Friday, January 29, 2010

शोहरत की आंच में झुलसते रिश्ते


न पैसे की कमी न शोहरत की कमी, लेकिन इसके बीच संवेदनाएं कहीं खो गई हैं। अपनत्व का कत्ल हो गया है, रिश्तों की डोर जो पतले धागे में मजबूती के साथ रहती थी, आज उसमें न सिर्फ गठान आ गई है, बल्कि वह टूटने लगी है। कोई किसी का नहीं, कोई किसी के लिए नहीं की तर्ज पर जिंदगी को जिया जा रहा है। यहां शर्तों पर जिंदगी को उधार लेकर उसके नए पैमाने बनाए जा रहे हैं। हर रिश्तों की कशिश को शोहरत की आंच में झुलसने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। कहीं कोई पैसे की चमक ने रिश्तों की वेदी को तारतार कर दिया है, तो किसी ने उनका खून ही कर दिया है। हर तरफ एक बनावटी जिंदगी ने आडंबर की ऐसी चादर ओढ़ रखी है, जिसकी बुनियाद में झूठ झलकता है। समाज के पास शोहरत की आंच ने उसकी संवेदनाओं और भावनाओं को झुलसा दिया है। यहां पल-पल रिश्ते तड़पते हैं, सिसकते हैं, झुलसते हैं और अंत में दम तोड़ देते हैं। इसके बाद उन रिश्तों की अर्थी को कांधा देकर नए रिश्ते की तलाश में जुट जाते हैं । शोहरत की यह माया न तो टाइगर वुड्स जैसे नंबर एक के खिलाड़ी के ऊूपर फब रही है और न ही सानिया मिर्जा जैसी हॉट टेनिस बाला पर। यह दो उदाहरण ही हमारे सामने नहीं हैं, बल्कि बॉलीवुड से लेकर स्पोर्र्ट्स जगत की कई मशहूर हस्तियां जिनके पास अजब-गजब की शोहरत थी, उनकी अजब प्रेम की कहानियां को गजब अंत नहीं बल्कि बुरा हश्र हुआ है। इनमें से कुछ विवाह के पवित्र रिश्तों तक पहुंचे, उसके बाद उन रिश्तों की खटास ने उनकी मजबूती को ध्वस्त कर उन्हें अलग कर दिया। वहीं कुछ रिश्ते तो प्रेम और सगाई तक ही आकर जमीदोज हो गए। तो इसका कारण क्या मान लिया जाए, कि आखिर शोहरत रिश्तों की सबसे बड़ी दुश्मन है। हां, इसमें कुछ हद तक, लेकिन हमारे पास ऐसे कई उदाहरण आज भी हैं, जिनमें शोहरत और बुलंदी की आंच उनके रिश्तों पर नहीं आ पाई है। इसलिए पूरी तरह से इसे दोष नहीं दिया जा सकता है। बल्कि इसे लिए दोषी दिया जाए तो वह है हमारे नई जनरेशन की सोच और खत्म होती संवेदना। अगर सानिया और सोहराब वाले केस पर निगाह डाली जाए तो हम पाएंगे कि सानिया की शोहरत सोहराब से कहीं अधिक थी। हालांकि दोनों का प्रेम बचपन का था, लेकिन वह अमर नहीं हो सका। और महज कुछ माह में ही इसने अपनी सांसे तोड़ दी। तो क्या इसके लिए सानिया की शोहरत को जिम्मेदार माना जाए, जब इन दोनों की सगाई हुई थी तो बकायदा शोहराब उनके समय महबूब, मैदान पर अपने महबूबा के मेहंदी लगे हाथों के साथ मौजूद था। सानिया प्रैक्टिस में जुटी थीं और सोहराब कैमारा लेकर उनके पीछे-पीछे उन्हें कवर करने में जुटे थे, लेकिन हमेशा दूर के ढोल सुहाने होते हैं और पास आने पर कर्कश हो जाते हैं। उसी तरह दूरियां रिश्तों में कशिश रखती हैं और जब नजदीकियां बढ़ जाती हैं तो इनमें संधि विच्छेद हो जाता है। कारण यही है, सोहराब अपने अहं को उस समय तक दबा कर बैठे, जब तक उनकी महबूबा नई-नई थी, हालांकि यह प्यार बचपन का था, मगर शादी की मुहर तो हाल ही में लगी थी। वहीं सानिया को भी उनकी शोहरत पुकार रही थी। उन्हें अपना कद सोहराब से अधिक नजर आ रहा था। बस शोहरत और अहं की इस लड़ाई ने इस रिश्तों का गला घोंट दिया। अब इन दोनों ने भले ही कोई भी रीजन बताया हो इस रिश्ते के अलग होने का, लेकिन शोहरत की आंच में हर बार रिश्ते झुलस जाते हैं। यहां से इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि समाज इस समय पूरी तरह स्वस्थ नहीं है। जिस तरह अधिक भोजन करने पर पेट की व्यथा होती है, उसी तरह समाज भी हो गया है, क्योंकि अति धनाढ्य वर्ग में यह समस्या विद्यमान हो गई है। मध्यम वर्ग में अभी संवेदनाओं का सैलाब कुछ हद तक जिंदा है और रिश्तों की महत्ता उन्हें समझ में आती है, पर धनाढ्य वर्ग इससे पूरी तरह अपने आपको दूर रख रहा है। वह न तो भावनाओं में विश्वास रखता है और न ही रिश्तों में उसे कोई दिलचस्पी है। वह तो अपनी शोहरत के कुएं में अकेले ही रह रहा है। यह स्थिति उनके सामाजिक पतन का कारण बन रही है।

Wednesday, January 20, 2010

क्या तुम मराठी हो?


हां, अगर तुम मराठी हो, तो ठीक है और अगर मराठी नहीं हो तो आपको न तो महाराष्ट में खाने का हक है न रहने का और न ही नौकरी करने का। यहां सिर्फ मराठी ही रह सकते हैं।काम कर सकते हैं। सारे सुख और सुविधाओं का इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर तुम्हें यहां रहना है तो गुलामों की तरह रहना होगा। हमारी सुनना होगी। इन ष्षर्तों को मानने के बावजूद जब हमारी इच्छा होगी, तुम्हें यहां से मारकर हम भगा देंगे और तुम हमसे पलटकर एक सवाल भी नहीं करोगे। यह है देष की हकीकत। जहां एक ओर हम विदेषों में नस्लवाद की बातें कर घंटों बरबाद कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हमारे देष में ही क्षेत्रवाद का सांप फन फैलाए बैठा है और हम उसे ही मारने में नाकाम सिद्ध हो रहे हैं। आॅस्टेलिया में हमारे छात्रों पर जब हमले होते हैं तो हमें बड़ी जल्द क्रोध आ जाता है। ऐसा लगता है कि सरकार हमारी नपुंसक बन गई है। हम असहाय हैं आखिर आस्टेलिया की हिम्मत कैसे हुई, हमारे बच्चों पर हमला करने की। लेकिन हर चीज को भावनाओं की बोतल से बाहर निकलकर जब देखते हैं तो मरीचिका समाप्त हो जाती है और सचाई हमारे सामने कुछ ऐसे सवाल खड़े कर देती है, जिसके जवाब हमारे पास नहीं होते हैं। अगर गौर करें तो कुछ माह पहले से आॅस्टेलिया में रह रहे भारतीयों पर हमले अधिक हो गए हैं। लेकिन यहां एक और गौर करने वाली बात ये है कि वो तो परदेष है, लेकिन मुंबई में जो हिंदी भाषियों के साथ हो रहा है वह कहां तक न्याय है, कहां तक उसे सही ठहराया जा सकता है। सरेआम राज ठाकरे और अन्य मराठियों जैसे उद्यमी लोगों को पीटते हैं। उनके रोजगार छीन लेते हैं। सरकार से इन्हें मुनाफा न देने की वकालत तक करते हैं। तो क्यों हम बेबस और लाचार हो जाते हंैं। जब हमारे बच्चे हमारे देष में ही इस तरह की घटनाओं के षिकार हो रहे हैं। वह भी अपने देषवासियों के बीच तो हम आॅस्टेलिया से क्या उम्मीद बांधें। क्योंकि जिस तरह से देष में हालात उत्पन्न हो रहे हैं। उससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि कुछ समय में प्रादेषिक युद्ध छिड़ जाएगा। इसमें न तो कोई हिंदुस्तानी ष्षामिल होगा और न ही कोई व्यक्ति। सभी मारकाट मचाएंगे। देष में जो थोड़ी बहुत ष्षांति है उसकी धज्जियां उड़ा डालेंगे। तो किसे दोषी ठहराया जाए, स्वयं को, राज ठाकरे को, उन हिंदी भाषियों को या फिर वहां की सरकार को। विपक्ष को। हर कोई अपराध के कठघरे में खड़ा भी होता है और नहीं भी। यह हम पर निर्भर करता है कि आखिर हम इसे किस तरह से लें। क्योंकि एक बार फिर मराठियों के ही टैक्सी वाहन बनेंगे। इस खबर ने राजनीतिज्ञों को फायदा की मलाई चटाने का मौका दे दिया है। ये लोग बड़ी ही उत्प्लावता के साथ इसे भुनाने में कूद पड़ेंगे। जबकि हालात देष के कुछ और हो गए हैं। इसे न तो ये राजनीति करने वाले सुधार पाएंगे और न ही हम जैसे अदने लोग। इसलिए इस आग को बढ़ने नहीं देना चाहिए। हमें भी आग के आसपास के कचरे को साफ करने वाली नीति को अपनाना होगा। ताकि आग अधिक न भड़क सके।

Saturday, January 2, 2010

अब तो दुनिया पर हुकूमत करनी है

उम्मीदों के आसमान में हमारी पतंग को लहराने दो, जब इसकी डोर को बिना खींचे ढील दी जाएगी तो इसकी उड़ान परवान चढे़गी। इस दौरान कभी कट भी गई तो उन्मुक्त गगन की सैर जरूर कर लेगी। बस यही है 2010। उम्मीदों और आषाओं से भरा। जिंदगी जहां सलवटें लेकर षिखर से बातें करना सीखती है, फिजाओं के साथ सैर करना सीखती, वहां जाकर हमें इस उन्माद को रखना होगा, जो जीवन को विजय रथ पर बैठाना जानता हो। बस यहीं से होती है जिंदगी की जय, जब नए साल में प्रवेष कर लिया है तो क्यों न पुराने अनुभवों को हथियार बना लिया जाए। उन अधूरों सपनों को मंजिल दी जाए, जिन्हें हम अधूरा ही छोड़कर आ गए। क्या कमी थी हममें, कहां कमजोर थे इरादे, कहां चूक हो गई कोषिष में, उनकी इस बार भरपाई कर ली जाए। इस बार न कोई बहाना, न कोई और विवषता, न विडंबना और न ही कोई उलझन। सबकुछ मुट्ठी में रखने की चाहत से हम निकल पड़े हैं। अब तो दुनिया पर अपनी फतह का ध्वज फहराकर ही वापस लौटेंगे। अगर, मगर का यहां कोई सवाल नहीं उठेगा, क्योंकि हमारे इरादों में वो फौलाद है, जो सूरज की आग में नहीं है। हम ज्वालामुखी की तरह जलेंगे, लेकिन ष्षीतलता भी रखेंगे। हमारा कद हम इतना बढ़ा देंगे कि स्वयं गिरी को भी हमसे बातें करने के लिए ष्षीष उठाना पड़ेगा। हमारे भाल में इतनी बिजली और तेज पैदा कर लेेंगे, कि देखने वाले की आंखें चुंधियां जाएंगी। हम नहीं झुकेंगे, क्योंकि सत्य हमारा सुदर्षन होगा और सफलता हमारी घरौती। हम दुनिया बदलने निकले हैं, तो क्यों न रिस्क उठाया जाए, सब पत्थर को आसमान में उछालते हैं हम आसमान पर जाने की चाह रखते हैं और वहां से पत्थर को गिराने को मादा भी। तो क्यों हम हार को बर्दाष्त करें, जब हम सक्षम हैं, हमें सारी चीजें उस भगवान ने दी है, तो क्यों न हम उसे अर्जुन बनकर लक्ष्य भेदने में लगा दें, एकलव्य जैसे वीर बनें, लेकिन बुद्धि हम कृष्ण की रखें, एकलव्य की नहीं। क्योंकि वह हमारी श्रेष्ठता नहीं हमारी मूर्खता नहीं, बल्कि सौम्यता की परिचायक बन जाएगी। तो हम क्यों न वीरों की भांति अपने ष्षौर्य को बढ़ाकर उसे इतना बलषाली बना दें कि स्वयं आसमान सुबह और रात करने से पहले हमसे पूछने आए। दुनिया की ष्षर्ते नहीं अपनी ष्षर्तें बनाकर उस पर दुनिया को चलना सिखाएं और अगर वह न चले तो उसे इतना मजबूर कर दें कि वह हमारे ईद-गिर्द ही घूमे। यह नया साल उम्मीदों भरा है, इसमें हमें कुछ कर दिखाना है, कोई ऐसा काम, ताकि हमारे आने वाली कई नस्ले इस पर ऐतबार करें। बस आज से जुट जाओ दुनिया पर हुकूमत करने के लिए...।