Wednesday, June 30, 2010

फिर उमड़ेंगे जज्बात


दूर कहीं से उड़ती-उड़ती एक खबर आई है, खबर कुछ यह है कि क्रिकेट के दो सरताज, फिर जल्द आमने-सामने होंगे। ये सरताज हैं दो पड़ोसी या कहें कि दो जॉनी दुश्मन, जो न सिर्फ बॉर्डर पर एक दूसरे की जान के दुश्मन हैं , बल्कि क्रिकेट के मैदान पर भी इनकी भावनाएं उबाल मारती हैं। ये दोनों एक बार फिर मैदान पर होंगी। इस खबर से हालांकि क्रिकेट के प्रशंसकों को काफी खुशी मिलेगी, लेकिन उन लोगों को दु:ख मिलेगा जो ऐसा नहीं चाहते हैं। हम दोनों की दोस्ती की बातें करते हैं, लेकिन शेर के मुंह में हाथ डालने जैसा है, क्योेंकि दोनों देशों में अब न तो सीमाओं के मुद्दे पर कोई समझौता हो सकता है और न ही खेल के मैदान में कोई दोस्ती। यह सब छलावे हैं , हां इतना जरूर रहेगा कि इन दोनों के क्रिकेट खेलने से मार्केट में पैसे की कमाई बढ़ जाएगी। सट्टा बाजार गर्म हो जाएगा। फिलहाल राजनीति की बात न करें तो बेहतर ही होगा, क्योंकि यहां उसी का बोलबाला रहेगा, हम उस मैदान पर उतरते हैं, सामने है हमारे धोनी की ब्लू ब्रिगेड, और उनका मैच है शाहिद अफरीदी की टीम से। एक दम फंसा हुआ मैच। करो या मरो के समान। मैदान दर्शकों से खचाखच भरा हुआ है। हर तरफ देश प्रेम का सैलाब उमड़ता दिखाई दे रहा है, खेल के प्रति लोगों की दीवानगी चरम पर नजर आ रही है, दर्शकों का मन झूम रहा है, आज खेल कोई आम खेल नहीं है, बल्कि यह खेल कर्मयुद्ध है, अगर दोनों टीमें आमने सामने हैं, मगर दर्शकों के जेहन में यही चल रहा है, कि तीन लड़ाइयां तो हमने इन्हें हरा दी है, पर ये सुधरे नहीं, अब एक बार फिर खेल के मैदान में इन्हें पटकनी दे दी जाए। शोएब अख्तर सोच रहे हैं कि आज तो तीन चार को घायल किए बिना छोड़ूंगा नहीं, वहीं सहवाग उतावला होए जा रहा है कि आज फोड़ कर रख दूंगा। चौके-छक्कों की बारिश कर दूंगा। सचिन पर सभी की निगाहें हैं, प्लानिंग उनके ईद-गिर्द ही घूम रही है, शाहिद ने अपनी तूफानी शॉट अगर बचाकर रखे हैं तो वह टीम इंडिया के लिए। आज तो दिखा देगा कि जब सबसे तेज शतक मारने की बात हो तो मुझे अफरीदी कहते हैं, जब मेरा बल्ला बोलता है तो आग उगलता है। ऐसे में बेचारी बॉल के साथ बार-बार बलात्कार किया जाएगा। मगर वह न तो हिंदुस्तान से बोलेगी और न ही पाकिस्तान से, क्योंकि दोनों ही ओर कट्टर दुश्मन लड़ रहे हैं, सांड-सांड की लड़ाई में बागड़ का नुकसान तो होना ही है, और वही हाल बॉल का भी हो रहा है। अब क्या था सिक्का हवा में उछला और धोनी के पक्ष में गिरा, अब माही की मुस्कान बाहर आ गई, उन्होंने सोच लिया, चलो यहां तो हमने अपना दावा ठोंक ही दिया है। उन्होंने पहले बल्ला उठाने की बात कही। शाहिद ने कहा, वहीं रौंदकर रख देंगे। इधर सचिन और सहवाग ओपनिंग करने उतरे। उधर से शोएब अख्तर बॉलिंग कर रहे हैं। दर्शक पहली बाल पर सांसें रोकें बैठ गए। उधर शोएब ने पहली गेंद डाली, 150 के ऊपर। सहवाग को समझ नहीं आई। इस पर सहवाग ने उनकी तरफ देखा...उनका अंदाज था नहीं दिखाई दे रही क्या। सहवाग को गुस्सा आया, दूसरी गेंद सोएब की 148, इधर सहवाग गेंद को भांंप गए, अब क्या था दूसरी ही गेंद पर छक्का। दर्शकों की फिर से दीवानगी बढ़ गई। इस तरह अगली चार गेंदें सहवाग नहीं देख पाए। एक ओवर छह रन। अगला ओवर सचिन सामना करेंगे, मौसम में नमी थी, और झमाझम बारिश के भी आसार थे। सचिन ने अपनी बेहतरीन शुरुआत और सधी हुई की, दूसरे छोर पर सहवाग आग उगल रहे थे, लाजवाब मैच चल रहा था, कभी इस पटरी तो कभी उस पटरी मैच का रुख दिखाई दे रहा था। लेकिन तभी क्या हुआ कहीं से एक बॉटल आई और बाउंड्री पर खड़े शोएब को पड़ जाती है। फिर क्या ऐसा हंगामा बरपा की क्या कहने, मैच तो एक तरफ हो गया, एंपायर इस विवाद में ही उलझ गए। मैच जो शानदार होने वाला था उसका कबाड़ा हो गया। बस इसी बात का डर है, क्योंकि दोनों देशों में मैच करवाने के हालात पैदा करने में सालों लग जाते हैं और एक गलती फिर सालों साल दोनों के बीच मैच बंद करवा देती है। इसलिए जब बात आई है कि दोनों देशों में फिर से मैच होंगे तो फिर सभी को अपनी जिम्मेदारी समझते हुए ऐसा कोई भी काम नहीं करना चाहिए, जिससे मैच के लिए खुला रास्ता पुन: बंद हो जाए। इसलिए प्लीज मैच देखो इंजॉय करो, हार जीत को भूलों , और खास बात ऐसा कोई भी कार्य मत करो, जिससे कि फिर से मैच बंद हो जाए, क्योंकि मैच देखने वालों के लिए इससे बुरी कोई खबर नहीं होगी। अगर दोनों देशों में मैच चलते रहे तो निश्चय ही हर चार माह में वर्ल्ड कप जीतने जैसी खुशी मिलती रहेगी।

Tuesday, June 22, 2010

नंबरों की होड़ में हारती जिंदगी




शाहरुख नंबर-1 है, अरे नहीं शाहरुख कैसे हो सकता है, यह गद्दी तो अमिताभ के पास आज भी है...। फिर सलमान का क्या नंबर आता है, भई हीरोइनो ं में कैटरीना ने तो सभी की छुट्टी कर नंबर वन का ताज हासिल कर लिया है। क्रिकेट में टीम आॅस्ट्रेलिया को नंबर वन के ताज से हटाया नहीं जा सकता है। कोई इस खेल में कोई उस खेल में, मगर नंबर एक का ताज हासिल करना चाहता है, हर कोई नंबरों में जुटा है, उसे जिंदगी से कोई लेना देना नहीं है। उसका तराजु सिर्फ नंबरों को तौलता है और अगर नंबर में वह हिट है तो उसे ही परफेक्ट करार दे दिया जाता है। कंपनी कौन सी नंबर वन है और उसमें कितनी जंग चल रही है, हीरो कौन नंबर वन है और वह इसके लिए क्या-क्या कर रहा है, खिलाड़ी कौन नंबर वन है और इसके लिए वह कितनी मेहनत करता है...बात यहीं तक ठहर जाए तो कोई गम नहीं। मगर यहां तो नंबरों की होड़ में जिंदगी हारती नजर आ रही है। कोई पैसों के नंबर जोड़ रहा है, कोई मोबाइल के नंबरों में जुटा है, तो कोई दोस्तों के नंबर बढ़ाने में लगा है, हर कोई नंबर की चाह में जिंदगी को लेकर दौड़ रहा है, जिसमें कई बार सरपट फिसलता है, लेकिन फिर भी यह मोह नहीं छोड़ रहा है...। नंबरों को खेल ही रहने दिया जाता तो कोई चिंता नहीं थी, लेकिन अब यह उन मासूम जिंदगियों को भी प्रभावित करने लगा है। हम उस बचपन को भी इन नंबरों के तराजू में तौल रहे हैं। आखिर क्यों? हम अंग्रेजों के दो सौ साल गुलाम रहे, लेकिन इस आधुनिक सदी में हमने नंबरों की गुलामी स्वीकार कर ली है, वह हमें नचा रहा है, उसकी जैसी मर्जी होती है, वह वैसे हमसे कार्य करवाता है। दुनिया का खेल पूरा नंबरों पर चल रहा है, फिर जुएं का नंबर हो, या लॉटरी का नंबर, शोहरत का नंबर हो या ज्ञान का नंबर हो। कोई नंबरों की ओट में आबाद हो रहा है तो कोई बर्बाद भी हो रहा है। आखिर नंबरों का यह खेल क्यों बंद नहीं किया जाता, चलो न भी करो, लेकिन इन्हें उन निर्देशों के मानस पर क्यों ला रहे हो, जिन्होंने जिंदगी अभी जीना सीखा भी नहीं है, ठीक से चलना भी नहीं जानते। और उनके कंधों पर इतना बोझ डाल दिया। हे भगवान ऐसा जीवन तो नारकीय है, और यह बनाने के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है। बल्कि हम स्वयं दोषी हैं। तो क्या कर लेंगे ये नंबर, जब जिंदगी हम हमारी शर्तों पर जिएंगे, और अगर जब जीना ही है इस धरती पर उसी लिए आए तो व्यर्थ के चक्कर में कहां रगड़ रहे हो जिंदगी, बस जियो जी भर के, क्योंकि अगर ऐसा न कर सके तो उस परमात्मा का भी अपमान रहेगा, जिसने तुम्हें यह जिंदगी दी है। इसलिए नंबरों की उलझन इतनी मत बढ़ाओं की इनके चक्रव्यूह में जिंदगी उलझ कर रह जाए, क्योंकि यहां कोई अर्जुन नहीं आएगा उस चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए, बल्कि खुद के अर्जुन को स्वयं जगाना होगा, वहीं यह भेद सकता है। वीरों की तरह रहो, आखिर जिंदगी है कोई नंबर तो नहीं। यह तो हमारा ही नंबर दोष है, इसे दूर करो, और फिजा में इतनी रंगत भर दो की जीवन गले लगाने के लिए बेताब है। तो आज से छोड़ों यह नंबरों की चिंता, क्योंकि यह तुम्हारी चिता जल्द सजा देंगे, बस इन्हें अपना गुलाम बनाकर रखो, क्योंकि यह गुलामी तुम्हें खूब भाएगी। अगर यह करना सीख गए तो निश्चय ही हम लहरों का मजा ले सकेंंगे, आसमान की ऊंजी उड़ान भर सकेंगे। तो तैयार हो जाओ उस नई ख्वाबों की दुनिया को जो अब हकीकत बनने वाली है...।

Wednesday, June 16, 2010

बस इतना सा ख्वाब है



वाह सचिन, वाह! आपने कहा है कि मेरा सपना विश्वकप है, यह बताइए किस भारतवासी का सपना नहीं है कि विश्वकप भारत आए। आखिर तोड़ते भी तो आप लोग ही है। और आपके पास तो इस सपने को सच कर दिखाने का सबसे ज्यादा चांस आए। आप चाहते तो सपना कब का पूरा कर सकते थे, लेकिन हर बार आप हारने के बाद अपने सपने को अगले चार सालों के लिए संजो लेते हैं, और फिर करोड़ों भारतवासियों को दिलासा देते रहते हो। इस बार भी ऐसा ही है, माना कि आपने विश्वकप में सबसे अच्छा प्रदर्शन किया, लेकिन थोड़ा प्रदर्शन आप और कर देते तो उस दिन हम विश्वकप ही जीत जाते, जो पारी आपने साउथ अफ्रीका के खिलाफ दो सौ रनों की खेली है, वह आप विश्वकप 2003 में आॅस्ट्रेलिया के खिलाफ फाइनल में खेल जाते तो आज हमारे पास विश्वकप होता। खैर भूली बातों को कुरेदने से कोई फायदा नहीं होता, क्योंकि वह अच्छी हो या बुरी, जख्म गहरे ही होते हैं। और अब जो किया, जिसने किया भूली बिसरी बातें भूल कर हम वर्तमान के इस सपने की बात करते हैं। सचिन आप ने सपना देखा है 2011 विश्वकप का। क्या यह सपना सिर्फ सपना ही न रह जाए। आपने अपनी आधी जिंदगी तो क्रिकेट को दे ही दी, इसमें जहां आपने क्रिकेट को बुलंदी पर पहुंचाया, वहीं आपको भी दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। मगर 2011 का सपना क्या पूरा होगा, जिस तरह से हमारे क्रिकेट के दिग्गज कहलाने वाले खिलाड़ी पिद्दियों से हार रहे हैं, उससे तो यह सपना एक बार फिर सपना ही नजर आ रहा है। जिस तरह विश्वकप में हमने हार और जिल्लत झेली है, वह हमारे कप्तान पर भी सवालियां निशान खड़े कर रही है। आखिर क्या किया जाए, क्योंकि दूसरी टीमें अपने सर्वश्रेष्ठ स्तर पर जाकर खेल रही हैं , जबकि हमारा कोई स्तर ही नहीं है और हम विश्वविजेता बनने का ख्वाब देखते हैं, आखिर कैसे पूरा होगा यह ख्वाब। न तो हमारे पास कोई ऐसा बल्लेबाज है जो पूरे मैचों में लगातार प्रदर्शन करे और न ही ऐसा कोई गेंदबाज है जो आग उगले। जो टीम है वह महज पांच या दस ओवर खेलने वाली है, वह भी ठीक से नहीं खेल पाती है। 50 ओवर खेलने में हम ढह जाते हैं,तो कैसे विश्वास करें इस सपने पर सचिन जी। माना आप के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आप तो अपना 101 प्रतिशत देने वाले हैें और विदेशी टीमों के लिए सिरदर्द आप ही रहोगे, लेकिन एक खिलाड़ी के दम पर तो जीत हासिल नहीं होती है, यह भला आप से बेहतर कौन जान सकता है। आप ने एक बार फिर उम्मीदें जगा दी हैं, लेकिन हमारी टीम हमारी उम्मीदों पर कभी खरी नहीं उतरी है, उसने हमेशा हमें निराश ही किया है। हमें हार ही दी है, तो कैसे अपनी उम्मीदों के आसमान को शिखर पर पहुंचाया जाए, क्योंकि वहां पर ले जाने के बाद ये वहीं से हमें छोड़ देते हैं, तब तकलीफ ज्यादा होती है, दर्द बेहद होता है। जीतने का ख्वाब सजाया है तो पूरी हिम्मत के साथ और पूरे समर्पण के साथ खेलना होगा, क्योंकि यह मौका आपके लिए तो शायद आखिरी बार ही होगा, अगर इस बार भी नहीं जीते तो आने वाली पीढ़ियां तरस जाएंगी आपसे विश्वकप जीतने की। इस बार यह खुशी दे दो, खुशी दुगुनी भी हो सकती है, क्योंकि यह क्रिकेट एशिया की सरजमीं पर होने वाला है और फाइनल का कप जिस दिन उठेगा, वह भारत में ही उठेगा तो क्यों इसे हम बाहर जाने दें, जब हमारे घर में ही हम शेर न हो, तो मतलब क्या क्रिकेट खेलने का। इस बार तो किसी भी हालत में हमें जीतना है, ताकि दुनिया का भ्रम तोड़ दें कि हम तुक्के में कभी नहीं जीतते हैं और साथ ही यह भी बता दें कि हम कागजों के शेर नहीं है, जब मैदान में उतरते हैं तो विश्वविजेता बनकर ही आते है। सचिन यह सपना पूरा करवा दो, क्योंकि यह सपना तुम्हारा नहीं है, बल्कि हम सभी भारतवासियों का है, अगर यह ख्वाब पूरा करवा दिया तो तुम क्रिकेट के सच्चे भगवान कहलाओगे।

Sunday, June 13, 2010

चहारदीवारी में तो ठीक...बाहर आई तो बेहया



मेरे देश के भी क्या कहने हैं, इसकी तारीफ में जितने भी कसीदे पढ़े जाएं, उतने ही कम... मैं यहां तारीफ नहीं कर रहा हूं, बल्कि उलाहना सुना रहा हूं। क्योंकि आज देश 21वीं सदी में जीने का सपना नहीं बल्कि उसमें मर मिट रहा था। वाह! रे मेरे देश...जहां औरतों को हम आधी आबादी मानते हैं, उन्हें अर्धांगिनी का दर्जा देते हैं, लेकिन बात आती है अधिकार देने की तो हमारे कदम पीछे ही हटते हैं, हम उन्हें दबाकर रखते हैं, उसे चहारदीवारी के अंदर की मानते हैं और कभी जब वह चहारदीवारी को तोड़कर कुछ आगे बढ़ने, खुली हवा में सांस लेने की कोशिश करती है, तो हम उसके पांव की बेड़ियां बन जाते हैं, तब भी अगर वह उन्हें तोड़कर आगे आती है, तब हम उसे बेहया और बिगड़ी की श्रेणी में डाल देते हैं। अगर बुलंदी पर पहुंची गिनी चुनी महिलाओं को छोड़ दें तो सबके प्रति समाज में नजरिया क्या है, इससे हम पूरी तरह से वाकिफ हैं। हम सामने तो उनके उद्धार करने की बात करते हैं, लेकिन जब मौका आता है तो उनके दमन में हमारा ही हाथ सबसे आगे? आखिर क्यों? क्यों हम उसके बाहर निकलने पर मर्यादाविहिन करार दे देते हैं। कहावतें भी ऐसी गढ़ दी जाती है, नारी का चरित्र कोई नहीं समझ सकता? अरे भाई आपके चरित्र की क्या गारंटी है, हर महिला जो बंधन तोड़कर आती है, समाज में कुछ मुकाम बनाने के लिए कार्य करती है तो उसके जज्बे को तोड़ दिया जाता है। उसे निस्तेनाबूद करने की पूरी कोशिश की जाती है, और यह कोई एक व्यक्ति नहीं करता है, बल्कि हर वो मर्द करता है, जो उससे किसी न किसी रूप में जुड़ा है। क्यों उनके सपनों को हम आसमान में पंखों के सहारे उड़ने नहीं देते? क्यों हम उन्हें सिर्फ चूल्हा-चौका में छौंकने के लिए ही समझते हैं, जब परमात्मा ने मानव को सबसे सुंदर कृति का दर्जा दे ही रखा है तो नारी उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है, और इस तथ्य को हम कभी अस्वीकार नहीं कर सकते हैं, मगर स्थिति बिलकुल विपरीत है, यहां तो हम उसके दमन में ही जुटे रहते हैं, आखिर क्यों, क्यों हम उसका शोषण करते हैं, वह भी तो सर्वसंपन्न है, जो भगवान ने हमें दिया है, आखिर उतना अधिकार तो उसे भी दिया है, फिर भी हम उसे परंपराओं की बेड़ियों में हम इतना जकड़ देते हैं कि उसकी जिंदगी सिसकती और तड़पती ही रहती है, इसमें तो हमारा ही दोष है। यहां देखा जाए तो हम दोहरी नीति के साथ जी रहे हैं, बातें तो सकारात्मक की जाती हैं, अमली जामा पहनाने की बारी आती है, तो बातों का बांध कहां धराशायी होकर उस समुंदर में बह जाता है कोई नहीं जानता है, तब सिर्फ समुंदर ही समुंदर दिखाई देता है। हम पूजा करते हैं नारी की, मां शक्ति, मां दुर्गा के आगे सिर झुकाते हैं, लेकिन यह सिर्फ मंदिरों तक, उसके बाद निकलते ही हम उस स्त्री को जलील करने का एक मौका भी नहीं छोड़ते हैं। कभी विचार किया है कि आखिर हमारे समाज में मंदिरों में मां का निर्माण क्यों हुआ है, इसके लिए भले ही इतिहास और पौराणिक के कई तर्क दिए जाएं, लेकिन वास्तव में इसका अर्थ यह है कि नारी ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है और इसका सम्मान करना ही ईश्वर का सम्मान है, लेकिन हम तो उसे भोग के अलावा कुछ नहीं मानते , वह भोग भी अपनी शर्तों पर। कभी उसे भी तो उड़ने का मौका दो, समाज बुरा है, लेकिन अपनी सोच में थोड़ा फर्क लाकर तो देखो, ये बेटियां भी कल वह कर दिखाएंगी, जो आज असंभव है, और उस समय आपका सीना और सिर दोनों फक्र से दोहरे तन जाएंगे। पहला तो यह कि उसने अपनी मंजिल पाई है, दूसरी यह कि आपने उस ओस की बूंद को यूं ही जाया होने नहीं दी, उसे सुरक्षित रखा और आज वह कामयाबी की ऐसी रोशनी बिखरा रही है, जिसके आगे देखने में आंखें चुंधिया रही हैं।

Tuesday, June 8, 2010

ये कैसा इंसाफ?



हजारों की जान...दो साल में अदा में कर दी गई है, भोपाल गैस त्रासदी की उस भयानक रात और उसमें गई हजारों लोगों की जान का मोल महज दो साल और कुछ लाख रुपए लगाए गए हैं। वाह क्या इंसाफ है मेरे देश का। एक कहावत है जस्टिस डिले, जस्टिस डिनाय? यहां तो उसका गला ही घोंट के रख दिया गया है। न्याय का दम निकाल दिया गया है। 25 साल से ज्यादा हो गए हैं, लेकिन इससे पीड़ित आज भी मर मर के जिंदगी जी रहे हैं। उसे एमआईसी का दर्द आज भी उनके अंदर सिसकता है, उनकी रुह में सिहरन पैदा कर देता है। उस रात के बाद वह सुबह जब चारों तरफ लाशें ही लाशें नजर आ रही थीं। मंजर इतना खौफनाक और ह्दय विदारक था कि इंसान उसे देखकर ही दम तोड़ दे। जो जिस अवस्था में था उसी अवस्था में उसने दम तोड़ दिया था। 25 साल पहले हजारों लोगों का दम उसे गैस ने घोंटा था, आज न्याय ने एक बार फिर इंसाफ का गला दोबारा घोंट दिया। आखिर उन लोगोें की क्या गलती थी, उन भोपालवासियों की, या उस उड़िया बस्ती में रहने वाले लोगों की, या उस दिलीप की और पद्मिनी की, जिसकी उसी दिन शादी थी। उन्हें तो कोई फायदा नहीं हो रहा था उस यूनियन कार्बाइड से। जो लोग सोने के अंडे देने वाली इस मुर्गी को पाल रहे थे, क्या वो इसके खतरे से अनजान थे, बिलकुल नहीं, बल्कि यह पूरा हादसा लापरवाही के कारण हुआ था। जैसा की जेपियर मारो ने अपनी किताब में उस विदारक घटनाओं को बताया है, उससे तो लगता है कि इसके दोषियों को फांसी भी दे दी जाए तो कम है, लेकिन जेपियर मारो का अलग नजरिया और भावुकता हो सकती है। यहां तो सच्चाई है , जिसका दम घोंटा गया है। उस भयानक मंजर को यूं ही भुला दिया गया है। जो लोग उससे प्रभावित हुए थे, उनके बच्चे आज तक अपंग पैदा हो रहे हैं, गैस का प्रभाव उनकी पीढ़ियों के ऊपर आ गया है, शरीर में इतने रोग हो गए हैं कि जिंदगी सिसकते और रगड़ती मौत को मांग रही है, लेकिन मौत है कि आंख-मिचौली खेलने में जुटी हुई है। तो इसका दोषी कौन है, जाहिर है वही लोग, जिन्होंने इस शैतान की रचना की थी, वह भी चंद रुपयों के लिए। यहां सवाल यह है कि आखिर उस भयानक मंजर के लिए दोषियों को इतनी आसानी से कैसे छोड़ दिया गया। आखिर उनकी भूल भूलवश तो नहीं थी। एक साल पहले से ही पैसे बचाने के लालच में कंपनी में सुरक्षा व्यवस्था को ठेंगा दिखा दिया गया था। उस पर पूरी तरह से लापरवाही बरती जा रही थी, मगर परवाह किसी को नहीं थी। वो तीन टैंक, जिनमें जिंदा मौत दफन थी , उसे यूं ही हलके से लिया जा रहा था, आखिर टैंक साफ करने थे तो इतनी लापरवाही क्यों बरती। हालांकि उसमें भी कइयों की जान गई, लेकिन दोषी कोई नहीं मरा, जो इसका जनक था वह तो भारत के हाथ ही नहीं आया। वहीं इस पर राजनीति अभी तक खेली जा रही है। हर बार चुनाव में इसे मुद्दा बनाकर भोली-भाली जनता को बहलाया जाता है। उसके साथ यूं ही छलावा किया जाता है। अब फैसले के बाद लोगों ने जिस तरह से सीना पीट कर अपने आंसू बहाए, वह उनका 25 साल पुराना दर्द बता रहा था, जिसे वो अपनी आंखों में छिपाए बैठे थे। अब तो उनसे भी नहीं रहा गया, क्योंकि सारी उम्मीदों पर पानी फिर गया। इतना लंबा बनवास...उसके बाद भी न्याय नहीं मिला। आखिर दोषी तो अर्जुन सिंह भी थे, जो इस मौत के कारखाने से पूरी तरह से वाकिफ थे, बावजूद वे इन सबको भुला बैठे थे। आखिर इन सब चीजों में दोष किसका है। यह देश का दुर्भाग्य है कि यहां न्याय नहीं मिलता, बल्कि यहां गरीब हमेशा पिसता है, और पैसा हमेशा उस पर राज करता है । तो यहां का हिसाब यह है कि यहां अगर पैसा है तो जीने का अधिकार है, अन्यथा जिंदगी जहन्नुम है, और न तो कानून आपको न्याय दे पाएगा और न ही यह सरकार। इस जहरीले सफर का जहरीला इंसाफ देखकर तो लगता है कि आखिर इस देश की न्यायव्यवस्था सिर्फ अमीरों के लिए ही है।

Thursday, June 3, 2010

भ्रष्टों को तो निकालना ही चाहिए

देश में भ्रष्टाचार की सरिता में सब डुबकी लगाने के लिए तैयार हैं, हर कोई अपनी तिजौरियां भरने में जुटा है। लूट-घसूट चारों ओर मची है। कोई किसी के बारे में नहीं, बल्कि अपने फायदे का सौदा करने के लिए बैठा है। ऐसे में बेहतर भातर की कल्पना कोरी प्रतीत होती है। देश में ऐसा कोई विभाग नहीं है, जहां भ्रष्टाचार मौजूद नहीं है और कुछ विरलों को छोड़ दें तो हर कोई बस खाने के लिए है, आखिर तरक्की हो तो कैसे हो। सरकारी विभागोें में तो गले के ऊपर तक भ्रष्ट लोग बैठे हैं, लोग परेशान होते हैं, एक काम के लिए उन्हें सालों लग जाते हैं, चक्कर लगाते-लगाते, चप्पलें खिस जाती हैं, लेकिन काम नहीं होते हैं, परेशानी की हद हो जाती है, लेकिन समस्या का पहाड़ बढ़ता जाता है। तो कैसे मिटे यह भ्रष्टाचार...इसके लिए किसी न किसी को तो कमर कसनी ही होगी। किसी न किसी को तो संकल्प लेकर आगे आना ही होगा। इसमें देखें तो सबसे पहला नंबर आता है नेताओं का, जिन्होंने देश का ठेका लेकर रखा है, सुधार का, मगर दिक्कत यह है कि इनके हाथ ही उस गंदे गटर में डूबे हुए हैं, तो फिर ये कैसे सुधारेंगे। इसके लिए सुप्रीम कोर्ट आगे आया है जो सराहनीय है, अब उसने आदेश दिया है कि भ्रष्टाचारियों को बाहर कर दो, जी हां बिलकुल, अगर लकड़ी में दीमक लग जाए तो उसे बहुत जल्द बदल देना चाहिए, वरना वह कभी भी धोखा दे सकती है। कमजोर लकड़ी को चोर कभी भी तोड़कर मनमानी कर सकते हैं। उसी तरह ये भ्रष्ट अफसर और कर्मचारी देश की व्यवस्था को लाचार बना देते हैं। इन्होंने देश की हालत को बद्तर कर दिया है। इन स्थितियों से निपटने के लिए ही यह फैसला आया है आखिर मजबूत भारत की नींव और मजबूत कंधे नहीं होंगे तो भार आगे कैसे बढ़ेगा। इन भ्रष्टाचारियों की लालफीताशाही और सरकार के उदारीकरण के चलते हर चीज फीकी नजर आती है। सारे नियम कायदे, सिर्फ कागजों पर ही रेंगते नजर आते हैं। इनकी आब्रू इनके हाथों लूटी जाती है और ये नियम सिसक भी नहीं पाते हैं। ऐसे देश कैसे विकास करेगा, जहां पग-पग पर बड़े-बडेÞ दावन खड़े हैं, वो कैसे दूसरों से कंधा मिला पाएगा। हम आज तक कश्मीर समस्या नहीं सुलझा पाए हैं, चीन ने हमारी सीमा पर कब्जा कर लिया है और वह और अंदर और अंदर आता जा रहा है, बावजूद इसके हमारे पास कोई तर्क नहीं है। यह तो बहुत दूर की बात है, हम तो हमारे आसपास के भ्रष्टों को ही नहीं निकाल पाते हैं, देश में भ्रष्टाचार का यह बीज सालों पहले डल गया था और अब यह मठाधीश बनकर बैठ गया है, इसके आगे किसी की नहीं चल रही है। तो क्या हम यूं ही लाचार बन गए हैं, नपुंसकों की भांति बैठ जाएं, अगर यह सिलसिला टूटा नहीं तो फिर देश को एक बार फिर अगर सालों की गुलामी झेलनी पड़े तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए। हमने देश को सोने की चिड़िया बनाने का सपना देखा था आज कहां तक वह सपना पूरा हुआ है। किसी ने लिखा है कि हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना है बार-बार देखो। बड़े ठीक ही कहा है, क्योंकि यहां तो कौन सा उल्लू कब गुलास्तिान का हाल खराब कर देगा कोई नहीं जानता है। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए सामूहिक जन प्रयास करने होंगे, तभी स्थिति को सुधारा जा सकता है, अन्यथा यह भ्रष्टाचार की नदी अंतत: सागर में गिरकर उसी के रंग में रंग जाएगी और इस बार वह सागर के रंग की नहीं होगी, बल्कि उसे भी भ्रष्टाचार मय बना देगी। इसलिए प्रण कर लो कि किसी भी कीमत पर भ्रष्टाचार को नहीं फैलने देंगे, जो हमारे सामने करेगा, हम उसे रोकेेंगे, अन्यथा सारी चीजेें ऐसी ही चलती जाएंगी और हम यूं ही सिसकते जाएंगे ।