो चाहते हैं कि कहीं कोई दरख्त टूटकर मेरे बहते लहू पर परर्दा तो डाल दे, उस बेवफा की बेवफाई को ढंक दे, क्योंकि वह है तो मेरी आशिकी ही। तब मैं उसे क्यों बदनाम होने दूं, जब भी आएगा इस जुबां पर कोई नाम, साला उसी बेवफा का। उसे क्यों याद करें, जब सपने हसीन हमारे साथ हैं, और हम इन सपनों की जादूगरी सीख जाएं तो सपनों के समुंदर में डुबकी लगाकर मजा आ जाएगा। हम हैरान हैें, परेशान भी, लेकिन जब सपने आएंगे तो हंसी आ जाएगी। उन खुशनसीब चंद पलों को हम पूरी शिद्दत से जी लेंगे तो सारी कायनात हमारे लिए ही बेकरार हो जाएगी। मन में उत्साह और असीम सुख देकर यह सपने जाएंगे, सपनों को सखा बनाने में ही फायदा है, क्योंकि कई बार ये क्रूर भी हो जाते हैं, तब स्थिति बहुत विकट हो जाती है। इसलिए कहने से कुछ नहीं होता, जो भी होता है, वह सपनों में ही होता है। अब आसमान में सपनों को सजाओ, और उन्हें दिल से लगाओ और दुनिया तुम्हारी मुट्ठी में आ जाएगी। जब यह मुट्ठी हमारी रहेगी तो फिर हम ही शहंशाह कहलाएंगे।