Monday, May 31, 2010

इस लैला...का कोई मजनूं है क्या?


मौत हसीन हो तो मरने में और मजा आता है, खेल में कोई हसीना हो तो खेल का रंग ही बदल जाता है, जिंदगी में किसी खूबसूरत परी का साथ हो तो वह जन्नत की तरह बन जाती है। हर बार हसीना ही हावी रहती है। इस हसीन दुनिया में खूबसूरत जो भी खूबसूरत चीज होती है वह हमें भाति है, ऐसे में वह मौत ही क्यों न हो, तो सवाल यह उठता है कि आखिर हर बार मौत को हसीन ही होती है, बिलकुल होती है, और जब यह हसीन होती है तो मौत की सलतनत में सरताज बनने का मौका कौन हाथ से गंवाने वाला है। हां, वो लैला है, जिसका मजनूं दीवाना था, वो मजनूं तो अपनी लैला के लिए अमर हो गया, लेकिन यह लैला कितनी बेदर्द है जो न जाने कितने मजनुओं की जान से खेल रही है। यह कैटरीना भी तो ऐसा ही है,जो हजारों की जान ले चुका है, अब तक आप गफलत में पड़ चुके होंगे कि हम क्या हूल-जुलूल की बातें कर रहा हूं, मैं लैला को हसीन मौत क्यों बता रहा हूं, आखिर हम तो एक ही लैला को जानते थे, जिससे मजनूं बहुत मुहब्बत करता था। सोनी भी थी, महिपाल भी था, ऐसी ही न जानें कितनी हसीनाएं, और कैटरीना जो दिलों पर कहर बरसा देता है। दिमाग पर जोर देने की बात है भाई, यहां हम लैला तूफान और कैटरीना तूफान की बात कर रहे हैं, भले ही इनके नाम उन हसीनाओं से मिलते जुलते हो, जो लाखों के दिलों की धड़कनें तेज कर देते हो, लेकिन ये लैला और कैटरीना तो इतनी बेदर्द हैं कि लाखों की धड़कनें ही बंद कर देती हैं। आखिर इतनी बेदर्द क्यों हैं...वहीं एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर इन भयानक चीजों का नाम इतनी खूबसूरत क्यों रखा गया है। दरअसल लैला का मतलब तो वह खूबसूरत हसीना होती है, जिसके भूरे बाल, भूरा चेहरा और भूरी आंखें होती हैं, जिसे एक बार देखकर ही दिल मचल जाए, उससे मिलने का, उसके पास जाने का।
वहीं बॉलीवुड की कैटरीना को तो हम देख ही रहे है, वह किसी परी से कम नहीं है,जिसकी आंखें और रुप देखकर दिल मचल जाता है। जब ये इतनी खूबसूरत हैं तो इनके नाम को भयानकता से...इसके पीछे साइंटिफिक तर्क देने की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि हम भारतीय तो अपना जीवन भावनाओं और कल्पनाओं के ऊपर जीते हैं, तो ऐसे में यहां एक नई कल्पना आई है, क्या इनके नाम इसलिए तो नहीं रखे गए हैं कि जब इनका नाम लिया जाए तो लोग घबराए नहीं, बल्कि उनसे मिलने के लिए तड़प उठे। यह बहुत जरूरी है कि मौत नहीं डराती, बल्कि मौत का भय डराता है। लैला ने अभी बहुत तबाही मचाई है, लेकिन लैला का नाम आते ही हमें वह सैकड़ों लोग जो मर गए हैं वो नजर नहीं आते, बल्कि लैला का नाम सुनते ही हमारे दिलों में हमारी लैलाएं आ जाती हैं। कैटरीना के तूफान के समय भी यही हाल था। लैला-लैला करने वालों अब सावधान हो जाओ, क्योंकि यह खतरनाक हसीना है और कब मौत बनकर सामने आ जाए कहां नहीं जा सकता है। फिलहाल तो इनके नामों ने उन लोगों को जरूर राहत दे रखी है, जो इस तरह की घटनाएं सुनकर काफी सहम जाते हैं। इसके लिए मानवीय कृत्य जिम्मेदार नहीं है, इसे प्रकृति का निराला खेल या उसका कहर मान सकते हैं , तो इसी बहाने सही, कम से कम इस सदमे से उबरने के लिए ही इनका नाम लैला और कैटरीना रखा गया हो। मगर सलमान और मजनूं के साथ सैकड़ों लोगों संभल जाओ, इन हसीनाओं का भी कोई भरोसा नहीं है, कहीं ये भी तो तूफान न बन जाएं, और कब मौत से आपका सामना हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। फिलहाल तो लैला दु:ख दे रही/रहा है, और हमारी तुमसे अपील है कि लैला, तुम्हे इतना गुस्सा शोभा नहीं देता है।

Wednesday, May 26, 2010

कसाब और करीना की शादी



नई बात सामने आई है, कसाब, जो इस समय भारतीय जेल में बंद हैं और उसे फांसी दी जा चुकी है, वह खुद का तन्हा महसूस कर रहा है, उसे अकेलापन खाए जा रहा है। इसे दूर करने के लिए वह शादी करना चाहता है। और हमारे देश में कसाब से शादी करने के लिए अगर कोई परफेक्ट लड़की है, तो आप बताएं, लेकिन कल्पनाएं तो कुछ भी हो सकती है। वहां तो श्रीदेवी, माधुरी, ऐशवर्या...भी हो सकती है, लेकिन ये तो शादी शुदा हैं, और हमारा मुजरिम कसाब कुंवारा, वह भी हैंडसम और डेयर कुंवारा। अब ऐसे हॉट कुंवारे के लिए अब किसे चुना जाए, जीवनसाथी भी उसके जैसा ही हो, जो बोल्ड भी हो और सेक्सी भी, और कसाब से उसकी जोड़ी मैच हो जाए...कल्पनाओं के घोड़े इधर-उधर दौड़ाने के बाद एक बांकी छोरी समझ में आई है, जो कसाब के लिए बेहतर हो सकती है और उसका जितना भी जीवन बचा है, उसे या तो जहन्नुम बना देगी या फिर जन्नत बना देगी...वो बाला है करीना कपूर। जी हां...अब करीना कपूर सेफ नहीं है...डरिए नहीं सैफ और करीना अलग नहीं हो रहे हैं, बल्कि कुछ दिनों के लिए करीना कसाब की होने जा रही हैं, इतने दिन तक वे सैफ से दूर रहेंगी। अब हॉट हैंडसम और क्रूर आतंकवादी की बीवी बनने का साहस यदि किसी में है तो वह करीना ही है। यार हमारी भी किस्मत होती, जो करीना जैसी सेक्सी गर्ल्स से मिलने का और शादी मनाने का मौका मिलता। मगर अब तो वो कसाब की हो रही हैं। सानिया शोएब की हो गई, उसके बाद अब करीना कसाब...मरने वाले की हर ख्वाहिश पूरी की जाती है और करीना दिलोजान से उसकी सेवा भी करेंगी। अब हम चलते हैं कसाब के रिसेप्शन में... यहां एक से एक खतरनाक अंडरवर्ल्ड के दुर्दांत खिलाड़ी आने वाले हैं। यहां पर दाउद भी रहेगा और लश्कर-ए-तैयबा भी होगा। हर वो आदमी जो तबाही का बादशाह है वह इस रिसेप्शन में मौजूद रहेगा। करीना की ओर से गिने-चुने शरीफ लोग ही रहेंगे, जो उन्हें जल्द से जल्द बधाई देकर वहां से निकलना चाहेंगे। स्टेज पर दोनों का वर-माला प्रोग्राम होगा, इसमें करीना थोड़ी लंबी हैं, इसलिए कसाब को माला डालने में उन्हें किसी भी तरह की दिक्कत नहीं आने वाली है। इसके बाद दोनों के फेरे हो जाते हैं, करीना की शादी कसाब से हो जाती है, अब तो शादी हो गई, तो करीना को पति परमेश्वर मानना ही होेगा और जहां पति रहेगा, वहीं पत्नी को भी रहना चाहिए, ये हिंदू धर्म कहता है। हालांकि वो मुसलमान हो जाएंगी, लेकिन कर्त्तव्य भी यही कहता है। ऐसे में जिस तरह वासुदेव के साथ देवकी ने जेल में अपना जीवन बिताया था उसी तरह कसाब के साथ करीना भी अपना जीवन बिताएंगी। अगले दिन सरकारी गाड़ी में दोनों को ससुराल भेज दिया गया। भई जेल के दिन भी सुहाने होने लगे, होते भी क्यों न, इतनी खूबसूरत बीवी जो मिली है, ऐसा तो होना ही था। अभी फांसी में भी सालों थे, इसलिए इस जिंदगी का कुछ आनंद तो उठाया ही जा सकता था। रोज सुबह करीना उठकर उन्हें कसाब को जगाती, देर रात तक उसके पांव दबाती, वाह क्या आदर्श पत्नी बन गई करीना, ऐसा तो किसी ने सोचा भी नहीं था। हुस्र परी अपने शौहर को हर खुशी देने में जुटी थी। लगभग दो माह हो गए थे अब करीना प्रेगनेंट हो चुकी थीं। जीवन और हसीन हो गया था, क्योंकि करीना मां बनने वाली थी। दस माह बाद उन्होंने एक बेहद खूबसूरत से बेटे को जन्म दिया। अब क्या था उस जेल में तीन लोग हो गए थे। करीना, कसाब और उनका बेटा। नामकरण का समय आया, दाउद सहित कई बड़े संगठनों ने उसके नाम का प्रस्ताव भेजा, अंत में उसका नाम किसाब रखा गया। अब लगभग आठ साल का हो चुका था। फांसी का समय पास आया, तो करीना ने सरकार को कहा आप मेरे पति के साथ ऐसा नहीं कर सकते हैं, जब उसकी ख्वाहिश पूरी करने के लिए आपने मुझे उसकी बीवी बना दिया तो अब मुझे विधवा कैसे कर सकते हैं। करीना ने जेल को त्यागकर सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। इसमें उसका बेटा भी साथ था। पूरा देश करीना के साथ हो लिया। बॉलीवुड ने जबरदस्त साथ दिया और सरकार को कसाब को माफ करना पड़ा। कहते हैं न कि पत्नी में वह ताकत होती है जो यमराज से भी लड़कर अपने पति का जीवन छीन लाती है, कसाब इस बात को जानता था इसलिए उसने शादी की इच्छा जाहिर की थी। आज करीना और कसाब अपना जीवन सुखी से भारत में ही मना रहे हैं और इस बार उन्होंने हनीमून के लिए उसी ताज होटल को चुना है...बेटा किसाब भी बड़ा हो गया था और वह स्कूल जाने लगा है..., वाह जिंदगी, क्या करवट लेती है, जिसमें एक ओर तो खाई रहती है और दूसरी और खूबसूरत जन्नत...। मुबारक हो करीना और कसाब, आखिरी में उनकी रिशेप्शन पार्टी में सैफ ने यह गाना गाया मुबारक हो तुमको ये शादी तुम्हारी, सदा सलामत रहे ये जोड़ी तुम्हारी।

Monday, May 24, 2010

कैसे कहें कि मन मोहा?


पिछले पांच सालों के कार्यकाल के दौरान उन्होंने मन मोह लिया था। जनता का विश्वास हासिल कर लिया था। लोगों को लगा कि अब उन्हें ऐसी सरकार मिल गई है जो भ्रष्टाचार, लालफीताशाही जैसी कुरीतियों का अंत कर देगी। हर चीज बदल देगी, लोगों को विकास का नया पाठ मिलेगा, तरक्की के द्वार खिलेंगे, इस उम्मीद की नई सुबह के साथ पांच सालों बाद जब पुन: चुनाव आए तो पूरे दिल से पार्टी को मत मिले, लोगों ने दिल खोलकर उम्मीद बांधकर, स्थायित्व के नाप सरकार को मत दिए। विरोधियों ने कई आरोपों के भेदी बाण फेंके, लेकिन लोगों ने बहकावे को छोड़कर सारी चीजों को नजरंदाज कर दिया। उनकी बात पर ध्यान न देकर उन्होंने मनमोहन और सोनिया पर विश्वास जताया, और दोबारा सत्ता की चाबी उन पर डाल दी।
इस बार पुन: सत्ता दी थी तो उम्मीदें भी दो गुनी थी, लगा था कि जो पिछले 55 से 60 सालों में नहीं हुआ है, वो इस बार होगा, पार्टी विकास की ऐसी धारा बहाएगी कि सबकुछ गंगा में डुबकी लगाने की तरह पवित्र हो जाएगा। मगर सालभर के कार्यकाल में मन को मोहा नहीं गया और मनमोहन सरकार ने निराश ही किया है। न तो महंगाई के मुंह पर ताला जड़ा गया है और न ही भ्रष्टाचार के परखच्चे उड़ाए गए हैं। पार्टी अपने ही कूपमंडकत्व में गुम हो गई है। इनके ही सिकंदरों ने इनके विश्वास पर चोट पहुंचाई है। एक साल में ऐसा कोई भी काम नहीं हुआ, जिस पर गर्व किया जा सके। वहीं देश की उन युवा उम्मीदों को भी झटका लगा है, जिसने भरोसा कर इन्हें जीत की राह दिखाई थी। अब तो मन बैठने लगा है, क्योंकि विकास की वह रफ्तार नहीं पकड़ी जा सकी है, जिसकी उम्मीद की गई थी। हालांकि इसके पीछे राजनीति का गंदा चरित्र भी कहीं न कहीं दोषी जरूर है, और इस पूरी प्रक्रिया में उसे भुला नहीं सकते हैं। सोनिया से भी देश ने काफी कुछ उम्मीदें पाल रखी थी, लेकिन उन्हें भी धक्का ही लगा है। मनमोहनजी ने सोमवार को देश के बुद्धिजीवियों के साथ रूबरू हुए, इस दौरान हालांकि उन्होंने सध के जवाब दिए, लेकिन कहीं न कही वे नुमाइंदे ही नजर आए और पूरे समय वे हर सवाल के जवाब में बेबाकी से राय नहीं रख पाए। जब उनसे पूछा गया कि आपने रिटायर्मेंट के बारे में सोचा कभी? तो उनका जवाब भी हंसी के समान ही था। इसी तरह भारतीय अर्थव्यवस्था, अफजल गुरु पर सॉफ्ट सरकार का तमगा, भारत-पाक रिश्ते सहित कई सवालों पर वे असहज ही दिखे, लेकिन उनकी तारीफ फिर भी की जानी चाहिए, क्योंकि उन्होंने जनता के सामने आने का साहस तो दिखाया, सवालों का जवाब देना मुनासिब तो समझा, अन्यथा कई नेता और मंत्री तो ऐसे हैं, जो एक बार कुर्सी का पद पाते ही जनता को अलगे पांच सालों के लिए भूल जाते हैं। अब यहां से मनमोहन की तारीफ भी की जाए, लेकिन काम ने सब कुछ बिगाड़ डाला है। सरकार ने एक साल में कोई भी ऐसा काम नहीं किया है जिस पर गर्व किया जाए, इसलिए सरकार के लिए संकट का समय है, संकट सरकार के जाने का नहीं, बल्कि जनता के विश्वास का, उसकी उम्मीदों का...अब काम करना होगा, अगले चार सालों में दिखाना होगा कि जनता ने जिस विश्वास से उनका दामन थामा था, वह वास्तव में उस पर खरे उतरेंगे...।

Monday, May 17, 2010

अब तो हमने जीत ली जंग


दुनिया को क्रिकेट का सी सिखाने वाले गुरु ही आज तक उसके बादशाह नहीं बन पाए थे। मन में और विश्वजगत में हमेशा हलचल मची थी कि क्या हमने जिस खेल को लोगों को सिखाया, उसी खेल में हम पिद्दी साबित होंगे। मन में यह गुबार आज से पहले वह हमेशा लहूलुहान कर देता था। उसके सामने जिन्होंने बल्ला गेंद पकड़ना सीखा, जिन्होंने कैच छोड़-छोड़ कर करना सीखा, फील्डिंग करना सीखी। वही उन्हें क्रिकेट का पाठ पढ़ा रहे थे। हर व्यक्ति के जीवन की सबसे बड़ी परेशानी तब हो जाती है, जब उसकी विरासत पर कोई और काबिज हो जाता है। वहीं हुआ था इन क्रिकेट के पितामहों के साथ। टीम इंग्लैंड जो दूसरों के लिए खेल का रोमांच लेकर आई थी, उसे ही आज तक विजेता बनने का सौभाग्य नहीं मिल पाया था। कोई भी बड़ा टूर्नामेंट हुआ वह हमेशा पास आते-आते फिसल जाता था। कई बार जीत उसके मुहाने तक आई और निकल गई । मन खिन्न हो जाता, लेकिन आस है कि टूटती नहीं और दिल था कि मानता नहीं। जीत की ललक हर बार थी, निराशा मिलती, लेकिन प्रयास करना नहीं छोड़Þते। हर काली रात...फिर उगता हुआ सूरज... आखिर वह सवेरा आ ही गया, इंग्लैंड को सालों बाद या कहें कि लगभग 70 सालों में एक बड़ी जीत विश्व विजेता बनने की मिली। इससे पहले वह आईसीसी की कोई भी बड़ी जीत हासिल नहीं कर पाया था। यहां तक की उससे काफी पीछे देश पाकिस्तान, इंडिया और श्रीलंका जैसे देश विश्वविजेता बन बैठे थे। जीत की आस में हर बार निराशा ही मिलती थी, लेकिन इस बार ऐसा साहस और बल दिखाया की पूरी दुनिया ही हार गई। देश के बड़े-बड़े दिग्गज उनके सामने थे,कोई दुनिया के इस कोने से आया था तो कोई उस कोने से..., मगर इस बार खेलना है, जीतना है और कप को पितामह के पास लाना है, बस यही एक सपना था टीम के पास। हालांकि इस बार कोई बड़ा नाम नहीं था। सिवाय पीटरनसन को छोड़ दें तो टीम के पास ऐसा कोई खिलाड़ी भी नहीं था जिससे टीमें खौफ खाएं। यहां तक की कई नाम तो बिलकुल अनजान से थे। टूर्नामेंट के पहले दौर में ही इस टीम के बाहर होने की सभी ने उम्मीदें लगा रखी थी। खुद इंग्लैंड को भी नहीं पता था कि उनकी जीत यहां जाकर थमेगी। मगर जीत का जज्बा ही ऐसा था कि हर चीज को अपने अनुसार और अपनी इच्छा के अनुरूप बनाते चले गए। बाधा तो इनके रास्ते में एक से एक आई, लेकिन ये उन्हें जड़ से उखाड़ते चले गए। हार का सिलसिला कभी तो टूटता है, और इंग्लैंड को अकाल भी समाप्त हुआ। वह क्रिकेट का नया बादशाह बन गया। एक के बाद एक टीमों को उसने धूल चटाई, कभी हार की धुरी उनके ऊपर भी आई, लेकिन उन्होंने बड़ी ही सफाई से उसका भार दूसरों पर डाल दिया। पहले शुरुआत, और अंजाम तक आते-आते मुकाबला दिग्गजों से होने लगा, लेकिन टीम में आग थी और इस बार उसे कोई रोक ले... ऐसा दम कहां था। दम दिखाया और जीत ली विश्व। किले को फतेह करने में आखिरी ताबूत गाड़ने की बारी आई तो मुश्किल आई, क्योंकि सामने कोई और नहीं, बल्कि कंगारू खड़े थे, जो अब तक के सबसे अधिक लड़ाकू और खतरनाक दुश्मन थे, लेकिन जीत की चाह ने ऐसी राह दिखाई कि हर कोई धूल नजर आने लगा , लगने लगा कि अब हमें कोई नहीं रोक पाएगा। बस उस किले में उस कंगारू नामक दुश्मन को परास्त कर आखिरी कील भी ठोंक दी और बन गए विश्व विजेता। अब कभी कोई यह नहीं बोलेगा कि हा,ं हम इस खेल के फिसड्डी हैं...।

Saturday, May 15, 2010

अफगान में लड़ाई कहीं विध्वंसक न हो जाए


युद्ध कभी शांति नहीं देते हैं, हां भले ही कुछ पल के लिए मदहोश और दंभ से भर दें, लेकिन अंत में इसका सार यही निकलता है कि हर चीज ध्वस्त हो जाती है। अफगान में जो लड़ाई 2001 से चल रही है, उसके परिणाम तक वह पहुंच जाए, इसके सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं, मगर जो नीतियां विश्वपटल पर खेली जा रही हैं, या दिखाई जा रही हैं, वे कहीं से भी सार्थक सिद्ध होती नजर नहीं आ रही हैं। जिस तरह से यह लंबी लड़ाई सिर्फ इसलिए लड़ी जा रही है कि यहां यदि अमन और चैन हो गया और अल कायदा का सफाया हो गया, मगर यह मृगमरिचिका जैसा ख्वाब है, जो पूरा होता बिलकुल भी नजर नहीं आ रहा है। यहां अगर गौर करें तो अफगानिस्तान में अमेरिका ने लाखों की संख्या में अपने सैनिकों को मौत के मुंह में झोक दिया है, तो इसका जिम्मेदार कौन है, यह तो अलकायदा के नखरे और उसके वर्चस्व से भी ज्यादा है , क्योंकि अलकायदा भले ही इतना नुकसान नहीं पहुंचाता, जितना इनके सैनिकों को यहां रखने से हो रहा है। यह लंबी लड़ाई अभी सालों साल जारी रहने वाली दिखाई दे रही है, वहीं वहां के राष्ट्रपति तक ने कह दिया है कि हमें अमेरिकी सैनिकों की आवश्यकता है। तो क्या इसे शांति के लिए सात्विक परिणाम माने जाएंगे। यह सच है कि दुर्दांत ताकतों को मिटाने के लिए इस तरह किसी न किसी को तो आगे आना ही होगा, मगर इस तरह से...क्या होगा अगर अमेरिका इराक की तरह अफगानिस्तान में भी अपना परचम लहरा देगा, तो सबकुछ माकूल हो जाएगा। इसकी कोई गारंटी नहीं है , यहां तो सिर्फ कयास ही लगाए जा सकते हैं।
अमेरिका के सबसे पॉपुलर बराक ओबामा की अफगान नीति पर भी अभी तक सवालियां निशान खड़े हैं, उन्होंने ऐसा कोई भी कार्य नहीं किया है, जिससे यह अंदाजा लगाया जा सके कि सबकुछ आत्मनियंत्रण में है, शांति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त कर चुके बराक ने जब कहा था कि अफगान में अगले तीन सालों तक रहकर वहां से अलकायदा का सफाया कर देंगे तो उनके बयान के बाद उनके पुरस्कार के लिए चयनकर्ताओं पर भी प्रश्नचिह्न खड़ा हो रहा है। इस पूरे घटते घटनाक्रम में तालिबान एक ऐसा अज्ञात और दुर्दांत शत्रु के रूप में सामने आया है, जो कभी भी परिस्तियों और नीतियों को तोड़कर एक नए महायुद्ध को जन्म दे सकता है। इसका नजारा उसने 2008 में पेश भी कर दिया था जब पाक पर सीधे चढ़ाई के लिए भी वह तैयार हो गया था। सवाल यहां यही है कि न तो अलकायदा खत्म हो रहा है और न ही अमेरिकी सैनिकों का अफगान वनवास समाप्त हो रहा है। हर चीज समय के साथ सुलझती नहीं, बल्कि सुलगती जा रही है। यहां पर पड़ोसी देश भारत, चीन भी अपने देश के विकास के अलावा कुछ और चीजों पर ध्यान ही नहीं देना चाहते हैं और ये दोनों रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था, वाली मुद्रा में आ चुके हंै, हालांकि बयानों के कुकुरमुत्तों का साथ ये भी देर-सवेर दे ही देते हैं, लेकिन परिस्थितियां अभी भी विपरीत करने का इनका मन नहीं है, क्योंकि अमेरिका के विरुद्ध न तो इनमें बोलने का साहस है और न ही ये बोलना चाहते हैं। इस तरह पूरे घटनाक्रम पर इनका उदासीन रवैया ही है, मतलब अमेरिका अफगानिस्तान में चाहे एक हजार सैनिक भेज दे चाहे एक करोड़, मगर इन्हें कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। यह पूरा का पैरा चक्र काम कर रहा है, मगर परिणाम अभी भी दिखते नजर नहीं आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगले दस साल यह युद्ध और खींचा जाए तो इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है... क्योंकि यहां रोम नहीं, पूरा विश्व ही जल रहा है....

Wednesday, May 12, 2010

क्या खाक जीतेंगे अगली बार?


धोनी बाबू भी इस देश की रीत को अच्छी तरह से समझ गए हैं, यहां पर लोगों को बरगलाओ, उन्हें नेताओं की तरह ओजस्वी सपने दिखाओ, भरोसा दिलाओ और अपनी गाड़ी आगे बढ़ाओ। धोनी का स्वर्णिम समय चला गया, जब इन्हें अपनी किस्मत से अधिक मिल रहा था। भई क्रिकेट में हालांकि किस्मत का साथ होना जरूरी है, लेकिन अकेली किस्मत से मैच थोड़ी ही जीते जाते हैं, उसके लिए खेलना पड़ता है और वह भी दमखम से। टीम की बुरी पराजय का दोष हमारे कप्तान साहब हालातों और बुरे वक्त को दे रहे है। साथ ही यह भरोसा भी दिला रहे हैं कि उनकी टीम अगले विश्वकप में जरूर कमाल दिखाएगी। तो धोनी साहब अगला विश्वकप किसने देखा है, क्रिकेट वर्तमान का खेल है, बड़े-बड़े वादे करना छोड़ दो, जिस तरह से टीम हारी है, उसके दोषी आप ही हो, क्योंकि जब आप 2007 जीते थे तो आप ही हीरो भी बने, तो इस हार का ठीकरा भी आपके माथे पर ही फूटेगा। मगर आप के तो क्या कहने, आप तो सारी चीजों को बड़ी सफाई से बाहर करने में जुट गए हो, आप हार की जिम्मेदारी न लेकर भविष्य की बातें कर रहे हैं, माना की हमारा देश थोड़ा भावुक है और अपने हीरो की बातों पर पूरे मन से विश्वास भी करता है, लेकिन हर बार ऐसा नहीं होगा, क्योंकि इस बार तो आपने शर्मनाक काम कर दिया है, आपकी तो कोई रणनीति ही नजर नहीं आई, जहां जो डिसीजन लेने थे, आपने तो लिए ही नहीं। टीम में एक बल्लेबाज ही ठीक ढंग से खेला, अगर उसे भी बाहर कर दें तो तुम्हारा सुपर-8 में आना ही शंकास्पद नजर आने लगेगा। जिस तरह से सारी ऊर्जा आपने आईपीएल जीतने में लगा दी थी, उसने आपकी लुटिया डूबो कर रख दी। ऊपर से आप हिटर बल्लेबाज की जगह ऐसा खिलाड़ी ले गए, जिसे 20-20 में सिर्फ आईपीएल का तर्जुबा था। वहीं पिछली बार जड़ेजा ने भारत को विश्वकप हरवाया था और उसे इस बार भी आप ले गए। क्या पता आपको टीम चुनते नहीं आता। युवराज पर आप इतने मेहरबान क्यों नजर आए, भई उनके फॉर्म तो बहुत दिनों से लचर ही चल रहे थे। आपकी थकी हारी टीम ले जाने की आखिर जरूरत क्या थी। ऊपर से आप वहां पहुंचकर अति घमंड में नजर आए, 20-20 का गुरूर आपके सिर पर ऐसा चढ़कर बोल रहा था कि आपने वहां प्रैक्टिस मैच खेलने से ही इनकार कर दिया। वह तो शुक्र हो कि आपका पहला मैच अफगानिस्तान जैसी पिद्दी टीम से हुआ, वरना आप वहां भी देश को लुटवाने का पूरा मन बना चुके थे। आपको किस्मत ने भी मौका दिया, लेकिन उसमें भी नहीं जीत पाए। इस आखिरी मैच के मुजरिम तो आप ही कहलाएंगे माही जी, क्योंकि जिस समय आप आए थे, हम सौ के पार थे, और हमारे पास आठ ओवर से अधिक थे, लेकिन आपकी संयम पूर्वक बैटिंग देखकर ऐसा लगा कि आप डरे हुए हैं और पचास ओवर का मैच खेल रहे हों, माही जी 20-20 एक खिलाड़ी का खेल होता है और आप तो इंडियन पिचों पर धमाके करते हो, वहां महज 23 रन, वह भी इनती शानदार शुरुआत के बावजूद, अगर रन नहीं पड़ रहे थे तो हिट विकेट ही हो जाते, कम से कम इंडिया कुछ रन तो बना लेती। अब आपकी टीम में वह जोश नहीं बचा है, आपके फ्रेश लेग किसी काम के नहीं है, जिस तरह से आपने उस समय टीम के सौरव और राहुल के साथ बर्ताव किया, निश्चय ही वह आगे आ रहा है। जहां तक 50-50 की बात है तो इस समय आपके किसी भी खिलाड़ी में वह प्रतिभा ही नजर नहीं आ रही है कि वो 50 ओवर खेल पाएंगे। अब आप कैसे कहेंंगे की आप हमें विश्वकप जितवाएंगे। बहाने बनाना छोड़ों धोनी और हकीकत से जल्द ही रूबरू हो, क्योंकि विश्वकप सिर पर खड़ा है और अगर आप ठीक नहीं खेले तो इतना मान लीजिए कि जितनी तेजी से आपको इस देश ने सिर पर बैठाया था, कब आपको शिखर से सड़क पर लेकर आ जाएंगे, यह आप भी नहीं जानोगे, इसलिए आंखें खोलो और बहाने बनाने छोड़ों, और अगले मिशन की तैयारी करो, नहीं तो आप भी बदल दिए जाओेगे और टीम भी।

Tuesday, May 11, 2010

मुहब्बत में कब तक मौत?



हमने इश्क किया है, कर तो लिया है, अब क्या होगा, यह समाज और यह दुनिया हमें जीने नहीं देगी, तो चलो आज हम हमारे प्यार को अमर कर दें, साथ जी न सके तो साथ मर ही जाते हैं... शायद हमारे जाने के बाद ही यह दुनिया हमारी मुहब्बत की पाकिजगी को महसूस करेगी, तब इसका दिल पिघल जाएगा और फिर किसी मुहब्बत का दम नहीं घुटेगा..., यह है हमारे समाज की हकीकत, जहां हर प्यार करने वाले को अपनी जिंदगी दांव पर लगानी पड़ती है।
मुहब्बत की है, तो मौत क्यों मिले, आखिर इश्क का अंत मौत तो नहीं हो सकता, क्योंकि यह पाक है भक्ति की तरह, यह पवित्र है आत्मा की तरह, यह निश्छल है गंगा की तरह, यह विशाल है समुंदर की तरह, यह बड़ा है आसमान की तरह, इसमें धैर्य है धरती की तरह... तो आखिर क्यों लोग इसके दुश्मन बन बैठते हैं, क्यों जमाना इसके खिलाफ हो जाता है, आखिर इसका हक तो स्वयं भगवान ने भी दे रखा है, न तो पुराणों और न ही किसी धर्म में लिखा है कि इश्क गुनाह है, स्वयं भगवान ने भी इसे किया है, तो क्या आज इसे गुनाह नहीं समझा जा रहा है, फिर प्यार तो प्यार है, वह किसी से भी हो सकता है, किसी ने सच ही कहा है कि इश्क किया है तो इंतजार और मौत के लिए हमेशा तैयार रहो, मगर हम सच्चाई के धरातल पर आकर स्वयं को इससे रूबरू क्यों नहीं करवाना चाहते हैं, हम क्यों उन्हीं पुरानी ढकोसली बातों और बेड़ियों में जकड़े रहते हैं। सदियां गुजर गई , युग बदल गए, मगर प्यार की वही कहानी आज भी दोहराई जा सकी। आखिर क्यों... हरियाणा के दो जोड़ों को पंचायत ने महज इसलिए सजा दे दी, क्योंकि वो अलग-अलग जाति के थे। वहीं कानपुर के प्रेमियों को अपनी जीवन लीला इसलिए समाप्त करनी पड़ी, क्योंकि इसके विरोध में उनके घरवाले थे। उन्होंने सोचा साथ जी न सके तो कम से कम साथ मर ही जाएंगे। समाज का यह एक रूप बेहद कुरूप है, जो बातें तो अमेरिका और चांद को देखकर करता है, और जब उनकी तरह अमल करने की बारी आती है तो पीछे की पतली गली से निकल जाता है। क्यों यह दुश्मनी खत्म नहीं हो रही है, आखिर क्यों? इन प्रेमियों को अपनी जान देनी पड़ रही है , इसका न तो समाज के पास उत्तर है और न ही उन मासूम प्रेमियों के पास जो चाहते हैं जीना, उसके साथ जो उसका जीवन भर साथ निभाता है, तो इसमें बुराई भी क्या है, जिंदगी उनकी है, जीने का अधिकार उन्हें भी है तो जीवन जब साथ गुजारना हो तो प्यार भी मर्जी का ही हो तो बेहतर होता है, मगर यहां तो समझौतों का दामन थामकर अपनी संवेदनाओं की बलि चढ़ानी पड़ती है। भावनाओं और मुहब्बत को यहां दुनिया में पाप समझा जाता है, और ये वो लोग समझते हैं, जो खुद भी इसके भागीदार हो चले हैं , मगर झूठे आडंबर और ढकोसले समाज के चलते उन्हें भी न चाहते हुए भी इसका दुश्मन बनना पड़ता है। तो कब होगा इनका अंत...शायद कभी नहीं, हम क्यों इनके भागीदार बनते हैं, कोठों पर जाने से कभी नहीं हिचकते, लेकिन दो लोग अपना जीवन जीना चाहते हैं, तो उन्हें कोई जीने नहीं देता। कानपुर में उन दोनों प्रेमियों की तरह न जाने कितनी बार मोहब्बत का दम घोटा गया है, लेकिन यह अमृत की तरह है, जो कभी मिटती नहीं। एक आशिक को दबाया तो कल कोई दूसरा आशिक भी पैदा हो रहा है। कब तक इन्हीं ढकियानूसी बातों और बेड़ियों में हम अटके रहेंगे, क्यों न उस संसार को जीने दिया जाए, जो मुहब्बत की पाकिजगी महसूस करना चाहता है, उसे जीना चाहता है, एक दिन नहीं , बल्कि ताउम्र, तो फिर हम दुश्मन क्यों बने, वह भी उनके, जो हमारे जिगर के टुकड़े होते हैं, एक बार बड़ा दिल कर इन्हें अपना कर तो देखो, जिंदगी कितनी खुशनुमा हो जाएगी, फिर न तो तुम्हारा दिल जलेगा और न ही इन्हें मुहब्बत के बदले मौत को अपनाना पड़ेगा।

Monday, May 10, 2010

लुटिया भी डिबोई और लाज भी


भारतीय शेर, एक बार फिर देश को शर्मशार कर बैठे हैं...तोड़ आए सौ करोड़ भारतीयों की उम्मीदों को, जख्म दे दिया उनके जज्बे को, तो आखिर क्यों हम इन्हें अपने दिलों के शहंशाह बनाएं। हर बार, बार-बार इन्होंने देश को हार का गम दिया है। पूरी शिद्दत से भारतीयों ने इन्हें मान दिय, सम्मान दिया और शोहरत भी दी, बदले में क्या मांगा, सिर्फ इनसे एक कप.. मगर ये भी न ला सके, चलो वैसा खेलते तो भी इन्हें माफ किया जा सकता था, लेकिन इन्होंने तो हार का ऐसा जख्म दिया है जो अगले कई दिनों तक हरा रहने वाला है। टीम ने हर उस मौके पर भारतीयों के दिल तोड़े हैं, जहां से इनसे उम्मीदों का बांध बनाया गया था। टीम का कोई भी खिलाड़ी न तो चैंपियनों की तरह खेला और न ही उसने दिखाया कि वो खेलने आए हैं। हर किसी के कंधे हर समय झुके नजर आए...कप्तान से लेकर खिलाड़ी तक ऐसा लग रहा था कि इंडीज सिर्फ औपचारिकता निभाने गए हो, न तो कोई प्रोफेनलिज्म और न ही कोई डेडिकेशन... तो क्या मतलब ऐसे खेल का और खिलाड़ियों का... अगर उस एक पारी रैना शतक न मारते तो शायद सुपर-8 के पहले ही भारत का पत्ता साफ हो चुका होता। सवाल यहां हार-जीत का नहीं है, क्योंकि यह तो खेल का अंग है, बल्कि सवाल यह है कि आखिर हम चूक क्यों जाते हैं। हमारे पास दुनिया की सबसे अच्छी फैसेलिटीज हैं , इसके बावजूद हमारे खिलाड़ियों में वह दम दिखाई नहीं देता, जो बाहरी खिलाड़ियों में है। यहां गलती बोर्ड की भी है, इस बार जितने भी खिलाड़ी मैच खेलने गए थे, उनमें से एक के फॉर्म भी ठीक नहीं थे, बावजूद इनका सिलेक्शन सिर्फ इसलिए किया गया, क्योंकि इन्होंने पहले अच्छा प्रदर्शन किया था। यह पैमाना नहीं होता है, क्योंकि जीत के लिए आपको उस मौके पर बेहतर खेल दिखाना होता है और अगर वहां चूके तो आप मैच गवां बैठेंगे। इस बार यही हुआ, जिस युवराज ने 6 छक्के एक ओवर में ही जड़े थे, वह कहीं से भी नहीं लग रहा था कि उसमें वो आग बची है, पूरी तरह से थका-हारा नजर आ रहा था। जहिर खान ने तो हद ही कर दी, स्ट्राइक बॉलर का तमगा तो लिए हैं, लेकिन दो ओवर फेंकने के बाद इनका दम निकल जाता है , और दो मैच अगर इन्हें एक साथ खिला दिया जाए तो अगले मैच में इन्हें रेस्ट चाहिए। इसी तरह बाकी टीमों के भी हाल हैं, न तो क्रिकेट में हार की कहानी को बदला जा रहा है और न ही उस मैच में बेहतर प्रदर्शन हो रहा है जिसमें करो और मरो की स्थिति होती है। वहां आकर तो हम मर ही जाते हैं। यह तो हो गई पुरानी कहानी, अगला मैच भले ही जीतकर भारत यह दिखाना चाहे कि हम तुक्के में हार गए, मगर यहां तो हम बाहर हो चुके हैं और इसकी सजा इन खिलाड़ियों को अवश्य ही मिलनी चाहिए, फिर चाहे हमें इसकी कोई भी कीमत ही क्यों न चुकानी पड़े। अगर आप खेल नहीं सकते तो आपको बाहर बैठना ही होगा, इसके सिवाय और कोई पैमाना लागू नहीं होना चाहिए। यहां के अध्याय का अंत यहीं हो जाना चाहिए और भारतीय बोर्ड को अगले नौ महीने बाद होने वाले विश्वकप के लिए खिलाड़ियों का चयन करना शुरू कर देना चाहिए, क्योंकि यह विश्वविजेता और सबसे सम्माननीय कप इस बार भारत में ही होने वाला है और अगर यहां से तैयारी का तूफान सशक्त नहीं किया गया तो हम यहां भी फिसड्डी ही रह जाएंगे, इसलिए जल्द से जल्द विश्वकप के लिए बेहतर खिलाड़ियों का चयन किया जाना चाहिए। भले ही खिलाड़ी ऐसे न हो जो कागज पर शेर हो, उनके पीछे लंबा-चौड़ा रिकॉर्ड हो, लेकिन उनमें जीतने की ललक हो, उनकी ललकार ऐसी हो कि विरोधियों के हौसले पस्त हो जाए, उनके आगे खेलने में इन्हें साहस जुटाना पड़े। हां यह करने में कुछ कठोर निर्णय जरूर लेने होंगे , हो सकता है कि इसका विरोध भी हो और जिन्हें हम सिलेक्ट करें तो टीम हार भी जाए, मगर खिलाड़ी वही हों जो चैंपियनों की तरह खेलना जानते हो?

Sunday, May 9, 2010

ऐसे दहाड़ों कि पूरा इंडीज हिल जाए


एक करोड़ जज्बात जब मैदान पर अपने भगवानों को एक साथ खेलता देखती है, जो उनमें उम्मीदें और श्रद्धा का एक संगम तैयार हो जाता है। यह संगम परवान भी चढ़ता है, जोश का वह सैलाब रहता है कि इसके लिए लोग जीने-मरने तक की ख्वाहिश पाल बैठते हैं। सपनों में वह कप होता है और सामने विपक्षी टीम को हराने के लिए प्रार्थनाएं... गजब का जुनून और जज्बा है हमारे दर्शकों में। आज एक बार फिर यह उमड़ने वाला है, करोड़ों आंखें बारबोडस की पिच पर गड़ी हैं, साथ ही उनमें ढेर सारी उम्मीदें है, उम्मीदें हैं उन रणबाकुंरों से जो देश में दोबारा कप लाने का सपना दिखा कर गए हैं। आशा है उस धोनी से, जिसने 07 का सिकंदर बनकर देश के सिर पर विश्वजीत का सेहरा बंधवाया था। उम्मीद है उस युवराज से...जब वह इंजर्ड हो जाता है तो उसके घर वाले इतनी मुहब्बत और दुआएं नहीं देते होंगे, जितना यह देश उसके लिए मांगता है। उम्मीदें है उस रैना से, जिसके शौर्य पर सबको भरोसा है, उम्मीदें हैं गौतम से जो 20-20 के सबसे बेहतर और रनवीर माने जाते हैं। उम्मीद है रोहित से, उमीदें हैं हरभजन से...एक-एक मिलाकर 11 से...पूरा देश आज तुम्हारे लिए दुआ मांग रहा है, सबकी आंखों में चिंता है, क्योंकि हमारी स्थिति ठीक नहीं है, लेकिन तुम 11 से बहुत उम्मीद है...आज का मैच जीने मरने से अधिक होना चाहिए, क्योंकि आज हारे तो सब हारे, टीम को जहां बाहर का रास्ता दिख जाएगा, वहीं करोड़ों हिंदुस्तानियों के दिल भी बिखर जाएंगे। आज सिर्फ तीन घंटे हैं तुम्हारे पास...देश की लाज तुम्हारे हाथों में है...इसे तुम लाचार भी बना सकते हो और गुलजार भी...। इसके बाद तुम कैसे हो, कितनी मेहनत करते हो, तुम्हारे क्या सपने हैं, तुम्हारी जिंदगी में कोई नहीं आएगा, बस आज के दिन इन तीन घंटे पूरी मेहनत से खेल जाओ। ऐसा खेल दिखाओ कि बस कोई भी तुम्हारे शौर्य के आगे संभल न पाए। आज तुम्हें हर वो अस्त्र चलाना है, हर वो टेक्नीक दिखानी है जो तुमने सीखी है... ुअपनी शक्ति को एकत्रित कर ऐसा खेल खेल जाओ, कि बस अब हार न मिले। क्योंकि इस हार से न सिर्फ हंगामा होगा, बल्कि बहुत कुछ...या कहें हमेशा कि तरह इस बार भी दिल टूट जाएंगे। जिन्होंने तुम्हें पलकों पर बिठा रखा है, तुम्हें शेरों का तमगा दे रखा है, आज उनके आंसुओं का सवाल है, आज टीम को वो अद्भुत और अलौकिक खेल दिखाना होगा, जो आज से पहले कभी नहीं देखा गया। हर किसी को अपनी जिम्मेदारी संभालनी होगी, सभी को दिखाना होगा कि हम हिंदुस्तानी हैं, और जब हम अपनी वाली पर आते हैं तो समुंदर भी अपनी राहें बदल देता है, पर्वत भी फट कर हमारे लिए रास्ता दे देता है। हम शौर्य और साहस के खिलाड़ी हैं, हम रणभूमि में लड़ने वाले रणबाकुंरे हैं, हमारे देश में सिर्फ गंदी बस्तियां ही नहीं हैं, बल्कि वहां से एक कप्तान आता है और पूरी दुनिया को दिखाता है कि देखो हम में है दम... भले ही हमारे पास सहूलियते नहीं हैं, लेकिन जोश में कोई कमी नहीं है। आज सूरमाओ, शेरों की तरह दहाड़ों , और दहाड़ ऐसी हो कि सिर्फ इंडीज में ही न गूंजे, बल्कि क्रिकेट खेलने वाले हर देश में गूंजे, ताकि आगे से कोई भी हमारी ललकार के आगे टिक न पाए, हमसे खेलने से पहले कई बार सोचे, साहस जुटाए। आज खेल जाओ, बचा लो टीम इंडिया की लाज, बरकरार रखो हमारा टी-20 का टशन, ताकि आने वाला युग हमें इस फॉर्मेट का बादशाह कहकर पुकारे।

Saturday, May 8, 2010

इस बार ढहा दो ‘कैलाश’


लोकतंत्र के चौथे स्तंभ पर खतरा मंडरा रहा है, सत्ता की कुछ मदहोश ताकतें लगातार प्रहार कर रही हैं, लेकिन हम हैं कि नींद खुली होने के बावजदू चादर ओढ़कर सोने का नाटक करने में जुटे हैं, आखिर क्यों? क्या मर गया है हमारा जमीर, क्यों हम इन सत्तासीनों के चरणों के मोहताज बने बैठे हैं, हम इनकी आज्ञा और इनके तलुओं में स्वर्गीय जीवन क्यों महसूस कर रहे हैं। चंद नोटों के ये जादूगर हमारे गैरत को ललकार रहे हैं, हमारे घर में आकर हम पर ही हमला कर रहे हैं और हम नपुंसकों की भांति सब चीज को तमाश बने देख रहे हैं। यही हाल रहा तो कल को इनकी मर्जी से ही हमारे घरों की औरतें कपड़े पहनेंगे, तब भी हमें चुप रहना होगा, क्योेंकि हम आज भी चुप हैं। क्या हम अपने पेशे के साथ गद्दारी नहीं कर रहे हैं। जब पत्रकारिता की नींव रखी गई थी तब तो ऐसा नहीं था, और जब हमने इसमें प्रवेश किया, तब हमारे सारे सपने और सारे कर्त्तव्य कहां चले गए। हमारी पूजा के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, ये दलाल उसकी आब्रू सरेराह लूट रहे हैं और तब भी हम मुंह में चुप्पी धारण किए हैं, क्या जीवन है , शर्मनाक... अगर अब भी नहीं जागे तो कल हमारा नहीं, इन गुंडों का होगा। आखिर हम भी तो उसी समाज का हिस्सा है, जहां एकता को सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। जब मंच पर आग लगती है तो सभी अपनी-अपनी जान बचाते हैं, लेकिन घर में आग लगती है तो सभी एक-दूसरे की जान बचाते हैं। आज यही स्थिति बन पड़ी है, हमारी पत्रकारिता, हमारे गौरव, हमारे अस्तित्व और हमारी कर्मभूमि पर इन सियासत के गुंडों ने हमला बोल दिया है, इस र्इंट का जवाब अगर पत्थर से नहीं दिया गया तो फिर हमारी कलम न तो कभी सही लिख पाएगी और न ही हमारी आवाज जनता की पुकार बन पाएगी। हमारे प्रदेश की इस गुंडा कंपनी का सफाया ही अब हमारा मिशन होना चाहिए। शुरुआत किसी ने कर दी है, बस हमारा साथ उसे चाहिए, क्योंकि लड़ाई अकेली लड़ी जाती है, लेकिन युद्ध कभी भी अकेले लड़ा नहीं जा सकता है, यह धर्मयुद्ध है, जिसमें सत्य परेशान हो रहा है और यहां हमारा धर्म बन गया है कि इसे पराजित नहीं होने देना है, क्योंकि आज यह पराजित हो गया तो कल हम मुंह दिखाने के लायक नहीं रहेंगे और इसके जिम्मेदार कोई और नहीं, बल्कि हम स्वयं ही रहेंगे। आज मीडिया की ताकत को दिखाने की जरूरत है, जरूरत है उस कलम की स्याही को दिखाने की जिसने आजादी से पहले और आजादी के बाद हर बुरी ताकत का सिर धड़ से अलग किया है। जब इतना बड़ा गौरव है हमारे साथ तो कुछ नोटों के लालच में क्यों हमारे कर्त्तव्य हो हम भुला बैठे हैं, आज घर के सारे गिले-शिकवे भूलकर बस इन कैलाश जैसे मठाधिशों और इनकी दानवी सेना का वध करने का समय आ गया है।
यहां सिर्फ मध्यप्रदेश या इंदौर की लड़ाई नहीं है, बल्कि हर उस काली ताकत के विरुद्ध है जो आज खुद को आगे मान रही है। अब पूरे देश को एक साथ आगे आना होगा, यहां न सिर्फ सही लोगों को, बल्कि जनता को भी, जिसके लिए यह कलम हमेशा लड़ी है, घर पर हमला हुआ है, इसका जवाब तो कैलाश और मेंदोला जैसे कुंडलीधारियों को जवाब देना ही होगा, और इसमें भूमिका निभानी होगी, इस पवित्र कलम के रखवालों की। आज जागने का समय है, कर्त्तव्य निभाने का दिन है, तो उठ जाओ, ठीक उस तरह जिस तरह एक क्षत्रिय युद्ध भूमि में शहीद होकर अपना जीवन धन्य मान लेता है, उसी तरह आज कलम वीरों को कार्य करना होगा। वरना सत्ता के यह दलाल पत्रकारिता और कलम की ताकत को अपनी रखैल मान लेंगे, और इसके लिए कोई और नहीं बल्कि हम ही जिम्मेदार होेंगे। तब क्या हम अपने आपको यह कहलाना चाहेंगे कि हमारी पूजा किसी की रखैल है...उठ जाओ और इस धर्मयुद्ध में ऐसा शंखनाद करो कि बस कलियुग के ये जहरीले नागों का फन कुचल जाए...।

Friday, May 7, 2010

मान- अभिमान और तौहीन

लड़ाई पानी पथ की हो या फिर महाभारत की, कलियुग में सरकार गिराने की हो या फिर किसी हत्या की। सड़क से लेकर षिखर तक और वहां से लेकर आसमान तक... हर जगह मान-अभिमान और तौहीन की जंग के साथ कष्मकष चलती रहती है। महाभारत की लड़ाई ही नहीं, इतिहास में जितनी भी लड़ाई हुई हैं, उनमें ही ये तीन बातें छुपी थीं। न द्रौपदी का चीर हरण कर पांडवों के अभ... See Moreिमान का खून कर उनकी तौहीन की जाती और न ही इतना बड़ा नरसंहार होता। फिर रामायण भी तो इसी का सार बताती है। हर युग के यही तीनों पात्र हैं, इनके बिना न तो क्रिया की संरचना हो सकती है और न ही हलचल। ईष्वर ने जन्म लिया हो या न लिया हो, दुनिया में पाप बढ़ रहा हो या फिर पुण्य फैल रहा हो, इससे किसी को कोई लेना देना नहीं है, क्योंकि समय का चक्र हर मर्ज की दवा बनकर समुद्र मेें उठ रही हलचल को सदा ष्षांत कर देती है, नहीं ष्षांत कर पाती है तो मान-अभिमान और तौहीन को। जहां इनका ष्षील भंग होता है, वहां विद्धवंस आना पक्का हो जाता है, फिर यह उसी घड़ी आए या कुछ देर बाद, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सारे युगों में इसी को लेकर जंग छिड़ी थी, जीवन का उद्देष्य कोई सात्विक ज्ञान या मोक्ष नहीं था, बल्कि उसकी रचना भी इन्हीं तीनों के इर्द-गिर्द घूमती है, इनका पलायन संभव नहीं है, बल्कि इनकी परिक्रमा में जीवन फुर्र हो जाता है।
इसकी ष्षक्ति अपार है, यह सत्य है और कभी समाप्त नहीं हो सकता है, क्योंकि इस युग में भी तो इसी के बल पर दुनिया घसिट रही है, हर पग पर इन्हीं के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है और इनमें निर्बलों को सबलों के आगे हमेषा माथा टेक कर माफी मांगनी पड़ रही है। वर्तमान पूरा इसी के आसपास रचा बसा है, समाज में कोई बुराई, कोई भलाई, कोई अपराध, कोई गलत चीज, कोई अमानवीय घटना...हो इसका कोई औचित्य है या नहीं...इन्हें समझने से पूरा सार समाप्त नहीं हो पाता है, सार समाप्त होता है मान, अभिमान और तौहीन पर। कलियुग की सुबह से लेकर देर रात सोने तक इसी भंवरचक्र में जीवन उलझा रहता है। इसके बाद भी जो समय बचता है आर्थात् निंद्रासन का, उसमें भी ये व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते हैं। इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि मैं जीवन से परे हो गया हूं। अगर मृत्युंजय बनना है तो निष्चय ही इन पर विजय पानी होगी, तभी जय मिलेगी। अन्यथा सदियों से इनके चक्र मेें सभी धराषायी होते हैं, और आगे भी होते रहेंगे।

Thursday, May 6, 2010

क्या फिर कोई कसाब नहीं आएगा!


आतंक के उस चेहरे को सामने देखकर हर किसी के मन आग की ज्वालाएं भड़क उठती हैं, उसे देखकर लगता है कि यह वही आतंकवादी है, जो दूर दुश्मन देश से आया था। हाथों में नंगी मौत लेकर लोगों को मौत के घाट उतार रहा था। इसके लिए मानवता जैसी कोई चीज नहीं है। इंसानियत से इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं... दु:ख, दया और मुहब्बत जैसे शब्दों से उसका कोई नाता नहीं था, वह तो बस एक चीज ही जानता था वह है नफ्रत की आग में झुलसाकर लोगों को मौत के घाट उतारना। मगर इसमें भी वह अपने परायों को भलिभांति पहचानता था। तभी तो उसने भारत की तरफ मुंह उठाकर बारूद उठाया, तो इसमें उसके बहकने का क्या सवाल, वह इतना तो मासूम नहीं था, लेकिन उस दुर्दांत इंसान के पीछे भी तो एक कसाब रहता है, क्या था वह कसाब, एक दिन का कसाब, जो सिर्फ रोना जानता था, दो माह का कसाब, जिसे भूख लगने पर सिवाय मां की ओर देखकर रोने के अलावा और कुछ नहीं आता था। छह माह का कसाब, जो मां का आंचल देखकर रोना बंद कर देता था। छह साल का कसाब, जो गांव में मेला लगने पर अपने अब्बू से जलेबियों और खिलौनों के लिए अड़ जाता था। वह कसाब, जिसे दोस्त खेल में हरा देते थे तो वह मां के पल्लू में घुसकर रोने लगता था, तब मां उसके सिर पर हाथ फेरकर कहती थी अजमल तू तो मेरा राजा बेटा है, इस छोटी सी हार पर रोते नहीं है...छह साल का अजमल 10 साल का हुआ तो उसने गांव के लड़कों के साथ खेलना सीखा, दोस्तों के साथ बाहर घूमना सीखा, किसी दिन गांव की तलैया में वह नहा रहा था तो अम्मी ने खूब चिल्लाया, उन्होंने कहा कहीं डूब जाता तो हमारा क्या होता। मां का सीधा-साधा बेटा था अजमल। 12 साल की उम्र में वह अब्बू से कुछ पैसे मांगकर दोस्तों के साथ घूमने जो निकल गया, वहां से अम्मी के लिए एक साड़ी भी लाया। 12 साल का वह बेटा अपनी मां से बहुत प्यार जो करता था। मां भी उसे बिना खाना खाए घर से जाने नहीं देती थी। क्योंकि दिनभर अजमल के पास सिवाय दोस्तों के साथ खेलने के अलावा कुछ नहीं होता था। उस परिवार का यह राजा बेटा अब 17 सालों का हो चुका था, अम्मी हमेशा मस्जिद पर ले जाती थी और कहती थी अल्लाह मेरे बेटे पर अपना करम बनाए रखना। अजमल भी मां की बात मानकर मजार पर फूल चढ़ा देता था। कितनी मासूमियत थी, उसके चेहरे में, कितना भोला था। लेकिन कुछ दिनों बाद ही उसकी मुलाकात एक कैंप से हो गई, फिर क्या था, मासूम चेहरे वाला वह अजमल...कसाब बन गया। हैवानियत उसके चेहरे पर आ गई । दुष्टों ने उसे ऐसी तालिम दे दी कि वह जिंदा मौत बन गया। और जो मौत बन जाता है उसमें सोचने समझने की शक्ति नहीं रहती है। अपनी अम्मी और अब्बू का लाड़ला अजमल अब कसाब बन चुका था उसके हाथों में खिलौने की जगह जिंदा बारूद और राइफलें आ गई थीं। फिर चालू हुआ मिशन...भारत का्रे तबाह करने का...फिर उस रात वह दरिंदा बनकर आया और न जाने कितने लोगों को मौत दे दी। उस से अजमल की यह दास्तां, जो उसे एक छह माह के अजमल से मौत का जिंदा पुतले के रूप में तब्दील हो गया। उसके जीवन के यह पहलू भले ही अनछुए हो, लेकिन संगत ने उस अच्छे बेटे को खंूखार बना दिया। यहां भारत ने उसे फांसी की सजा सुनाई है, उसकी यह कहानी सुनाकर किसी भी तरह की सहानुभूति पाने की कोई कोशिश नहीं है, लेकिन मां के पल्लू से लिपटकर रोने वाला वह कसाब को आज फांसी भी दे दें तो इसकी क्या गारंटी है कि कल कोई कसाब हमारे देश पर फिर हमला करने नहीं आएगा। यहां उसकी फांसी में सजा को कम करने के लिए भी कोई अपील या कोई मांग नहीं है, बल्कि उसके जीवन का यह दूसरा पहलू भी समाज के सामने आना चाहिए। आखिर वह भी तो एक मासूम बेटा था, उस अम्मी का, जिसने कभी नहीं सोचा था कि उसका अजमल कभी किसी को मौत देगा, जो भूखा होने पर रो देता था, आज वह मासूम अजमल कहां गया किसी को नहीं पता, तो क्या...अजमल की फांसी के बाद हर चीज सही हो जाएगी...यह एक बड़ा प्रश्न है जो सदा मुंह उठाए खड़ा रहेगा। क्योंकि हर समस्या का हल फांसी नहीं है, इसके अलावा भी कोई बीच का रास्ता निकाला जा सकता था, जो दूसरों के लिए सबक भी होता, और अगली बार कोई कसाब बनने से पहले दस बार सोचता...।

Wednesday, May 5, 2010

रईसजादे हो तो क्या, रेप करोगे


पैसा दंभ को न जाने कहां पहुंचा देता है, बुद्धि भ्रष्ट कर देता है और दिमाग का संतुलन बिगाड़ देता है, उस स्थिति में इंसान-इंसान नहीं रहता, बल्कि हैवानियत की हद को पार कर जाता है, उस स्थिति में उस दानव की सोच शून्य हो जाती है। तब शुरू होता है, आदमी का जानवर बनना, लेकिन यह स्थिति दोनों पर लागू होती है, पहली वो जिसमें व्यक्ति दंभित होता है और दूसरा कुंठित। दोनों ही स्थितियों में एक चीज जो प्रमुख होती है वह आदमी का मानसिक दिवालियापन। अगर देखें तो देश में बलाकत्कार के सैकड़ों मामले आते हैं, नारी की स्वतंत्रता का हमेशा दमन करने के लिए भेड़िए बैठे रहते हैं। मगर यहां बात पैसों वालों की हो तो उन्हें ऐसा लगता है, मानों स्त्रियों पर जुल्म करना उनके शरीर को चीर फाड़ कर क्षत विक्षत करना उनकी विरासत है, उन्हें उनके बलात्कार का अधिकार है। हालांकि हमारे देश में सदियों से महिलाओं पर कहर बरसाया गया है, कभी उसने विरोध किया तो कभी वह विरोध भी नहीं कर पाई, उस युग में राजाओं की जब मर्जी और जिसके साथ मर्जी होती थी, वे संबंध बना लेते थे, उनके पास हजारों रानियां होती थी, वहां इश्क और मोहब्बत जैसी कोई चीज नहीं होती थी, बल्कि मानसिक कुंठा होती थी, जो पैसों के जहाज के नीचे दबाया जाता था। राजाओं का युग खत्म हुआ तो बारी आई जमींदारों की, उन्होंने भी अपनी मर्जी और पैसे के दम पर महिलाओं के शरीर के साथ मर्जीनुसार खेल खेले, वहां भी नारी के नूर को अपमानित किया गया, मगर आवाज नहीं उठी, उसका कारण यह है कि आदमी की आवाज से अधिक मोल पैसे का था...है और रहेगा...। उस जमाने में तो शिक्षा के प्रति इतनी जाग्रत नहीं थी, इसलिए कहा जा सकता है कि आदमी की सोच को इंसान नहीं बनाया जा सकता है। मगर वर्तमान में जो स्थिति हो गई है, वह काफी भयानक है, यहां तो धन और बल का संगम बन गया है, जिनके पास है, उसे तो ऐसा लगता है मानों महिलाओं के साथ रेप करने का उन्हें लाइसेंस मिला हुआ है। कई मामलों में महिलाओं का रोज कहीं न कहीं बलात्कार किया जाता है, कहीं वे विरोध करने के बाद दम तोड़ती हैं तो कहीं पहले भी तोड़ देती हैें। मगर इन रईसजादों को क्या कहेंगे, क्योंकि बापों की दौलत से ये दुनिया पर हुक्म चलाना चाहते हैं, इन्हें लगता है कि इनके बाप की दौलत के आगे किसी की ईज्जत जैसी कोई चीज नहीं है, इस सोच की बदौलत ये अपराध की पराकाष्ठा तक निकल जाते हैं, स्त्रियों का सम्मान जैसी कोई चीज तो इन्हें आती ही नहीं, जिस कोख से पैदा हुए, उसे अपमानित करने का एक भी मौका ये रईसजादे छोड़ते नहीं। तो इन्हें कैसे रोका जाए, इसके लिए सामाजिक चेतना की आवश्यकता तो है ही, साथ ही सरकार को भी नियमों को कड़ा कर जल्द फैसले लेने होंगे। संतोष मट्टू हो या जेसिका लाल हत्याकांड, या फिर आरुषि हर केस में महिला को सालों साल न्याय के लिए तड़पना पड़ा है, उसे न्याय के लिए गिड़गिड़ाना पड़ा। यह तो उनके परिवार वालों का साहस और धैर्य ही था, जो उन्हें इंसाफ मिल सका, लेकिन न जाने ऐसी कितनी ही जेसिका और आरुषि को इन रईसजादों के आगे दम तोड़ना पड़ता होगा। उस स्थिति पर रोक कैसे लगाई जाए, सरकार को अपने नियमों में बदलाव कर सजा का प्रावधान शीघ्र और कड़ा करना होगा, उस स्थिति में इनके अंदर कुछ दहशत अवश्य आएगी, अन्यथा जब से स्त्री ने जन्म लिया है, उसे आमदी ने खिलौना बनाया है और बनाते रहेगा।

Monday, May 3, 2010

गरीब भूख से मरे, अपराधी विलास करे



देष की इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है, कि जो हाथ देष के लिए उठते हैं, जो उसके लिए अपना खून पसीना तक बहाने से नहीं चूकते, उन्हें मरने के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है, जबकि जो देष का खून बहाते हैं, उनका ख्याल ऐसे रखा जाता है, मानों जैसे कोई ष्षाही मेहमान हो, इससे तो देष की नीतियों और नियमों पर तरस आता है। हम एक करोड़ की आबादी से बहुत अधिक हो गए हैं, नए-नए विकास के चरणों को छू रहे हैं, लेकिन बिछड़ों के प्रति हमारा जो रवैया सदियों पुराना था वह आज भी है। हम आज भी गरीबों को जूतों के पास ही जगह देते हैं, जबकि जो ष्षक्तिषाली होता है, उसकी आवभगत करने में एक पल भी नहीं चूकते हैं। देष के पटल पर जो गरीबों के साथ हो रहा है, उसे सिर्फ खिलवाड़ के अलावा और कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। अगर देखे तो देष की आधी से अधिक आबादी गरीब है, लेकिन सरकार न तो इसके लिए रोजगार उपलब्ध करा रही है और न ही इनके जीवन सुधार के लिए कोई व्यापक इंतजाम कर रही है। जबकि कसाब जैसे खूंखार आतंकवादी को सुविधाएं- ही सुविधाएं दी जा रही है। यह कहां का न्याय है, जहां अपनों के साथ सौतेला जैसा व्यवहार हो रहा है। जिस कसाब ने 50 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतारा है, हम उसकी सुरक्षा पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा रहे हैं, इसे क्या कहंेंगे, क्योंकि जहां यह गद्दारी हो रही है वहीं हमारे गरीब और मजदूर भी हैं, जो मजबूर होकर अपनी जान दे देते हैं। तो हमारा फर्ज किसके लिए, उस हत्यारे कातिल कसाब के लिए या फिर हमारे देष की जनता के लिए। किसका ठेका लेकर बैठे हैं, किसकी सुरक्षा का कत्र्तव्य हम निभाने में जुटे हैं...,इस पूरी उठापटक पर देष के खोखले पन का अहसास हो रहा है, क्योंकि जो किसान देष को खाना खिलाता है, उसके साथ बेरुखी हो रही है, जो मजदूर हमारे घरों को रोषन करते हैं, उनके यहां हम मजबूरी के अंधेरे को पसरने देते हैं। हमार युवाओं को नौकरी दे पाने में हम असमर्थ हैं, जिसके चलते उन्हें अपनी जानें देनी पड़ रही हैं, वहीं महिलाओं के लिए हम कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं...ऐसे सैकड़ों मुद्दे हैं, जिन पर हमने खामोषी कायम कर रखी है, और कोई भी हल निकालने का म नही नहीं बनाकर बैठ गए हैं, वहीं कसाब जैसे गुनहगारों की बात आती है तो उसके लिए हम पाइव स्टार जैसे व्यवस्था कर देेते हैं। क्या कहने हैं इस देष के, जो अपने बाजुओं को तो कटने और मरने के लिए छोड़ देता है, मगर जिन बाजुओं से हमारा गला उतारने के लिए कोई दुष्मन आता है, उन पर हम तेल लेकर मलने में जुट जाते हैं। यहीं है हमारे भारत का दुर्भाग्य, जिसे चंद लोग गर्त में ले जाने के लिए जुटे हैं। आखिर क्या जरूरत है, इतनी चाक-चैबंध सुरक्षा की, और अगर है तो अभी तक लगभग 17 महीनों से अधिक हो गए हैं कसाब को कैद में, कोई भी ऐसा सनसनीखेज राज नहीं उगलवा पाए हैं, जिससे लगे कि हां, इतने रुपए अगर उस पर खर्च हो रहे हैं तोवो जायज हैं... यह ऐसी समस्या है जो सुरसा के मुंह जैसी बढ़ती ही जाएगी, इसलिए बहुत जल्द इस पर कोई उत्तेजित निर्णय लेने की आवष्यकता है।