Monday, December 28, 2009

जागों रे जागों

मन में उफान, जज्बे में आसमान। आगे बढ़े तो चट्टानें छोटी पड़ जाए, पर्वत चढ़े तो उूंचाई कम पड़ जाए। हौसले ऐसे हैं कि आकाष सलामी देता है, सपने इसके पूरे हो, यह पूरी कुर्बानी देता है। यह है हमारा उूर्जा से लवरेज युवा। उलझते, सुलगते, झुलसते मुद्दे रहते हैं, इसके पास। दुनियां को जीतने के लिए देष को इनसे बड़ी आस है । तब क्यों न हम इनके कंधों पर ऐतबार करें, इन्हें ही जब बागडोर दे दी है तो पूरे विष्वास से इन पर भरोसा करें। जो हालात हमारे हैं, वो काफी अच्छे तो नहीं कहे जा सकते हैं, लेकिन हमारे युवा के सैलाब को दूसरे देष भलिभांति जान चुके हैं। हम बहुत अधिक युवा संपन्न देषों की राह पर खड़े हैं तो क्या ऐसे में फर्ज हम युवाओं का नहीं है। हमसे जो उम्मीदोें को पाला गया है, क्या उसके लिए हमें आगे आना नहीं चाहिए। देष के हाल-ए-हकीकत से हर कोई वाकिफ है। यहां दुर्दषा दुर्दांत बनती चली जा रही है। अपराध की चादर ने आकाष तक को ढंकने की नाकाम कोषिष कर चुकी है। झूठ का तिकड़मी जाल पूरी ताकत के साथ फैल रहा है। लूट-घसूट समाज में बुरी तरह अपने पैर फैला चुकी है। हर तरफ तबाही ही तबाही नजर आती है। तो ऐसे में हम क्या किसी मसीहा की तलाष करेंगे, जी नहीं। बल्कि मसीहा हमारे बीच में ही है। वह भी एक नहीं हजार नहीं लाख नहीं करोड़ों की संख्या में। जरूरत है हमारे जमीर को जगाने की, अंदर के इंसान को इंसान बनाने की। यहां कोई दावा नहीं और कोई वादा नहीं। कोई छल नहीं और कोई लालच नहीं।सबकुछ विष्वास की परखनली से टिम-टिम बूंद की तरह निकलेगा। वह युवा ष्षक्ति ही है जो समाज को एक नई दिषा दे सकती है। उस डूबती वैतरणी को पार लगाने में यही ष्षक्ति समर्थ है। यहां न तो देषभक्त बनने की बात हो रही है और न ही डींगे हांकने की। यहां सिर्फ इतना कहना है कि ईमानदारी से कार्य कर देष के विकास को पहले रखा जाना चाहिए। अगर यह करना सीख गए तो हमारे देष को युवा पर लग जाएंगे और वह आकाष की लंबी उड़ान बिना थके भर सकेगा। सैकड़ांे समस्याएं कदम-कदम पर मुंह उबाए खड़ी हुई हैं। इसका न तो कोई परमानेंट इलाज किया जा रहा है और न ही लगता है। इसकी कौन लेगा जिम्मेदारी। कोई नहीं। हर कोई अपनी रोटियां सेंकने में और दाल दलने में लगा है। समाज में अंधेरा हो रहा है या उजाला किसी को क्या लेना देना। तो ऐसे में कौन जागेगा, आप को जागना होगा ।हम युवाओं को जागना होगा। अगर हम थोड़ी सी भी अपनी जिम्मेदारियों को समझ गए तो निष्चय ही इस देष की काया पलट सकती है। इसका नक्षा चेंज हो सकता है। इसलिए देष की उम्मीदों को युवाओं के सहारे की जरूरत है। इसमें अगर उन्होंने अपनी उूर्जा दिखा दी तो देष के विकास में चार चांद लग जाएंगे। बस इसी आग की जरूरत है। सफलता सामने पड़ी है, लेकिन उसे पकड़ने मत दौड़ों, बल्कि खुद के कद को इतना बढ़ा लो कि वह खुद-ब-खुद तुम्हारी पहुंच में आ जाए।

Thursday, December 17, 2009

नया साल, बुरा हाल


दिसंबर की ष्षुरुआत से ही नए साल का इंतजार हो रहा है। लोगों ने अपने प्लान बना लिए हैं। कइयों ने इंजाॅयमेंट के तरीके देख लिए हैं तो कई इसे बनाने में अब भी जुटे हैं। कुछ ने नए संकल्प भी ले लिए हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए बड़ी ही षिद्दत के साथ भिड़ भी गए हैं। मगर नए साल का बुरा हाल अभी से नजर आ रहा है। देष में अब भी सारी परेषानियां बीमारियों के रूप में नजर आ रही हैं। हर कोई लूट-घसूट में लगा है। कहीं रिष्तों को ताक पर रखा जा रहा है तो कहीं इन्हें तार-तार किया जा रहा है। दुष्मन के साथ दोस्त भी दगाबाज हो गए हैं। भ्रष्टाचार की श्रंखलाएं चालू हो गई हैं। विकास की लीलाएं दिखाई जा रही हैं, मगर कृत्य अपराधियों के हो रहे हैं। हर तरफ वादों पर वार किए जा रहे हंै। देष की स्थिति उस मछली की तरह हो गई है, जिसका ताल जहरीला हो गया है। अब अगर अंदर रहती है तो जहर वाला पानी उसकी जान ले लेगा और बाहर निकलने की कोषिष करती है तो अपने आप मौत अपने आगोष में ले लेगी। देष अपराध की चादर में लिपटा हुआ है, अपराधियों से जगह और जमीन पटी पड़ी है। झूठ का साया हर जगह विद्यमान है। गैरत मर गई है, सचाई को कहीं दफना दिया गया है। इंसानियत का गला घोंट दिया गया है। दुर्दषा दुर्दांत हो गई है, विकास की वैतरणी तो भंवर में फंसी हुई है, जिसे कोई सहारा पार नहीं लगा सकता है। हर तरफ ज्वालामुखी और आतंक फैल गया है, न तो कोई आदर्ष है और न ही कोई सिद्धांत। अफसरषाही पूरी तरह से अपने पैर जमा चुकी है, जो लोगों पर मठ्ठई का हथौड़ा चला रही है। आतंक ने अपनी जड़े काफी अंदर तक मजबूत कर ली है। अमेरिका ने जिस तरह से अपने आतंक पर काबू पा लिया है, हम आज तक उस दर्द से कराह रहे हैं। इसके नाम पर लाखों रुपए बर्बाद किए जा रहे हैं, न तो कोई प्लान है इसके लिए और न ही नीति। सरकार भी बड़ी-बड़ी बैठकें कर लोगोें को फुसला लेती है। विपक्ष को टरका देती है और विरोधियों को बहला देती है। समस्या वहीं की वहीं और क्या पता साल के पहले दिन ही यह अपना स्वरूप या कहें कि रौद्र रूप दिखा दे। जिसका हमारे पास कोई जवाब नहीं होगा। सिवाय सरकारी जवाब कि हम कार्रवाई कर रहे हैं, जांच हो रही है, जो भी दोषी होगा, उसे बख्षा नहीं जाएगा। आखिर कब तक यह रवैया चलेगा। बहुत कुछ होता है तो हमारी लाचारी और व्यवस्था की कमजोरी को पाकिस्तान के सिर मढ़ दिया जाता है। पूरे आरोप उस पर चले जाते हैं। देष की जनता कोे उसके विरुद्ध आतंकित और इतना भड़का दिया जाता है कि देष का बच्चा भी पाक को मारने के लिए बंदूक ताने खड़ा रहता है। हम क्या कर रहे हैं। माना की पाक इस तरह की करतूतों को अंजाम देता है, लेकिन उन्हंे रोकने के लिए हमारे जो प्रयास हो रहे हैं वो कहां हैं। आखिर जिस सुरक्षा व्यवस्था पर हम लाखों, करोड़ों रुपए बर्बाद कर रहे हैं, उसमें पाकिस्तान हर बार सेंध लगा देता है। यह पाकिस्तान का दुसाहस नहीं उसकी ताकत का पैगाम है, जिसके आगे हम लोग नतमस्तक हैं। एक अरब की आबादी से अधिक हैं, हम। ऐसे में क्या हमारी सुरक्षा उन मुट्ठीभर लोगों के हाथों में हैं जो हमेषा छिपते फिरते हैं। जिनके पास न तो रहने के ठिकाने हैं और न ही ठीक से खाने को। ये हमेषा गुफाओं में घुसे रहते हैं, ऐसे लोग हमारी सुरक्षा व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करते हैं तो यह हमारे लिए चिंता का विषय होना चाहिए। साथ ही षर्म की बात यह है कि हमारी इतनी बड़ी सुरक्षा व्यवस्था इन चंद लोगों के सामने भीख मांगते नजर आती है। आखिर क्या कारण हैं कि हम इनके आगे लाचार हैं। वहीं सुरक्षा की अगली कड़ी पर आए तो हमने इतना भ्रष्टाचार का कीचड़ जमा कर लिया है कि वह अब हमारी ही जिंदगी लीलने में लग गया है। वहीं नक्सलवाद की समस्या ने सिर उठा लिया है, इसके बावजूद हम षांत अवस्था में हैं, क्योंकि जिनके हाथों में व्यवस्था है उन्हें न तो कोई परेषानी हो रही है और न ही नक्सलवाद उनके सामने मौत बनकर खड़ा है। इसलिए इसके सुधार का बीड़ा नहीं उठाया जा रहा है। जिस दिन यह सामने से आकर किसी वीआईपी और वीवीआई के घर में दस्तक देगा, तब जाकर इस पर गहन विचार किया जाएगा। क्षेत्रियता का फन फुफकार मार रहा है, लेकिन हमारा ध्यान सिर्फ सत्ता के गठजोड़ और उसका गणित बिठाने में लगा है। तो इसके लिए किसे दोष दिया जाए। ये तो हैं मुख्य समस्याएं, जिनसे हमें सीधे काल मिलता है। ये समस्याएं तो जानलेवा हैं, लेकिन सेकंडरी समस्याएं भी हमारे देष में इतनी हेैं, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। तो उन्हें सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है, कोई नहीं जानता है। जिस तरह से भुखमरी, गरीबी, कैंसर, एड््स, ह्दयरोग, निरक्षरता, अपराध। ऐसी सैकड़ों समस्याएं हैं। इन पर कैसे अंकुष लग सकता है। और अगर इतनी समस्याआंे से ग्रसित है यह देष तो विकास की सरपट दौड़ कैसे दौड़ सकता है, क्योंकि यहां तो उसे चलने में ही मवाद बह रहा है, दौड़ने में तो जान निकल जाएगी। जब तक इन पर काबू नहीं पा पाएंगे, हम न तो सुरक्षित हो पाएंगे और न ही विकसित। यही ढर्रा चलता जाएगा। सरकारें बदलेंगी, लोग बदलेंगे, लेकिन व्यवस्थाएं यहीं रहेंगी। हर कोई अपना हित साधकर यहां से निकल जाएगा। देष उसी हाल में कराहता रहेगा और एक दिन तड़प-तड़पकर जान दे देगा।

Wednesday, December 16, 2009

कोपेनहेगन में क्या किया?


ग्लोबल वाॅर्मिंग पर जिस तरह से वाॅर्निंग दी जा रही है, उसने लोगों को संषय में डाल रखा है। उूपर से कोपेनहेगन जैसे कई बड़े-बड़े सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे। बातें भी ऐसी, मानों इस बार इनमें हल ढूंढ ही लिया जाएगा। लेकिन सारे प्रयास विफल हो गए। न तो कोई ग्लोबल वाॅर्मिंग का रास्ता निकल पाया है और न ही कोई भावी योजना बन पाई है। जिस तरह मालदीव में समुंदर के भीतर संसद लगाकर चिंता जताई थी। इसके बाद नेपाल ने माउंट एवरेस्ट पर संसद लगाई। तो लगा कि पूरी दुनिया ग्लोबल वाॅर्मिंग के संकट को मानकर बैठी है। और हर देष अपने स्तर पर प्रयास करने में जुटा हुआ है, जबकि वास्तविकता कुछ और ही है। हर कोई एक- दूसरे की जिम्मेदारी बना रहा है, लेकिन मषाल को हाथ में रखने से इसलिए डरा जा रहा है कि कहीं यह अपना हाथ ही न जला दे। विकासषील देष और विकसित देषोें के बीच हर बार बड़े-बड़े सम्मेलनों का आयोजन होता है, उसमें बड़ी-बड़ी बातें भी होती हैं, लेकिन आज तक एक का भी नतीजा नहीं निकल पाया है। फिर चाहे वह ग्लोबल वाॅर्मिंग की समस्या हो या आतंकवाद की। इस तरह की नौटंकी सिर्फ दिखाने के लिए की जाती है, इसका हकीकत से कोई न वास्ता होता है और इसका न ही कोई रास्ता होता है। इस बार भी कुछ अलग नहीं हुआ। जिस उम्मीद से कई हजार लोग कोपेनहेगन में जुटे थे वह मामला वहीं का वहीं नजर आ रहा है। सम्मेलन पूरी तरह से फ्लाॅप ष्षो हो गया है। करोड़ों रुपए इसमें लगाए गए थे। देषभर से डेलिगेट्स आए थे, लेकिन नतीजा फिर सिफर ही रहा । इस तरह से जितने भी अंतरराष्टीय सम्मेलन होते हैं, वो हाथी के दांत की तरह होते हैं जो सिर्फ दिखाने के लिए होते हैं। जब उसकी जमीनी हकीकत पर आया जाता है तो स्थिति बिलकुल बदली होती है। वही यहां पर भी हुआ। भारत जैसे कई देषों पर पहले तो जिम्मेदारी का दारोमदार डालने की कोषिष की गई, इसमें विकसित देषों ने अपने हाथ उठा लिए और सोचा की सबकुछ इनके माथे ही डाल दो, लेकिन विरोध के बाद कुछ सही निर्णय लिए गए। अभी तक कोपेनहेगन से कोई उम्मीद निकल कर नहीं आई जिससे यह कहा जा सकता हैक् कि इस बार ग्लोबल वाॅर्मिंग का संकट टल गया है। अब अगर इस तरह की बड़ी योजनाएं फेल हो जाएंगी तो निष्चय ही यह कहा जा सकता है कि आगे क्या होगा। आम आदमी, जो हर समय एक नई मुसीबत में फंसा रहता है वह कैसे इस समस्या पर सोचेगा। वह कैसे इसके सुधार के लिए कोई प्रयास करेगा, क्योंकि उसके आसपास न जाने कितनी समस्याएं हैं जो उसका जीना मुहाल करे, ग्लोबल वाॅर्मिंग जैसा संकट तो उसकी जिंदगी से काफी दूर है, लेकिन दूसरे संकट तो उसकी जिंदगी के मुहाने पर खड़ा है। ऐसे में भला उसे इससे क्या औचित्य। इन हालातों में समस्या जटिलता की पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। इसलिए जब तक देषों के बीच की खाई नहीं पटेगी और सभी एक सुर में काम नहीं करेंगे, इसका हल निकलना नामुमकिन है।

Tuesday, December 15, 2009

हारते तो मुंह भी न दिखा पाते

चार सौ 14 रन देखकर अगर कोई इतरा रहा है, उसकीतारीफों के पुल बांध रहा है। कोई कह रहा है कि टीम ने क्या बल्लेबाजी की है और कैसे श्रीलंकाई चीतों को पटकनी दी है, तो यह सिवाय जज्बात और भारत प्रेम के अलावा कुछ भी नहीं है। क्योंकि जिस तरह से श्रीलंका की टीम खेली है उसने यह जता दिया है कि हमारे पास एक हजार रन का टाॅरगेट होने के बावजूद हम नहीं जीत पाएंगे। हम यह नहीं कह सकते हैं कि हम इस टाॅरगेट पर सुरक्षित खड़े हैं। टीम ने रनों का पहाड़ खड़ा कर दिया था। अगर ऐन वक्त पर लंका ने थोड़ी गलती न की होती तो इस पहाड़ पर उसने फतेह पा ही ली थी। टीम अगर यह मैच हार जाती तो वह इतिहास में दर्ज होने के साथ कहीं मुंह दिखाने के काबिल नहीं बचते। जिस कातिलाना अंदाज में आज वीरू ने अपने तेवर दिखाए थे, उसने टीम को चोटी पर पहुंचा दिया, लेकिन बाद की बल्लेबाजी को देखकर यही कहा जा सकता है कि अगर टीम में युवराज न हो तो बाद में एक भी ऐसा कोई बल्लेबाज नहीं है तो आतिषी अंदाज में बल्लेबाजी कर सके। अगर युवराज होते तो निष्चय ही 414 का यह आंकड़ा साढ़े चार सौ भी पहुंच सकता था। टीम में सचिन, धोनी और वीरू के अलावा किसी भी बल्लेबाज ने अपने कद के अनुसार बल्लेबाजी नहीं की। हर कोई आया और चलते की हैसियत से बल्लेबाजी कर रहा था। न तो किसी को पता था कि क्या करना है और न ही कोई समझने की कोषिष कर रहा था। जिसकी जैसी मर्जी हो रही थी बल्ला घुमा रहा था। पड़ी तो बाउंडी मिल गई, चूका तो कैच दे बैठा। कोई बोलने वाला भी नहीं था। माहौल ही ऐसा बना दिया, कि लगा ही नहीं कि क्रिकेट मैच खेला जा रहा हो। ऐसा लग रहा था कि पास-पड़ोस का मैच चल रहा हो और पास में ही बाउंडी हो। जब तक टीम इंडिया ने बल्लेबाजी की, हमें लगा कि वाह हमारी टीम क्या खेल रही है, लेकिन जैसे ही उसी पिच पर लंका ने खेलना ष्षुरू किया तो समझ में आ गया कि हमारी वास्तविक औकाद क्या है। आखिर हममें कहां-कहां से छेद हैं। संगाकार और दिलषान ने जिस बेहतरीन अंदाज में खेला उसने यह बता दिया कि वो बाहरी पिचों पर भारतीय ष्षेरों की माद में घुसकर उन पर किस तरह से हमला कर सकते हैं। पूरी टीम ने बेहतरीन खेल खेला। भले ही लंका मैच हार गया, लेकिन उनका साहस काबिले तारीफ था, जो असंभव चढ़ाई को देखकर हारा नहीं और उस पर लगातार चढ़ने का प्रण बनाकर बैठ गया। कहीं भी ऐसी कोई गलती नहीं कि लगा हो वह उतावला हो गया हो या हिम्मत हार कर बैठ गया हो। वहीं इसके विपरीत टीम इंडिया को अगर तीन सौ का स्कोर भी मिल जाता है तो वह अपना आपा खो देती है। इस खेल ने लंका का मानसिक संतुलन बता दिया है साथ ही यह भी बता दिया है कि उसमें कितनी कूबत है। वहीं एक और चीज गंभीरता से उभर कर आ गई है। वह यह की टीम इंडिया को अगर 2011 का विष्वकप का ताज पहनना है तो निष्चय ही उसे अपनेे आपको बहुत जल्द बदलना होगा। क्योंकि अब उसके पास आत्ममंथन के लिए अधिक समय नहीं बचा है। टीम बुरी तरह हालांकि खेल रही है, लेकिन उम्मीद का दामन थामे रखना हम भारतीयों के खून में ष्षामिल है। हमें अब भी उम्मीद है कि टीम 2011 का ताज पहन लेगी। लेकिन मौजूदा दौर में टीम की गेंदबाजी और मध्यक्रम की बल्लेबाजी के हाल है उसे देखकर तो वह सपने सपने जैसी बात ही लगती है। क्योंकि विष्वकप के महाकुंभ में बड़े से बड़े दिग्गज आएंगे और जी जान लगा देंगे कि किसी भी तरह से कप उनके यहां आए। ऐसे में भारत की चुनौती कहीं भी नहीं ठहरती है। क्योंकि उनके सामने अगर इसी तरह का लचर प्रदर्षन रहा तो बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ेगा। इसलिए जो गललियां हो रही हैं उन पर अभी विचार करने की आवष्कता है और उस पर फटाफट निर्णय होना चाहिए। ताकि कुछ रिजल्ट दे सकें। अन्यथा हर बार की तरह इस बार भी विष्वकप को हम अपनी आंखों के सामने किसी और को चूमता देखेंगे और सिवाय दुःख के हमारे पास कुछ भी नहीं रहेगा। जिस ष्षानदार ढंग से आॅस्टेलिया और दक्षिण अफ्रीका की टीमें विष्व क्रिकेट में अपनी दावेदारी पेष कर रही हैं, उसने इन दोनों को ताज के बहुत नजदीक खड़ा कर रखा है। ऐसे में किसी दूसरे देष का इनसे ताज छीनना ष्षेर के मंुह से मांस खींचने के समान है, इसलिए यहां गौर करने वाली यह बात है कि किसी तरह से हम कुछ देषों को मान लो परास्त कर भी दे ंतो इन्हें परास्त करने के लिए हमें अपने खेल के स्तर को इनके पास लाना होगा। इसके लिए न सिर्फ मेहनत की जरूरत है, बल्कि एक बेहतर प्लानिंग की। इसलिए यहां पर जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाती है कि किसी भी कीमत को प्रदर्षन के उस स्तर तक लेकर जाना है, जहां से इन टीमों को षिकस्त दी जा सके। अगर यह करने में कामयाब हो गए तो एक बार फिर भारतवासियों के हाथों में कप होगा और गर्व से सिर उूंचा हो जाएगा। तब हम वास्तविक चैंपियन कहलाएंगे।

Monday, December 14, 2009

वतन में आने के जतन

अगर पेड़ से उसकी जड़ों को काट दिया जाएगा, तो न तो ज्यादा दिनों तक पेड़ जीवित रह पाएगा और न ही जड़े अपना अस्तित्व रख पाएंगी। दोनों एक दूसरे के लिए कड़ी का काम करती हैं। इसलिए इन्हें दूर नहीं करना चाहिए। उसी प्रकार मां से बिछुड़ कर उसका बेटा, भाई से भाई। हर जगह खून तो उबाल लेता ही है। और वह अपने को देखकर तड़प भी उठता है। यहां न तो कोई बाजार होता है और न ही कोई बनावटीपन। सब एक वृक्ष की जड़ों की तरह जमीन के भीतर जुड़े हुए रहते हैं। इसी प्रकार वतन से दूर हुए लोग कुछ आपसी जरूरतों के चलते दूर तो हो जाते हैं, लेकिन अपने दिल को यहीं छोड़ देते हैं जो रह रहकर उसे भारत की याद दिलाता रहता है। देष-विदेष में भारत के ढाई करोड़ लोग रहते हैं, लेकिन इनके सीने में कहीं न कहीं भारतीय जज्बात उमड़ते हैं, दिलों में धड़कन भी भारतीय रहती है। हालांकि आपाधापी में ये स्वयं को भूल जाते हैं, लेकिन जब भी अकेले में स्वयं को खोजने की कोषिष करते हैं, इन्हें इनका अस्तित्व भारत से ही जुड़ा मिलता है। यह प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। व आसमान की बुलंदी पर भी पहुंच जाए, या भारत से सैकड़ों मिल दूर सात समुंदर पार हो, जब भी उसका मन उदास होता है, उसे अपना वतन ही याद आता है। वतन की चमक न तन से जाती है और न ही मन से। आज भले ही हम अपनों से दूर चले आए हों अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए, लेकिन जब भी सिसकन उठती है, उसी भारत की ही उठती है। यहां का हर पल, हर मौसम और त्योहार हमारे दिलों में सैकड़ों गुबार उठाता है। मन करता है कहीं से कोई ष्षक्ति मिल जाए और भारत होकर आ जाउूं। यह कोई एक नहीं, बल्कि हर हिंदुस्तानी दिल कहता है।
तो जब ये दिल हिंदुस्तानी है और हिंदुस्तान के लिए, अपनों के लिए तड़पता है तो हम क्यों उसे छोड़कर चले जाते हैं। इसके पीछे ज्यादा गहराई नहीं है, लेकिन कई बार हमारे हालात हमें मजबूर कर देते हैं कि हम बाहर जाकर कुछ करें, हमारी जिंदगी जहन्नुम बनी रहती है, उससे निजात पाने के लिए इस तरह के कदम उठाए जाते हैं। सैकड़ों लोग हालात के मारे और वक्त के हारे रहते हैं जो दूर देष जाने का कदम उठाते हैं। जो मर्जी से जाते हैं उनका तो ठीक, लेकिन जिन्हें हालातों के चलते अपने मुल्क से अलविदा कहना होता है, निष्चय ही वो बहुत ही दुःखद होता है। उनके जिस्म एक मुल्क में जान दूसरे मुल्क में रहते हैं। विभाजन के दर्द को देखें तो ऐसे कई परिवार मिल जाएंगे, जिन्हें कब्र नसीब हो गई, लेकिन परिवार से मिलने का मौका नहीं मिल सका। इस दर्द को वो भगवान और अल्लाह के पास लेकर चले गए। कई बार तो हालात यहां तक हो गए कि उनकी अर्थी को कांधा किसी बाहर वाले ने दिया और कब्र को किसी और ने दफनाया। यह है विभाजन का दर्द, अपनों से बिछड़ने का गम। विभाजन की यह त्रासदी और और मर्जी से दूर जाने में दर्द में भले ही अंतर आ जाता है, लेकिन वतन में आने और यहां रहने की तड़प में हर दिल मचलता है। तो हम क्यों अपने दिल की क्यों नहीं सुनते हैं, तोड़ सारे बंधन, छोड़ दो सारे माया-मोह। और आ जाओ अपनी जमीं पर, अपने वतन पर। क्योंकि यह देष हमारा है और यहां की माटी हमें कर्ज उतारने के लिए पुकार रही है।